Tuesday 15 October 2024

जेलों में जातिगत भेदभाव


जेलों में जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी। इतनी ही प्रशंसा उस रिपोर्ट या याचिका की भी होनी चाहिए जिसने सदियों से चली आ रही इस कुप्रथा पर प्रहार का जरूरी साहस दिखाया। सुप्रीम कोर्ट ने देशभर के 11 राज्यों में जेल मैनुअल में जाति आधारित भेदभाव वाले प्रावधानों को खारिज करते हुए कहा कि आजादी के 75 वर्ष बीत चुके हैं। लेकिन हम अभी तक जाति आधारित भेदभाव को जड़ से समाप्त नहीं कर पाए हैं। ऐतिहासिक फैसले में जेलों में जाति के आधार पर कैदियों के बीच काम के बंटवारे को असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि भेदभाव बढ़ाने वाले सभी प्रावधानों को खत्म किया जाए। शीर्ष अदालतों ने राज्यों के जेल मैनुअल के जाति आधारित प्रावधानों को रद्द करते हुए सभी राज्यों को फैसले के अनुरूप तीन माह में बदलाव का निर्देश दिया है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला व जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि भेदभाव करने वाले सभी प्रावधान असंवैधानिक ठहराये जाते हैं। पीठ ने जेल में जातिगत भेदभाव पर स्वत संज्ञान लेते हुए रजिस्ट्री को तीन महीने बाद मामले को सूची करने का निर्देश दिया। इस फैसले को सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने महिला पत्रकार सुकन्या शांता की तारीफ करते हुए कहा कि सुकन्या शांता आपके रोषपूर्ण लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। आपके लेख से ही इस मामले की सुनवाई की शुरुआत हुई। पता नहीं इस लेख के बाद हकीकत कितनी बदली होगी, लेकिन हमें उम्मीद है कि इस फैसले से हालात बेहतर होंगे। जब लोग लेख लिखते हैं। शोध करते हैं और मामलों को अदालतों के सामने इस तरह से लाते हैं कि समाज की वास्तविकता दिखा सकें, तो हम इन समस्याओं का निदान कर सकते हैं। ये सभी प्रक्रियाएं कानून की ताकत को रेखांकित करती हैं। सुकन्या शांता द वायर डिजिटल प्लेटफार्म के लिए काम करती हैं। उन्होंने भारत के विभिन्न राज्यों में जेलों में जाति-आधारित भेदभाव पर रिपोर्टिंग कर एक सीरिज की। इस सीरिज में उन्होंने कैदियों को जाति के आधार पर दिए जाने वाले काम और जाति के आधार पर कैदियों के साथ भेदभाव जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर किया। इस सीरिज के प्रकाशित होने के बाद राजस्थान हाईकोर्ट ने स्वत संज्ञान लिया। इसके बाद सुकन्या ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और फैसला अब आपके सामने हैं। सरकारी दस्तावेजों में जाति नाम चिह्नित करना अनिवार्य है। कानून में संशोधन कर इस तरह के भेदभाव समाप्त करने में सरकारें संकुचाती हैं। क्योंकि जाति आधारित राजनीति करने में ये माहिर हैं। इसलिए उनकी प्राथमिकताओं में अंग्रेजों के बनाए नियमों को सुधारने की बात ही नहीं उठती। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के बावजूद हम अब तक जातियों के पूर्वाग्रह और अंतहीन जंजाल से निकलने में पूर्णत असफल रहे हैं। अपराधियों को सजा बेशक अदालत देती है पर कैद के दौरान उनके साथ किया जाने वाला जेल अधिकारियों का बर्ताव भी कई दफा पक्षपाती होता है। ये सलाह सिर्फ जेल नियमावली तक ही नहीं सीमित होना चाहिए। बल्कि इस तरह का सुधारवादी कदम पूरे समाज में सख्तीपूर्वक लागू किए जाने की जरूरत है। ये छुआछात या जाति-आधारित भेदभाव से समाज को मुक्त कराने की जरूरत है। अदालत ने पहल कर दी है।

-अनिल नरेन्द्र

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