Friday 30 October 2020

भारत-अमेरिका के बीच सुरक्षा सहयोग

भारत और अमेरिका के विदेश एवं रक्षा मंत्रियों की दिल्ली में हुईं अत्यंत महत्वपूर्ण बैठक में पांच समझौते हुए जिन्हें दोनों देशों के बीच वूटनीतिक एवं सुरक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण माना जा रहा है। दोनों देशों के नेताओं द्वारा हुए समझौतों का महत्व इसी से स्पष्ट हो गया कि भारत के दोनों शत्रु राष्ट्र चीन और पाकिस्तान में जबरदस्त प्रातिव््िराया हुईं। चीन तो तिलमिलाया जबकि पाकिस्तान में सैन्य प्रातिष्ठान यह मान चुका है कि उसकी सरकार की नाकामियों की वजह से अब भारत और अमेरिका के बीच जो सहयोग तंत्र विकसित हुआ है उससे पाकिस्तान न घर का रहा न घाट का, क्योंकि अमेरिका के साथ ही उसके सारे सहयोगी देशों ने भी भारत के साथ नजदीकियां बढ़ा लीं और जो कभी पाकिस्तान की मदद करते थे वे भी भारत के हर मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ और भारत के साथ खड़े दिख रहे हैं। बहरहाल दोनों देशों के बीच बीईंसीए यानि बेसिक एक्सचेंज एंड को-ऑपरेशन एग्रीमेंट सम्पन्न हुआ। इस समझौते के तहत अत्याधुनिक सैन्य प्राौदृाोगिकी उपग्राह के गोपनीय डाटा एवं दोनों देशों की सेनाओं के बीच अहम सूचना साझा करने की अनुमति होगी। इस महत्वपूर्ण समझौते के बावजूद भी चार समझौते और सम्पन्न हुए हैं। इनमें पहला है पृथ्वी अवलोकन, पृथ्वी विज्ञान में तकनीकी सहयोग के लिए करार। दूसरा है दोनों देशों के बीच परमाणु ऊर्जा से जुड़े समझौते का ि़वस्तार। तीसरा है डाक परिचालकों में सीमा शुल्क डाटा का इलेक्ट्रॉनिक आदान-प्रादान। चौथा है आयुव्रेद और वैंसर के छात्रों में शोध व अनुसंधान सहयोग बढ़ेगा। इन सभी पांचों समझौतों में से बीईंसीए समझौता इसि़लए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि अमेरिका इस तरह का समझौता सिर्प नाटो सहयोगी देशों के साथ ही करता है और इस समझौते का मतलब है भारत के शत्रु देश के साथ युद्ध के समय भारत को पूरा खुफिया तकनीकी एवं अस्त्र-शस्त्र की सहायता करना। सच तो यह है कि भारत अब किसी तरह के मुगालते में नहीं है। नईं दिल्ली इस बात को अच्छी तरह समझती है कि उसे किस देश से वैसा संबंध स्थापित करके रखना है। शीत काल के दौर की भारत अपनी गुटनिरपेक्षता की नीति का श्राद्ध कर चुका है। भारत के नीति-निर्धारक गुटनिरपेक्षता की नीति की आड़ में सोवियत संघ के अगुवाईं वाले वारसा पैक्ट का ही समर्थन करते थे। इससे नाटो खासकर अमेरिका भारत से चिढ़ा रहता था। वाजपेयी-क्लिंटन के बीच सम्पन्न हुए समझौते ‘विजन 2000’ में ही यह समझ बन चुकी थी दोनों लोकतांत्रिक देशों को एक साथ खड़ा होना चाहिए। कालांतर में दोनों देशों के नेताओं ने सहयोग की भावना को आगे बढ़ाया। किन्तु वुछ गलतफहमी की वजह से 2012 से 2014 के बीच दोनों देशों में तल्खी भी आईं। इन तल्ख रिश्तों के लिए कारण बहुत छोटे-छोटे थे किन्तु दोनों देशों ने सुलझाने की कोशिश नहीं की। दरअसल मईं 2014 में सत्ता संभालने के बाद प्राधानमंत्री मोदी ने अपनी सितम्बर 2014 की अमेरिका यात्रा के पूर्व इस बात का समुचित अध्ययन किया कि किस तरह दोनों देशों के बीच सुरक्षा, वूटनीति और व्यवसाय के क्षेत्र में सहयोग मजबूत किया जाए। सितम्बर में राष्ट्रपति बराक ओबामा से मिलकर समूची स्थिति की समीक्षा और आकलन करने के बाद प्राधानमंत्री मोदी ने एक सप्ताह के अंदर ही संबंधों में आने वाली बाधाओं को दूर कर दिया तथा संबंधों को मजबूत करने की परिकल्पनाओं को मूर्त रूप देने के लिए विस्तृत रूपरेखा बनाने के लिए अपनी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को अमेरिका में ही छोड़ दिया। सुषमा जी और डोभाल ने व्हाइट हाउस, स्टेट डिपार्टमेंट और पेंटागन के रणनीतिकारों से समुचित वार्ता की और रणनीति को आगे बढ़ाने की योजना बनाईं। बहरहाल उसके बाद ओबामा भारत आए और दोनों देशों ने संबंधों में गति देने में ईंमानदारी से काम किया। दोनों देशों के बीच जनरल सिक्योरिटी ऑफ मिलिट्री इंफाम्रेशन एग्रीमेंट (जीएसओएमआईंए) पर 2002 में ही हस्ताक्षर हो चुके थे किन्तु दोनों तरफ से डेढ़ दशक तक वुछ काम नहीं हुआ। किन्तु 2016 में रक्षा समझौता एवं प्राौदृाोगिकी साझा करने के संबंध में एक महत्वपूर्ण कदम के तहत अमेरिका ने 2016 में भारत को प्रामुख रक्षा सहयोगी का दर्जा दिया। दोनों देशों ने 2016 में लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट किया। भारत और अमेरिका ने 2018 में एक और महत्वपूर्ण समझौता किया जिसे कोमकासा कहा जाता है। कोमकासा समझौता भी दोनों देशों के विदेश एवं रक्षा मंत्रियों के बीच सम्पन्न हुईं बैठक के बाद ही सम्पन्न हुआ था। सच तो यह है कि भारत बीईंसीए समझौता करके अमेरिका के साथ रक्षा क्षेत्र में प्रामुख सहयोगी बन गया है। इससे शत्रु राष्ट्रों की चिन्ता बढ़ना स्वाभाविक है। किन्तु भारत अपने शत्रु राष्ट्रों की परवाह नहीं करता बल्कि परवाह करता है अपने सदाबहार मित्र रूस की जिसे पहले ही इस बात का आश्वासन दे चुका है कि भारत अपनी रक्षा जरूरतों के लिए अमेरिका की मदद लेने के लिए विवश है। किन्तु अमेरिका के साथ भारत के रक्षा समझौतों से उसे यानि रूस को किसी तरह चितित होने की जरूरत नहीं है। भारत हमेशा रूस के सामरिक हितों के प्राति संवेदनशील रहेगा। रूस भी भारत के साथ संबंधों को लेकर सहज है और वह भारत की जरूरतों के प्राति सजग है और भारतीय भावनाओं को महसूस करता है। सच तो यह है कि भारत ने अब अपने शत्रु पड़ोसियों को इस बात का अहसास दिला दिया है कि वह बदल चुका है, उसके लिए अपनी सुरक्षा सबसे अहम है क्योंकि सुरक्षित भारत ही समृद्धि की तरफ बढ़ सकता है। यदि सुरक्षा को ही चुनौती मिलती रहेगी तो आर्थिक विकास के लिए व्यवसाय का बाधित होना स्वाभाविक है। इसलिए सुरक्षा की कीमत पर व्यापार संभव नहीं है।

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