Saturday, 30 November 2024
समाजवादी-धर्मनिरपेक्ष संविधान का अंग
सुप्रीम कोर्ट ने समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा बताते हुए कहा कि इन्हें संविधान की प्रस्तावना से नहीं हटाया जा सकता। इस बारे में दायर याचिकाओं को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, संविधान का अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में बदलाव की अनुमति देती है। प्रस्तावना भी संविधान का अंग है और संसद की संशोधन शक्ति प्रस्तावना तक भी फैली हुई है। संविधान से धर्मनिरेपक्ष और समाजवादी शब्द हटाने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया है। भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन और अन्य के द्वारा दायर की गई थी। गौरतलब है कि साल 1976 में पारित हुए संविधान संशोधन के तहत धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद जैसे शब्दों को जोड़ा गया था। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने कहा कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द 1976 में संविधान संशोधन के जरिए जोड़े गए थे और इनसे 1949 में अपनाए गए संविधान पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इस संशोधन के बाद प्रस्तावना में भारत का स्वरूप संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य से बदलकर संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य हो गया था। सुनवाई के दौरान अपनी दलील देते हुए याचिकाकर्ता अधिवक्ता विष्णु जैन ने नौ न्यायाधीश की संविधान पीठ के एक हालिए फैसले का हवाला दिया। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 39 (बी) पर 9 जजों की पीठ के फैसले का fिजक्र करते हुए कहा कि उस फैसले में शीर्ष कोर्ट ने समाजवादी शब्द की व्याख्या पर असहमति जताई जिसे शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति वीआर कृष्णा अय्यर और चिन्नप्पा रेड्डी ने प्रतिपादित किया था। सीजेआई संजीव खन्ना ने कहा कि भारतीय संदर्भ में हम समझते हैं कि भारत में समाजवाद अन्य देशों से बहुत अलग है। हम समाजवाद का मतलब मुख्य रूप से लोक कल्याणकारी राज्य समझते हैं। कल्याणकारी राज्य में उसे लोगों के कल्याण के लिए खड़ा होना चाहिए और अवसरों की समानता प्रदान करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत ने 1994 के एसआर बोम्मई मामले में धर्मनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना था। यह महज संयोग है कि सुप्रीम कोर्ट संविधान दिवस की पूर्व संध्या पर संविधान के प्रस्तावना में निहित समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों के महत्व और उसकी उपयोगिता की व्याख्या की है, जिनका स्वागत किया जाना चाहिए। प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की बैंच ने समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के बारे में कहा कि भारत के नागरिकों से इन दो शब्दों को अंगीकार करके आत्मसात कर लिया है। इसलिए 44 वर्षों बाद इन शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से निष्प्रभावी किए जाने का कोई नैतिक आधार दिखाई नहीं देता। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने रेखांकित किया है कि चाहे धर्मनिरपेक्ष हो या समाजवादी, ये शब्द हमारे संविधान की प्रगतिशीलता को बनाए रखने में सहायक है। जहां धर्मनिरपेक्षता नागरिकों की समानता और धार्मिक आजादी जैसे मूल्य अधिकारों को सुनिश्चित करता है, वहीं समाजवाद के प्रतिनिष्ठा राज्य के कल्याणकारी स्वरूप को बनाए रखने में मदद करता है। आज के माहौल में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का महत्व और भी बढ़ जाता है। हम इसका स्वागत करते हैं।
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