Thursday 17 October 2024

उत्तर प्रदेश के उपचुनाव सभी के लिए चुनौती


लोकसभा चुनावों में जोरदार कामयाबी के बाद उत्तर प्रदेश की 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के लिए चुनौती है। हरियाणा की अप्रत्याशित सफलता के बाद से उत्साहित भाजपा के सामने अब झारखंड व महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के साथ उत्तर प्रदेश में होने वाले दस विधानसभा सीटों में से 9 पर उपचुनाव की बड़ी चुनौती है। याद रहे कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश से ही बड़ा झटका लगा था। जिसकी वजह से वह अपने दम पर स्पष्ट बहुमत हासिल करने में चूक गई थी। उत्तर प्रदेश में जिन दस सीटों पर उपचुनाव होने हैं इनमें नौ सीटें विधायकों के लोकसभा सांसद बनने से खाली हुई हैं। जबकि सीसामऊ की एक सीट पर चुनाव सपा विधायक इरफान सोलंकी की सदस्यता रद्द होने से हो रहा है। इन दस सीटों में सपा के पास 5, भाजपा के पास तीन और दो सीटें उसके सहयोगी रालोद व निषाद पार्टी के पास हैं। इसमें अयोध्या की अति प्रतिष्ठित सीट मिल्कीपुर भी शामिल है। भाजपा के एक प्रमुख नेता ने कहा है कि विधानसभा चुनाव में आमतौर पर स्थानीय मुद्दों व सामाजिक समीकरणों से प्रभावित होता है। ऐसे में इनको लोकसभा चुनाव के परिणामों से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। अब हरियाणा से निकला जाट बनाम गैर जाट ओबीसी का यह नैरेटिव आगे बढ़ता है तो भाजपा की यूपी में चिंता बढ़ाएगा। दरअसल भाजपा को खासतौर पर उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन को मजबूत बनाए रखना है। वहां भाजपा हरियाणा की तरह यादव बनाम अन्य ओबीसी नहीं कर सकती। क्योंकि यादवों का करीब-करीब एक मुश्त वोट सपा के समर्थन में रहता है। मगर सपा-कांग्रेस गठबंधन जाटों के साथ दलित और मुस्लिम समीकरण बनाते हैं तो भाजपा की राह पथरीली हो जाती है। अन्य ओबीसी में सेंध लगाकर सपा से पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी लोकसभा चुनाव में भाजपा का नुकसान कर दिया। वैसे सीएम योगी का कटेंगे तो बटेंगे वाला बयान इस प्रयास का हिस्सा है। वहीं, भाजपा पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष व योगी सरकार के पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री नरेन्द्र कश्यप को विश्वास है कि जाट नाराज नहीं हैं। भाजपा को रालोद से गठबंधन का भी लाभ मिलेगा। उधर यह उपचुनाव इंडिया और विशेषकर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती पेश करेंगे। कांग्रेस ने 10 सीटों में से पांच पर दावा किया है। उधर अखिलेश यादव ने 6 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नाम घोषित कर दिए हैं। अब सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि कांग्रेस और सपा के बीच सीटों के बंटवारे पर सहमति बनती है या नहीं। अखिलेश ने यह तो घोषणा कर दी है कि यूपी में सपा-कांग्रेस का गठबंधन जारी रहेगा। हरियाणा परिणामों के बाद कांग्रेस की सौदेबाजी करने की स्थिति अब मजबूत नहीं है। हमें लगता है कि सीट बंटवारे में ज्यादा मुश्किल नहीं होगी। लोकसभा में अभूतपूर्व सफलता के बाद अखिलेश के सामने यह उपचुनाव जीतने की भारी चुनौती है। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भी सियासी भविष्य इस चुनाव पर टिका हुआ है। यह किसी से नहीं छिपा की दिल्ली उनको हटाना चाहती है। वह देख रही है कि इन उपचुनावों का परिणाम क्या होता है। इन उपचुनावों में जहां मोदी-शाह-योगी की इज्जत दांव पर लगी है वहीं इंडिया एलायंस, अखिलेश यादव और कांग्रेस की भी प्रतिष्ठा दांव पर है।

-अनिल नरेन्द्र

 

सवाल बाबा सिद्दीकी की हत्या की टाइमिंग पर


महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री और अजित पवार की पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के वरिष्ठ नेता बाबा सिद्दीकी के शव को रविवार शाम राजकीय सम्मान के साथ मुंबई के बड़ा कब्रिस्तान में दफनाया गया। बाबा सिद्दीकी की अंतिम यात्रा से पहले उनके आवास के बाहर नमाज-ए-जनाजा पढ़ी गई। अंतिम यात्रा में हजारों की संख्या में लोग पहुंचे थे। इस मामले में शनिवार रात गिरफ्तार हुए दो लोगों में से एक शुभम लोनकर के भाई प्रवीण लोनकर को रविवार को पुणे से गिरफ्तार किया गया। माना जाता है कि प्रवीण लोनकर ने अपने भाई शुभम लोनकर के साथ मिलकर साजिश रची थी। प्रवीण लोनकर ने ही धर्मराज कश्यप और शिव कुमार गौतम को इस साजिश में शामिल किया था। धर्मराज कश्यप और गुरमेल सिंह पुलिस हिरासत में हैं। तीसरा अभियुक्त शिव कुमार फरार बताया जाता है और चौथे अभियुक्त मोहम्मद जीशान अख्तर के बारे में कहा जा रहा है कि वो बाकी तीन को गाइड कर रहा था। बाबा सिद्दीकी की शनिवार रात गोली मारकर हत्या के बाद महाराष्ट्र में कानून व्यवस्था के ध्वस्त होने पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। एक प्रेस कांफ्रेंस में मुंबई क्राइम ब्रांच के पुलिस आयुक्त दत्ता नलवाडे ने कहा है कि इस मामले में लारेंस बिश्नोई गैंग की भूमिका को लेकर जांच की जा रही है। बता दे कि लारेंस बिश्नोई इस समय अहमदाबाद की साबरमती जेल में एक साल से बंद है। प्रश्न यह भी उठ रहा है कि इतनी दूर से वो भी अतिसुरक्षित जेल से लारेंस बिश्नोई ऐसे जोखिम भरे हत्याकांड को कैसे अंजाम दे सकता है? क्या लारेंस बिश्नोई महज एक सुविधाजनक मैन है और उसके पीछे असल चेहरा और साजिश छिपी हुई है? बाबा सिद्दीकी की हत्या के बहुत बड़े मायने हैं और इसका चौतरफा असर हो सकता है। हरियाणा में भाजपा की जीत के बाद महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए बड़े जोश से भर गई भाजपा और एनडीए को इस हत्या ने बचाव की मुद्रा में ला दिया है। दोनों राज्यों में जल्द चुनाव होंगे। घोषणा से ठीक पहले इस हत्या के सियासी मायने के अलावा अपराधों के नजरिए से भी बड़ा मतलब है। क्या लारेंस बिश्नोई दाउद इब्राहिम की राह पर चलने की कोशिश कर रहा है? क्या मुंबई में 90 के दशक के गैंगवार की स्थिति फिर से स्थापित करने की कोशिश की जा रही है? दशहरे के दिन उद्धव ठाकरे और सीएम एकनाथ शिंदे ने मुंबई के दो बड़े मैदानों में अलग-अलग बड़ी सभाएं की। उसके थोड़ी देर बाद बांद्रा ईस्ट जैसे एरिया से बाबा सिद्दीकी की घटना घटती है। इसका असर दिल्ली तक महूसस किया गया है। मल्लिकार्जुन, राहुल गांधी से लेकर शरद पवार, उद्धव ठाकरे और संजय राउत तक हमलावर हो गए। बाबा सिद्दीकी तीन बार कांग्रेस के विधायक और राज्य सरकार में मंत्री रहे थे। छह महीने पहले ही वह अजित पवार गुट में शामिल हुए थे। बाबा और अन्य कुछ नेताओं से सलाह कर अजीत पवार विधानसभा में कुछ मुस्लिम नेताओं को टिकट देना चाहते थे। मकसद था मुस्लिम समुदाय में उनका अच्छा संदेश देना पर अब उल्टा मैसेज चला गया है। कानून-व्यवस्था पर विपक्ष के निशाने पर देवेन्द्र फडण्वीस जो गृह मंत्री भी हैं महाराष्ट्र के। चुनाव सिर पर आ गया है और इस समय हत्या पर भी प्रश्नचिह्न लगता है। हत्या की टाइमिंग पर गौर करे। ठीक विधानसभा चुनाव से पहले बाबा सिद्दीकी की हत्या से किस को और किन ताकतों को फायदा होगा? सवाल महाराष्ट्र पुलिस पर भी उठ रहे हैं। दूसरी तरफ लारेंस बिश्नोई जैसे गिरोह सरगनाओं की ओर से लगातार वारदात करने से देश और राज्यों के खुफिया तबके के अलावा पुलिस व अन्य एजेंसियों पर भी सवालिया निशाना लग रहे हैं।

Tuesday 15 October 2024

जेलों में जातिगत भेदभाव


जेलों में जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी। इतनी ही प्रशंसा उस रिपोर्ट या याचिका की भी होनी चाहिए जिसने सदियों से चली आ रही इस कुप्रथा पर प्रहार का जरूरी साहस दिखाया। सुप्रीम कोर्ट ने देशभर के 11 राज्यों में जेल मैनुअल में जाति आधारित भेदभाव वाले प्रावधानों को खारिज करते हुए कहा कि आजादी के 75 वर्ष बीत चुके हैं। लेकिन हम अभी तक जाति आधारित भेदभाव को जड़ से समाप्त नहीं कर पाए हैं। ऐतिहासिक फैसले में जेलों में जाति के आधार पर कैदियों के बीच काम के बंटवारे को असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि भेदभाव बढ़ाने वाले सभी प्रावधानों को खत्म किया जाए। शीर्ष अदालतों ने राज्यों के जेल मैनुअल के जाति आधारित प्रावधानों को रद्द करते हुए सभी राज्यों को फैसले के अनुरूप तीन माह में बदलाव का निर्देश दिया है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला व जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि भेदभाव करने वाले सभी प्रावधान असंवैधानिक ठहराये जाते हैं। पीठ ने जेल में जातिगत भेदभाव पर स्वत संज्ञान लेते हुए रजिस्ट्री को तीन महीने बाद मामले को सूची करने का निर्देश दिया। इस फैसले को सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने महिला पत्रकार सुकन्या शांता की तारीफ करते हुए कहा कि सुकन्या शांता आपके रोषपूर्ण लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। आपके लेख से ही इस मामले की सुनवाई की शुरुआत हुई। पता नहीं इस लेख के बाद हकीकत कितनी बदली होगी, लेकिन हमें उम्मीद है कि इस फैसले से हालात बेहतर होंगे। जब लोग लेख लिखते हैं। शोध करते हैं और मामलों को अदालतों के सामने इस तरह से लाते हैं कि समाज की वास्तविकता दिखा सकें, तो हम इन समस्याओं का निदान कर सकते हैं। ये सभी प्रक्रियाएं कानून की ताकत को रेखांकित करती हैं। सुकन्या शांता द वायर डिजिटल प्लेटफार्म के लिए काम करती हैं। उन्होंने भारत के विभिन्न राज्यों में जेलों में जाति-आधारित भेदभाव पर रिपोर्टिंग कर एक सीरिज की। इस सीरिज में उन्होंने कैदियों को जाति के आधार पर दिए जाने वाले काम और जाति के आधार पर कैदियों के साथ भेदभाव जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर किया। इस सीरिज के प्रकाशित होने के बाद राजस्थान हाईकोर्ट ने स्वत संज्ञान लिया। इसके बाद सुकन्या ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और फैसला अब आपके सामने हैं। सरकारी दस्तावेजों में जाति नाम चिह्नित करना अनिवार्य है। कानून में संशोधन कर इस तरह के भेदभाव समाप्त करने में सरकारें संकुचाती हैं। क्योंकि जाति आधारित राजनीति करने में ये माहिर हैं। इसलिए उनकी प्राथमिकताओं में अंग्रेजों के बनाए नियमों को सुधारने की बात ही नहीं उठती। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के बावजूद हम अब तक जातियों के पूर्वाग्रह और अंतहीन जंजाल से निकलने में पूर्णत असफल रहे हैं। अपराधियों को सजा बेशक अदालत देती है पर कैद के दौरान उनके साथ किया जाने वाला जेल अधिकारियों का बर्ताव भी कई दफा पक्षपाती होता है। ये सलाह सिर्फ जेल नियमावली तक ही नहीं सीमित होना चाहिए। बल्कि इस तरह का सुधारवादी कदम पूरे समाज में सख्तीपूर्वक लागू किए जाने की जरूरत है। ये छुआछात या जाति-आधारित भेदभाव से समाज को मुक्त कराने की जरूरत है। अदालत ने पहल कर दी है।

-अनिल नरेन्द्र

हरियाणा चुनाव ः किस पर दबाव कम हुआ किस पर बढ़ा


आरक्षण और संविधान पर खतरे को लेकर विपक्ष की बनाई धारणा के कारण लोकसभा चुनाव में पहुंचे नुकसान के बाद हरियाणा के नतीजे नरेन्द्र मोदी और भाजपा के लिए संजीवनी से कम नहीं है। हरियाणा में जीत की हैट्रिक और जम्मू-कश्मीर में पहले के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन से न सिर्फ मोदी पर दबाव कम होगा बल्कि पार्टी का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। मोदी जी पर पिछले कुछ समय से दबाव लगातार बढ़ता जा रहा था। पार्टी के अंदर बढ़ते मतभेद, विपक्ष का तीखा हमला और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से बढ़ती आलोचना। मोदी नड्डा कई मोर्चो पर एक साथ लड़ रहे थे। हरियाणा के चुनाव परिणाम अगर भाजपा के खिलाफ आते तो संघ का मोदी-शाह जोड़ी पर और दबाव बढ़ता और प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति से लेकर मोदी सरकार की नीतियों पर जो हमले हो रहे थे इनमें और तेजी आ जाती। मोदी ब्रैंड पर प्रश्नचिह्न लगने शुरू हो गए थे। पार्टी के अंदर यह आशंका भी जाहिर की जा रही थी कि अब मोदी ब्रांड चुनाव में चल ही रहा है। हरियाणा के परिणामों से न केवल इन अटकलों, आलोचनाओं पर विराम लगा बल्कि अगले कुछ महीनों में महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव के अलावा उत्तर प्रदेश में अहम माने जाने वाले दस विधानसभा सीटों के उपचुनाव पर भी इसका असर पड़ेगा। वहीं दूसरी ओर राहुल गांधी और कांग्रेsस पार्टी की इस हार की वजह से उन पर दबाव बढ़ेगा। राहुल गांधी जीत के दावे कर रहे थे। वोEिटग से पांच दिन पहले एक्स पर राहुल ने लिखा था, हरियाणा में दर्द के दशक का अंत करने के लिए कांग्रेस पार्टी पूरी शक्ति के साथ एकजुट है, संगठित है, समर्पित है। ये दावे कितने खोखले निकले परिणामों ने बता दिए। कई विश्लेषक इस हार को राहुल गांधी की व्यक्तिगत हार मान रहे हैं। लेकिन हमारा ऐसा मानना नहीं है। राहुल ने ईमानदारी से पूरी ताकत लगाई पर न तो स्थानीय नेताओं ने साथ दिया न ही संगठन ने। अब राहुल रैली में आई भीड़ को पोलिंग बूथ पर तो नहीं ले जा सकते। पर हो राहुल व कांग्रेस की इंडिया गठबंधन में बारगेनिंग की पोजीशन कम जरूर हुई है। होनी भी चाहिए थी क्योंकि कांग्रेस को कुछ ज्यादा अहंकार हो गया था। इसे आप पार्टी व समाजवादी पार्टी को साथ हरियाणा में लड़ना चाहिए था। अहीरवाल क्षेत्र में अखिलेश यादव की एक-दो सभा करनी चाहिए थी। इस हार से राहुल, प्रियंका और सोनिया को इतना तो समझ आ गया होगा कि पार्टी के अंदर बैठे जयचंदों से कैसे निपटा जाएगा। लोकसभा चुनाव में मिली जीत के बाद जिस तरह विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लाक में कांग्रेस का रुतबा बढ़ा था हरियाणा की हार से उस पर पानी फिरता दिखाई दे रहा है। उसके सहयोगी दल ही उन्हें आंखें दिखाने लगे हुए हैं। उधर उत्तर प्रदेश में सपा ने उपचुनाव के लिए अपने छह उम्मीदवारों की घोषणा कर दी हैं इनमें दो सीटें वह भी है जिन पर कांग्रेस दावा कर रही थी। सहयोगी आरोप लगा रहे हैं कि जहां कांग्रेस मजबूत स्थिति में होती है वहां वह सहयोगियों को एडजस्ट नहीं करती है। जम्मू-कश्मीर, हरियाणा के नतीजों का राहुल के नेतृत्व पर क्या असर पड़ेगा ये कहना जल्दबाजी होगी। अभी दो राज्यों के चुनाव बाकी हैं, जिनमें महाराष्ट्र और झारखंड शामिल हैं। इन दोनों राज्यों में राहुल गांधी के सामने चुनौती बढ़ गई है। इस बात में कोई शक नहीं कि कांग्रेस का पलड़ा हल्का हुआ है। टिकट बंटवारे इत्यादि में गठबंधन की पार्टियां अब कांग्रेस पर अतिरिक्त दबाव डाल सकती हैं। कुल मिलाकर मैंने जैसे कहा कि नरेन्द्र मोदी की छवि बढ़ी है। उन पर दबाव कम हुआ है और राहुल गांधी की मेहनत को धक्का लगा है और उन पर दबाव बढ़ा है।

Friday 11 October 2024

सीटें तो बढ़ी पर कश्मीरियों का दिल नहीं जीत पाई

जम्मू-कश्मीर में भाजपा सत्ता तक तो नहीं पहुंच पाई लेकिन 25.63 फीसदी के साथ सबसे ज्यादा वोट शेयर करने में सफल रही। 2014 में उसे 22.98 प्रतिशत वोट मिले थे। पार्टी को राज्य में अब तक की सबसे ज्यादा सीटें भी मिली हैं। 2014 में भाजपा को पहली बार 25 सीटें मिली थीं। इस बार 29 सीटों पर पहुंच गई। भाजपा को 1987 के बाद साढ़े तीन दशक में सबसे बड़ी सफलता मिली है। हालांकि कश्मीर संभाग में 18 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, पर एक भी नहीं जीत सका। चुनाव में लोगों को राहुल-अब्दुल्ला का साथ रास आया और 1987 के बाद पांचवीं बार गठबंधन सरकार का रास्ता साफ हुआ। नेशनल कांफ्रेंस के साथ गठबंधन पर कांग्रेस सत्ता तक पहुंचने में तो सफल रही, लेकिन सीटों के साथ वोट शेयर भी घट गया। 2014 में कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में 18.01 फासदी मत प्रतिशत के साथ 12 सीटों पर जीत दर्ज की थी। जबकि इस चुनाव में उसे कुल 6 सीटें मिली और मत प्रतिशत भी गिर कर 11.97 प्रतिशत रह गया। दस साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में पीडीपी को भारी झटका लगा है। 2014 में भाजपा के साथ सरकार बनाने की उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी। खुद चुनाव से दूर रहकर महबूबा मुफ्ती ने अपनी बेटी इल्तिजा पर दांव लगाया था, लेकिन यह दांव उल्टा पड़ा और उन्हें हार का सामना करना पड़ा। पीडीपी का मत प्रतिशत भी गिरकर 8.87 फीसदी रह गया जो 2014 के चुनाव में 22.67 प्रतिशत था। 2014 में पीडीपी को 28 सीटें मिली थीं। इल्तिजा मुफ्ती का कहना है कि भाजपा के साथ गठबंधन की वजह से पार्टी की हार नहीं हुई। कई कारण रहे। घाटी में नेशनल कांफ्रेंस-पीडीपी में से एक को जनता ने मौका दिया। अनुच्छेद 370 व 35ए की बेड़ियों से जम्मू-कश्मीर की आजादी दिलाने के बाद केंद्र शासित प्रदेश में पहली सरकार बनाने का भाजपा के सपनों को न केवल झटका लगा है बल्कि अपने बलबूते पहली बार सूबे में सरकार बनाने का दावा भी खोखला निकला। भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग के तहत पहली बार जेके में अनसूचित जाति (एसटी) को राजनीतिक आरक्षण देते हुए विधानसभा की नौ सीटें आरक्षित कीं। पर यहां भी उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। भाजपा को तमाम जतन के बाद भी पोरागंल में जोरदार झटका लगा। राजौरी-पुंछ की आठ में एसटी के लिए आरक्षित पांच सीटों पर वह करिश्मा नहीं कर सकी। इन दोनों जिलों की सात सीटों भाजपा हार गई। केवल चार-पांच सीटों की उम्मीद थी। भाजपा को यहां केवल बालाकोट-सुंदरबन सीट पर ही जीत मिली। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रविन्द्र रैना भी हार गए। खास बात यह रही कि पहाड़ी समुदाय को पहली बार भाजपा ने अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिया था और उसे उम्मीद थी कि पहाड़ी समुदाय भाजपा का साथ देगी। गृहमंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की रैलियां भी काम नहीं आई। चिनाव वैली में पिछला प्रदर्शन दोहराने में सफल रही। -अनिल नरेन्द्र

फसल बोई कांग्रेस ने, काटी भाजपा ने

हरियाणा राज्य के चुनावी इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी पार्टी ने लगातार तीन बार विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की हो। हरियाणा में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी अपनी जीत के जोर-शोर से दावे कर रही थी। तमाम सर्वेक्षण, पोल सर्वे, विश्लेषक कांग्रेस की जबरदस्त जीत की भविष्यवाणी कर रहे थे। जानकार भी हरियाणा में बीते इस साल में भाजपा की सरकार को लेकर सत्ता विरोधी लहर का दावा कर रहे थे। एग्जिट पोल में कांग्रेस को न केवल जीतते हुए दिखाया गया बल्कि 90 सीटों में से कांग्रेsस को करीब 60 तक की सीटें मिलने का दावा कर रहे थे। कहा गया था कि हरियाणा में किसानों का मुद्दा हो, पहलवानों का मुद्दा हो, अग्निवीर जैसा मुद्दा हो इनकी वजह से भाजपा सरकार के प्रति नाराजगी है। दावा तो यहां तक किया जा रहा था कि यह चुनाव हरियाणा की जनता बनाम भाजपा है। हरियाणा में दस साल बाद कांग्रेस अपनी सरकार बनाने का सपना पालती रही के हाथों में करारी हार लगी। वजह कई रही। इन नतीजों के पीछे सबसे बड़ी वजह रही है भाजपा का माइक्रो मैनेजमेंट। इसका असर हुआ कि हुड्डा के गढ़ सोनीपत की पांच में से चार सीटों पर कांग्रेस हार गई। हरियाणा के एक वरिष्ठ पत्रकार के मुताबिक हरियाणा में करीब 22 फीसदी जाट वोट हैं जो काफी लोकल हैं यानि खुलकर अपनी बात रखते हैं। गैर-जाटों को लगा कि कांग्रेस के जीतने पर भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ही हरियाणा के मुख्यमंत्री बनेंगे इसलिए उन्होंने खामोशी से भाजपा के पक्ष में वोट दिया। इस बार के विधानसभा चुनावों में वोटों का बंटवारा जाट और गैर-जाट के आधार पर हो गया, जिसका सीधा नुकसान कांग्रेsस को हुआ। हरियाणा में कांग्रेsस की हार के पीछे एक बड़ा कारण था पार्टी के अंदर गुटबाजी। जानकार मानते हैं कि राज्य में कांग्रेस के उम्मीदवारों को इस तरह से भी देखा जा रहा था कि कौन हुड्डा खेमे से है, कौन शैलजा खेमे से है। यही नहीं कांग्रेस के कई उम्मीदवारों को आलाकमान यानि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के कहने से मैदान में उतारा गया जिनका हरियाणा में कोई जनाधार नहीं था। इनमें से प्रमुख नाम लिया जा रहा है कांग्रेस संगठन मंत्री के सी वेणुगोपाल का। वेणुगोपाल ने सुना है 5 नाम दिए थे, सभी पांच हार गए। हुड्डा और शैलजा की आपसी खींचतान से भी पार्टी को नुकसान हुआ। शैलजा का घर बैठना और यह कहना कि पार्टी में उनका अपमान हुआ है ने दलित वोटों को खिसका दिया और इसका फायदा भाजपा को हुआ। हरियाणा में गुटबाजी और गलत तरीके से टिकट बांटने की वजह से कांग्रेस को लगभग 13 सीटें गंवानी पड़ी। इनमें आलाकमान, हुड्डा और शैलजा तीनों के चुनिंदा उम्मीदवार थे। कांग्रेsस के कई नेताओं का ध्यान चुनावों से ज्यादा चुनाव जीतने के पहले ही मुख्यमंत्री कुर्सी पर था। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने कहा है कि इन चुनावों का सबसे बड़ा सबक यही है कि अति आत्म विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। दूसरी ओर भाजपा ने 25 सीटों पर अपने उम्मीदवार बदल दिए थे। इनमें 16 उम्मीदवारों ने जीत हासिल कर ली। कांग्रेस ने अपने किसी विधायक का टिकट नहीं काटा और उसके आधे उम्मीदवारों की हार हो गई। उम्मीदवारों को नहीं बदलना भी कांग्रेsस के लिए बड़ा नुकसान साबित हुआ। हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों में से यह बात भी सामने आई कि 10 से ज्यादा सीटों पर छोटे दल और निर्दलीय उम्मीदवार कांग्रेsस की हार के पीछे बड़ी वजह रही हैं। भाजपा ने उन सभी सीटों पर कांग्रेस विरोधी उम्मीदवारों की मदद की। खासकर उन जगहों पर जहां उसकी जीत की संभावना कम थी और कांग्रेस की जीत भी स्पष्ट नहीं दिख रही थी। कांग्रेस के संगठन में एक बार फिर कमी दिखाई दी। वो उमड़ती भीड़ को वोटों में तब्दील नहीं कर सके और अति उत्साह में जीती बाजी हार गई। इसलिए कहता हूं कि फसल बोई कांग्रेस ने, काटी भाजपा ने।

Thursday 10 October 2024

सिर्फ सरकार की आलोचना पर केस नहीं हो सकता

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी पत्रकारिता कर रहे लोगों के लिए सुकून दे ही, हो सकती है कि सरकार की आलोचना करना पत्रकारों का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने गत शुक्रवार को कहा कि पत्रकारों के अधिकारों को देश के संविधान 19(1) के तहत संरक्षित किया गया है। एक पत्रकार के लेखन को सरकार की आलोचना के रूप में मानकर उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज नहीं किए जाने चाहिए। यह टिप्पणी करते हुए शीर्ष अदालत ने उत्तर प्रदेश के पत्रकार अभिषेक उपाध्याय की गिरफ्तारी से अंतरिम संरक्षण प्रदान किया। साथ ही निर्देश दिया कि राज्य प्रशासन उनके लेख के संबंध में कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं करेगा। न्यायमूर्ति ऋषिकेश राय और न्यायमूर्ति एनवीएन भट्टी की पीठ ने पत्रकार अभिषेक उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया। याचिका में उपाध्याय ने उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा उनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने का अनुरोध किया है। पीठ ने याचिका पर उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किया है। इस मामले की अगली सुनवाई अब पांच नवम्बर को होगी। अपने संक्षिप्त आदेश में पीठ ने पत्रकारिता की स्वतंत्रता के संबंध में कुछ प्रासंगिक टिप्पणियां की। पीठ ने कहा कि लोकतांत्रिक देशों में अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाता है। पत्रकारों के अधिकारों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत संरक्षित किया जाता है। केवल इसलिए कि एक पत्रकार के लेखन से सरकार की आलोचना के रूप में माना जाता है, लेखक के खिलाफ आपराधिक मामला नहीं लगाया जाना चाहिए। दरअसल, सरकारों को अपनी आलोचना करनी रास नहीं आती, मगर पिछले कुछ वर्षों में सरकारें इसे लेकर प्रकट रूप से सख्त नजर आने लगी हैं। सरकार के खिलाफ अखबारों में खबरें, लेख या कोई वैचारिक टिप्पणी करने पर कई पत्रकारों को प्रताड़ित करने की घटनाएं सामने आई हैं। यहां तक कि कुछ पत्रकारों पर गैरकानूनी गतिविधि निवारण अधिनियम के तहत भी मुकदमें दर्ज किए गए हैं, जिसमें जमानत मिलना मुश्किल होती है। इस धारा के तहत कई पत्रकार अब भी सलाखों के पीछे हैं। कुछ मामलों में पहले ही सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है कि सरकार की आलोचना देशद्रोह नहीं माना जा सकता। मगर किसी सरकार ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। किसी देश की पत्रकारिता कितनी स्वतंत्र है और कितने साहस के साथ अपने सत्ता प्रतिष्ठान की आलोचना कर पा रही है, उससे उस देश की खुशहाली का भी पता चलता है। यह उदाहरण नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में विश्व खुशहाली सूचकांक में भारत निरंतर नीचे खिसकता गया है। सवाल यह है कि सरकार माननीय सर्वोच्च न्यायालय की नसीहत को कितनी गंभीरता से लेती है और स्वतंत्र पत्रकारिता करने की इजाजत देती है? -अनिल नरेन्द्र