Saturday 24 December 2011

नौ साल बाद अमेरिकी इराक से खिसके


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 25th December 2011
अनिल नरेन्द्र
सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाने के लिए छेड़ी गई जंग के नौ साल बाद इराक में तैनात अमेरिका के आखिरी सैनिक ने रविवार तड़के इराकी सीमा पार कर कुवैत में प्रवेश किया और इसके साथ ही अमेरिका का इराक पर कब्जा एक तरह से समाप्त हो गया। एक सादे समारोह में अपने सैन्य धड़े को उतारने के साथ पिछले नौ सालों से चल रही अमेरिकी सैन्य कार्रवाई की समाप्ति हो गई। विडम्बना देखिए कि जब अमेरिकी सैनिकों की आखिरी टुकड़ी इराक छोड़ रही थी उस समय इराकी सैनिक बैरकों में सो रहे थे। जिन सैनिकों ने नौ सालों तक अमेरिकी गठबंधन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर `वॉर ऑन टेरर' लड़ी थी उन्होंने शुक्र मनाया कि अमेरिकी उनके देश से हटे। अब अमेरिकी दूतावास पर कुछ सौ सैनिक ही बचे हैं। एक वक्त था जब इराक में 505 ठिकानों में तकरीबन एक लाख 70 हजार सैनिक थे। सार्जेंट हुमान आस्टिन ने कुवैत में अपने वाहन से निकलने के बाद कहा कि इराक से निकलना `अच्छा लगा, सचमुच अच्छा लगा।' पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश द्वितीय द्वारा वॉर ऑन टेरर एण्ड डिस्ट्रक्शन ऑफ मॉस डिस्ट्रक्शन वैपेंस अभियान में करीब साढ़े चार हजार अमेरिकी और एक लाख इराकी लोगों की जानें गईं। इसके साथ ही इस घातक जंग ने अमेरिका को दिवालिया बना दिया और अमेरिकी खजाने से 800 अरब डालर खर्च हुए। 17.5 करोड़ इराकी विस्थापित हो गए। अमेरिकी सैनिकों की वापसी के साथ ही इराक में सांप्रदायिक तनाव, हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता की चिन्ता सत्ता रही है। अमेरिका अपनी पीठ ठोंक रहा है। अमेरिकी रक्षामंत्री लियोन पेनेटा ने कहा कि अमेरिकी और इराकी लोगों के खून बहाने के बाद आखिरकार इराक के खुद पर शासन कर पाने और अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का लक्ष्य पूरा हो गया। सद्दाम हुसैन को तो फांसी पर लटका दिया पर परिणाम क्या निकला? पहले से ज्यादा अस्थिरता हो गई है और आज देश में राजनीतिक ऊहापोह की हालत बनी हुई है। इराक आज भी सुन्नी-शिया संघर्ष, नाजुक सत्ता साझेदारी, भ्रष्टाचार और कमजोर अर्थव्यवस्था के साथ संघर्ष कर रहा है। अलकायदा ने इराक के फाजुल्का को अपना गढ़ बना लिया है और वहां अमेरिकी वापसी का बाकायदा जश्न मनाया गया। लोगों ने अमेरिकी झंडे जलाए और अपने मृत रिश्तेदारों की तस्वीरें हवा में लहराईं। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इराकी प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकि को बताया कि वाशिंगटन अपने सैनिकों की वापसी के बाद भी उसका रॉयल पार्टनर बना रहेगा। आज तक हमें यह नहीं समझ आया कि बुश ने आखिर इराक पर हमला क्यों किया? कहा गया था कि इराक में सद्दाम के पास वैपेंस ऑफ मॉस डिस्ट्रक्शन है और इन पर कब्जा करना जरूरी है पर नौ सालों में अमेरिका एक भी ऐसा हथियार या फैक्ट्री नहीं दिखा सका जिससे यह आरोप साबित होता। न तो इराक में कोई परमाणु हथियार मिला और न ही वहां की जनता को `मुक्ति' मिली। इसके विपरीत `आक्रामणकारी सेना' के खिलाफ इराक में विद्रोह तब तक जारी रहा, जब तक आखिरी विदेशी सैनिक ने गुपचुप तरीके से देश नहीं छोड़ा। क्या अमेरिका को यह डर था कि जाते हुए सैनिकों पर विद्रोही हमला कर देंगे? वास्तविक अर्थों में अमेरिका यह युद्ध जीत नहीं पाया और न ही उसे राजनीतिक विजय ही मिली। जो अमेरिका के पक्ष में खड़े थे, वे भी साथ छोड़ गए। नए शासक जो परोक्ष रूप से अमेरिका की सहायता से सत्ता में आए, ज्यादा दिनों तक अमेरिकी सलाह से बंधे हुए नहीं रहे। ऐसा लगता है कि इराक को अमेरिका ने गंवा दिया है। सही बात तो यह है कि वाशिंगटन कभी भी बगदाद को जीत नहीं सका। क्या इसका मतलब यह है कि इराकियों ने विदेशी कब्जे के खिलाफ लड़ाई जीत ली है। क्या यह माना जाए कि अमेरिकी सैन्य अभियान का भी वही हश्र हुआ है जो इसका वियतनाम में हुआ था। बेशक आज अमेरिका दावा करे कि उसने यह जंग जीत ली है पर हकीकत यह है कि अमेरिका यहां भी हार गया है। कम से कम वह उद्देश्य पूरा नहीं कर सका जिसके लिए वह इराक गया था। इराक के सामने शायद आज सबसे बड़ी चुनौती देश में स्थिरता लाने की है, राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक स्थिरता और यह काम आसान नहीं होगा। अमेरिकी सैन्य अभियान के कारण पूरे मध्य पूर्व में कट्टरवाद को बढ़ावा मिला है। अलकायदा को पांव पसारने का मौका मिला है। फिर सुन्नी, शिया, कुर्द संघर्ष तेज हुआ है। आज इराक में कई सत्ता केंद्र बन गए हैं। देखा जाए तो युद्ध के बाद इराकी राष्ट्रवाद के नाम पर कुछ नहीं बचा है। बिल्कुल बंटा हुआ समाज छोड़कर अमेरिकी भागे हैं। अमेरिकी अपने पीछे 30 करोड़ डालर के हथियार इराकी सेना के सम्भावित उपयोग के लिए छोड़ गए हैं, क्योंकि उन्हें अफगानिस्तान या वापस अमेरिका ले जाने का खर्चा बहुत ज्यादा हो सकता था। अमेरिकी नजरिये से देखा जाए तो इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपना वादा निभाया। राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने इराक युद्ध के खिलाफ अभियान चलाया था और 2012 के राष्ट्रपति चुनाव का सामना करने से काफी पहले ही उन्होंने यह वादा निभा दिया है। उम्मीद है कि इराक में इस घातक सैन्य अभियान की समाप्ति से अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर भी मरहम लगेगी और उस पर जो इतना बोझ था वह कम होगा। अमेरिकी इतिहास में यह जरूर पूछा जाएगा कि अमेरिका ने इराकी सैन्य अभियान में क्या खोया और क्या पाया? जॉर्ज बुश हीरो थे या विलेन?
Anil Narendra, Daily Pratap, Iraq, Labels: America, Obama, USA, Vir Arjun

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