Thursday 7 July 2011

अवैध काले धन को वापस लाने का सुप्रीम कोर्ट का सराहनीय प्रयास

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 7th July 2011
अनिल रेन्द्र
अगर हसन अली और काशीनाथ तापुरिया ने सोचा था कि वह इतनी आसानी से सारी कार्रवाई से बच जाएंगे तो उन्होंने गलत सोचा था। सुप्रीम कोर्ट ऐसा नहीं होने देगी। सुप्रीम कोर्ट ने विदेशों में जमा काले धन के केस में इस धन को वापस लाने और उसकी पूरी नए सिरे से जांच करने के लिए एक उच्च स्तरीय विशेष जांच दल का गठन कर दिया है। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी और एसएस निज्जर की खंडपीठ ने इस केस की सुनवाई करते हुए भारत सरकार को तगड़ी फटकार लगाई। उन्होंने हसन अली खान केस को निशाना बनाते हुए सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रह्मण्यम से प्रश्न किया कि एनफोर्समेंट डायरेक्ट्रेट (ईडी) ने हसन अली मामले में सिर्प 44 करोड़ रुपये की सम्पत्ति को जब्त करके क्या संदेश देना चाहा है? खंडपीठ ने प्रश्न किया कि वह जीरोओं का क्या हुआ? आयकर विभाग ने तो 40,000 करोड़ रुपये की आयकर डिमांड निकाली थी? हसन अली के साथी काशीनाथ तापुरिया के खिलाफ 20,580 करोड़ रुपये का डिमांड नोटिस दिया था। अब आप अदालत को बता रहे हैं कि आपने 44 करोड़ की सम्पत्ति ही जब्त की है, बाकी जीरोओं का क्या हुआ? मतलब साफ था कि आयकर विभाग हसन अली खान को बचा रही है, क्यों? अदलात ने यह भी कहा कि यह पहली बार नहीं जब इस केस में अदालत निराश हुई है, पहले भी इस केस में ईडी की कार्रवाई पर प्रश्नचिन्ह लगता रहा है। अदालत ने प्रश्न किया कि सन् 2007 में ईडी ने सनसनीखेज खुलासा खुद ही किया था कि 2001-2005 के बीच हसन अली खान का लेन-देन 1.6 बिलियन डालर का था। 2007 में जब हसन अली के पुणे स्थित आवास पर छापा मारा गया था तो वहां से 8.04 बिलियन डालर के यूबीएस बैंक, स्विटजरलैंड को लेन-देन के दस्तावेज मिले थे। अदालत ने पूछा कि हसन अली के बोफोर्स दलाल अदनान खाशोगी से संबंधों का क्या हुआ? हसन अली ने खाशोगी का यूबीएस बैंक में खाता खुलवाने में मदद की थी। सरकार के पास अदालत से किसी भी सवाल का संतोषजनक जवाब नहीं था। यही वजह है कि देश में छिपाए गए काले धन की जांच में सरकार की लेटोलतीफी और गुमराह करने वाली कार्रवाई से ही तंग आकर सुप्रीम कोर्ट ने मामले को अपने हाथ में लेने का फैसला किया। एक विशेष जांच दल के गठन का फैसला इसी उद्देश्य से किया गया है।
एक अनुमान के अनुसार लगभग 1456 अरब डालर यानि 70 लाख करोड़ रुपये विदेशों में जमा हैं। इस हिसाब से देश की सम्पत्ति का 40 प्रतिशत ब्लैक मनी के रूप में विदेशी बैंकों में जमा है। अमेरिका की कानूनी धमकियों के बाद स्विटजरलैंड के यूबीएस बैंक ने न सिर्प खाताधारक अमेरिकी नागरिकों के नाम बताए, 78 करोड़ डालर का हर्जाना भी दिया जबकि भारत ने पिछले 20 वर्षों से काले धन को वापस लाने के लिए कुछ भी नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को साफ कहा कि केंद्र सरकार इस मुद्दे पर गम्भीर नहीं है। इस सन्दर्भ में उसने यह दो टूक टिप्पणी भी की कि सरकार ने जो कदम उठाए हैं, उन पर उसे गम्भीर आपत्ति है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी पाया कि काले धन की जांच पूरी तरह से रुकी हुई है। आखिर शीर्ष अदालत के ऐसे कठोर रुख के बाद सरकार किस मुंह से यह कह सकती है कि वे काले धन के मुद्दे पर गम्भीर है? देश की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा से सीधे जुड़े ऐसे संवेदनशील मामले में सरकार की बेरुखी से तंग आकर अदालत को खुद ही इस पर सीधी कार्रवाई करने पर मजबूर होना पड़ा है। छह महीने से कोर्ट लगातार सरकार को चेतावनी दे रहा था कि वह इस मामले को गम्भीरता से ले और उन सभी लोगों की निशानदेही करे जिन्होंने अपनी अकूत अवैध दौलत विदेश के बैंकों में छिपा रखी है। लेकिन सरकार कोरे वायदों या बेमन की कार्रवाइयों से आगे बढ़ने को तैयार नहीं दिख रही थी। सरकारी उदासीनता का आलम यह है कि वह विदेश में छिपाए गए काले धन को महज कर वंचना का मामला बता रही है जबकि खुद देश की शीर्षस्थ अदालत मानती है कि यह पैसा देश के विकास की मद से चुराया गया हो सकता है या हथियारों और नशीले पदार्थों की तस्करी के साथ आतंकवादियों की मदद के लिए भी हो सकता है। ताज्जुब तो यह है कि न केवल सुप्रीम कोर्ट बल्कि बाबा रामदेव सहित देश के प्रबुद्ध नागरिकों ने बार-बार इस गम्भीर मामले को उठाया है। बाबा रामदेव की तो यह प्रमुख मांग हो रही है कि इस धन को राष्ट्र सम्पत्ति घोषित किया जाए। इन सबके बावजूद सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। गुप्त अमेरिकी दस्तावेजों को सार्वजनिक कर दुनिया में सनसनी मचाने वाले विकीलीक्स के असांजे ने रहस्य खोला था कि विदेशों में काली कमाई जमा करवाने वाले दोशों में भारत सबसे ऊपर है और जहां अमेरिका, जर्मनी और यूरोपीय देश विदेशों में जमा अपने पैसे की वापसी के लिए आक्रामक तरीके अपना रहे हैं वहीं भारत सरकार ने आश्चर्यजनक चुप्पी साधी हुई है। हमारी सरकार की चुप्पी हसन अली मामले में भी देखी जा सकती है। घोड़े और कबाड़ के व्यापार की आड़ में देश का यह सबसे बड़ा हवाला कारोबारी अरबों की दौलत को नियमित रूप से विदेश भेजता था। आरोप है कि वह देश के प्रभावशाली लोगों की दौलत का हिसाब भी लगाता था, जिनमें राजनेता और नौकरशाह भी शामिल थे। आश्चर्य की बात यह थी कि कारगुजारियों की भनक होने के बावजूद हसन वीआईपी बनकर देश में छुट्टा घूमता था। अगर सुप्रीम कोर्ट ने कड़े तेवर न अपनाए होते तो क्या हसन अली आज सीखचों के पीछे होता? सबसे बड़ी बात तो यह है कि हसन अली जिनकी काली कमाई का हिसाब-किताब रखता था वे लोग कौन हैं? असल चोर तो ये लोग हैं जिन्होंने कुर्सी का अवैध उपयोग कर देश को लूटा और लूट का माल विदेशों में छिपाया। सरकार उनके नाम बताने में विदेशी संधियों की आड़ ले रही है। इसलिए इस बार सुप्रीम कोर्ट ने सीधे निर्देश दिए हैं कि वैसे तमाम लोगों को जिन्हें ऐसे काले धन पर नोटिस दिया गया है उनके नाम अदालत में पेश किए जाएं। कोर्ट ने तो यहां तक टिप्पणी की कि यदि वह सरकार की जगह होती तो ऐसी संधि कदाचित नहीं करती जिससे देश का हित प्रभावित होता है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह विशेष जांच दल का गठन किया है और उसमें शीर्ष अदालत के दो पूर्व न्यायाधीशों को जगह देने के साथ ही यह कहा है कि यह दल काले धन से जुड़े मामलों से निपटने की एक व्यापक कार्य योजना तैयार करें उससे तो यही स्पष्ट होता है कि उसे इस मनमोहन सरकार से कोई उम्मीद नहीं रह गई है। ऐसी स्पष्टवादिता के लिए सुप्रीम कोर्ट को हमारा सलाम। दिलचस्प यह है कि सुप्रीम कोर्ट की सख्ती से बचने के लिए सरकार ने पिछले दिनों आनन-फानन में आठ नौकरशाहों की कमेटी बना दी थी जिसके अध्यक्ष केंद्र के राजस्व सचिव हैं। अब सुप्रीम कोर्ट के विशेष जांच दल के साथ इस टीम को जोड़ दिया जाएगा। तब जाकर शायद सही मायनों में विदेशों में छिपा काले धन और उससे जुड़े लोगों की पहचान का काम दिशा और गति पकड़े।
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