Tuesday, 31 December 2024

और अब ईश्वर अल्लाह तेरो नाम पर हंगामा



बिहार में लोक गायिका देवी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रिय भजन “रघुपति राघव राजा राम’’ पर माफी मांगनी पड़ी। ये घटना 25 दिसम्बर को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में घटी। शिक्षाविद मदन मोहन मालवीय की जयंती पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्म शताब्दी वर्ष पर अटल विचार परिषद और दिनकर न्यास समिति ने पटना के बापू सभागार में दो दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन किया था। अटल विचार परिषद के संरक्षक पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार चौबे हैं। इस कार्यक्रम के आयोजनकर्ता अर्जित शाश्वत चौबे ने बताया कि इस कार्यक्रम में पहले दिन गांधी मैदान में अटल दौड़ का आयोजन था और दूसरे दिन दुनियाभर से आए लोगों को अटल सम्मान दिया जाना था। अर्जित शाश्वत चौबे बिहार की भागलपुर विधानसभा से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं। अर्जित बताते हैं चूंकि लोक गायिका देवी की फ्लाइट थी इसलिए उनको अटल सम्मान देने के बाद उनके एक गीत सुनकर उन्हें विदा करना था। उन्होंने गांधी और अटल जी दोनों का प्रिय भजन गाया, जिस पर पीछे बैठे कुछ लोगों ने हंगामा कर दिया। देवी ने बापू के प्रिय भजन ईश्वर अल्लाह तेरो नाम गाना शुरू किया तो सभागार में कुछ लोगो ने उन्हें दूर करना शुरू कर दिया। कहा, गाने की ये सही पंक्तियां नहीं है। इनको लेकर वे अपनी बात रख रही थीं पर शोरगुल इतना तेज हो गया था कि वे लोग उनकी कोई बात सुनने को तैयार ही नहीं थे। इस बीच देवी ने भारत माता की जय और अटल बिहारी वाजपेयी अमर रहें के नारे लगाए। लोगों ने सभागार में जय श्रीराम के नारे लगाने शुरू कर दिए। जब यह हंगामा हो रहा था और देवी को दूर किया जा रहा था तब सभागार में सांसद रविशंकर प्रसाद, संजय पासवान, सीपी ठाकुर भी मौजूद थे। इस घटना के वायरल वीडियो में दिख रहा है कि रघुपति राघव राजा राम गाने के बाद देवी सबसे माफी मांगते हुए कहती हैं, अगर आप हर्ट (आहत) हुए हैं तो मैं उसके लिए सबको सॉरी कहती हूं। देवी के ये कहने के बाद वो पोडियम के पास से हटती हैं और भाजपा नेता अश्विनी चौबे जय श्रीराम का नारा लगवाते हैं। जेडीयू प्रवक्ता नवल शर्मा कहते हैं बिहार महात्मा गांधी की कर्मा वाली रही है। बिहार सरकार के किसी भी दफ्तर में गांधी जी के सिद्धांत लिखे मिल जाएंगे। गांधी वादी मूल्यों में हमारे नेता और हमारी कट्टर आस्था है। कांग्रेस ने इस प्रकरण पर भाजपा को घेरा। केरल की वायनाड सीट से कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी ने एक्स पर लिखा बापू का प्रिय भजन गाने पर भाजपा नेताओं ने लोक गायिका देवी जी को माफी मांगने पर मजबूर किया। रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम उनसे सुना नहीं गया। उन्होंने लिखा दुनिया को दिखाने के लिए बापू को फूल चढ़ाते हैं, लेकिन असल में उनके प्रति कोई आदर नहीं करते हैं। दिखावे के लिए बाबा साहेब आंबेडकर का नाम लेते हैं लेकिन असल में उनका अपमान करते हैं। वहीं लालू प्रसाद यादव ने कहा संघियों और भाजपाईयों को जय सियाराम, जय सीताराम के नाम एवं नारे से शुरू से ही नफरत है क्योंकि उसमें माता सीता का जयकारा है। ये लोग शुरू से ही महिला विरोधी हैं तथा उन्होंने गायिका देवी से माइक पर माफी मंगवाई तथा माता सीता के जय सीताराम की बजाए जय श्रीराम के नारे लगवाए।

-अनिल नरेन्द्र


मनमोहन के सात फैसले जिसने देश की दिशा बदल दी


गुरुवार शाम को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निधन के बाद देश-दुनिया भर में लोग उनके योगदान की बात कर रहे हैं। वर्ष 2004 से लेकर 2014 तक भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले मनमोहन सिंह को आर्थिक उदारीकरण के नायक के तौर पर देखा जाता है। 1991 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार में मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया गया था। उनकी बनाई नीतियों ने देश में लाइसेंस राज खत्म कर उदारीकरण के ऐसे दरवाजे खोले जिससे भारत को न सिर्फ गंभीर आर्थिक संकट से बचाया बल्कि देश की दशा और दिशा दोनों बदल डाली। दस साल के उनके कार्यकाल में कई ऐसे बड़े फैसले लिए गए, जो मील के पत्थर साबित हुए। सूचना का अधिकार यानि आरटीआई डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में 12 अक्तूबर 2005 को लागू हुआ। यह कानून भारतीय नागरिकों को सरकारी अधिकारियों और संस्थानों से सूचना मांगने का अधिकार देता है। यह वो अधिकार है जिससे नागरिकों को जानकारी के आधार पर फैसले करने का मौका और इच्छा मुताबिक सत्ता का इस्तेमाल करने वालों से सवाल करने का मौका मिला। इससे न सिर्फ लालफीता शाही बल्कि अफसरशाही के टालमटोल भरे रवैये को दूर करने में मदद मिली। मनमोहन सिंह की सरकार ने 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) बनाया, जिसे 2 फरवरी 2006 से लागू किया गया। इस योजना के तहत ग्रामीण इलाकों में रहने वाले हर परिवार को साल में कम से कम 100 दिन मजदूरी की गारंटी दी गई। इस योजना ने न सिर्फ ग्रामीण इलाकों में गरीबी बल्कि शहरों की तरफ पलायन भी कम हुआ। पहले ही साल इस योजना के तहत 2.10 करोड़ परिवारों को रोजगार दिया गया। तब प्रतिदिन रोजगार पाने वाले व्यक्ति को 65 रुपए दिए जाते थे। साल 2008 में कांग्रेस का नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने देशभर की किसानों का कर्ज माफ करने का फैसला लिया। उससे सीएजी के मुताबिक अनुमानित 3.69 करोड़ छोटो और सीमांत किसानों को राहत मिली। कांग्रेsस ने 2009 के आम चुनावों में भी इसे खूब भुनाया। नतीजा यह हुआ कि एक बार फिर कांग्रेस की सरकार बनी। साल 2008 में भारत और अमेरिका के बीच परमाणु सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। शीत युद्ध के बाद से अमेरिका का झुकाव पाकिस्तान की तरफ था लेकिन इस समझौते के बाद अमेरिका और भारत के रिश्तों ने एक ऐतिहासिक मोड़ ले लिया। इस मुश्किल घड़ी में राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और सपा के सहयोग से मनमोहन सरकार अपने मकसद में कामयाब रही। साल 2008 में दुनिया भर में आर्थिक तबाही मची हुई थी। पर हर कोने से शेयर बाजारों के गर्त होने की खबरे आ रही थीं, निवेशकों के लाखों, करोड़ों रुपए हर रोज हवा हो रहे थे। जब लगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। तभी मनमोहन सरकार की सूझबूझ ने हालात संभालने शुरू कर दिए और ये सिलसिला ऐसा चला कि भारत इस आर्थिक मंदी की चपेट में आने से बच गया। साल 2010 में मनमोहन सिंह की सरकार ने देश में शिक्षा का अधिकार लागू किया। इसके तहत 6 से 14 साल तक के सभी बच्चों को शिक्षा मुहैया कराना संवैधानिक अधिकार बना दिया गया। इस कानून में शिक्षा की गुणवत्ता, सामाजिक दायित्व, निजी स्कूलों में आरक्षण और स्कूलों में बच्चों के प्रवेश को नौकरशाही से मुक्त कराने का प्रावधान भी है। साल 2013 में देश के गरीब लोगों के खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए मनमोहन सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम लागू किया। यह अधिनियम देश में 81.35 करोड़ आबादी को कवर करता है। आज भी मोदी सरकार इसी योजना का नाम बदलकर चला रही है। मनमोहन सिंह ने जब कहा था कि इतिहास उनके मूल्यांकन में वर्तमान के मुकाबले ज्यादा उदार होगा तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं थी। मनमोहन सिंह के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। इतिहास में उनका योगदान दर्ज हो गया है, हम इस महान आत्मा को श्रद्धांजलि देते हैं।

Saturday, 28 December 2024

बदले नियमों से क्या पारदर्शिता पर असर पड़ेगा?

केन्द्र की मोदी सरकार ने चुनाव आयोग की एक सिफारिश को लागू किया और इसके बाद कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल इस पर सवाल उठा रहे हैं। दरअसल केंद्र सरकार ने चुनावी नियमों में संशोधन करते हुए दस्तावेजों के एक हिस्से को आम जनता की पहुंच से रोक दिया है। भारत सरकार के विधि और न्याय मंत्रालय ने गत शुक्रवार को चुनाव आयोग की सिफारिश के आधार पर सीसीटीवी कैमरा और वेब कास्टिंग फुटेज को सार्वजनिक करने पर रोक लगा दी है। कांग्रेsस ने इस कदम को संविधान और लोकतंत्र पर हमला बताया है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने एक्स पर लिखाö मोदी सरकार द्वारा चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को कम करने का नपा-तुला प्रयास संविधान और लोकतंत्र पर सीधा हमला है और हम उनकी रक्षा के लिए हर कदम उठाएंगे। चुनाव संचालन नियम, 1961 के नियम 93(2) (अ) के संशोधन से पहले लिखा था कि चुनाव से संबंधित अन्य सभी कागजात सार्वजनिक जांच के लिए खुले रहेंगे। संशोधन के बाद इस नियम में कहा गया है कि चुनाव से संबंधित इन नियमों में निर्दिष्ट अन्य सभी कागजात सार्वजनिक जांच के लिए खुले रहेंगे। इस बदलाव से चुनावी नियमों के अलग-अलग प्रावधानों के तहत केवल चुनावी पत्र। (जैसे नामांकन पत्र आदि) ही सार्वजनिक जांच के लिए खुले रहेंगे। उम्मीदवारों के लिए फॉर्म-17-सी जैसे दस्तावेज उपलब्ध रहेंगे। लेकिन चुनाव से संबंधित इलैक्ट्रानिक रिकार्ड और सीसीटीवी फुटेज सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं होगी। अलग-अलग मीडिया रिपोर्टरों ने चुनाव अधिकारियों से बातचीत की। एक्सप्रेस इंडियन से चुनाव आयोग के एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, मतदान केंद्र के अंदर सीसीटीवी फुटेज के दुरुपयोग को रोकने के लिए नियम में संशोधन किया गया है। सीसीटीवी फुटेज साझा करने से विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में गंभीर परिणाम हो सकते हैं। जहां गोपनीयता महत्वपूर्ण है। संशोधन से कुछ दिन पहले पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने 9 दिसम्बर को चुनाव आयोग को निर्देश दिया था कि वह वकील महमूद प्राचा को हरियाणा विधानसभा चुनाव से संबंधित आवश्यक दस्तावेज उपलब्ध कराएं। प्राचा ने हरियाणा विधानसभा चुनाव से संबंधित वीडियोग्राफी, सीसीटीवी की फुटेज और फार्म 17-सी की प्रतियां उपलब्ध कराने के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। याचिका में कहा गया था कि रिटर्निंग ऑफिसर के लिए जारी हैंडबुक में यह प्रावधान है कि उम्मीदवार या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा आवेदन किए जाने पर ऐसी वीडियोग्राफी उपलब्ध कराई जानी चाहिए। याचिका का विरोध करते हुए चुनाव आयोग के वकील ने कोर्ट में कहा था कि प्राचा न तो हरियाणा के निवासी हैं और न ही उन्होंने किसी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा है। ऐसे में उनकी मांग सही नहीं है, प्राचा की तरफ से कहा गया था कि चुनाव संचालन नियम 1961 के मुताबिक उम्मीदवार और दूसरे व्यक्ति के बीच यह अंतर है कि उम्मीदवार को दस्तावेज निशुल्क दिए जाते हैं। जबकि किसी अन्य व्यक्ति को इसके लिए एक निर्धारित शुल्क देना होगा। प्राचा के वकील ने कहा था कि वो निर्धारित शुल्क का भुगतान करने के लिए तैयार और इच्छुक हैं। मामले में जस्टिस विनोद एस भारद्वाज ने कहा था कि चुनाव आयोग छह सप्ताह के अंदर आवश्यक दस्तावेज उपलब्ध कराए। इस आदेश के दो हफ्ते के भीतर केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग की सिफारिश को लागू कर दिया। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह संशोधन चुनाव आयोग की कार्यशैली पर एक और सवाल खड़ा करता है। हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि याचिकाकर्ता को संबंधित डेटा दे दीजिए और इस आदेश के कुछ दिन बाद यह संशोधन किया गया ताकि डेटा उपलब्ध न हो सके। इसकी टाइमिंग अपने आप से सवाल खड़ा करता है और यह संशोधन संसद से तो पारित नहीं हुआ है। लोग लगातार चुनाव आयोग की पारदर्शिता पर एक और सवाल खड़ा कर रहे हैं और अब यह फैसला आ गया है। विपक्षी दलों का आरोप है कि चुनाव आयोग पारदर्शिता से डर रहा है। कांग्रेस ने इसकी कानूनी तौर पर चुनौती देने की बात की है। देश का चुनाव आयोग संवैधानिक निकाय है। वह अनुच्छेद 324 के अनुसार देश भर में चुनाव कराने के लिए स्थापित किया गया है। बीते कुछ सालों से चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली को लेकर जनहित याचिकाएं दायर की जाती रही हैं और इसकी पारदर्शिता को लेकर तरह-तरह के विवाद होते रहे हैं। आयोग पर आरोप लगाते रहते हैं कि मोदी सरकार की वह कठपुतली बन कर रह गई है। विपक्षी दल तो यहां तक आरोप लगाते हैं कि चुनाव आयोग भाजपा के एजेंट की तरह काम करती है। बीते साल भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर बवाल गहराया था और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था। आयोग की स्वायतता को लेकर समझौता करना उचित नहीं कहा जा सकता। अगर यह भी अनुचित है कि पारदर्शिता की आड़ में गोपनीयता भंग किए जाने की छूट जारी रहने दी जाए। आयोग को अपनी स्वायतत्ता का भी ख्याल रखना चाहिए। चुनाव आयोग आखिर पारदर्शिता से इतना क्यों डरता है? जयराम रमेश का कहना है कि आयोग के इस कदम को जल्द कानूनी चुनौती दी जाएगी। अरविन्द केजरीवाल ने लिखा कि इसका मतलब है कि कुछ तो बड़ी गड़बड़ है। टीएमसी के पूर्व सांसद जवाहर सरकार ने पूछा कि मोदी सरकार क्या छिपा रही है, आखिर चुनाव नियमों में अचानक बदलाव करके जनता को चुनाव रिकार्ड और डेटा के बारे में पूछने और जांच को क्यों रोक दिया? -अनिल नरेन्द्र

Tuesday, 24 December 2024

किसानों की मदद के लिए हमेशा याद रहेंगे

पूर्व उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल की विरासत को शिखर तक ले जाने वाले चौधरी ओमप्रकाश चौटाला को जीवटता, प्रखर वक्ता, किसानों और कार्यकर्ताओं पर मजबूत पकड़ के लिए हमेशा याद किया जाएगा। उनकी गिनती उन नेताओं में होती थी जो जमीनी कार्यकर्ताओं के नाम तक याद रखते थे। कई बार तो कार्यकर्ताओं के घर में रुक जाते थे। हरी पगड़ी ओमप्रकाश चौटाला की पहचान बन गई थी। एक जनवरी 1935 को जन्मे ओम प्रकाश चौटाला चौधरी देवीलाल के सबसे बड़े बेटे थे। श्री चौटाला का राजनीतिक सफर की शुरुआत एक अप्रत्याशित घटना से हुई। 1968 में छोटे भाई प्रताप सिंह के दल बदलने पर कांग्रेस ने उनको टिकट दिया और ओम प्रकाश चौटाला को सिरसा के ऐलानाबाद विधानसभा क्षेत्र से चुनाव में उतारा, मगर वह चुनाव हार गए। चुनाव में धांधली को लेकर वह सुप्रीम कोर्ट गए और चुनाव रद्द कराया। 1970 में ऐलानाबाद विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव हुआ तो चौटाला कांग्रेस के टिकट पर पहली बार विधायक बने। 1989 में जब चौधरी देवीलाल ने देश के उपप्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली तो उन्होंने अपनी सियासी विरासत के लिए ओमप्रकाश चौटाला को चुना। ओमप्रकाश चौटाला भारतीय राजनीति में एक कद्दावर शख्सियत और जाट समुदाय के एक प्रमुख नेता थे। वह कम शिक्षित होने के बावजूद अपनी जबरदस्त राजनीतिक सूझबूझ और हाजिर जवाबी के लिए जाने जाते थे। एक प्रभावशाली राजनीतिक परिवार में जन्मे चौटाला अपने पिता द्वारा स्थापित पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के प्रमुख थे। चौधरी देवीलाल उपप्रधान मंत्री रहने के अलावा हरियाणा के मुख्यमंत्री भी रहे थे और उन्हें किसानों का मसीहा कहा जाता था। चौधरी ओमप्रकाश चौटाला भी अपने पिता के पदचिह्नों पर चले। 1989 में पहली बार ओमप्रकाश चौटाला हरियाणा के मुख्यमंत्री बने। एक जनवरी 1935 को जन्मे चौटाला हरियाणा के पांच बार मुख्यमंत्री भी रहे। वह 1989 से जुलाई 1999 तक वह बीच-बीच में मुख्यमंत्री रहे। वहीं 2000 से 2005 के बीच ही उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। इस दौरान भाजपा इनेलो की सहयोगी थी, हालांकि वह सरकार का हिस्सा नहीं थी। वर्ष 1989 में जब चौधरी देवीलाल जनता दल सरकार में उप प्रधानमंत्री बने तो ओम प्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री बने। वह छह बार विधायक भी रहे और 1970 में पहली बार सिरसा के ऐलानाबाद से विधायक चुने गए। यह चौटाला परिवार का गढ़ माना जाता था। मुख्यमंत्री के रूप में अपने पूरे कार्यकाल में चौटाला का सरकार आपके द्वार कार्यक्रम इनेलो सरकार की एक बड़ी उपलब्धि और पहल थी। जब वह मुख्यमंत्री थे। तब हर गांव का दौरा करते रहते थे। लोगों को उनकी जरूरतों के बारे में पूछते रहते थे और उनकी मांगों पर अमल करते हुए उनके सामने ही फैसले लेने में नहीं हिचकते थे। शनिवार को उनकी अंतिम यात्रा में लाखों की भीड़ उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचीं थी जो उनकी लोकप्रियता को दर्शाती है। हमारे परिवार के चौधरी देवीलाल के परिवार से करीबी संबंध रहे हैं। चौधरी ओमप्रकाश चौटाला और चौधरी देवीलाल कई बार प्रताप भवन आए पिता जी और मुझसे मिलने। हमारे लिए यह बहुत बड़े दुख की बेला है। भगवान उनकी आत्मा को शांति दें। -अनिल नरेन्द्र

भागवत का बयान स्वागतयोग्य

मंदिर-मस्जिद के रोज नए विवाद निकालकर कोई नेता बनना चाहता है तो ऐसा नहीं होना चाहिए। हमें दुनिया को दिखाना है कि हम एक साथ रह सकते हैं। ये बातें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने गुरुवार को पुणे में हिंदू सेवा महोत्सव के उद्घाटन के दौरान कही। इसके लिए श्री भागवत ने कई अहम मुद्दों पर अपनी बात रखी है। भागवत के भाषण की चर्चा इसलिए भी हो रही है क्योंकि इस वक्त देश में संभल, मथुरा, काशी जैसी कई जगहों को मस्जिदों के प्राचीन समय से मंदिर होने के दावे किए जा रहे हैं। इनके सर्वे की मांग हो रही है और कुछ मामले तो अदालतों में लंबित भी हैं। भागवत ने कहा, हमारे यहां हमारी ही बातें सही, बाकी सब गलत, यह नहीं चलेगा। अलग-अलग मुद्दे रहे तब भी हम सब मिलजुलकर रहेंगे। हमारी वजह से दूसरों को तकलीफ न हो इस बात का ख्याल रखेंगे। जितनी श्रद्धा मेरी खुद की बातों में है, उतनी श्रद्धा मेरी दूसरों की बातों में भी रहनी चाहिए। उन्होंने वहां कि रामकृष्ण मिशन में आज भी 25 दिसम्बर (बड़ा दिन) मनाते हैं, क्योंकि यह हम कर सकते हैं। क्योंकि हम हिंदू हैं और हम दुनिया में सब के साथ मिलजुलकर रह रहे हैं। यह सौहार्द अगर दुनिया को चाहिए तो उन्हें अपने देश में यह मॉडल लाना होगा। उनका कहना है मंदिर और मस्जिद का संघर्ष एक सांप्रदायिक मुद्दा है और जिस तरह से ये मुद्दे उठ रहे हैं, कुछ लोग नेता बनते जा रहे हैं। अगर नेता बनना ही इसका मकसद है तो इस तरह का संघर्ष उचित नहीं है। लोग महज नेता बनने के लिए इस तरह के संघर्ष शुरू कर रहे हैं, तो यह सही नहीं है। संघ प्रमुख के इस बयान के मुरीद हुए मुस्लिम धर्म गुरु। मुस्लिम धर्मगुरुओं और नेताओं ने इस बयान पर खुशी जताई। मुस्लिम जगत के इन नेताओं ने कहा कि आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसा बयान आना बेहद मायने रखता है। मुस्लिम धर्म गुरु कल्बे सिब्ते नूरी ने कहा कि भागवत का बयान बहुत सकारात्मक है। 18-20 करोड़ मुसलमानों को अलग-थलग करके भारत विश्व गुरु नहीं बन सकता। डॉ. नूरी ने भाजपा नेताओं से आग्रह किया कि वो आरएसएस प्रमुख के संदेश को आगे बढ़ाएं और देश का माहौल खराब करने की कोशिशों को रोकें। कैराना से सपा सांसद इकरा हसन ने भी आरएसएस प्रमुख के बयान का समर्थन किया है। इकरा ने कहा, पहली बार उनके बयान से इत्तेफाक रखती हूं। वर्तमान की जरूरत भी यही है कि इस तरह के मुद्दे बंद हों। सपा सांसद अफजल अंसारी ने कहा भागवत के बयान का स्वागत करते हैं। कुछ नेता मशहूर होने के लिए और सस्ते ढंग से एक धर्म विशेष का नेता बनने की कोशिश करते हैं। अब भागवत बोले हैं, हम स्वागत करते हैं। वहीं कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने भी भागवत के कहे का हवाला देते हुए एक्स पर लिखा है, आरएसएस चीफ मोहन भागवत कहते हैं कि यहां सब बराबर हैं। इस देश की रीत ये रही है और यहां सब अपनी मर्जी से पूजा-अर्चना कर सकते हैं। इससे बेहतर बयान और क्या हो सकता है। उम्मीद है कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर खोदने वाले भी मोहन भागवत जी के बयान को मानेंगे और सम्मान करेंगे।

Saturday, 21 December 2024

इजराइल से लौटे कामगारों के अनुभव

कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी बीते सोमवार को संसद में फलस्तीन लिखा हैंड बैग लेकर पहुंची थीं और अगले दिन यानी मंगलवार को इसका जिक्र उत्तर प्रदेश विधानसभा में हुआ। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, कल कांग्रेस की एक नेत्री फलस्तीन का बैग लेकर संसद घूम रही थीं और हम यूपी के नौजवानों को इजराइल भेज रहे हैं। प्रियंका गांधी ने सीएम योगी के इस बयान को शर्म की बात बताया। प्रियंका जो हैंड बैग लेकर पहुंची थीं उस पर फलस्तीन शब्द के साथ कई फलस्तीनी प्रतीक भी बने हुए थे। इस घटना क्रम के बाद बीबीसी ने यूपी के उन लोगों से बातचीत की जो इजराइल काम करने गए थे। अधिकतर कामगारों के लिए काम के घंटे और मनचाहा काम न मिलने की बड़ी समस्या बताई। बीबीसी ने कामगारों के दावों पर यूपी सरकार का पक्ष जानने के लिए संबंधित विभाग से संपर्क भी किया पर कोई जवाब नहीं मिला। उत्तर प्रदेश विधानसभा के शीतकालीन के चल रहे सत्र में सीएम योगी ने कहा कल कांग्रेस की नेत्री फलस्तीन का बैग लेकर घूम रही थीं और हम यूपी के नौजवानों को इजराइल भेज रहे हैं। यूपी के अब तक लगभग 5600 से अधिक नौजवान इजराइल में हैं। उन्हें रहने के लिए फ्री स्थान, डेढ़ लाख रुपए अतिरिक्त मिल रहे हैं और पूरी सुरक्षा की गारंटी भी है। आप यह मानकर चलिए कि वह नौजवान जब डेढ़ लाख रुपए अपने घर भेजता है तो प्रदेश के ही विकास में योगदान और अच्छा काम कर रहा है। हमास और इजराइल की जंग की वजह से इजराइल में मजदूरों की संख्या में कमी हुई है। इसलिए इस कमी को पूरी करने के लिए इजराइल सरकार ने भारत से मजदूरों को ले जाने की पहल की थी। इसके तहत यूपी के अलावा दूसरे राज्यों जैसे हरियाणा, तेलंगाना से भी मजदूर इजराइल गए हैं। योगी के बयान के बाद प्रियंका गांधी ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा ः यूपी के युवाओं को यहां रोजगार देने की जगह उन्हें युद्ध ग्रस्त इजराइल भेजने वाले इसे अपनी उपलब्धि बता रहे हैं। उन्होंने आगे लिखा ः अपने युवाओं को युद्ध में झोंक देना पीठ थपथपाने की नहीं बल्कि शर्म की बात है। प्रदीप सिंह यूपी के बाराबंकी जिले में देवा शरीफ के पास के गांव में रहने वाला है। 4 जून 2024 को प्रदीप सिंह यूपी से काम करने के लिए इजराइल गए थे। वह इजराइल में लगभग चार महीने रहे। बीबीसी से बातचीत में प्रदीप बताते हैं ः हम लोग पेरा टिकवा शहर में थे और सुविधाएं ठीक थीं लेकिन काम थोड़ा हाई था। मैंने प्लास्टरिंग कैटेगरी के लिए आवेदन किया था लेकिन वहां दूसरा काम करना पड़ा। हम लोग एक चीनी कंपनी शटरिंग और सरिया से जुड़ा काम कर रहे थे। प्रदीप का दावा है कि उन्हें वक्त से ज्यादा समय तक काम करना पड़ता था। हम लोगों को सुबह 7 बजे से शाम सात बजे तक कुल 12 घंटे काम करना होता था। इसमें आधा घंटे तक लंच होता था। प्रदीप वापस इजराइल जाना चाहते हैं लेकिन उनके ही इलाके के दिवाकर सिंह वापस इजराइल नहीं जाना चाहते। दिवाकर कहते हैं कि चीनी कंपनियों में वहां 12 घंटे काम करना होता था, बीच में आराम भी नहीं कर सकते थे। मैंने आयरन वैंडिंग (सरिया मोड़ने का काम) कैटेगरी में इंटरव्यू दिया था लेकिन दूसरे काम करने पड़ते थे। कई बार तो साफ-सफाई का काम भी करना पड़ता था। दिवाकर मई 2024 में इजराइल गए थे और दो महीने वहां रहे थे। वह बताते हैं कि इस दौरान उन्होंने दो से ढाई लाख रुपए की बचत जमा कर ली थी। फिलहाल दिवाकर अपने घर के पास एक निजी कंपनी में 30 हजार रुपए की नौकरी कर रहे हैं। -अनिल नरेन्द्र

आंबेडकर पर सियासी भूचाल

अब यह एक फैशन हो गया है... आंबेडकर, आंबेडकऱ, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर। इतना नाम अगर भगवान का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता। संसद में केन्द्राrय मंत्री अमित शाह के संविधान पर चर्चा के दौरान एक लंबे भाषण के इस छोटे से अंश को लेकर ऐसा हंगामा हुआ कि संसद की कार्रवाई स्थगित करनी प़ड़ गई। इस बयान में आंबेडकर का अपमान देख रहे हमलावर विपक्ष को जवाब देने के लिए अमित शाह ने बुधवार को प्रेस कांफ्रेंस कर कहा ः जिन्होंने जीवनभर बाबा साहेब का अपमान किया, उनके सिद्धांतों को दरकिनार किया, सत्ता में रहते हुए बाबा साहेब को भारत रत्न नहीं मिलने दिया, आरक्षण के सिद्धांतों की धज्जियां उड़ाई, वो लोग आज बाबा साहेब के नाम पर भ्रांति फैलाना चाहते हैं। यही नहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सोशल मीडिया पर बयान जारी कर बताया कि उनकी सरकार ने भारत के संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर के सम्मान में क्या-क्या काम किए हैं लेकिन इसके बावजूद हंगामा नहीं रूका। अब यह मामला पूरे देश में आग की तरह फैल चुका है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने अमित शाह पर आंबेडकर का उपहास करने का आरोप लगाते हुए उनके इस्तीफे तक की मांग कर ली। खड़गे ने कहा... बाबा साहेब का अपमान किया है, संविधान का अपमान किया है। उनकी आरएसएस की विचारधारा दर्शाती है कि वो स्वयं बाबा साहेब के संविधान का सम्मान नहीं करना चाहते हैं। समूचा विपक्ष अमित शाह का इस्तीफा मांग रहा है। वहीं शाह के इस बयान को आंबेडकर का अपमान इसलिए माना जा रहा है कि अगर ईश्वर शोषण से मुक्ति देने वाला है तो डॉ. भीमराव आंबेडकर जाति व्यवस्था में बंटे भारतीय समाज के इन करोड़ों लोगों के ईश्वर हैं, जिन्होंने सदियों तक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक भेदभाव झेला है। भीमराव आंबेडकर ने संविधान में बराबरी का अधिकार देकर अनुसूचित और पिछड़ी जातियों को शोषण से मुक्ति दी है। यही वजह है कि आंबेडकर की विचारधारा से जुड़े और दलित राजनीति से जुड़े लोग अमित शाह के इस बयान को आंबेडकर के अपमान के रूप में देख रहे हैं। लेकिन कटु सत्य यह भी है कि इस समय सभी राजनीतिक पार्टियों में आंबेडकर को अपनाने की होड़ मची है और राजनीतिक दल आंबेडकर के विचारों का इस्तेमाल करके दलित मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहे हैं। अमित शाह के इस विवादास्पद बयान के बाद से भाजपा बचाव की मुद्रा में है। राजनीतिक विश्लेषकों का तो यहां तक कहना है कि अमित शाह को मुंह से भले ही निकल गया हो लेकिन इस पर बहुत हैरान नहीं होना चाहिए। उन्होंने वही बोला है जो वह महसूस करते होंगे, जो आरएसएस भी महसूस करती है। अमित शाह के बचाव में राजनीतिक शोरगुल के बीच सवाल उठता है कि क्या ये बयान भाजपा को सियासी नुकसान पहुंचा सकता है? कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इसका कोई बड़ा राजनीतिक नुकसान नहीं होगा। दूसरी ओर विपक्षी दल इस मुद्दे को संसद से लेकर सड़कों पर ले जा रही है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि देश में दलितों, पिछड़ों, ओबीसी, अल्पसंख्यकों का मानना है कि यह भी बाबा साहेब आंबेडकर जी की बदौलत आज उन्हें इज्जत मिली है, सम्मान और सुरक्षा मिली है। बाबा साहेब का संविधान ही देश की स्वतंत्रता और समानता का प्रतीक है।

Thursday, 19 December 2024

महाराष्ट्र की महायुति सरकार में बढ़ता असंतोष


बावजूद इसके कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में महायुति गठबंधन को प्रचंड बहुमत मिला पर गठबंधन में असंतोष थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। पहले तो 23 नवम्बर को चुनाव नतीजे आने के बाद लंबी जद्दोजहद के 12 दिन बाद देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री की शपथ ले पाए और उसके भी दस दिन बाद मंत्रिमंडल तय हो पाया और उनका शपथ ग्रहण हो सका। अब मंत्रिमंडल के बंटवारे को लेकर नया विवाद शुरू हो गया है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के वरिष्ठ नेता छगन भुजबल ने सोमवार को नई महायुति सरकार में शामिल नहीं किए जाने पर निराशा व्यक्त की और कहा कि वे अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों से बात करेंगे और फिर तय करेंगे कि उनकी भविष्य की राह क्या होगी। वहीं शिवसेना विधायक नरेन्द्र मोंडेकर ने महाराष्ट्र मंत्रिमंडल में शामिल न किए जाने पर निराशा व्यक्त करते हुए पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया है। देवेन्द्र फडणवीस के नेतृत्व वाली सरकार के पहले कैबिनेट विस्तार में रविवार को महायुति के घटक दलों, भाजपा, शिवसेना और राकांपा के 19 विधायकों ने शपथ ली। कैबिनेट से 10 पूर्व मंत्रियों को हटा दिया गया और 16 नए चेहरों को शामिल किया गया। पूर्व मंत्री छगन भुजबल और राकांपा के दिलीप वाल्से पाटिल एवं भाजपा के सुधीर मुनगंटीवार और विजय कुमार गावित नए मंत्रिमंडल से बाहर किए गए कुछ प्रमुख नेता हैं। भुजबल ने कहा कि वे नई मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किए जाने से नाखुश हैं। अपने भविष्य के कदम के बारे में पूछे जाने पर नासिक जिले के येआलो निर्वाचन क्षेत्र के विधायक ने कहा कि मुझे देखने दीजिए। मुझे इस पर विचार करने दीजिए। पूर्व मंत्री दीपक केसरकर को भी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है। वहीं शिव सेना विधायक मोंडेकर ने दावा किया कि उनकी पार्टी के प्रमुख एवं उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने उन्हें मंत्रिमंडल में जगह देने का वादा किया था। मोंडेकर शिव सेना के उपनेता और पूर्वी विदर्भ जिलों के समन्वयक हैं। महायुति गठबंधन में रस्साकशी जारी है। शिव सेना एकनाथ शिंदे के लिए गठबंधन में अपने दूसरे नंबर की पार्टी है। एकनाथ शिंदे को पचाना और अपने समर्थकों से स्वीकार कराना मुश्किल हो रहा है। उपमुख्यमंत्री पद के लिए वे बेशक अंतत राजी तो हुए पर मंत्रियों की कम संख्या का सवाल आड़े आया और अब विभागों के बंटवारे को लेकर आखिर दलों तक रस्साकशी होती रही है। तीनों पार्टियों में चल रही इस असामान्य रस्साकशी का एक रूप कहिए विधायकों की बढ़ी हुई संख्या का दबाव पर महाराष्ट्र के मंत्रियों के लिए ढ़ाई साल के कार्यकाल का ताजा फार्मूला कितना कारगर साबित होता है यह समय ही बताएगा। देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाने में जितनी जद्दोजहद हुई वो किसी से छिपी नहीं। दिल्ली चाहती थी कि फडणवीस मुख्यमंत्री न बनें और इसी रणनीति के कारण एकनाथ शिंदे ने न केवल दिल्ली में डेरा डाला बल्कि आखिरी समय तक सस्पेंस जारी रखा। देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाने में जहां दिल्ली नेतृत्व को पीछे हटना पड़ा। वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जीत हुई और उन्होंने अपनी पसंद का मुख्यमंत्री बनाया। फडणवीस के सामने गठबंधन को प्रभावी ढंग से चलाना और अच्छी सरकार देने की चुनौती है।

-अनिल नरेन्द्र

नई दिल्ली विधानसभा सीट पर विरासत की लड़ाई


नई दिल्ली विधानसभा सीट पिछले छह विधानसभा चुनाव से दिल्ली को मुख्यमंत्री देती आ रही है। 1998 से लेकर 2002 तक यहां से जीते विधायक ही दिल्ली के मुख्यमंत्री बन रहे हैं। पिछले तीन टर्म शीला दीक्षित ने यहां से जीत हासिल की थी। यह सीट उनकी विरासत की बन गई थी। बाद में यह अरविंद केजरीवाल की सीट बन गई। वह यहां से लगातार तीन चुनाव जीत चुके हैं। लेकिन इस बार 2025 विधानसभा चुनाव में लड़ाई दिलचस्प होने वाली है। यहां के विधायक व पूर्व सीएम केजरीवाल के खिलाफ दिल्ली के पूर्व दो सीएम के बेटों ने ताल ठोक रखी है। दो पूर्व सांसद मैदान में हैं। दरअसल नई दिल्ली विधानसभा हमेशा हाई प्रोफाइल सीट रही है। 1998 से 2008 के बीच तीन बार शीला दीक्षित यहां से विधायक रही हैं। तीनों बार वह मुख्यमंत्री बनीं। यहां से चौथे चुनाव में केजरीवाल ने बाजी पलटी और उन्हें यहां से पहली बार हार का सामना करना पड़ा। फिर 2013, 2015 और 2020 में हुए चुनाव में केजरीवाल यहां से विधायक बने और तीनों बार सीएम भी बने। यही नहीं एक न्यूज चैनल में केजरीवाल ने ऐलान किया कि नई दिल्ली से ही वह फिर चुनाव ल़ड़ेंगे और जीतने के बाद मुख्यमंत्री बनेंगे। साथ ही उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि पूर्व सीएम के सामने इस बार दो पूर्व सीएम के बेटे मैदान में होंगे। कांग्रेस ने यहां से शीला जी के बेटे संदीप दीक्षित को अपना उम्मीदवार बनाया है। संदीप के पास अपनी पुरानी विरासत को फिर से हासिल करने की भी चुनौती है। वहीं पोस्टबाजी और सोशल मीडिया में भाजपा के पूर्व सांसद व पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा खुद को जिस प्रकार पेश कर रहे हैं, उसमें इस कयास को बल मिल रहा है कि नई दिल्ली से भाजपा के उम्मीदवार वही हो सकते हैं। बता दें कि प्रवेश वर्मा दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के सुपुत्र हैं। इसलिए उन पर भी अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने की चुनौती है। रही बात कि अगर संदीप दीक्षित या प्रवेश वर्मा में कोई भी जीतता है और अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो क्या उनकी पार्टी उन्हें मुख्ममंत्री के तौर पर देख रही है। इस पर सूत्रों का कहना है कि भविष्य में क्या होगा यह कहना मुश्किल है, लेकिन जिस प्रकार दोनों को उनकी पार्टियों ने केजरीवाल के खिलाफ ही लड़ाने का फैसला किया है, इससे तो यही संकेत मिलते हैं कि दोनों खुद को सीएम उम्मीदवार मान रहे हैं। क्योंकि वेस्ट दिल्ली से सांसद रह चुके प्रवेश वर्मा को अपने इलाके के 10 विधानसभा सीटें छोड़कर नई दिल्ली से केजरीवाल के खिलाफ उतारने के पीछे की क्या रणनीति हो सकती है? ंइसी प्रकार ईस्ट दिल्ली से सांसद रहे संदीप दीक्षित किसी भी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ सकते थे, नई दिल्ली विधानसभा से ही क्यों? नई दिल्ली विधानसभा सीट पर इस बार का विधानसभा चुनाव इसलिए दिलचस्प माना जा रहा है क्योंकि अरविंद केजरीवाल के सामने दोनों ही पार्टियां बड़े चेहरे उतार रही हैं। देखें, आगे क्या होता है।

Tuesday, 17 December 2024

असद के पास 200 टन सोना, 1.80 लाख करोड़ रुपए



सीरिया के तानाशाह जिनका तख्ता पलट दिया गया है उनके बारे में चौंकाने वाली जानकारियां आ रही हैं। स्टील के मोटे दरवाजों के पीछे काल वाल कोठरियों की कतारें, उनके टार्चर चेम्बरों इत्यादि की बात तो हो रही है पर उनकी संपत्ति का ब्यौरा मिलने से सब चौंक गए हैं। एक बार बशर-अल-असद ने पिता से पूछा कि सत्ता को स्थायी रूप से कैसे मजबूत किया जा सकता है। पिता हाफिज अल असद ने जवाब दिया, अपनी जनता को कभी भी पूरी तरह खुश मत करो। जब वे थोड़े असंतुष्ट रहेंगे, तभी वो तुम्हारी और देखेंगे और तुमे जरूरी समझेंगे। पिता की इस सलाह को असद ने कुछ इस तरह लिया कि उनके 24 साल के शासन में सीरिया की जनता हमेशा जरूरतें पूरी करने के लिए संघर्ष करती रही। सऊदी अखबार ने ब्रिटिश इंटेलीजेंस सर्विसेज एमआई 6 के हवाले से लिखा है कि पूर्व राष्ट्रपति असद के पास करीब 200 टन सोना है। इसके अलावा 16 अरब डॉलर और 5 अरब यूरो हैं। जिनकी रुपए में कीमत करीब 1.80 लाख करोड़ है। हालांकि असद अब देश छोड़कर रूस में शरण ले चुके हैं। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या वे सब कुछ अपने साथ ले गए हैं और कितना धन छोड़कर गए हैं इसका खुलासा नहीं हुआ है। असद बचपन में बेहद शांत और शर्मीले थे। उन्हें लोगों से आंख मिलाने में भी संकोच होता था। उन्हें धीमी आवाज में बात करने वाले शख्स के रूप में जाना जाता था। असद की सियासत में बिल्कुल भी रूचि नहीं थी। एक ब्रिटिश रिपोर्ट के अनुसार उनकी छवि को मजबूत बनाने के लिए पिता हाफिज ने उन्हें एक रणनीति के तहत भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का प्रमुख बनाया। असद ने इस दौरान कई बड़े अधिकारियों को पद से हटाया ताकि उनकी छवि कड़क शासक के रूप में सामने आए। उन्हें महंगी गा]िड़यों का शौक है। उनके काफिले में रोल्स रॉयस फैंटम, फेरारी, मर्सिडीज बेंजा, ऑडी लैंबोर्गिनी भी शामिल थी। बशर अल-असद का जन्म सीरिया की राजधानी दमिश्क में हाफिज अल-असद और अनीसा अखलाफ के घर हुआ था। हाफिज 29 साल तक सीरिया के राष्ट्रपति रहे। उनकी 5 संतानों में बशर तीसरे नंबर के थे। बशर शुरू में सेना और राजनीति से दूर रहकर मैडिकल क्षेत्र में करियर बनाना चाहते थे। दमिश्क यूनिवर्सिटी से स्नातक करने के बाद, नेत्र चिकित्सा में विशेज्ञता के लिए 1992 में वे लंदन चले गए। जनवरी 1994 में कार दुर्घटना से उनके बड़े भाई और तब सत्ता के वारिस बेसिल की मौत हो गई तो उन्हें वापस बुला लिया। स्वतंत्र मानिटरिंग ग्रुप सीरियन नेटवर्क के रिकार्ड के अनुसार असद के खिलाफ 2011 में शुरू हुए जन उभार के बाद पिछली जुलाई तक देश के जेलों में टार्चर की वजह से 15,102 मौते हुईं थी। अनुमान है कि इस साल अगस्त तक 1,30,000 लोग गिरफ्तार थे या जबरन हिरासत में लिए थे। उनकी देश की खुफिया एजेंसियों को गैर जवाबदेही बताया गया है। पर हर तानाशाह का ऐसा ही हश्र होता है। मुश्किल से दो-तीन हफ्ते में खेल खत्म हो गया और रातो-रात भागना पड़ा। ऐसे तानाशाहों की लिस्ट बहुत लम्बी है जिन्होंने अपने देश को लूट लिया और फिर भागना पड़ा। शेख हसीना ताजा उदाहरण हैं।

-अनिल नरेन्द्र

लंबे अरसे बाद सटीक वक्ता का भाषण


मैं बात कर रहा हूं कांग्रेsस की वानयाड सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा के पहले संसदीय भाषण की। बहुत अर्से बाद ऐसा जबरदस्त भाषण सुनने को मिला। प्रियंका के भाषण देने का अपना ही स्टाइल है। वह साधारण भाषा में प्रभावी ढंग से अपनी बात कहती हैं, मुद्दे को ऐसे उठाती हैं जो आम जनता को समझ आ जाए। अपने पहले भाषण में प्रियंका ने लगभग सभी महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए। शुक्रवार को उन्होंने संविधान, आरक्षण और जाति जनगणना के मुद्दे उठाए। उन्हेंने कहा कि संविधान सुरक्षा कवच है, लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी इसे तोड़ने की कोशिश कर रही है। पहली बार संसद पहुंची प्रियंका ने कहा कि लोकसभा चुनाव में भाजपा की कम सीटों ने अकसर संविधान के बारे में बात करने के लिए मजबूर कर दिया। उन्होंने कहा कि अगर लोकसभा चुनाव में भाजपा का ये हाल नहीं हुआ होता तो वो संविधान बदलने का काम शुरू कर चुकी होती। करीब 32 मिनट के भाषण में प्रियंका ने संविधान संशोधन, जवाहर लाल नेहरू के अच्छे कामों, किसानों के आंदोलन, दल-बदल और अडाणी प्रेम इत्यादि सभी मुद्दों पर सरकार को निशाने पर लिया। संविधान की बात करते हुए प्रियंका ने कहा कि सरकार की लेटरल एंट्री से संविधान कमजोर कर रही है। लोकसभा के नतीजे ऐसे न होते तो संविधान बदलने का काम शुरू हो गया होता। आज के राजा भेष को बदलते हैं, शौकीन भी हैं पर आलोचना नहीं सुनते हैं। देशवासियों को हक है कि सरकार बना भी सकते हैं, बदल भी सकते हैं। नेहरू पर बोलते हुए प्रियंका ने कहा कि सत्तापक्ष अतीत की बातें करता है। नेहरू ने क्या किया। वर्तमान की बात करिए कि आप क्या कर रहे हैं? अच्छे काम के लिए पंडित नेहरू का नाम नहीं लेते। देश निर्माण में उनकी भूमिका कभी नहीं मिटाई जा सकती। सत्ता पर उन्होंने कहा कि आप चुनी हुई सरकारों को पैसों के दम पर गिरा देते हैं। पूरा देश जानता है कि आपके पास एक वाशिंग मशीन है। जो विपक्ष का सत्ता की ओर जाता है। उसमें उसके सारे दाग धुल जाते हैं। आप बैलेट पर चुनाव करा लीजिए, दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। जातिगत जनगणना को लेकर सरकार की गंभीरता का प्रमाण यह है कि जब चुनाव में पूरा विपक्ष जाति जनगणना की बात लाया तो पीएम मोदी कह रहे थे कि विपक्ष वाले आपकी भैंस चुरा लेंगे, मंगलसूत्र चुरा लेंगे। तानाशाही पर बोलते हुए प्रियंका ने कहा कि देश का किसान भगवान भरोसे है। हिमाचल में सेब के किसान रो रहे हैं। देश देख रहा है कि एक अडाणी को बचाने के लिए 142 करोड़ जनता को नकारा जा रहा है। बंदरगाह, एयरपोर्ट, सड़कें, रेलवे, खदानों, सरकारी कंपनियां सिर्फ एक व्यक्ति को दी जा रही हैं। उन्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरू की जमकर तारीफ करते हुए कहा कि उन्होंने हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल), बीएचएल, सेल, गेल, ओएनजीसी, रेलवे, एनटीपीसी, आईआईटी, आईआईएम, आयल रिफाइनरी और कई सार्वजनिक उपक्रम लगवाए। उनका नाम किताबों से मिटाया जा सकता है। भाषणों से हटाया जा सका है, लेकिन देश की आजादी और इसके निर्माण में उनकी भूमिका को कभी नहीं मिटाया जा सका। प्रियंका के भाषण के बाद भाई राहुल गांधी ने कहा कि यह भाषण मेरे पहले भाषण से कहीं अच्छा था। दिलचस्प बात यह थी कि सत्तापक्ष भी बड़े ध्यान से प्रियंका का भाषण सुन रहा था, थोड़ी सी टोकाटोकी के अलावा सभी ने ध्यान से सुना। सोशल मीडिया में तो प्रियंका ने तहलका मचा दिया। कांग्रेस को अरसे बाद जबरदस्त वक्ता मिला है।

Saturday, 14 December 2024

आत्महत्या केस में इंसाफ मांगता परिवार



बेंगलुरु में कथित आत्महत्या करने वाले एआई इंजीनियर अतुल सुभाष के परिवार ने उनके लिए न्याय और उत्पीड़न करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की है। अतुल का परिवार सदमे में हैं। पिता पवन मोदी कुछ भी बोलने के बजाय इंसाफ मांग रहे हैं। उनका कहना है कि हमने बहू और उसके मायके वालों की प्रताड़ना के कारण अपना होनहार बेटा खोया है। हमें सिर्फ और सिर्फ इंसाफ चाहिए। उन्होंने बहू की खामियां गिनाते हुए अपनी समधन यानि बेटे की सास को इस घटना के लिए दोषी ठहराया है। कर्नाटक के बेंगलुरु में एक नामी कंपनी में एआई इंजीनियर के तौर पर काम करने वाले अतुल सुभाष ने सोमवार की रात फंदा लगाकर खुदखुशी कर ली थी। मौत को गले लगाने से पहले उन्होंने करीब सवा घंटे का वीडियो बनाया और 24 पेजों का सुसाइड नोट के साथ उसे सोशल मीडिया के एक ग्रुप में शेयर किया। वीडियो में उन्होंने आत्महत्या करने के पीछे अपनी पत्नी निकिता और ससुराल वालों की ओर से मिलने वाली मानसिक प्रताड़ना को कारण बताया। अतुल के पिता पवन मोदी ने फोन पर बताया कि हमारे घर में सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था, लेकिन कोरोना काल के दौरान पूरा माहौल बदल गया। 2019 में हमने बेटे की शादी जौनपुर के निवासी सिंघानिया परिवार की बेटी निकिता से की। शादी के बाद बिदाई के बाद बहु केवल एक दिन हमारे घर यानि समस्तीपुर में रही। उसके बाद बेटे के साथ बेंगलुरु चली गई। इस बीच 2020 में पोता हुआ। तब तक सब ठीक था। इस बीच कोविड आया तो बेटे अतुल ने सास को बेंगलुरु बुला लिया। उसी समय से स्थिति बदली और मामला यहां तक बढ़ा कि हमने बेटा खो दिया। अतुल सुभाष ने अपने सवा घंटे के वीडियो में मुकदमों का भी जिक्र किया था। आरोप लगाया कि कभी केस वापस लेना, कभी केस दायर करना, पत्नी के लिए आदत-सी बन गई थी। जौनपुर से लेकर हाईकोर्ट तक एक ही तरह के मामलों में केस फाइल करने से परेशान किया गया। अतुल की तरफ से लगाए कुल नौ मामलों में से मौजूदा समय में चार मामले अदालत में लंबित हैं। दिसम्बर और जनवरी में मिलाकर कुल तीन डेट लगी हैं। अतुल सुभाष मोदी ने अपने सुसाइड नोट में एक पत्र अपने चार साल के बेटे को लिखा है। दावा किया जा रहा है कि उसने यह पत्र मौत को गले लगाने से कुछ ही देर पहले लिखा। पत्र के नीचे 9 दिसम्बर की तिथि अंकित करते हुए हस्ताक्षर भी किया है। अतुल ने बेटे को पत्र में लिखा है कि किसी पर भरोसा मत करना। तुम्हारे लिए मैं खुद को एक हजार बार कुर्बान कर सकता हूं। मैं कुछ कहना चाहता हूं। मुझे उम्मीद है कि एक दिन वह हमें समझने के लिए पर्याप्त समझदार बनेगा। बेटा जब तुम्हें पहली बार देखा तो सोचा था कि मैं तुम्हारे लिए कभी भी अपनी जाने दे सकता हूं, लेकिन दुख की बात है कि मैं अब तुम्हारी वजह से अपनी जान दे रहा हूं। आगे लिखा कि मेरे जाने के बाद कोई पैसा नहीं रहेगा। एक दिन तुम अपनी मां का असली चेहरा जरूर जान पाओगे। अतुल के 24 पेज के सुसाइट नोट में शादी शुदा जीवन में लंबे तनाव, उनके खिलाफ बढ़े कई मामले, उनकी पत्नी, ससुराल वालों और उत्तर प्रदेश के एक जज द्वारा प्रताड़ित किए जाने का ब्यौरा है। सुभाष के भाई विकास ने कहा, इस देश में एक ऐसी कानूनी प्रक्रिया हो जिसके लिए पुरुषों को भी न्याय मिले। मैं उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई चाहता हूं जो न्यायिक पद पर बैठे और भ्रष्टाचार कर रहे हैं। पुरुषों को भी लगने लगा है कि अगर उन्होंने शादी कर ली तो वो एटीएम बनकर रह जाएंगे।

-अनिल नरेन्द्र

इलाहाबाद हाईकोर्ट जज की विवादित टिप्पणी



जस्टिस शेखर कुमार यादव इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज हैं। वो रविवार को विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे। इस मौके पर जस्टिस यादव ने एक नहीं कई अत्यंत विवादित और दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणियां की। उन्होंने यूनिफार्म सिविल कोड (यूसीसी) के मुद्दे पर कहा, हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा। आगे कहा कि एक से ज्यादा पत्नी रखने, तीन तलाक और हलाला के लिए कोई बहाना नहीं है और अब ये प्रथाएं नहीं चलेंगी। दरअसल 8 दिसम्बर को विहिप के विधि प्रकोष्ठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के लाइब्रेरी हॉल में एक कार्यक्रम में वक्फ बोर्ड अधिनियम, धर्मांतरण कारण एवं निवारण और समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता विषय पर बोलते हुए जस्टिस शेखर यादव ने कहा कि मुझे ये कहने में बिलकुल गुरेज नहीं है कि ये हिंदुस्तान है। हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यक के अनुसार ही देश चलेगा। यही कानून है। आप यह भी नहीं कह सकते कि हाईकोर्ट के जज ऐसा बोल रहे हैं। कानून तो भैय्या बहुसंख्यक से ही चलता है। जस्टिस शेखर यादव आगे कहते हैं कि कठमुल्ले देश के लिए घातक हैं। जस्टिस यादव कहते हैं जो कठमुल्ला है शब्द गलत है लेकिन कहने में गुरेज नहीं है क्योंकि वह देश के लिए घातक हैं। जनता को बहकाने वाले लोग हैं और इनसे सावधान रहने की जरूरत है। जस्टिस शेखर कुमार यादव ने और भी बहुत कुछ कहा। अगर जस्टिस यादव के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया मिल रही है तो वह स्वाभाविक ही है। जज साहब जिस तरह की बातें कहते दिख रहे हैं, वो देश के संविधान के खिलाफ तो है ही साथ-साथ न्यायपालिका पर भी सवाल उठाता है। एक मौजूदा न्यायाधीश के लिए अपने राजनीतिक एजेंडे पर हिंदू संगठन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में सक्रिय रूप से भाग लेना न केवल शर्म की बात है बल्कि जज द्वारा ली गई शपथ का भी उल्लंघन है। ये सचमुच परेशान करने वाली बात है। हैरत की बात है कि संविधान के संरक्षक की भूमिका निभाने वाली न्यायपालिका का वरिष्ठ सदस्य एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहता दिखता है कि देश संविधान, कानून के हिसाब से नहीं बल्कि बहुसंख्यकों की मर्जी के मुताबिक चलेगा और इसका कोई खंडन भी नहीं आता। ध्यान रहे यह ज्यूडिशियरी के वरिष्ठ सदस्यों द्वारा जाने-अनजाने संवैधानिक मर्यादा के उल्लघंन से जुड़ा पहला मामला नहीं है। कुछ ही दिनों पहले कर्नाटक हाईकोर्ट के एक जज द्वारा एक मुस्लिम बहुल इलाके का जिक्र पाकिस्तान के रूप में किए जाने का मामला सामने आया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कार्रवाई भी शुरू की थी। हालांकि बाद में उस जज के माफी मांगने पर कार्रवाई रोक दी गई थी। यह संतोष की बात है कि जस्टिस शेखर यादव के बयान पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को हाईकोर्ट से न्यायमूर्ति यादव के बयान पर विस्तृत ब्यौरा देने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष कपिल सिब्बल ने जस्टिस यादव के खिलाफ महाभियोग चलाने की मांग की और कहा मैं चाहूंगा कि हम एकत्र होकर न्यायमूर्ति यादव के खिलाफ महाभियोग चलाएं। अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को पत्र लिखकर जस्टिस यादव के आचरण पर विभागीय जांच का आग्रह किया है। वहीं खबर यह भी है कि संसद के विपक्षी दल के सांसद भी जस्टिस शेखर कुमार यादव के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहे हैं और अब तक 35 सांसदों ने हस्ताक्षर कर दिए हैं। एक सुझाव यह भी आया कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस शेखर से सारे केस वापस ले लें और उन्हें काम देना बंद कर दें।

Thursday, 12 December 2024

उपासना स्थल एक्ट को चुनौती



सुप्रीम कोर्ट 12 दिसंबर को प्लेसेज ऑफ वर्शिप पर (उपासना स्थल) एक्ट 1991 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करेगा। इस सुनवाई पर पूरे देश की नजरें टिकी हुई हैं। पता चला है कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस केवी विश्वनाथन की स्पेशल 3 जजों की बैंच इस मामले की सुनवाई करेगी। बता दें कि उपासना स्थल एक्ट 1991 का फैसला पांच जजों की पीठ ने किया था और अब उस पर सुनवाई 3 जजों की बैंच करेगी। शीर्ष अदालत के समक्ष अश्विनी उपाध्याय व अन्य द्वारा याचिकाओं में निवेदन किया गया है कि उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 की धारा 2, 3 और 4 को रद्द कर दिया जाए। ये प्रावधान किसी व्यक्ति या धार्मिक समूह के उपासना स्थल को पुन प्राप्त करने के लिए न्यायिक उपचार के अधिकार को छिनते हैं, ऐसा दावा किया है याचिकाकर्ताओं ने। इस मामले की सुनवाई वाराणसी में ज्ञानव्यापी मस्जिद, मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद और संभल में शाही जामा मस्जिद सहित विभिन्न अदालतों में दायर मुकदमों की पृष्ठ भूमि में की जाएगी। याचिकाओं में दावा किया है कि इन मस्जिदों का निर्माण प्राचीन मंदिरों को नष्ट करने के बाद किया गया था और हिंदुओं को वहां पूजा-अर्चना करने की अनुमति दी जाए। बता दें कि उपासना स्थल एक्ट (प्लेसेज ऑफ वर्शिप) एक्ट 1991 के तहत प्रावधान है कि 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस स्थिति में था और जिस समुदाय का था भविष्य में उसी का रहेगा। इस प्रावधान को चुनौती दी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने 20 मई 2022 को ज्ञानव्यापी मस्जिद मामले की सुनवाई की थी और तब तत्कालीन मुख्य न्यायधीश चंद्रचूड़ ने मौखिक टिप्पणी की थी कि उपासना स्थल एक्ट के तहत धार्मिक कैरेक्टर का पता लगाने पर रोक नहीं है। वहीं कमेटी की ओर से कहा गया है कि उपासना एक्ट के तहत इस तरह के विवाद को नहीं लाया जा सकता है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद मालिकाना हक के मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि उपासना स्थल अधिनियम 1991 के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए तर्क दिया गया था कि अब कानून को दरकिनार नहीं किया जा सकता। 1991 का प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट का मकसद 15 अगस्त 1947 के बाद के धार्मिक स्थलों की स्थिति यथावत रखना था और किसी भी पूजा स्थल के परिवर्तन को रोकना था साथ ही उनके धार्मिक चरित्र की रक्षा करना था। 15 अगस्त 1947 भारत के लिए एक महत्वपूर्ण दिन है। जब वह स्वतंत्र लोकतांत्रिक और संपन्न राज्य बना, जिसमें कोई राज्य धर्म नहीं है और सभी धर्मों को बराबरी से देखा जा सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने भी हाल में कहा कि अब हमें हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग नहीं ढूंढना चाहिए। इससे देश का सौहार्द बिगड़ता है और आपसी भाईचारे पर असर पड़ता है। हर मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढने का यह अभियान रुकना चाहिए नहीं तो यह बहुत नुकसान देगा। साथ-साथ यह भी कहना जरूरी है कि वक्फ बोर्ड को हर संपत्ति को वक्फ प्रापर्टी कहना बंद करना होगा। इसी का रिएक्शन है हर मस्जिद के नीचे मंदिर।

-अनिल नरेन्द्र

इंडिया गठबंधन के साथियों में बेचैनी



संसद के अंदर और बाहर दोनों ही जगहों पर इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों के बीच मतभेद साफ दिखाई दे रहे हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद अब पार्टियां गठबंधन के भीतर अपनी आवाजें उठाने लगी हैं। साथ ही राहुल गांधी की भूमिका को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। राहुल गांधी पर कोई सीधे सवाल खड़े कर रहा है तो कोई इंडिया कंवीनर को लेकर अपने सुझाव दे रहा है। महाराष्ट्र में सपा का शिव सेना उद्धव ठाकरे गुट से नाराजगी की बात कहते हुए महाविकास अघाड़ी गुट से नाता तोड़ लेने में राज्य की सियासत पर असर भले ही न डाले, लेकिन इसके गहरे मायने हैं। इसी तरह तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का इंडिया एलाइंस को लीड करने की इच्छा जाहिर करना भी बहुत कुछ कहता है। इन दोनों की नाराजगी गठबंधन के नेतृत्व और इस तरह से सीधे कांग्रेस को लेकर है। इंडिया गठबंधन में शामिल दलों के नेताओं के बयानों पर यदि गौर किया जाए तो ऐसा लगता है कि उनमें भी कहीं न कहीं बेचैनी है। कटु सत्य तो यह है कि कांग्रेस चाहे लोकसभा का चुनाव हो या फिर विधानसभा का कांग्रेस कहीं अच्छा परफार्म नहीं कर पाई। दरअसल कांग्रेस का संगठन बहुत कमजोर है। बेशक सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और मल्लिकार्जुन कितना भी जोर लगाकर हवा बना दें पर संगठन नाम की कोई चीज कांग्रेस के पास नहीं है। खुद कांग्रेस के अंदर लोग राहुल को फेल करने में लगे हुए हैं। जहां कहीं भी कांग्रेस और भाजपा की डायरेक्ट फाइट होती है। कांग्रेस बुरी तरह से हार जाती है। राहुल बेशक जनता से जुड़े मुद्दे उठाते हैं पर उनका पार्टी के अंदर कोई फालोअप नहीं है और पार्टी नेतृत्व में थोक परिवर्तन करने की इच्छा शक्ति भी नहीं दिखती। आज तक ढंग से हरियाणा और महाराष्ट्र में करारी हार की जिम्मेदारी तय नहीं हो सकी और न पार्टी के अंदर बैठे किसी जयचंदों की छुट्टी हो सकी। सो इस लिहाज से अगर ममता इंडिया गठबंधन को लीड करती हैं तो उसमें बुराई क्या है? मकसद तो भाजपा को हराना है और यह काम कांग्रेस या राहुल गांधी मौजूदा परिस्थितियों में नहीं कर सकते। हर हार से विपक्ष कमजोर होता जा रहा है और सत्तापक्ष मजबूत होता जा रहा है। राहुल गांधी को अपनी स्ट्रेटजी भी बदलनी होगी। उन्हें अब गौतम अडाणी पर इतना फोकस नहीं करना चाहिए। यह मेरी निजी राय है। क्योंकि अडाणी मुद्दे पर न तो उनकी पार्टी के अंदर उन्हें समर्थन मिल रहा है और न ही सहयोगी दलों से। सब अपने हितों को देखते हैं। गौतम अडाणी अब पूरी तरह एक्सपोज हो चुके हैं। उनके काले कारनामें पूरी दुनिया में उजागर हो रहे हैं। अडाणी से अमेरिका, केन्या, आस्ट्रेलिया, बांग्लादेश इत्यादि देश निपट लेंगे। राहुल को दूसरे ज्वलंत मुद्दों जैसे बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, संविधान सुरक्षा, आपसी सद्भाव जैसे मुद्दों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। बेशक आज ऐसा लगता हो कि इंडिया गठबंधन में दरार आ गई है ऐसा नहीं है। आज भी सब अपने-अपने तरीके से सत्तारूढ़ दल से निपटने में जुटे हुए हैं। रहा सवाल गठबंधन के नेतृत्व का तो सभी दलों को मिल-बैठकर आपसी मशविरा करके तय कर लेना चाहिए।

Tuesday, 10 December 2024

ट्रंप के आने का खौफ



अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन गंभीर आरोपों से घिरे अपने बेटे हंटर बाइडन को माफी (प्रेसिडेंशियल पार्डन) देने के बाद अब एक और कदम उठाने की तैयारी में है। रिपोर्ट है कि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बदले की कार्रवाई से अपने अधिकारियों और डेमोक्रेटिक नेताओं को बचाने के लिए बाइडन सामूहिक माफी देने पर विचार कर रहे हैं। वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक बाइडन प्रशासन ने ऐसे लोगों की लिस्ट तैयार कर ली है जो ट्रंप के बदले की कार्रवाई के शिकार बन सकते हैं। अब उन सभी लोगों को अपराध पूर्व माफी दे दी जाएगी। अगर ट्रंप उन पर कोई कार्रवाई करें तो उनकी रक्षा हो सके। बाइडन प्रशासन को लगता है कि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप ने शीर्ष कानून प्रवर्तन अधिकारी के रूप में काश पटेल का चयन किया है। इससे साफ है कि ट्रंप अपने दुश्मनों के खिलाफ प्रतिशोध का वादा पूरा करेंगे। बता दें कि अपने चुनाव अभियान के दौरान ट्रंप ने उन्हें निशाना बनाने वाले अधिकारियों को जेल भेजने की धमकी भी दी थी। अगर राष्ट्रपति जो बाइडन अपने सहयोगियों और डेमोक्रेटिक नेताओं की अपराध पूर्व माफी देते हैं तो अमेरिका में 47 साल बाद ऐसा वाक्या होगा। इससे पहले 1977 में अमेरिकी राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर ने वियतनाम वार टॉपर आरोपियों को अपराध पूर्व सामूहिक माफी दी थी। इसके अलावा 1974 में राष्ट्रपति गैराल्ड फोर्ड ने पूर्व राष्ट्रपति को माफी दी थी, हालांकि बाद में उन पर आरोप साबित भी नहीं हो पाए थे। हालांकि बाइडन की अपराध पूर्व माफी को लेकर डेमोक्रेटिक पार्टी भी एकमत नहीं है। जेम्स जैसे डेमोक्रेटिक नेताओं का कहना है कि सामूहिक क्षमादान पर फिर से विचार करना चाहिए क्योंकि इससे पार्टी की छवि को नुकसान होगा। जिन लोगों को अपराध पूर्व माफी देने की चर्चा चल रही है उनमें कैपिटल हिल हिंसा की जांच करने वाले सीनेटर एडम फिश और लिज चेनी का नाम सबसे ऊपर है। राष्ट्रपति जो बाइडन के सहयोगी और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इफेक्शियंस डिजीज के पूर्व प्रमुख एंथनी घौसी का नाम भी अपराध पूर्व माफी लिस्ट में शामिल हैं। जो कोविड-19 महामारी के दौरान दक्षिण पंथी रिपब्लिकन समर्थकों की आलोचना का केंद्र बन गए थे। व्हाइट हाउस के वकील एंड सिस्केल और चीफ ऑफ स्टॉक जेफ लिएटंस पर भी कार्रवाई का डर है, उधर अमेरिकी फैडरल फाइलिंग से खुलासा हुआ है कि टेस्ला के सीईओ इलॉन मस्क ने डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार में 2 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की वित्तीय सहायता की है । भले ही ये रकम मस्क की संपत्ति का एक छोटा हिस्सा है, लेकिन फिर भी ये किसी सिंगल डोनर की ओर से दी गई बहुत बड़ी रकम है जिसने सभी को चौंका दिया है। हालांकि ट्रंप की जीत की घोषणा होते ही मस्क की संपत्ति में कई गुना इजाफा हो गया और जितना उन्होंने चुनाव में लगाया था। उससे कई गुना कमा भी लिया और आज ट्रंप का दाहिना हाथ बने हुए हैं।

-अनिल नरेन्द्र

असम में बीफ खाने पर पाबंदी



पिछले सप्ताह की शुरुआत में असम में रेस्तरां और सामुदायिक समारोहों सहित सार्वजनिक जगहों पर गाय का मीट यानी बीफ खाने पर पाबंदी लगा दी गई है। आलोचकों ने इस कदम को अल्पसंख्यक विरोधी करार दिया है और इसके पीछे असम में हिमंत बिस्वा सरमा के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार का मकसद संप्रदायों के बीच ध्रुवीकरण करना बताया है। भारत में सबसे ज्यादा आबादी कश्मीर के बाद पूर्वोत्तर राज्यों में है। सरमा ने कहा कि अब किसी भी रेस्तरां या होटल में बीफ नहीं परोसा जा सकेगा। सरमा ने कहा कि यह फैसला 2021 के उस कानून को मजबूत करने के लिए किया गया है, जिसे उनकी सरकार असम में मवेशियों के व्यापार को रेगुलेर करने के लिए लेकर आई थी। असम कैटल प्रदर्शन एक्ट 2021, मवेशियों के ट्रांसपोर्ट पर पाबंदी को कड़ा करता है और मवेशियों की बलि के साथ-साथ हिंदू धर्म के केंद्रों के पांच किमी के किसी दायरे में बीफ खरीद बिक्री पर भी प्रतिबंध लगाता है। हम तीन साल पहले इस कानून को लाए थे और अब इसे काफी कारगर पाया गया कहते हैं सरमा/ मुस्लिम हितो का प्रतिनिधित्व करने वाली सिविल सोसायटी संगठनों के साथ-साथ असम में विपक्षी दलों ने मुख्यमंत्री की इस घोषणा की आलोचना की है। वो इसे इस साल 2026 में होने वाले राज्य विधानसभा चुनाव के मद्देनजर उठाया गया कदम बता रहे हैं। कांग्रेsस नेता गौरव गोगोई ने कहा कि मुख्यमंत्री झारखंड के भाजपा की अपमानजनक हार के बाद अपनी नाकामी को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं असम कांग्रेस से अध्यक्ष भूपेन वोरा ने कहा कि इस फैसले का मकसद वित्तीय संकट, महंगाई और बेरोजगारी जैसे वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाना है। असम कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा हमारे (कांग्रेस) नेताओं ने कहा कि भाजपा ने हालिया चुनावों में जीतने के लिए अनुचित हथकंडे अपनाए, जिसमें धांधली और अधिकारियों की निक्रियता शामिल है। अब मुख्यमंत्री बैकफुट पर आ गए हैं। उन्होंने कैबिनेट के इस फैसले को आगे बढ़ाने के फैसले के रूप में बीफ का हवाला दिया है। राजनीतिक बयानबाजी को अलग रुख भी दें तो मुसलमानों की करीब 34 फीसदी आबादी (साल 2011 की जनगणना के मुताबिक) असम में बीफ खाने पर पूरी तरह पाबंदी से जुड़े कई अहम पहलू हैं। इसे सबसे ज्यादा राज्य का बंगाली मुस्लिम समुदाय महसूस करता है, मुस्लिम आबादी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उन्हें अक्सर बाहरी या बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी बताया जाता है। इसके अलावा ऐसे कदमों में राज्य के संचालन में चलने वाले मदरसों को ध्वस्त करना, बहु विवाह पर प्रतिबंध और लव जिहाद से निपटने के लिए कानून लाने की योजनाएं भी शामिल हैं। बंगाली मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले छात्र संगठन आल असम माइनारिटीज छात्र यूनियन के अध्यक्ष रेजाउल करीम ने प्रतिबंध को अल्पसंख्यक समुदाय को अलग-थलग करने और उन्हें निशाना बनाने की एक और घटना बताया। अगर बीफ खाने वालों की हम बात करें तो ऐसा नहीं कि बहुत से हिन्दू भी बीफ खाते हैं। गोवा राज्य में बीफ खुलेआम खाया जाता है, पूर्वोत्तर के कई राज्यों में बीफ खाने का प्रचलन है। बीफ न खाना एक धार्मिक मुद्दा तो हो सकता है पर किस को क्या खाना-पहनना है यह थोपा नहीं जा सकता। सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि भारत से बीफ सबसे ज्यादा निर्यात (एक्सपोर्ट) करने वाली चार सबसे बड़ी कंपनियां हिन्दुओं की हैं। बेशक नाम उन्होंने गुमराह कररने के लिए उर्दू और अरबी टाइप के रखे हुए हैं। खाना-पीना यह व्यक्तिगत फैसला है जिसे कानून से लागू करना ठीक नहीं है।

Saturday, 7 December 2024

सुखबीर बादल पर जानलेवा हमला

श्री अकाल तख्त साहिब में तनखैया घोषित हो चुके सुखबीर बादल और उनकी तत्कालीन कैबिनेट में रहे मंत्रियों को धार्मिक सजा सुनाते हुए श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदारों ने बड़ा ऐलान किया है। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और दिवंगत नेता प्रकाश सिंह बादल को दिया गया। फक्र-ए-कौम सम्मान वापस लेने का ऐलान किया है। इसके साथ ही उनके बेटे सुखबीर बादल को भी धार्मिक सजा सुनाई गई। दरअसल, ये मामला गुरमीत सिंह राम रहीम से जुड़ा हुआ है। श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी रघुबीर सिंह ने कहा कि यह शर्म की बात है कि श्री अकाल तख्त साहिब से बनी पार्टी मुद्दों से हटकर बात करने लगी है। दरअसल जिस वक्त पंजाब में गुरू ग्रंथ साहिब की बेअदबियों के मामले हुए उस दौरान पंजाब के सीएम प्रकाश सिंह बादल थे। श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी रघुबीर सिंह ने कहा, सुखबीर सिंह बादल ने अपराध कबूल कर लिया है कि उन्होंने जत्थेदार साहिबों को अपने आवास पर बुलाया और गुरमीत राम रहीम को माफी के लिए दबाव डाला। इस काम में दिवंगत मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल भी शामिल थे। सुखबीर सिंह बादल सहित कोर कमेटी मेंबर और साल 2015 में कैबिनेट रहे नेता 3 दिसम्बर को 12 बजे से लेकर 1 बजे तक बाथरूम साफ करेंगे। इसके बाद वो नहाकर लंगर घर में सेवा करेंगे। बाद में श्री सुखमणि साहिब का पाठ होगा। सुखबीर सिंह बादल दरबार साहिब के बाहर बरछा लेकर बैठेंगे। उन्हें गले में तनखैया घोषित किए जाने की तख्ती पहननी होगी। इसी दौरान जब सुखबीर सिंह बादल दरबार साहिब के बाहर बरछा लेकर बैठे थे तभी उनपर एक जानलेवा हमला हुआ। बुधवार सुबह खालिस्तान समर्थक आतंकी ने सुखबीर को जान से मारने का प्रयास किया। सादी वर्दी में तैनात पुलिस के एएसआई की सतर्कता से वह सुरक्षित बच गए। एएसआई जसबीर सिंह ने आतंकी का हाथ पकड़ कर पिस्तौल ऊपर उठा दी। जिससे गोली दीवार पर लगी और कोई हताहत नहीं हुआ। पुलिसकर्मियों ने आतंकी नारायण सिंह चौड़ा को मौके पर ही दबोच लिया। इस बीच सीएम भगवंत मान ने बादल पर हमले की जांच के आदेश दिए हैं। उन्होंने डीजीपी से रिपोर्ट भी तलब की है। कट्टरपंथी संगठन दल खालसा से जुड़ा चौड़ा गुरदासपुर के डेरा बाबा नानक का रहने वाला है। बब्बर खालसा इंटरनेशनल (बीकेआई) और खालसा लिबरेशन फोर्स (केएलएफ) से भी उसके संबंध रहे हैं। बेअदबी के आरोप में अकाल तख्स से मिली सजा के तौर पर दूसरे दिन सुबह नौ बजे शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख सुखबीर बादल स्वर्ण मंदिर के द्वार पर व्हीलचेयर पर बैठकर पहरा दे रहे थे। आतंकी चौड़ा काफी घंटे से इधर-उधर घूम रहा था। करीब 9.30 बजे मौका पाकर वह सुखबीर के सामने आ गया और पाकेट से पिस्तौल निकाल ली। इससे पहले कि वह गोली चलाता एएसआई जसबीर ने उसे पकड़ लिया। इस दौरान हुई हाथापाई में चौड़ा ने गोली चलाई, जो दीवार पर जा लगी। बादल को जेड प्लस सुरक्षा मिली है। इस हमले के पीछे प्राथमिक जांच के दौरान पुलिस को बब्बर खालसा इंटरनेशनल (बीकेआई) और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से जुड़े इनपुट मिले हैं। एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि अलगाववाद के मंसूबे को बढ़ावा देने के लिए सुखबीर पर यह हमला हुआ है, ताकि प्रदेश की न केवल शांति भंग की जा सके। बल्कि हमले के जरिए कट्टरपंथी खालिस्तानी और अलगाववादी विचारधारा को हावी दिखाया जा सके। -अनिल नरेन्द्र

बैलेट पेपर से चुनाव कराने का प्रयास

महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के मालशिरस विधानसभा क्षेत्र के ग्रामीणों का एक समूह मतपत्रों से पुनर्मतदान कराने पर जोर दे रहा था, लेकिन पुलिस-प्रशासन के हस्तक्षेप के बाद उन्होंने मंगलवार को अपनी योजना रद्द कर दी। इस सीट से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद चन्द्र पवार), राकांपा-एसपी के विजयी उम्मीदवार ने यह सनसनीखेज जानकारी दी। पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि उन्होंने ग्रामीणों को चेतावनी दी कि अगर वे मतदान की अपनी योजना पर आगे बढ़े तो उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी। इससे पहले, सोलापुर जिले के मालशिरस क्षेत्र के मरकड़वाड़ी गांव के निवासियों ने बैनर लगाकर दावा किया था कि तीन दिसम्बर को पुनर्मतदान कराया जाएगा। इसके लिए उन्होंने बाकायदा मतपत्र भी छपवाए थे और वे चाहते थे कि मतपत्र से पुनर्मतदान कराया जाए। ताकि ईवीएम के परिणामों से उनको मिलाया जा सके। यह गांव मालशिरस विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता है। यहां से राकांपा उम्मीदवार उत्तम जानकार ने भाजपा के राम सतपुते को 13,147 मतों से हराया था। चुनाव के नतीजे 23 नवम्बर को घोषित किए गए थे और इस सीट से जानकार विजयी रही। आमतौर पर हारने वाले उम्मीदवार ही ईवीएम के परिणाम को चुनौती देता है। यहां तो जीते हुए उम्मीदवार के वोटरों ने ही ईवीएम परिणाम को चुनौती दे डाली? मरकड़वाड़ी निवासियों ने दावा किया कि उनके गांव में जानकर को सतपुते के मुकाबले कम वोट मिले, जो संभव नहीं था। स्थानीय लोगों ने ईवीएम पर संदेह जताया। एक अधिकारी ने बताया कि मालशिरस उपमंडल अधिकारी (एसडीएम) ने कुछ स्थानीय लोगों की पुनर्मतदान की योजना के कारण किसी भी संघर्ष या कानून-व्यवस्था सबकी स्थिति से बचने के लिए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 163 (जो पहले 144 होती थी) के तहत दो से पांच दिसम्बर तक क्षेत्र में निषेधाज्ञा लागू कर दी। गांव में मंगलवार सुबह अत्याधिक संख्या में पुलिस कर्मियों को तैनात किया गया, क्योंकि कुछ ग्रामीणों ने मतपत्रों से पुनर्मतदान के लिए इंतजाम किए थे। डीएसपी नारायण शिरगावकर ने कहा कि हमने ग्रामीणों को कानूनी प्रक्रिया समझाई और चेतावनी भी दी ]िक अगर एक भी वोट डाला गया तो मामला दर्ज हो जाएगा। जानकार ने बताया कि पुलिस प्रशासन के रुख को देखते हुए ग्रामीणों ने मतदान प्रक्रिया रोकने का निर्णय लिया। उन्होंने कहा, हालांकि हम अन्य तरीके से अपना विरोध जारी रखेंगे। हम सब मुद्दे को निर्वाचन आयोग और न्यायपालिका जैसे विभिन्न अधिकारियों के समक्ष ले जाने का प्रयास करेंगे और जब तक हमें न्याय नहीं मिल जाता, हम नहीं रुकेंगे। इससे पूर्व स्थानीय निवासी रंजीत ने दावा किया कि मतदान के दिन गांव में 2000 मतदाता थे और उनमें से 1900 ने मताधिकार का इस्तेमाल किया। गांव ने पहले भी हमेशा जानकर का समर्थन किया है, लेकिन इस बार ईवीएम के जरिए हुई मतगणना के अनुसार जानकर को 843 वोट मिले, जबकि भाजपा के महायुते को 1003 वोट मिले। यह संभव नहीं है और हमें ईवीएम के इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं है, इसलिए हमने मतपत्रों के जरिए पुनर्मतदान कराने का फैसला किया ताकि ईवीएम की धांधली का भांडा फोड़ सकें। खबर है कि महाराष्ट्र के अन्य गांवों में भी ऐसी वोटिंग की योजनाएं चल रही हैं। इससे पता चलता है ईवीएम की विश्वसनीयता का।

Thursday, 5 December 2024

महाराष्ट्र में ईवीएम पर बढ़ता बवाल

महाराष्ट्र में ईवीएम मशीनों और उनके द्वारा निकले विधानसभा चुनाव में नतीजों पर बवाल बढ़ता ही जा रहा है। अब तो महाराष्ट्र में कई स्थानों पर जनता, उम्मीदवार सड़कों पर उतर आए हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पाटी (एसपी) प्रमुख शरद पवार ने आरोप लगाया है कि महाराष्ट्र में पूरे चुनावी तंत्र को नियंत्रित करने के लिए सत्ता और धन का दुरुपयोग जो हुआ है वह पहले कभी किसी विधानसभा या राष्ट्रीय चुनाव में नहीं देखा गया। पवार ने यह बयान 90 वर्ष से ऊपर की आयु के समाजसेवी बाबा आढ़ाव से मुलाकात के दौरान दिया। बाबा आढ़ाव महाराष्ट्र में हाल में हुए विधानसभा चुनाव में कfिथत रूप से ईवीएम के दुरुपयोग के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। आढ़ाव (90) ने गुरुवार को समाज सुधारक ज्योतिबा फुले के पुणे स्थित निवास फुले वाडा में अपना तीन दिवसीय प्रदर्शन किया। शरद पवार ने कहा कि देश में हाल में चुनाव हुए हैं और लोगों में उन्हें लेकर बेचैनी है। उन्होंने कहा कि बाबा आढ़ाव का आंदोलन इसी बेचैनी का प्रतिनिधित्व करता है। लोगों में यह सुगबुगाहट है कि महाराष्ट्र में हाल में हुए चुनाव में सत्ता का दुरुपयोग और बड़ी मात्रा में धन का इस्तेमाल हुआ है जो पहले कभी नहीं देखा गया। स्थानीय स्तर के चुनावों में ऐसी बातें सुनने को मिलती रहीं पर धन की मदद से पूरे चुनावी तंत्र पर कब्जा और सत्ता का दुरुपयोग पहले कभी नहीं देखा। पवार ने कहा कि लोग दिवंगत समाजवादी विचारक जयप्रकाश नारायण को याद कर रहे हैं और उन्हें लगता है कि किसी को आगे आकर कदम उठाना चाहिए। कदम उठा भी लिया गया है। महाराष्ट्र में हार का सामना करने वाले महाविकास अघाड़ी (एमवीए) के उम्मीदवारों ने अपने क्षेत्रों में ईवीएम और वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपेट) इकाइयों में सत्यापन की मांग करने का फैसला ले लिया है। कई हारे हुए उम्मीदवारों ने सुप्रीम कोर्ट के ईवीएम सत्यापन के फैसले पर चुनाव आयोग में ईवीएम की कंट्रोल यूनिट पर पुन गिनती कराने की अपनी याचिका दायर भी कर दी है। सोशल मीडिया में दावा किया जा रहा है कि दर्जनों हारे हुए उम्मीदवार ने पुन गिनती की फीस भी जमा कर दी है। अकेले बारामति के हारे उम्मीदवार पवार के भतीजे ने भी 9 लाख रुपए फीस जमाकर दी है। महाराष्ट्र में कई और अन्य दर्जनों उम्मीदवारों ने भी ऐसा ही किया है। लोकतंत्र में शिकायतों का सत्यापन होना जरूरी है और चुनाव आयोग को इसमें पूरा सहयोग करना चाहिए न कि खानापूर्ति करके छुटकारा पाने की कोशिश करनी चाहिए। मुंबई के शिव सेना (यूबीटी) के एक विधायक ने दावा किया कि डाले गए वोट और ईवीएम में गिने गए वोट की संख्या में विसंगतियां हैं। विधायक ने कहा, लगभग सभी उम्मीदवारों ने ईवीएम की कार्यप्रणाली पर संदेह जताया है। मराठी के एक समाचार पत्र ने 95 विधानसभा क्षेत्रों की एक सूची बकायदा छापी है जहां पर चुनावी धांधली के आरोप लग रहे हैं। वोटों की मिसमैच के आरोप लग रहे हैं। चुनाव आयोग ने इन आरोपों से इंकार किया है और कहा है कि आयोग हर सवाल का जवाब देगा। देखें, आगे क्या होता है। -अनिल नरेन्द्र

क्या कांग्रेस कठोर निर्णय लेने में सक्षम है?

पहले हरियाणा अब महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस ने इसकी वजहों पर हर बार हार के बाद मंथन किया और माना कि आपसी कलह, संगठन की कमजोरी के साथ-साथ किसी की जवाबदेही स्पष्ट न होने से पार्टी की यह दुर्गति हुई है। साथ ही, ईवीएम पर संदेह का मुद्दा भी उठाया। कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) की बैठक में प्रस्ताव पारित कर आरोप लगाया गया कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव संवैधानिक जनादेश है। पर चुनाव आयोग की पक्षपाती कार्यप्रणाली से गंभीर सवाल उठ रहे हैं। पार्टी ने आरोप लगाया कि समाज के कई वर्गों में निराशा व आशंकाएं बढ़ रही हैं। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने दो टूक कहा कि अब पुराना ढर्रा नहीं चलने वाला है। पार्टी नेताओं को बिना सोचे-समझे एक-दूसरे पर टीका-टिप्पणी करने से बाज आना होगा। खरगे ने कहा, हमें तुरंत चुनावी नतीजों से सबक लेते हुए संगठन के स्तर पर अपनी कमजोरियों और खामियों को दुरुस्त करने की जरूरत है। ये नतीजे हमारे लिए स्पष्ट संदेश हैं। खरगे ने लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन से कांग्रेस के पक्ष में बने माहौल के बावजूद हरियाणा व महाराष्ट्र में हार को आश्चर्यजनक बताया। कहा सिर्फ छह महीने पहले जो नतीजे आए थे, उसके बाद ऐसे नतीजे? क्या कारण है कि हम माहौल का फायदा उठा नहीं पाते? मल्लिकार्जुन हfिरयाणा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान से बदलाव की शुरुआत कर सकते हैं। अगर वे सही मायने में कांग्रेस संगठन को मजबूत करना चाहते हैं। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और खुद मल्लिकार्जुन बेशक माहौल तैयार करें पर उसका फायदा तभी होगा जब कांग्रेस का संगठन इस हवा को कैश कर सकेगा। कटु सत्य तो यह है कि इन तीन नेताओं को छोड़कर बाकी कांग्रेसी अब मेहनत करने के आदी नहीं रहे, जमीन पर उतरने को तैयार नहीं हैं। जनता की भावनाओं से कट चुके हैं। हाई कमान के करीबी लोग अनचाहे टिकटों का बंटवारा करते हैं, यह भी कहा जाता है कि टिकटों की सेल भी होती है। पार्टी को इससे छुटकारा पाना होगा। वह संगठन मंत्री ही क्या जो आज तक जिला अध्यक्ष, ब्लाक अध्यक्ष, बूथ अध्यक्ष तक नहीं बना सके? छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हार को करीब छह महीने बीत चुके हैं पर, पार्टी अभी तक इन राज्यों में जवाबदेही तय करते हुए बदलाव नहीं कर पाई हैं। दोनें राज्यों में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अपने पदों पर अभी भी बरकरार हैं। हिमाचल प्रदेश और ओडिशा में पार्टी प्रदेश कार्यकारिणी को भंग कर चुकी है पर काफी कोशिशों के बावजूद नए अध्यक्ष के नाम पर प्रदेश कांग्रेस के दोनों गुटों में सहमति नहीं बन पा रही है। ऐसे में पार्टी जवाबदेही तय करने की हिम्मत जुटाती है, तो उसे पार्टी के अंदर काफी विरोध का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि, प्रदेश क्षत्रप बदलाव के लिए तैयार नहीं है। महाराष्ट्र में भी पार्टी को नए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की नियुfिक्त करते हुए प्रदेश प्रभारी को भी बदलना होगा। प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले और प्रदेश प्रभारी रमेश दोनों के खिलाफ अंदर-अंदर नाराजगी है। हरियाणा चुनाव परिणाम को दो महीने से ज्यादा समय हो चुका है पर पार्टी ने अभी तक हार से कोई सबक नहीं लिया है। आपसी गुटबाजी की वजह से पार्टी विधानसभा में नेता विपक्ष तक इतने दिनों के बाद भी तय नहीं कर पाई। कांग्रेस का ऊपर से नीचे तक ओवर हॉल करना होगा पर सवाल है कि क्या मल्लिकार्जुन ऐसा कर कर सकते हैं।

Tuesday, 3 December 2024

क्या इजरायल और हिजबुल्ला जंग थमी है



7 अक्टूबर 2023 को इजरायल पर आतंकी हमले के चलते पूरे पश्चिम एशिया में अराजकता फैलाने के बाद करीब 14 महीने (418 दिन) के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की पहल पर इजरायल और हिजबुल्ला के बीच सीजफायर यानि युद्ध विराम की घोषणा हुई है। इजरायल-हमास ने युद्ध शुरू होने के बाद से ही उत्तरी सीमा पर हमला करना शुरू किया था। अमेरिका और फ्रांस के संयुक्त बयान में कहा गया कि इस समझौते से लेबनान में जारी जंग रूकेगी और इजरायल पर भी हिजबुल्ला और अन्य आतंकी संगठनों के हमले का खतरा बढ़ जाएगा। युद्ध विराम की कोशिशें आखिर रंग लाई और दुनिया ने चैन की सांस ली। हालांकि यह युद्ध विराम कितना प्रभावी होगा इस पर प्रश्न चिह्न लग रहे हैं। वैसे तो युद्ध विराम के प्रयास कई महीने से चल रहे थे पर नेतन्याहू मान नहीं रहे थे। अब जब हिजबुल्ला ने इजरायल के होश ठिकाने लगा दिए हैं इसलिए नेतन्याहू युद्ध विराम करने पर मजबूर हो गए हैं। दरअसल इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने 26 नवम्बर को कहा कि वह तीन कारणों और शर्तों पर युद्ध विराम पर सहमत हुए हैं। पहला कारण बताया कि इजरायली सैन्य बलों को हिजबुल्ला से दूर रखने और ईरान के बढ़ते खतरे पर फोकस करने की जरूरत थी। दूसरा इजरायल के सैन्य अभियानों में रसद संबंधी चुनौतियों विशेष रूप से हथियार और युद्ध सामग्री प्राप्त करने में देरी को स्वीकारा है यानि के इजरायल के पास हथियार और युद्ध सामग्री लगभग समाप्त हो गई है और फिर से सप्लाई को पूरा करने के लिए समय चाहिए। तीसरा कारण उन्होंने बताया कि युद्ध के मैदान से हिजबुल्ला को किनारे कर हमास को अलग-थलग करना। साधारण शब्दों में कहा जाए तो हिजबुल्ला ने इजरायल को ठिकाने लगा दिया है और अपने असित्व को बचाने के लिए घुटने टिकवा दिए हैं। उधर लेबनान में हिजबुल्ला के प्रमुख नईम कासिम ने इस समझौते को हिजबुल्ला की महान जीत बताया और लेबनान के लोगों के धर्म की तारीफ की। हिजबुल्ला के साथ इजरायल की पिछली लड़ाई 2006 में हुई थी जिसमें इजरायल को मुंह की खानी पड़ी थी। उन्होंने कहा हम जीते क्योंकि दुश्मन को हिजबुल्ला को नष्ट करने से रोक दिया। हम जीते क्योंकि रेजिस्टेंस को खत्म करने या पंगु करने से रोक दिया। फिलस्तीन के लिए हमारा समर्थन रूकेगा नहीं। हमने बार-बार कहा है कि हम युद्ध नहीं चाहते हैं लेकिन हम गाजा का समर्थन करना चाहते हैं और अगर इजरायल जंग थोपता है तो हम इसके लिए तैयार हैं। लेबनान का कहना है कि अक्टूबर 2023 से लेकर अब तक 3961 लेबनानी नागरिक मारे गए हैं जिनमें अधिकांश संख्या हाल के सप्ताहों की है। इजरायल की ओर से जारी आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक हिजबुल्ला के साथ हुए संघर्ष में उसके 82 सैनिक और 47 नागरिक मारे गए हैं। उधर इजरायली सेना ने बृहस्पतिवार को कहा कि उसके लड़ाकू विमानों ने एक राकेट भंडारण इकाई पर हिजबुल्ला की गतिविधि का पता लगने के बाद दक्षिणी लेबनान पर गोलीबारी की। यह इजरायल और हिजबुल्ला के बीच संघर्ष विराम लागू होने के एक दिन बाद पहला इजरायली हमला था। इससे प्रश्न यह उठ रहा है कि इजरायल और हिजबुल्ला के बीच जंग जारी है? वैसे अब युद्ध विराम का स्वागत किया जाना चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि यह सिलसिला आगे बढ़े और हमास व इजरायल के बीच भी युद्ध विराम हो और यह युद्ध थमे।

-अनिल नरेन्द्र

महाराष्ट्र में सरकार गठन में फंसा पेंच



महाराष्ट्र चुनाव के नतीजे आए हुए लगभग 10 दिन हो चुके हैं। 23 नवम्बर को नतीजे आए थे और 25 नवम्बर तक सरकार का गठन होना जरूरी था। अगर ऐसा नहीं होता तो हमारे अनुसार राष्ट्रपति शासन लग सकता था। पर इतने दिन बीतने के बाद महायुति गठबंधन न तो सरकार बनाने का दावा पेश कर सका है और न ही इस संपादकीय लिखने तक यह तय कर सका है कि महाराष्ट्र का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा? संभव है कि आगामी एक दो दिन में यह तय हो जाए। पेंच कहां फंसा है? महाराष्ट्र में सरकार गठन से पहले महायुति में मुख्यमंत्री पद और विभागों के बंटवारे पर सहमति नहीं बन पाई है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के आवास पर बृहस्पतिवार देर रात तीन घंटे चली बैठक में भी कोई फैसला नहीं हो पाया। सारा पेंच एकनाथ शिंदे का फंसा हुआ है। शिंदे समर्थक कहते हैं कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में लड़ा गया था इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री पद मिलना चाहिए। वहीं भाजपा नेताओं का मानना है कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है तो मुख्यमंत्री उसका ही होना चाहिए। कायदे से यह बात भी ठीक है। सबसे बड़ी पार्टी का ही मुख्यमंत्री होना चाहिए। पर यह भी सही है कि विधानसभा चुनाव में एकनाथ शिंदे ने कड़ी मेहनत की है, उनकी कई योजनाएं रंग लाई हैं, उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा गया था तो मुख्यमंत्री पद पर उनका ही हक बनता है। पर भाजपा इसके लिए तैयार नहीं है। एकनाथ शिंदे नाराज होकर अपने गांव सतारा चले गए थे और कोपभाजन में जाकर बैठ गए थे। इधर भाजपा में भी किसको मुख्यमंत्री बनाना है इस पर भी असमंजस की स्थिति है। एक वर्ग देवेन्द्र फडणवीस को बनाना चाहता है, और फडणवीस को कहा जा रहा है कि संघ का भी समर्थन है। पर भाजपा के अंदर एक तबका इसका विरोध कर रहा है कि एक ब्राह्मण को मुख्यमंत्री बनाया तो ओबीसी और खासकर मराठा मतदाता नाराज हो जाएगा। सामाजिक समीकरण भी देखने होंगे। इसलिए किसी अन्य मराठा नेता की तलाश की जा रही है। पर भाजपा नेतृत्व की गले की फांस बने हुए हैं एकनाथ शिंदे। शिंदे को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं करना चाहता भाजपा नेतृत्व। उसके पीछे दो प्रमुख कारण हैं। पहला कि पिछले ढाई साल से एकनाथ शिंदे ने महाराष्ट्र की कमान संभाली हुई है। उनके पास कई ऐसी जानकारियां होंगी जिनके उभरने से नेतृत्व को नुकसान हो सकता है। अगर शिंदे के खिलाफ नेतृत्व के पास फाइल तैयार है तो शिंदे के पास भी सारे कारनामों की फाइल तैयार होगी। इसके अलावा हमें यह नहीं भुलना चाहिए कि केंद्र में शिवसेना (शिंदे गुट) के सात सांसद हैं जो भाजपा सरकार का समर्थन कर रहे हैं। कहीं इस विवाद में वह अपना समर्थन वापस न ले लें और केंद्रीय सरकार अस्थिर हो जाए। कुल मिलाकर हमें लगता है कि तुरुप के पत्ते एकनाथ शिंदे के हाथों में हैं। देखें, अब ऊंट किस करवट बैठता है।