Friday 17 March 2017

यूपी में फिसलती मुस्लिम नुमाइंदगी

उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के हक की बात करने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की इस बिरादरी के मतों को लेकर मची आपसी खींचतान कौम की नुमाइंदगी पर भारी पड़ गई। जिसके चलते इस बार की विधानसभा चुनाव में अब तक के इतिहास के सबसे कम 23 विधायक ही जीत पाने में कामयाब हो सके। जबकि उत्तर प्रदेश की विधानसभा की 147 सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमान मतदाता किसी भी दल के उम्मीदवार की हार-जीत का फैसला करने की हैसियत रखते हैं। 2014 के लोकसभा में प्रदेश के मुस्लिमों की नुमाइंदगी शून्य होने के बाद अब विधानसभा में प्रतिनिधित्व न्यूनतम संख्या पर पहुंच गया है। प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों की भूमिका अहम रही है। कभी कांग्रेस इस वर्ग के वोटों को अपनी थाली समझती थी। मंडल-कमंडल के दौर में सपा-बसपा ने नई सियासी गोलबंदी का सिलसिला शुरू किया और मुसलमानों को उसमें शामिल किया जिससे इस वर्ग की नुमाइंदगी बढ़नी शुरू हुई। 1996 में 39 मुस्लिमों को विधायकी मिली। 2002 में यह संख्या 44 हुई। 2007 में यह संख्या 56 तक पहुंची और 2012 के विधानसभा चुनाव में रिकार्ड 68 मुस्लिम विधायक निर्वाचित हुए। मगर 2014 के लोकसभा चुनाव में सियासी चौसर कुछ इस अंदाज में बिछी कि मुस्लिम वोट बिखर गया और भाजपा ने टिकटों की हिस्सेदारी से मुसलमानों को दूर रखकर 81 बनाम 19 का जो दांव चला उससे संसद में उत्तर प्रदेश से मुस्लिमों की नुमाइंदगी शून्य हो गई। उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से 147 पर मुसलमान मतदाता सर्वाधिक हैं। इनमें रामपुर जिला सर्वप्रथम है जहां मुसलमानों का 42 फीसद वोट है। मुरादाबाद में 40, बिजनौर में 38, अमरोहा में 37, सहारनपुर में 38, मेरठ में 30, कैराना में 29, बलरामपुर और बरेली में 28, सम्भल, पडरौना और मुजफ्फरनगर में 27, डुमरियागंज में 26 और लखनऊ, बहराइच व कैराना में मुसलमान मतदाता 23 फीसद हैं। मुसलमान मतदाताओं की इतनी बड़ी संख्या के बावजूद 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी से एक भी मुस्लिम सांसद जीत का स्वाद चख पाने में कामयाब नहीं हो सका। इस विधानसभा चुनाव में महज 23 मुस्लिम उम्मीदवार जीतकर विधायक बन पाने में सफल हो सके। मुसलमानों की इस विधानसभा चुनाव में घटी नुमाइंदगी के कई कारण नजर आते हैं। सपा और बसपा दोनों ने मुसलमान मतदाताओं की सीटों पर मुसलमान उम्मीदवार उतारे, जिसकी वजह से अधिकांश सीटों पर मुस्लिम वोट दोनों दलों में बंट गए। जबकि भारतीय जनता पार्टी ने एक भी मुसलमान को टिकट न देकर हिन्दू मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में खासी कामयाबी हासिल की और नतीजा सामने है। चुनाव परिणाम ने यह भी साबित कर दिया कि आने वाले चुनाव में मुस्लिम एक फैक्टर तो रहेगा मगर वह वोट बैंक के रूप में नहीं माना जाएगा। राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि मुसलमान सिर्फ मुसलमान नहीं है। इसको भी उतनी तरक्की करने का हक है जितना अन्य समुदायों को है। बाकी समूहों की तरह मुसलमानों में भी अगड़े-पिछड़े के बीच खासा मतभेद है। अब किसी से छिपा नहीं कि तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं ने खुलकर भाजपा का साथ दिया। इन मौलवियों और इमामों की अपीलों, फतवों का कोई असर नहीं रहा। नौजवान पीढ़ी अब इन दकियानूसी दलीलों से तंग आ चुकी है। वह अपने उज्ज्वल भविष्य, रोजगार के अवसर, आर्थिक तरक्की चाहती है। उसने कांग्रेस, बसपा और सपा को आजमा लिया है। तो क्यों न मोदी को एक अवसर दिया जाए? नरेंद्र मोदी को भी मुसलमानों की तरक्की, अच्छी-अच्छी योजनाओं पर ध्यान देना होगा। वह यह साबित करें कि वह पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं सिर्फ एक समुदाय के नहीं।

-अनिल नरेन्द्र

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