Tuesday 26 February 2013

9/11 के बाद अमेरिका ने 39 बार आतंकी हमलों को विफल किया है, कैसे?


  Published on 26 February, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
हैदराबाद बम धमाकों ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि न तो हमारे देश में हमारा खुफिया तंत्र मजबूत है और न ही कोई ऐसी एजेंसी जो आतंकवाद  के खिलाफ स्वतंत्र रूप से काम कर सके। विभिन्न एजेंसियों में तालमेल का भारी अभाव है यही वजह है कि हम सूचना होते हुए भी आतंकवादी हमले रोकने में नाकाम हैं। बीजू जनता दल के सांसद जय पांडा ने ट्विटर पर लिखा है कि 15 राज्यों ने मांग की थी कि देश में एक आतंकवाद विरोधी एजेंसी होनी चाहिए जो अमेरिका और ब्रिटेन की तरह समन्वय की भूमिका निभाए न कि कार्रवाई करे। अमेरिका का एनसीटीसी रणनीतिक योजना बनाने और सूचनाओं को जमा करने का काम करता है। यह जांच और गिरफ्तारी नहीं करता है। ब्रिटेन का ज्वाइंट टेरेरिज्म एनालिसिस सेंटर (जेटीएसी) आतंकवाद से संबंधित खुफिया सूचनाओं को जमा करके उनका विश्लेषण करता है। अमेरिका ने 9/11 आतंकी हमले के बाद से अब तक ऐसी 39 साजिशों को विफल कर दिया है। न्यूयार्प, वाशिंगटन डीसी और न्यूजर्सी जैसे शहरों में आतंकी हमलों की करीब 20 साजिशों को समय रहते नाकाम किया गया। यह सब सम्भव हुआ है चुस्त-दुरुस्त खुफिया व ऑनलाइन निगरानी तंत्र की बदौलत। खास बात यह है कि 39 में 35 मामलों में सुरक्षा एजेंसियों ने साजिश को शुरुआती चरण में ही पकड़ लिया जिससे किसी तरह की जनहानि नहीं हुई। इसके उलट भारत में 26/11 मुंबई हमले के बाद विभिन्न शहरों में 11 आतंकी हमले हुए जिनमें 60 से ज्यादा लोगों की जानें गईं। न तो राष्ट्रीय आतंकवाद रोधी केंद्र (एनसीटीसी) पर कोई सहमति बनी और न ही ऑनलाइन जानकारी साझी करने वाले नेशनल इंटेलीजेंस ग्रिड (नेट ग्रिड) पर बात आगे बढ़ी। इसमें देरी की वजह से खुफिया एजेंसियों के लिए आतंकी हमलों की रेकी करने वाले डेविड हैडली जैसे आतंकी सूत्रधारों तक पहुंचा नहीं जा सका। यह दोनों ही रानीतिक झंझटों में ही उलझ कर रह गए हैं। 9/11 न्यूयार्प व वाशिंगटन हमलों के बाद न्यूयार्प शहर को 11 बार आतंकी हमलों से बचाया गया है।  वाशिंगटन डीसी को 5 बार और न्यूजर्सी को 4 बार व विमान/हवाई अड्डों को 5 बार और अन्य ठिकानों को 9 बार। हमें अमेरिका और ब्रिटेन से कुछ सीखना चाहिए। हमारा हाल तो इतना खराब है कि देश में खुफिया जानकारी जुटाने के मूल स्रोत की ही पूरी तरह अनदेखी हो रही है।  पुलिस के सिपाही, मुखबिर और आम जनता का सहयोग लेने में खुफिया तंत्र या सरकार की कोई रुचि नहीं है। यही वजह रही है कि हैदराबाद धमाके की सूचना होने के बावजूद उसे नाकाम नहीं किया जा सका। खुफिया सूचना होने के बावजूद समय रहते उन्हें विफल नहीं किया जाता। कारण साफ है कि खुफिया सूचना जुटाने के अहम स्रोत पुलिस के सिपाही को इस मुहिम से नहीं जोड़ा जाता। आम जनता से भी जानकारी जुटाने का कोई प्रयास नहीं है। सिपाही को सबसे बड़ा स्रोत इसलिए माना जाता है, क्योंकि वह सामान्य लोगों के साथ परिवहन, बाजार, सिनेमा, टी-स्टाल और यहां तक कि सार्वजनिक टॉयलेट इस्तेमाल करता है। अहम बात यह है कि भारत में मुखबिर का समाप्त होना। मुखबिर सिस्टम पर किसी का कोई ध्यान नहीं रहा। भारत में खुफिया इकाइयां पांच-सात सौ रुपए में मुखबिर से आतंकी सूचना लेना चाहती हैं। आईबी जैसी बड़ी इकाई तो थोड़ा-बहुत खर्च भी करती है, लेकिन राज्यों में  पुलिस द्वारा खुफिया सूचना लेने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जाता। अर्धसैनिक बलों में भी यही स्थिति है। कश्मीर जैसे संवेदनशील इलाकों में सूचनाएं लेने के लिए शराब की बोतल, खाना और दो-चार सौ रुपए खर्च किए जा रहे हैं। किसी मुखबिर को चार-पांच हजार रुपए देने हैं तो हेड क्वार्टर में फाइल भेजनी पड़ती है। सिपाही की सूचना पर कोई भरोसा नहीं करता। सामान्य ड्यूटी वाले सिपाही को खुफिया इकाई से दूर रखा जाता है। दूसरी ओर अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी सहित अनेक यूरोपीय देशों में खुफिया सूचनाओं के लिए सिपाही सबसे भरोसेमंद हैं। उसे भारी नकद इनाम के अलावा तरक्की भी मिलती है। इसके बाद मुखबिर का नम्बर आता है। अमेरिका में 9/11 के बाद खुफिया सूचनाओं के लिए इस मूल स्रोत का व्यापक इस्तेमाल हुआ। नतीजा, ओसामा बिन लादेन की मौत से लेकर अब तक वहां हमले की बड़ी साजिशों को नाकाम किया जा चुका है। जब तक हम अपने देश में आतंकवाद विरोधी अभियान को सही प्राथमिकता, दिशा और खुफिया तंत्र को मजबूत नहीं करेंगे तब तक हमें नहीं लगता कि हम इन आतंकी हमलों को रोक पाएंगे।

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