नियंत्रण रेखा के महज 10 किलोमीटर दूर जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में गुरुवार तड़के आतंकियों ने सैन्य शिविर पर जो
हमला बोला वह एक तरह से उड़ी हमले का रिपीट था। पाकिस्तानी आतंकियों ने उड़ी की तर्ज
पर इस फिदायीन हमले में एक भारतीय कैप्टन समेत तीन जवान शहीद हो गए जबकि पांच जवान
घायल हुए। जवाबी कार्रवाई में सेना ने जैश-ए-मोहम्मद के दो आतंकियों को मार गिराया। तीसरे की तलाश जारी है। उड़ी हमले की
तरह इस बार भी सुबह चार बजे का यह हमला उसी तरह घात लगाकर किया गया। फर्क सिर्फ इतना
है कि उड़ी का हमला जाड़ा और बर्फबारी शुरू होने से पूर्व किया गया था और इस बार हमले
के लिए बर्फबारी खत्म होने और गर्मियों की शुरुआत का मौसम चुना गया। सर्जिकल स्ट्राइक
और नोटबंदी के बाद यह दावा किया गया था कि आतंकवाद की कमर तोड़ दी गई है और भविष्य
में पाकिस्तान 10 बार सोचेगा कोई हमला करने की। पर यहां तो उल्टा
हो रहा है। आतंकी बार-बार सैन्य शिविरों को निशाना बना रहे हैं
और हम केवल अपनी सुरक्षा करने में लगे हुए हैं। पिछले चार महीनों में घाटी में
15 आतंकी हमले हो चुके हैं और भारत इन्हें रोकने में बुरी तरह फेल हो
रहा है। चाहे छत्तीसगढ़ का सुकमा हमला हो या घाटी में यह हमला हो आखिर कब रुकेगी हमारे
जवानों की शहादत? यह ठीक नहीं कि आतंकी बार-बार सैन्य शिविरों को निशाना बनाने में सफल हो रहे हैं। हमारी सेना क्या कर
रही है? हर दोष केंद्र या राज्य सरकार के मत्थे मढ़ना ठीक नहीं
है। आखिर सेना को तो अपनी सुरक्षा का इंतजाम खुद करना होता है। मिलिट्री इंटेलीजेंस
क्या सो रही है। बार-बार यह फिदायीन जब चाहे जहां चाहे सैन्य
शिविरों पर हमला कर देते हैं और हम सिर्फ अपना बचाव करने से खुश हो जाते हैं। सबसे
गंभीर बात यह है कि वे लगभग एक जैसे तरीके से सैन्य शिविरों व सैनिकों के काफिले पर
हमला करने में समर्थ हैं। कुपवाड़ा में भी आतंकियों ने सुबह जल्दी सैन्य शिविर पर धावा
बोला। वे सुरक्षा की पहली दीवार इसलिए भेदने में सफल रहे, क्योंकि
एक तो सुबह का धुंधलका था और दूसरे शायद सुरक्षा के इंतजाम उतने नहीं थे जितने होने
चाहिए थे। यह तो जांच-पड़ताल से ही पता चलेगा कि सुरक्षा में
किस स्तर पर चूक हुई, लेकिन इसका जवाब देना ही चाहिए कि आखिर
चौकसी में कमी के मामले बार-बार क्यों सामने आ रहे हैं?
यह तो धन्य हो ऋषि कुमार का जिसने अदम्य साहस और बहादुरी का प्रदर्शन
करते हुए दो आतंकियों को मार गिराया, जबकि तीसरे को घायल कर दिया।
आरा (बिहार) के ऋषि कुमार गनर संतरी की
ड्यूटी पर थे। वह फील्ड आर्टिलरी रेजिमेंट में आठ साल से गनर के पद पर तैनात हैं। वह
शिविर के पिछले गेट पर तैनात थे। मुठभेड़ के बाद आतंकी जब पीछे के गेट से भागने लगे
तो ऋषि उनके बेहद निकट थे। आतंकियों की नजर जैसे ही ऋषि पर पड़ी उन्होंने गोलियों की
बौछार कर दी। ऋषि पर आतंकियों ने फायर किया पर वह बुलैटप्रूफ हेलमेट की बदौलत गोली
से तो बच गए लेकिन वह जमीन पर गिर पड़े। आतंकियों ने समझा कि उनका काम तमाम हो गया,
पर ऋषि ने तुरन्त संभलकर दो आतंकियों को ढेर कर दिया। फायरिंग के दौरान
ही ऋषि की गोलियां खत्म हो गईं। ऐसे में तीसरे आतंकी से बचते हुए बंकर की तरफ दौड़े।
वहां से उन्होंने दूसरी राइफल उठाई। उन्हें हाथों और पैरों में कई स्थानों पर चोटें
लगी हुई थीं। घायल होने के बावजूद ऋषि ने तीसरे आतंकी पर फायर किया। तीसरे आतंकी को
भी गोली लगने की खबर है। कश्मीर में मौजूदा स्थिति के लिए सीमापार के समर्थन से इंकार
नहीं किया जा सकता लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि बाहर से ज्यादा भीतर
के आतंकी सक्रिय हुए हैं और कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए अगर यह कहा जाए
कि मौजूदा स्थिति 1989 की दिशा में जा रही है तो अतिश्योक्ति
नहीं होगी। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के दिल्ली
के दौरे और तीन माह का सामान मांगने के बाद केंद्र की सक्रियता तो बढ़ी है पर सरकार
की कश्मीर नीति आखिर है क्या? 80 हजार करोड़ का पैकेज देने से
मामला सुलझने वाला नहीं। घाटी के अंदर अलगाववादियों और पत्थरबाजों का राज चल रहा है
और सीमापार से आतंकियों का। कश्मीर में जैसे हालात हैं उन्हें देखते हुए यह आवश्यक
ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि आतंकी हमलों से आए दिन दो-चार हो रहे जवानों को हर हाल में सुरक्षित बनाने के पुख्ता प्रबंध किए जाएं।
इस सबके अतिरिक्त पत्थरबाजों का सामना करना पड़ता है। दुर्भाग्य से कुपवाड़ा में भी
यही हुआ। यह समझना कठिन है कि जब सेनाध्यक्ष भी यह मान रहे हैं कि पत्थरबाज आतंकियों
के मददगार हैं तब फिर देश का राजनीतिक नेतृत्व, सभी इस बात को
एक स्वर से दोहरा क्यों नहीं पा रहे हैं? इससे बड़ी विडंबना और
क्या हो सकती है कि आतंकियों की मददगार पत्थरबाजों की निन्दा-आलोचना करने के बजाय उल्टा सेना और सुरक्षाबलों को संयम का पाठ पढ़ाया जा रहा
है। समस्या का समाधान कुछ नाटकीय और जादुई कार्रवाइयों और टीवी की परिचर्चाओं से नहीं
होगा। यह समस्या ठोस नीति, उपायों से ही काबू की जा सकती है जिसका
अभी तक मोदी सरकार ने प्रदर्शन नहीं किया है।
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