Thursday 31 July 2014

कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे का संकट तबाही किसान की

देश के कई हिस्सों में सूखे और बाढ़ की स्थिति बनी हुई है। किसानों को दोनों ही संकटों से जूझना पड़ रहा है। बिहार और उत्तर पदेश के अधिकतर हिस्सों में सूखे की आशंका थी लेकिन अब इन राज्यों में बाढ़ का खतरा भी मंडराने लगा है। बिहार में एक तरफ 25 जिले सूखे की चपेट में हैं तो दूसरी ओर कुछ शहरों में नदियों का जलस्तर बढ़ गया है। इससे हजारों एकड़ फसलों को नुकसान पहुंचा है। जाहिर है कि सूखा हो या बाढ़, दोनों ही सूरतों में खामियाजा किसानों को ही उठाना पड़ रहा है। अभी दस दिन पहले तक यूपी में सूखे की आशंका जाहिर की जा रही थी। लेकिन इस दौरान इतनी बारिश हुई कि अब बाढ़ का डर पैदा हो गया है। सिंचाई विभाग के अनुसार  शारदा नदी पलिया कला लखीमपुर खीरी और शारदानगर में खतरे के निशान को पार कर गई है। बाराबंकी के एलिगन ब्रिज और अयोध्या में घाघरा नदी खतरे के निशान के ऊपर बह रही है। गंगा नदी बुलंदशहर के नरौरा, रामगंगा, मुरादाबाद और घघरा बलिया के तुतीपार में खतरे के निशान के करीब बह रही है। अनुमान है कि घाघरा नदी बाराबंकी में एलिगन ब्रिज, अयोध्या और बलिया में तुतीपार में खतरे को पार कर जाएगी। नेपाल द्वारा पानी छोड़े जाने पर लखीमपुर खीरी, श्रावस्ती, बहराइच, गोंडा, बस्ती, सीतापुर, में बाढ़ का खतरा बढ़ता जा रहा है। उत्तराखंड में भारी बारिश के कारण पश्चिमी उत्तर पदेश के बिजनौर, मुरादाबाद, बुलंदशहर में बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। कमजोर मानसून के कारण बिहार में सूखे की स्थिति बन गई है। 25 जिलों में बारिश सामान्य से 19 फीसदी कम हुई है। इस सीजन में पहली बार राज्य में बारिश की स्थिति सामान्य से इतनी नीचे पहुंची है। कमजोर मानसून ने किसानों के लिए चेतावनी की घंटी बजा दी है। बिहार में सामान्य बारिश अब तक 417.4 मिमी होनी चाहिए थी जबकि कुछ दिन पहले तक यह आंकड़ा महज 339.1 मिमी तक ही सिमट गया। यानी सामान्य से 19 फीसदी कम बरसात से बिहार जूझ रहा है। बिहार के 25 जिलों में जहां सूखे की स्थिति है वहीं सरयू नदी में जलस्तर बढ़ने के कारण कई गांवों में बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है जबकि नेपाल में हुई भारी बारिश और बैराज से पानी छोड़ने से गोपालगंज के 10 गांव बाढ़ की चपेट में आ गए हैं। इनमें हजारों एकड़ गन्ने और मक्के की फसल बर्बाद होने की आशंका है। पटना जिले के पालीगंज में बारिश न होने के कारण धान की फसल सूखने की कगार पर पहुंच गई है। सूखा हो या बाढ़ दोनों ही सूरतों में नुकसान किसान का होता है। पैदावार कम होने से जहां कीमतें बढ़ती हैं वहीं किसान की माली हालत पभावित होती है। इतने साल बीतने के बाद भी हम बाढ़ और सूखे पर काबू नहीं पा सके। एक ही राज्य में कहीं सूखा है तो कहीं बाढ़। मगर जहां बाढ़ है उसके पानी को सूखे इलाके में पहुंचाने का पबंध होता, रेल हार्वेस्टिंग का पभावी पबंध होता तो ऐसी स्थिति से बचा जा सकता था। केंद्र और राज्य सरकारों को इस ओर ध्यान देकर दूरगामी नीति तैयार करनी चाहिए ताकि दोनों ही स्थितियों से बचा जा सके।

-अनिल नरेंद्र

वोट बैंक की सियासत उत्तर पदेश को तबाह कर रही है

दस मई को प्याऊ बनाने के मामूली विवाद ने मेरठ शहर को सांपदायिक हिंसा की आग में झोंक दिया। दो समुदायों के बीच घंटों जमकर पथराव, फायरिंग व आगजनी हुई। दुकानों को लूटा गया। हिंसा में 5 लोगों को गोली लगी। एक युवक को जान गंवानी पड़ी। इसी तरह अगस्त 2013 में कवाल गांव में छेड़छाड़ की छोटी वारदात से शुरू हुए सांपदायिक तनाव ने मुजफ्फरनगर को ही नहीं यूपी को दुनिया में बदनाम कर दिया। 28 अपैल को मुजफ्फरनगर के ही सुजड़ू गांव में सांपदायिक संघर्ष राशन वितरण के विवाद पर हो गया। चार जुलाई को कांठ (मुरादाबाद) में लाउडस्पीकर को लगाने पर मचा बवंडर अभी शांत नहीं हो रहा कि अब सहारनपुर दंगे की घटना ने एक वर्ष पुराने मुजफ्फरनगर कांड को दोहराने की दहशत बढ़ा दी है। सांपदायिक हिंसा की 247 घटनाओं के साथ उत्तर पदेश 2013 में हुए दंगों के सिलसिले में राज्यों की सूची में शीर्ष स्थान पर है और 2014 की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। उत्तर पदेश में पिछले साल सांपदायिक हिंसा में 77 लोगों की जानें गईं। वहीं इस साल के आंकड़े केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा अभी संकलित किए जाने बाकी हैं पर एक अनुमान के मुताबिक इस साल सांपदायिक हिंसा की संख्या करीब 65 है जिनमें कम से कम 15 लोगों की जानें गई हैं। आंकड़े गवाह है ंजबसे समाजवादी पाटी ने सत्ता संभाली है तब से पश्चिमी उत्तर पदेश बेकाबू है। इस संपन्न क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक व विकास का तानाबाना बिखरता जा रहा है। छोटे विवाद को बड़ा बनने की एक वजह है हुकमरानों की नीतियां और पारदर्शिता व निष्पक्षता का अभाव और यह समाज के लिए घातक होता जा रहा है। चुनाव जीतने की वोट बैंक की सियासत हावी रहने से माहौल बिगड़ने का दावा करते हुए एक पूर्व विधायक कहते हैं कि पत्याशी तय करने के लिए सभी दल जात-बिरादरी को तरजीह देते हैं। ऐसे में वोट बैंक सहजने के लिए नीतियों में निष्पक्षता बरतना सहज नहीं। मुजफ्फरनगर दंगों में जिस तरह से एक पक्षीय कार्रवाई हुई उससे सांपदायिक सौहार्द समान रह पाना संभव नहीं। अहम बात तो यह है कि वोटों को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार नेता भी सच से मुंह चुराते हैं। मुजफ्फरनगर के दंगों का दंश लोगों के दिलोदिमाग पर हावी है जिसमें राजनीतिज्ञों का रवैया न्यायपूर्ण नहीं रहा था। मुजफ्फरनगर दंगों पर सुपीम कोर्ट ने दंगा भड़कने एवं नियमित नहीं होने के लिए पुलिस व पशासनिक अधिकारियों को जिम्मेदार माना है। सिर्फ ढाई बरस पहले की बात है। पूरे उत्तर पदेश ने अखिलेश यादव को बड़ी हसरत के साथ सिर आंखों पर बिठाया था। इस उम्मीद के साथ कि यह युवा नेता पदेश को विकास का नया क्षितिज तो देगा ही, अगर समाजवादी पाटी की सरकार बनी तो अपराध पर नकेल भी कसी जाएगी। यूपी में बढ़ती सांपदायिक घटनाओं ने अखिलेश यादव की कार्यकुशलता पर सवालिया निशान लगा दिया है। आज उत्तर पदेश की जनता खुलेआम कह रही है कि इससे तो मायावती की सरकार अच्छी थी। सरकार की नीयत पर भी शक होने लगा है। सरकार ने दंगा पीड़ितों को राहत पहुंचाने के नाम पर खाली रकम खची लेकिन 16वीं लोकसभा के चुनाव में उनकी मदद वोट की शक्ल नहीं ले पाई। कोर्ट की फटकार से सरकार और पशासन की नाकामी जाहिर हो जाती है। एक पूर्व पीसीएस अधिकारी का कहना है कि राजनीतिक दबाव के चलते निष्पक्ष कार्रवाई होना संभव नहीं। हाल में पक्षपातपूर्ण फैसले बढ़ रहे हैं तो हालातों का बेकाबू होना स्वाभाविक ही है। पशासन की पहले लापरवाही फिर पक्षपात हर बार मामूली वारदात को बढ़ावा दे रहा है। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि पुलिस की स्थानीय खुफिया इकाई (एलआईयू) की विफलता का भी है जिसका काम ही छोटे-मोटे विवादों पर नजर रखना है। यह सकिय होती तो शायद उत्तर पदेश की कानून व्यवस्था का यह बुरा हाल न होता।

Wednesday 30 July 2014

आम आदमी की थाली से गायब होतीं सब्जियां

सर्वाधिक गरीब आबादी से संबंधित एक सूची में भारत का स्थान सबसे ऊपर आया है। हालांकि 1990 से 2010 के बीच दक्षिण पूर्व एशिया में गरीबी दर में कमी आई है। यह बात संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट में कही गई है। जारी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सभी गरीब लोगों का 32.9 फीसदी हिस्सा भारत में रहता है। यह अनुपात चीन, नाइजीरिया और बंगलादेश के अनुपात से भी ज्यादा है। जहां एक ओर गरीबों को बढ़ती महंगाई खा रही है वहीं दूसरी ओर राजधानी में सब्जियों ने गरीब की थाली को तारे दिखा दिए हैं। सब्जियों के दिनोंदिन चढ़ते भाव लोगों की तालियों से इन्हें दूर कर रहे हैं। मसाले के लिए टमाटर-प्याज का इस्तेमाल तो बंद-सा ही हो गया है। राजधानी में सभी सब्जियां 60 रुपए किलो से ऊपर ही मिलेंगी। सब्जी की वजह से नौकरीपेशा, रोजमर्रा कमाने वालों का बजट गड़बड़ा गया है और पॉकेट इतनी ज्यादा ढीली करनी पड़ रही है कि दिल्लीवासी सोचने पर मजबूर हैं कि खाएं तो खाएं क्या? महंगाई इतनी बढ़ गई है कि कुछ सप्ताह में कुछ सब्जियों के दाम दोगुने से भी अधिक बढ़ गए हैं। टमाटर ने तो ऐसी करवट ली कि दो सप्ताह में ही दाम तीन गुना हो गया। सब्जियों के दामों में आए उछाल के बाद लोगों को कुछ सब्जियां खरीदनी मुश्किल हो गई हैं। जहां 100 रुपए में चार दिन की सब्जियां आ जाती थीं, वहीं अब 100 रुपए की सब्जी एक दिन के लिए भी पूरी नहीं पड़ती। सबसे सस्ता है कद्दू वह भी 20 रुपए किलो। राणा प्रताप बाग से आजादपुर मंडी मार्केट में सब्जी लेने आई एक गृहिणी का कहना है कि अब दोनों वक्त की जगह एक वक्त ही सब्जी बनती है और कई बार तो उसे भी छोड़ने का मन करता है। कोशिश यही रहती है कि कम से कम कीमत वाली सब्जी ले लूं पर यहां तो सभी सब्जियों के दाम एक जैसे ही हैं। सब्जियां तो लेनी ही पड़ेंगी बस यही हो सकता है कि उनकी क्वांटिटी कम की जाए। वहीं वसुंधरा की एक गृहिणी का कहना है कि मैं तो सब्जियां खरीदने आई हूं। ज्यादातर पति ही ले आते हैं सब्जियां लेकिन आज मैं आई तो दाम सुनकर ही दंग रह गई। वह कहती हैं कि अब सब्जियां खाना आम आदमी के बस में नहीं है। टमाटर, आलू, प्याज जैसी बुनियादी सब्जियां ही इतनी महंगी हैं कि बस जी करता है सब्जी खाना ही छोड़ दें। आम आदमी की थाली से तो सब्जी ऐसे गायब होती जा रही है जैसे इनके `पर' लग गए हैं। अब तो प्याज, टमाटर को भी लिस्ट से हटाना पड़ रहा है। बच्चों को स्कूल के टिफिन में रोज सब्जी ले जानी होती है, उनको समझाना बहुत मुश्किल हो जाता है। अभी सब्जियों के दाम और भी ऊपर जाएंगे। बारिश के सीजन में वैसे ही दाम बढ़ते हैं और दशहरे तक ऐसा ही चलेगा। आजादपुर मंडी में प्याज 15 रुपए से 30 रुपए किलो तक मिल रही है। आलू 16 से 18 रुपए किलो और टमाटर 40 से 60 रुपए किलो। फूल-गोभी 80 रुपए प्रति किलो। बैंगन जैसी सब्जी 60 रुपए किलो, भिंडी 60 रुपए, करेला 50 रुपए, घीया 50 से 60 रुपए, खीरा 30 रुपए और शिमला मिर्च 40 से 60 रुपए प्रति किलो बिक रही हैं और इस सबके उपरांत शहर के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग दाम हैं।

-अनिल नरेन्द्र

गडकरी की जासूसी ः सत्य क्या है सामने आना चाहिए?

भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और मोदी सरकार में दो बड़े मंत्रालयों की जिम्मेदारी सम्भाल रहे नितिन गडकरी की जासूसी की खबर से राजनीतिक गलियारों में हड़कम्प मच गया है। गडकरी ने इसे काल्पनिक और मनगढ़ंत करार दिया है लेकिन विपक्ष ने इसे बड़ा मुद्दा बना दिया है। इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सामान्यत मुंह बंद रखने वाले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी मामले की जांच की मांग कर दी। क्या है मामला ः एक साप्ताहिक पत्रिका की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि हाल में गडकरी के 13, तीन मूर्ति लेन आवास के बैडरूम में जासूसी उपकरण लगे होने का पता चला। इन उपकरणों में बातें सुनने वाले उच्च क्षमता के खुफिया उपकरण (हाई पॉवर लिसनिंग डिवाइस) भी शामिल हैं। गडकरी ने इसे कोरी कल्पना करार देते हुए साफ इंकार किया है कि उनके घर से कोई डिवाइस नहीं मिला। आमतौर पर ऐसे जासूसी उपकरणों का उपयोग पश्चिमी देशों की खुफिया एजेंसियां करती हैं। ऐसे में सवाल यह है कि गडकरी के घर इतना उम्दा किस्म का जासूसी उपकरण अगर फिट किया गया तो यह किसने और क्यों किया? उन्हीं की पार्टी के डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने एक नया विवाद खड़ा कर दिया है कि यह जासूसी यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान की गई। ऐसे में शक की सुई कई ओर घूम रही है। यह भी कहा जा रहा है कि शायद प्रधानमंत्री कार्यालय ही मंत्रिमंडलीय सहयोगियों पर पूरा विश्वास नहीं कर पा रहा है। ऐसे में दिग्गज मंत्रियों की जासूसी शुरू की गई है। यह अलग बात है कि छपी रिपोर्ट के बाद गडकरी ने ट्विट किया कि इस खबर में कोई दम नहीं, यह मनगढ़ंत और बेबुनियाद है। गडकरी ने अपने ट्विटर संदेश में कहा कि उन्हें खुद जानकारी नहीं है कि उनके घर में किसको यह डिवाइस मिला। यह अफवाह सनसनी फैलाने के लिए मीडिया में फैलाई जा रही है। वैसे यह मामला जितना रहस्यमय है उतना ही चौंकाने वाला भी है। गडकरी के इस खंडन के बावजूद सरकारी स्तर पर इस मामले में कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया गया। गडकरी के जासूसी मामले में फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि इसमें कितनी सच्चाई है। इससे पहले भी जासूसी की कई घटनाओं की खबर मीडिया में आई। जुलाई 2014 ः एनएसए के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन द्वारा लीक दस्तावेजों से खुलासा हुआ था कि अमेरिका ने छह राजनीतिक दलों की जासूसी कराने की अनुमति दी थी। इनमें भाजपा भी शामिल थी। फरवरी 2012 ः तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी के ऑफिस में मिलिट्री इंटेलीजेंस के निरीक्षण के दौरान फोन टेपिंग के उपकरण मिले। बाद में हालांकि सरकार ने इसका खंडन कर दिया। जून 2011 में तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से शिकायत की थी कि उनके कार्यालय की जासूसी कराई जा रही है। कहा गया कि गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के इशारे पर ऐसा करवाया गया। हालांकि बाद में दोनों पक्षों ने इसे खारिज कर दिया। नवम्बर 2010 में एक अंग्रेजी पत्रिका द्वारा प्रकाशित टेलीफोन बातचीत ने भारतीय सियासत में भूचाल ला दिया। इसमें कारपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया को बड़े-बड़े नेताओं, उद्योगपतियों और मीडिया के नामचीन लोगों के साथ Šजी स्पेक्ट्रम पर सौदेबाजी करते हुए पाया गया। इस सन्दर्भ में इस खबर की अनदेखी नहीं की जा सकती कि भले ही भारत सूचना तकनीक के क्षेत्र में एक बड़ी अहमियत रखता हो, लेकिन इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि अभी ऐसा तंत्र विकसित नहीं किया जा सका है जिससे विदेशी खुफिया एजेंसियां अथवा हैकर्स हमारे गोपनीय मामलों तक न पहुंच सकें। रह-रह कर ऐसे मामले सामने आते ही रहते हैं जो महत्वपूर्ण दस्तावेजों तक किसी न किसी के अनाधिकृत रूप से पहुंच जाने की सच्चाई सामने लाते हैं और जब भी ऐसा होता है तो पक्ष-विपक्ष की ओर से एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप भी लगाए जाते हैं, लेकिन कुछ समय बाद सब कुछ भुला दिया जाता है। ऐसे मामलों की न केवल पूरी सच्चाई ही सामने आनी चाहिए बल्कि ऐसी व्यवस्था भी की जानी चाहिए जिससे ताकझांक की इस प्रवृत्ति पर कारगर तरीके से अंकुश लगे। चूंकि श्री मनमोहन सिंह ने इस पर टिप्पणी की है इससे लगता है कि कांग्रेस इस मामले को आगे बढ़ाएगी। सरकार को चाहिए कि वह इस पर प्रभावी जवाब दे और सत्य को सामने लाए।

Tuesday 29 July 2014

उत्तराखंड ने जहां कांग्रेस में जान पूंकी वहीं भाजपा के गिरते ग्रॉफ का संकेत

उत्तराखंड में विधानसभा के लिए हुए विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने तीनों सीटें जीतकर भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया है। इससे जहां भारतीय जनता पार्टी को भारी झटका लगा है वहीं लोकसभा चुनाव में करारी हार से कोमा में पहुंच गई कांग्रेस को संजीवनी मिल गई है। अभी दो महीने पहले ही लोकसभा चुनाव में मिली हार से हतोत्साहित कांग्रेस में यह जीत प्राण पूंकने का काम करेगी। साथ ही कांग्रेस की यह जीत भाजपा के लिए बड़ा झटका इसलिए भी है क्योंकि इससे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जादू तेजी से उतरने का साफ-साफ संकेत मिलने लगा है। सबसे बड़ी बात यह है कि राज्य के मुख्यमंत्री हरीश रावत दिल्ली के अस्पताल में पड़े थे और चुनाव प्रचार करने न वह खुद गए और न पार्टी का कोई बड़ा नेता ही उत्तराखंड गया। इसलिए यह जीत हरीश रावत की लोकप्रियता का प्रमाण तो है ही, कांग्रेस की वापसी का भी संकेत है। लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की लहर के कारण उत्तराखंड की पांचों सीटें भाजपा ने जीती थी। लेकिन दो महीने के अन्दर ही तीन विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस की जीत ने मोदी लहर की हवा निकाल दी। साथ ही प्रदेश में राजनीतिक समीकरण भी बदल दिए हैं। 70 सदस्यीय विधानसभा में अब कांग्रेस के पास 35 सीटें हो गई हैं। एक मनोनीत सदस्य कांग्रेस को पहले से ही समर्थन दे रहा है। सात विधायक सहयोगी दलों के हैं, इसलिए अब हरीश रावत की कुर्सी का खतरा टल गया है जबकि भाजपा के सपने चकना चूर हो गए हैं। लोकसभा चुनाव के बाद मिली भारी जीत से यह अनुमान लगाया जा रहा था कि उपचुनाव में भी भाजपा को कम से कम दो सीटें मिल जाएंगी और प्रदेश में सरकार बनाने के आसार बढ़ जाएंगे। लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा ने कांग्रेस के कद्दावर नेता सतपाल महाराज को पार्टी में इस भरोसे पर लिया था कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। उत्तराखंड में मिली इस जीत का असर अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी पड़ सकता है। भाजपा को प्रदेश की गुटबाजी की वजह से तीनों सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा है। इस जीत से उत्साहित हरीश रावत ने शुक्रवार को कहा कि यह विजय एक सुखद संदेश है और जनता कांग्रेस को फिर से शक्ति देना चाहती है। उन्होंने जो कहा वह गलत नहीं है। इस जीत का संदेश यही है। अगर लोकसभा में पांच सीटें नरेन्द्र मोदी की वजह से मिली थी तो हार भी उन्हीं की वजह से हुई है। दरअसल भारतीय जनता पार्टी ने लोगों को जिस कदर जगाया और सब्जबाग दिखाए, दो महीने में ही उनकी पोल खुल गई। यह साफ है कि पार्टी ने प्रचार तंत्र के जरिये जनता को जिस उपहार की खूबसूरत पैकिंग दिखाई, उसके अन्दर कुछ नहीं था, अब ऐसा जनता को लग रहा है। पिछले 60 दिनों में महंगाई तेजी से बढ़ी है। महंगाई को लेकर सरकार चिंतित दिखाई देती है, लेकिन महंगाई कहीं नहीं पर वह रुकती भी नजर नहीं आ रही है। यह कैसे हो सकता है कि हम रेल का किराया 14.20 फीसदी बढ़ा हुए देखें और मान लें कि महंगाई कम होगी? यह कैसे हो सकता है कि पेट्रोल और डीजल के दाम हर महीने बढ़ें और महंगाई कम होने का दावा भी हम स्वीकारें? यह कैसे मान लें कि रोजगार देने वाली आर्थिक नीतियां हम न स्वीकारें और रोजगार मिल जाए। हम यह कैसे मान लें कि भ्रष्टाचार का मुकाबला करने के लिए जिस तकनीक का वादा प्रधानमंत्री ने देश से किया उसके बारे में देश को कुछ न बताया जाए और भ्रष्टाचार कम हो जाए? भारतीय जनता पार्टी के समर्थक और कार्यकर्ता जब मिलते हैं तो मुझे उनकी चिन्ताएं देखकर कांग्रेस सरकार के समय कांग्रेस के संवेदनशील कार्यकर्ताओं की चिन्ताएं याद आ जाती हैं। सरकार को कोई चिन्ता नहीं होती थी। दावे होते थे, वादे होते थे, लेकिन कार्यकर्ता जानता था कि गड़बड़ हो रही है। इसी तरह आज वादे भी हो रहे हैं, हर मंत्री यह कहते हुए दिख रहा है कि हमें वक्त तो दीजिए, हम अच्छे दिन लाकर दिखाएंगे। क्या अच्छे दिनों की परिभाषा उसी तरह बदल जाएगी, जिस तरह गरीबी की परिभाषा यूपीए-2 सरकार के समय योजना आयोग ने बदल दी थी? क्या अब अच्छे दिन का मतलब हम यह मान लें कि जो दिन चल रहे हैं, जिन्हें पहले हम बुरे दिन कहते थे, वह अब भी परिभाषा में अच्छे दिन माने जाएंगे? बुराई अच्छाई में तब्दील हो जाएगी? हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ऐसी दुर्गति हुई कि वह 44 सीटों तक सिमट गई। उसके पास लोकसभा में विपक्ष का नेता बनने तक के लिए आवश्यक संख्याबल नहीं है, लेकिन प्रचंड बहुमत से जीती भाजपा का ग्रॉफ दो महीने में गिरना चौंकाने वाला ही नहीं बल्कि उसके लिए शर्मनाक भी है। भाजपा माने या न माने उसके लिए यह पहला झटका है, वह इससे सबक लेगी या फिर और झटके खाएगी, यह इस साल के अंत तक होने वाले विधानसभा चुनावों से ही स्पष्ट होगा। हरियाणा और महाराष्ट्र में तो भाजपा के पास मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने के लिए कोई बड़ा नेता नजर नहीं आ रहा है। महाराष्ट्र में गोपीनाथ मुंडे के निधन के बाद यहां खालीपन आया है। वहां नितिन गडकरी ही बड़े नेता हो सकते हैं। लेकिन महाराष्ट्र में जब तक पार्टी का शिवसेना के साथ गठबंधन है भाजपा दूसरे नम्बर पर रहेगी। हरियाणा में भाजपा इतनी मजबूत नहीं है कि वह अपने  बूते पर कोई चमत्कार दिखा सके। चौटाला सहयोगी हो सकते हैं लेकिन पार्टी उनसे परहेज कर रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार में भी भाजपा की स्थिति डांवाडोल है। सातवें आसमान पर पहुंची भाजपा दो महीने बाद ही दिल्ली में हिम्मत हार रही है। उसे जीत का भरोसा नहीं है, इसलिए दिल्ली में विधानसभा चुनाव कराने से डर रही है। अमित शाह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से पार्टी को बहुत उम्मीदें थीं जो अब थोड़ी टूट रही हैं। अमित शाह अपनी पहले ही परीक्षा में फेल हो गए। भाजपा का ग्रॉफ इसी तरह गिरता रहा तो इस साल में चौंकाने वाले नतीजे आ सकते हैं। अच्छे दिन कब आएंगे?

-अनिल नरेन्द्र

Sunday 27 July 2014

चिकित्सा व्यवस्था में चल रहे गोरख धंधे पर हर्षवर्धन ने उठाई आवाज

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डाक्टर हर्षवर्धन बधाई के पात्र हैं क्योंकि उन्होंने ऐसी समस्या पर हाथ डाला है जिसका सीधा संबंध राजधानी के आम आदमी से जुड़ता है। यह इसलिए भी सराहनीय है कि डाक्टर साहब ने खुद डाक्टर होते हुए इसको उठाया है। मामला है डाक्टरों और पैथोलॉजी जांच सेंटर की मिलीभगत का। पैथोलॉजी लैब का मतलब है खून व अन्य टेस्ट करने वाली जांच एजेंसी। यह मिलीभगत इतनी गहरी हो चुकी है कि मरीजों को छोड़िए खुद जो ईमानदार डाक्टर हैं वह भी इस मिलीभगत से परेशान हो चुके हैं। चूंकि डॉ. हर्षवर्धन दिल्ली के जाने-माने डाक्टर हैं जो हजारों मरीज देखते हैं तो उन्हें पता है इस गोरख धंधे का। मरीज डाक्टर के पास अपनी समस्या लेकर जाता है तो डाक्टर तरह-तरह की जांच कराने को कह देते हैं। कई बार यह जरूरी होती है अधिकतर समय इसकी जरूरत नहीं होती। पैथ लैब जो बिल बनता है जो आमतौर पर मोटा होता है उसमें से पहले से डाक्टर की कमीशन उसे पहुंचा दी जाती है। डॉ. हर्षवर्धन ने यह मामला लोकसभा में भी उठाया है। उन्होंने कहा कि बीमार लोगों की गैर-जरूरी जांच लिखी जाती है ताकि जांच सेंटर का बिजनेस बढ़े और वह बिल में से डाक्टर को कमीशन दे सके। स्वास्थ्य मंत्री ने माना कि इस गोरख धंधे के कारण डाक्टर और पैथ लैब दोनों अनुचित मुनाफा कमा रहे हैं। ज्यादा समय नहीं हुआ जब खबर आई थी कि दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के कुछ हृदय रोग विशेषज्ञों ने सोसायटी फॉर लेस इन्वेस्टीगेशन मेडिसिन (सिल्म) नामक पहल शुरू की है जिसका मकसद अत्याधिक जांच कराने की व्यापक बुराई का मुकाबला करना है। इस पहल से जुड़े डाक्टरों ने कहा कि वह जांच संबंधी ऐसे दिशानिर्देश और प्रक्रिया तय कर रहे हैं जिसमें इसका ब्यौरा होगा कि किस परिस्थिति में किस प्रकार की जांच जरूरी है। डाक्टरों और अस्पतालों में भी मिलीभगत चल रही है। बड़े-बड़े अस्पताल डाक्टरों को बाकायदा सालाना पैकेज देते हैं जो लाखों में होता है। इसके एवज में डाक्टरों को सालाना तयशुदा मरीज और बिजनेस देना होता है। जरूरत न भी होने पर डाक्टर अपने लालच को पूरा करने के लिए कभी-कभी जबरन मरीज को अस्पताल में भर्ती होने को कह देते हैं। एक बार मरीज अस्पताल पहुंच गया समझो उसका तो बैंड बज गया। पहुंचते ही सबसे पहला काम यह अस्पताल करते हैं कि मरीजों को रुपए जमा करने को कहते हैं। उसका इलाज ही तब होता है जब वह डिपाजिट दे देता है। दिल्ली के निजी अस्पतालों में इलाज इतना महंगा हो गया है कि गरीब आदमी तो छोड़िए मिडिल क्लास के लोग भी यहां उपचार नहीं करा सकते। यह भी पता चला है कि डाक्टरों और कैमिस्टों में भी साठगांठ होती है। डाक्टर मरीज को खास कैमिस्ट के पास भेजते हैं जो महीने बाद डाक्टर को कमीशन देते हैं। डाक्टरों की फीस इतनी बढ़ गई है कि गरीब आदमी का तो पसीना छूट जाता है, इसलिए भी झोलाछाप डाक्टरों की सेवा लेनी पड़ती है। डॉ. हर्षवर्धन ने कहा कि सरकार ऐसी निगरानी की व्यवस्था करने पर विचार कर रही है जिसमें पैथोलॉजी लैब की डाक्टरों से मिलीभगत और जांच की दरें तय करने में उनके द्वारा गुट बनाकर काम करने की प्रवृत्तियों पर रोक लगाई जा सके। स्लिम पहल से जुड़े डाक्टरों ने कहा था कि विज्ञापन की ताकत के जरिये सालाना पूरी जांच कराने जैसी गैर-जरूरी बातें लोगों के दिमाग में बिठाई गई हैं जबकि अध्ययनों का निष्कर्ष है कि इससे बीमारियों को रोकने में कम ही मदद मिलेगी। एक और बड़ी शिकायत प्राइवेट क्लिनिकों में डाक्टरों के लिए न्यूनतम कमाई की शर्त तय करना है जिसकी वजह से डाक्टर अनावश्यक जांच लिखते हैं और मरीजों को जरूरत से ज्यादा समय तक अस्पतालों में भर्ती रखते हैं। अगर मरीज अस्पताल से इलाज का पूरा ब्यौरा मांगे तो अस्पताल मना कर देते हैं। हाल ही में एक ऐसा केस सामने आया है। खुफिया एजेंसी रॉ की पूर्व अधिकारी निशा प्रिया भाटिया ने इंस्टीट्यूट ऑफ बिहैवियर एंड एलाइड साइंसेस से अपने चिकित्सा रिकार्ड की मांग की थी जहां वह दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश पर भर्ती हुई थीं। संस्थान ने यह रिकार्ड देने से मना कर दिया और कहा कि आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1)(एच) का हवाला दिया। इस धारा के तहत कोई प्राधिकार ऐसी सूचना अपने पास रख सकता है जिसमें जांच में अवरोध पैदा हो। इस दलील को खारिज करते हुए सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्य ने कहा कि मरीजों को संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत अपना चिकित्सा रिकार्ड हासिल करने का अधिकार है और प्रतिवादी का यह कर्तव्य है कि वह इसे मुहैया कराए। उन्होंने कहा कि सूचना आयोग सरकारी और निजी अस्पतालों के खिलाफ मरीजों को सूचना हासिल करने को लेकर इस अधिकार को बहाल कर सकता है। अस्पतालों का यह कर्तव्य है कि वह सूचना के अधिकार कानून 2005, उपभोक्ता सुरक्षा कानून 1996, चिकित्सा परिषद अधिनियम 1956 तथा वैश्विक चिकित्सीय मूल्यों के तहत सूचना मुहैया कराए। यह अच्छी बात है कि डॉ. हर्षवर्धन ने इन समस्याओं के प्रति जागरुकता तो दिखाई है और हम उम्मीद करते हैं कि वह मेडिकल क्षेत्र में आई बुराइयों को गम्भीरता से दूर करने का प्रयास करेंगे। गरीब आदमी को सस्ता और सही इलाज मिले यह मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में से एक होनी चाहिए।

-अनिल नरेन्द्र

Saturday 26 July 2014

रेलवे कर्मियों की मुस्तैदी और सूझबूझ से बड़ा हादसा टला

बड़े रेल हादसों के पीछे आमतौर पर रेल कर्मचारियों की आपराधिक लापरवाही की चर्चा होती है लेकिन हाल ही के प्रकरण में कहानी बदल गई। रेलकर्मियों की मुस्तैदी और सूझबूझ के चलते भुवनेश्वर राजधानी एक्सप्रेस से यात्रा कर रहे सैकड़ों यात्रियों की जान बच गई। हादसा बाल-बाल टला। हादसा आधी रात को हुआ। रेलवे के सूत्रों के अनुसार रात एक बजकर 10 मिनट पर नक्सलियों ने गया (बिहार) के पास सिवास गांव के सामने गया रेलवे ट्रैक का एक हिस्सा लैंडमाइंस के विस्फोट से उड़ा दिया था। विस्फोट इतना भयानक था कि करीब चार फुट पटरियां उड़ गईं जबकि डाउन लाइन से जोधपुर एक्सप्रेस आ रही थी। विस्फोट की आवाज सुनकर ड्राइवर ने घटना स्थल से पहले ही यह ट्रेन भी  रोक दी। वरना हादसे की चपेट में यह ट्रेन भी आ सकती थी। जोधपुर एक्सप्रेस भी कुछ सैकेंडों के अन्तर से ही चपेट में  आने से बची। लेकिन भुवनेश्वर राजधानी एक्सप्रेस को तो नक्सलियों ने टारगेट बनाया था। ऐसे में महज 10-15 मिनट पहले विस्फोट के जरिये ट्रैक उड़ाया गया था। लेकिन रेलकर्मियों को पटरियों से गुजरने से पहले पायलट इंजन दौड़ाया तो यह हादसा टला। पायलट इंजन पटरी से उतरकर क्षतिग्रस्त हो गया। यह हादसा होते ही पायलट इंजन के ड्राइवर ने मुस्तैदी दिखाते हुए पीछे के स्टेशन पर तुरन्त खबर कर दी। इसके बाद राजधानी एक्सप्रेस को आगे बढ़ने से रोक दिया गया। इस मामले की जानकारी जब राजधानी एक्सप्रेस के यात्रियों को मिली तो वह बगैर हादसे के ही बेचैन हो गए। इनमें से कुछ यात्री तो इतना घबरा गए थे कि वह राजधानी एक्सप्रेस से आगे यात्रा ही नहीं करना चाहते थे। लेकिन रेलवे के अधिकारियों ने घबराए हुए यात्रियों को समझाया तब वह आगे यात्रा जारी रखने पर राजी हुए। घटना स्थल का दौरा करने के बाद रेलवे के अधिकारियों ने मीडिया को जानकारी दी कि यदि अपनी पूरी स्पीड में भुवनेश्वर राजधानी टूटे हुए ट्रैक से गुजरती तो इसका कोई भी डिब्बा सुरक्षित नहीं बचता। हादसा इतना भयानक होता कि इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने इस मामले में रेलवे कर्मियों की मुस्तैदी की तारीफ की है। जिन अधिकारियों और कर्मियों ने सतर्पता दिखाई है उन्हें इनाम देने की भी तैयारी की जा रही है। दरअसल सुरक्षा बलों के भारी दबाव के कारण नक्सली  बड़ी वारदात को अंजाम देने की फिराक में हैं। भुवनेश्वर-नई दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस के आगमन से ठीक पूर्व पटरी उड़ाने की घटना को गृह मंत्रालय इसी नजरिये से देख रहा है। हालांकि पायलट इंजन के आगे चलने के कारण नक्सलियों की यह साजिश बेकार साबित हो गई लेकिन गृह मंत्रालय को आशंका है कि नक्सली फिर ट्रेनों को निशाना बना सकते हैं, इसलिए नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ट्रेनों की चौकसी बढ़ाने के निर्देश राज्यों को जारी किए गए हैं। इस घटना के बाद गृह मंत्रालय ने बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और झारखंड के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में चलने वाली सभी ट्रेनों के आगे पायलट इंजन चलाने के लिए कहा है। हम मुस्तैदी दिखाकर बड़े हादसे को टालने के जिम्मेदार रेलवे अधिकारियों की सराहना करते हैं जो उनके कारण सैकड़ों जानें बच गईं।
-अनिल नरेन्द्र


रोजेदार के मुंह में जबरन रोटी ठूंसने का आपत्तिजनक मामला

जन प्रतिनिधियों से लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप आचरण की अपेक्षा की जाती है पर इसकी अनदेखी के उदाहरण कई बार सामने आए हैं। हमने कई बार देखा है कि अगर वह सत्ता पक्ष के हों तो मर्यादा की हदें पार करने से गुरेज नहीं करते। ताजा उदाहरण न्यू महाराष्ट्र सदन में ठहरे कुछ शिवसेना के सांसदों के व्यवहार का है। शिवसेना के 11 सांसदों पर महाराष्ट्र सदन की कथित खराब सेवाओं के विरोध में हंगामा खड़ा करने और एक मुस्लिम कर्मचारी को रोजे के दौरान जबरदस्ती रोटी खिलाने का आरोप लगा है। इन सांसदों की मांग थी कि उन्हें महाराष्ट्र के व्यंजन परोसे जाएं। न्यू महाराष्ट्र सदन में खानपान की जिम्मेदारी आईआरसीटीसी को सौंपी गई है जो भारतीय रेल में खानपान सेवा संचालित करती है। यह सांसद कई दिन से सदन में बिजली-पानी, साफ-सफाई, भोजन व्यवस्था आदि से जुड़ी शिकायतें कर रहे थे। पिछले हफ्ते इन्होंने प्रेस वार्ता बुलाई और फिर संवाददाताओं के साथ भोजन कक्ष में गए और वहां रखे बर्तन वगैरह उठाकर फेंकने शुरू कर दिए। वहां तैनात कर्मचारियों को अभद्र शब्द कहे। फिर रसोई में गए जहां आईआरसीटीसी के आवासी प्रबंधक अरशद जुबैर कर्मचारियों को भोजन आदि से संबंधित निर्देश दे रहे थे। खबर है कि इन सांसदों ने उनकी गर्दन पकड़ी और उनके मुंह में जबरन रोटी ठूंस दी। जुबैर उस वक्त रोजे पर थे। उनकी धार्मिक भावना को जो ठेस पहुंची होगी उसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। जुबैर ने उस समय अपनी वर्दी पहन रखी थी और उस पर उनके नाम की पट्टिका भी लगी थी। उस कर्मचारी ने चूंकि रोजा रखा था, ऐसे में मुंह में जबरन रोटी ठूंसना न केवल आपत्तिजनक ही है बल्कि उस कर्मचारी को जिस तरह अपमानित किया गया हम उसकी निन्दा करते हैं, ऐसी हरकत का किसी भी हालत में समर्थन नहीं किया जा सकता। संसद में यह मुद्दा उठने पर घटक दल के बचाव में भाजपा के रमेश बिधूड़ी ने जो टिप्पणी की, वह भी उतनी ही गैर जिम्मेदार थी। अपने वक्तव्य के लिए बाद में बेशक उन्होंने सदन से माफी मांग ली पर इस तरह के विवादों से बचने के लिए उन्हें अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी से कुछ सीखना चाहिए, जिन्होंने जन प्रतिनिधियों के आचरण को गलत बताने में एक मिनट नहीं  लगाई। लेकिन शिवसेना इस मामले में संवेदनशीलता का परिचय देने के बजाय पूरे मुद्दे को अपने खिलाफ सियासी साजिश बताने में  लगी हुई है। हालांकि इस घटना पर न्यू महाराष्ट्र सदन के आवासी आयुक्त ने आईआरसीटीसी और अरशद जुबैर से माफी मांग ली है। महाराष्ट्र के मुख्य सचिव ने घटना की जांच कराने के बाद उचित कार्रवाई का वचन भी दिया है पर इस तरह अरशद की भावनाओं को पहुंची चोट पर मरहम नहीं लगाया जा सकता। इन दिनों रमजान चल रहे हैं और रोजा रखे किसी व्यक्ति के सामने खाना-पीना भी उचित नहीं माना जाता। ऐसे में इन सांसदों की अरशद के मुंह में जबरन रोटी ठूंसना उनकी आस्था को चोट पहुंचाने वाली हरकत है जिसका हम सख्त विरोध करते हैं। हमें सभी धर्मों, धार्मिक भावनाओं, परम्पराओं व रीति-रिवाज की इज्जत करनी होगी।

Friday 25 July 2014

मुलायम अखिलेश को नसीहतें दे रहे हैं या उनकी मुश्किलें बढ़ा रहे हैं?

श्री मुलायम सिंह यादव इस समय दोहरा रोल अदा कर रहे हैं। इधर लोकसभा में राष्ट्रीय राजनीति कर रहे हैं तो उधर उत्तर प्रदेश में अपनी पकड़ रखे हुए हैं पर हमें समझ नहीं आ रहा कि नेता जी अपने मुख्यमंत्री पुत्र अखिलेश यादव की मदद कर रहे हैं या फिर रोड़े अटका रहे हैं? गाहे-बगाहे अपने बयानों से मुलायम सिंह अखिलेश को परेशानी में डाल देते हैं। एक ओर बलात्कार के कई मामलों में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सरकार आलोचनाओं का सामना कर रही है वहीं पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह द्वारा शनिवार को दिए गए बयान जिसमें कहा कि 21 करोड़ की आबादी के बावजूद राज्य में रेप के कम मामले हुए हैं ने अखिलेश का सिरदर्द बढ़ा दिया है। लखनऊ के मोहन लालगंज इलाके में एक महिला के साथ बलात्कार और हत्या पर यादव ने दिल्ली में संवाददाताओं के सवालों के जवाब में कहा, आप उत्तर प्रदेश की बात करते हैं। वहां की आबादी 21 करोड़ है। अगर इस देश में इस तरह के सबसे कम मामले हुए हैं तो उत्तर प्रदेश में। 16वीं लोकसभा के चुनाव के दौरान मुजफ्फरनगर में मुलायम जी ने मुंबई में हुए दुराचार के आरोपियों पर बच्चों से गलतियां हो जाती हैं, जैसे बयान देकर प्रदेश की महिलाओं को खासा नाराज कर दिया था। पार्टी के एक बड़े तबके का मानना है कि नेता जी के इस बयान का प्रतिकूल प्रभाव लोकसभा के चुनाव में महिलाओं की नाराजगी की शक्ल में सपा को भुगतना पड़ा था। लोकसभा के चुनाव में सपा को महज पांच सीटें मिली थीं। पूरे लोकसभा चुनावों में नेता  जी ने कई सभाओं में यह कहकर अल्पसंख्यकों को खुश करने की भी कोशिश की थी कि देश के विकास में किसानों और मुसलमानों ने अहम भूमिका निभाई है। सियासी जानकारों का मानना है कि नेता जी के इस बयान ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रूपरेखा तैयार की और फायदा भाजपा उठा ले गई। इससे पहले भी लोकसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री के सरकारी आवास पर मुलायम ने मुख्यमंत्री को चाटुकारों से घिरा बताकर अखिलेश को मुश्किलों में डाल दिया था। आज भी विपक्ष नेता जी के इस बयान को आधार बनाकर समय-समय पर अखिलेश और उनकी सरकार पर हमला करने में गुरेज नहीं करता। इस बयान से पहले इटावा में मुलायम प्रदेश में अखिलेश सरकार के खिलाफ यह कहकर गरजे थे कि वह अखिलेश की सरकार के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं। विपक्ष ने उनके इस बयान को यह कहकर परिभाषित किया कि जब सपा सुप्रीमो ही अपनी सरकार के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं तो प्रदेशवासियों की बात तो छोड़िए। बीते दिनों लखनऊ के मोहन लाल गंज इलाके में महिला के दुराचार के बाद जिस तरह का मुलायम सिंह यादव ने बयान दिया है वह अपराधियों के मनोबल को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बढ़ाने का काम करता है और अपनी ही सरकार को मुश्किल में डालता है। मुलायम कहते हैं कि प्रदेश की आबादी 21 करोड़ है और उसे देखते हुए अपराधों की संख्या बहुत कम है। यही नहीं वह आगे जोड़ते हैं कि हर आदमी के पीछे पुलिस तो नहीं लगाई जा सकती। हर अपराध को रोका नहीं जा सकता। यह बात सच है कि हर व्यक्ति के पीछे पुलिस नहीं  लगाई जा सकती। मगर शासन पुलिस का नहीं कानून का होता है। कानून का भय जब तक हर गलत काम करने वाले के मन में नहीं होगा, अपराध नहीं रुकेगा, इसलिए कानून का कठोरता के साथ पालन करके ही कानून का राज स्थापित किया जा सकता है। यहां स्थिति उलटी है। पुलिस थानों में ही अपराध हो रहे हैं। मुलायम ने अप्रैल माह में अपनी एक चुनावी सभा में कहा थाöबलात्कार के लिए फांसी की सजा कतई ठीक नहीं है। लड़के हैं, गलती हो ही जाती है, तो क्या इसके लिए उनकी जान लेंगे? मुलायम के बयानों के कारण भाजपा, कांग्रेस और बसपा हमलावर मुद्रा में हैं। इन तीनों राजनीतिक दलों ने नेता जी के बयान को अखिलेश सरकार की मंशा से जोड़कर बाप-बेटे को घेरने की कोशिश शुरू कर दी है।

-अनिल नरेन्द्र

ग्लास्गो कॉमनवेल्थ खेलों के लिए भारतीय खिलाड़ियों को गुड लक

भ्रष्टाचार और लेट लतीफी वाले दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद बुधवार को स्काटलैंड में गेम्स शुरू हो रहे हैं। इस बार चर्चा स्टेडियमों और सुविधाओं की इतनी नहीं हो रही जितनी छह ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतने वाले उसैन बोल्ट की हो रही है जिन्होंने इन खेलों के पिछले संस्करण में भाग नहीं लिया था। हालांकि जमैका के सुपर स्टार बोल्ट 100 या 200 मीटर की दौड़ में हिस्सा नहीं लेंगे, वह सिर्प चार गुणा 100 मीटर रिले दौड़ में शिरकत करेंगे यानि बोल्ट नाम की यह बिजली नौ सैकेंड से भी कम समय तक  दौड़ेगी, लेकिन सच मानिए वह कुछ चमचमाते सैकेंड इन खेलों का सबसे बड़ा आकर्षण होंगे। बुधवार से स्काटलैंड के ग्लास्गो शहर के 13 स्टेडियमों में 17 खेलों की हलचल शुरू होगी। इस 20वें कॉमनवेल्थ गेम्स में 71 देशों के 4500 से ज्यादा एथलीट भाग लेंगे। चार साल पहले नई दिल्ली में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स में 177 पदकों के साथ आस्ट्रेलिया टॉप पर और 101 पदकों के साथ भारत दूसरे स्थान पर रहा था। भारत के लिए ग्लास्गो में हो रहे इन 20वें कॉमनवेल्थ गेम्स में पिछली बार की सफलता दोहराने की कड़ी चुनौती होगी, लेकिन कुछ स्पर्धाओं को शामिल किए जाने के बाद भी उसका 215 सदस्यीय मजबूत दल शीर्ष पांच में रहने की कोशिश करेगी। नई दिल्ली खेलों में भारतीय दल रिकार्ड 101 पदक जीतकर आस्ट्रेलिया के बाद दूसरे स्थान पर रहा था। इस बार उम्मीद की जा रही है कि भारतीय दल आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बाद तीसरे स्थान पर रह सकता है। हालांकि कॉमनवेल्थ गेम्स का महत्व 204 देशों वाले ओलंपिक जैसा तो नहीं होता लेकिन फिर भी 71 कॉमनवेल्थ देशों के लिए यह एक प्रतिष्ठित समारोह है, जहां 261 पदकों के लिए 17 खेलों में 4500 खिलाड़ी भिड़ेंगे। भारतीय अधिकारियों ने ग्लास्गो कॉमनवेल्थ गेम्स के खेलगांव को चार साल पहले नई दिल्ली में हुए खेलों के खेलगांव को काफी खराब बताया है। 2010 में खेलगांव में काफी सफाई और अव्यवस्था को लेकर भारत की काफी आलोचना हुई थी, लेकिन ग्लास्गो में स्थिति दिल्ली से भी बुरी है। भारत के चीफ डी मिशनराज सिंह ने मंगलवार को कहा खेलगांव में जगह की कमी है। जब मैं चार साल पहले के दिल्ली खेलों का स्मरण करता हूं तो मुझे लगता है कि भारत ने काफी अच्छी सुविधाएं उपलब्ध कराई थीं। यहां अटैच बाथरूम नहीं हैं। खिलाड़ियों को बाथरूम साझा करना पड़ रहा है जबकि दिल्ली में हमने हर कमरे के साथ अटैच बाथरूम मुहैया कराए थे। हमारे एथलीटों को खाने की भी समस्या हो रही है। शाकाहारी खाने की कमी है। दिल्ली-एनसीआर के लिए इन खेलों का खासा महत्व है। सुशील कुमार, योगेश्वर कुमार, अमित दहिया, राजीव तोमर, सीमा पुनिया, विकेंद्र सिंह, ललित माथुर, मानवजीत सिंह संधु, मनसेर सिंह, श्रेयायी सिंह, अनीसा सैयद, जीना चौंगथाम, आरती सिंह, अंकुर मित्तल, ओम प्रकाश, ज्योति और शिवानी से दिल्ली-एनसीआर के लोगों को ही नहीं पूरे देश को पदक की उम्मीद है। हॉकी में भारत को कम से कम पुरुष या महिला वर्ग से एक पदक की उम्मीद है। 2010 गेम्स के फाइनल में भारत को आस्ट्रेलिया के हाथों शिकस्त मिली थी। देश को जिनसे ज्यादा उम्मीदें हैं उनमें सुनील कुमार (74 किलो वर्ग) बीजिंग ओलंपिक्स में कांस्य पदक और लंदन ओलंपिक्स में रजत पदक जीतने वाले सुशील की ताकत और गति उनका प्रमुख हथियार है। 66 किलो वर्ग में लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाले योगेश्वर के शरीर में जिम्नास्ट जैसी लोच है और उनका डिफेंस काफी मजबूत है। 61 किलो वर्ग में विश्व चैंपियनशिप जीतने वाले युवा पहलवान बजरंग ग्लास्गो में स्वर्ण पदक जीतने की क्षमता रखते हैं। शूटिंग में अभिनव बिंद्रा दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स में भारतीय शूटरों ने देश को 30 पदक दिलाए थे। इस बार भी भारत को शूटिंग से ज्यादा पदक की उम्मीद है। बैडमिंटन में भारत की दिग्गज स्टार साइना नेहवाल की गैर मौजूदगी में भारत की उम्मीदें पीवी सिंधु पर टिकी हैं। भारत के सर्वश्रेष्ठ टेबल टेनिस खिलाड़ी अचंत शरत कमल (टेटे) पिछले दो बार से गेम्स में देश को पदक दिलाते रहे हैं। इस बार भी उनसे उम्मीद है। प्रशांत करमारकर (पारा एथलीट) 50 मीटर फ्री स्टाइल पारा स्पोर्ट में भारत को कांस्य पदक दिलाने वाले से भी उम्मीद रखी जा सकती है। जिम्नास्टिक में कॉमनवेल्थ गेम्स और एशियन गेम्स पदक विजेता आशीष कुमार से भारत को पदक की उम्मीद है। इसके अलावा डिस्कस थ्रो में विकास गौड़ा, कृष्णा पुनिया से भी उम्मीदें हैं। 400 मीटर रिले में भी, लांग जम्प में, जूडो और बॉक्सिंग में विजेंद्र सिंह, शिव थापा, सुमित सांगवान और देवेंद्र सिंह अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं। हम अपने तमाम खिलाड़ियों को बेस्ट ऑफ लक कहते हुए उम्मीद करते हैं कि वह ग्लास्गो में शानदार प्रदर्शन करेंगे।

Thursday 24 July 2014

अत्यंत चुनौतीपूर्ण सियासी दौर से गुजरती कांग्रेस पाटी

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि सबसे पुरानी कांग्रेस पाटी आज-कल एक खराब सियासी दौर से गुजर रही है। चाहे मामला लोकसभा में नेता विपक्ष का हो, लोकसभा में सीटिंग का हो या गठबंधन साथियों का, पाटी के अंदर बढ़ते असंतोष का तो सभी मोर्चे पर कांग्रेस नेतृत्व को जबरदस्त चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन द्वारा नए सदन में सीटों की व्यवस्था को जल्द अंतिम रूप दिए जाने की संभावना है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि सदन में विपक्ष के नेता के मुद्दे पर फैसला कब तक होगा। संसदीय सूत्रों ने बताया कि लोकसभा अध्यक्ष को एक पेचीदा स्थिति का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि अन्ना द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल कांग्रेस के साथ लोकसभा में बैठने को तैयार नहीं हैं। न तो अन्नाद्रमुक, न ही तृणमूल और बीजू जनता दल कोई भी लोकसभा में कांग्रेस के साथ सीट दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं। संबंधित अधिकारियों ने इस बारे में कई दौर की बातचीत की है और इस मसले पर इस हफ्ते फैसला आने की उम्मीद है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि ओड़ीसा में कांग्रेस बीजद की मुख्य पतिद्वंद्वी है जबकि ममता बनजी की तृणमूल कांग्रेस कई बार सरकार के समर्थन में दिखती है तो कई बार विरोध करती नजर आती है। ऐसी चर्चा भी चल रही है कि कोई ऐसा फॉर्मूला बनाया जाए जिसके तहत जीती गई सीटों के अनुपात के मुताबिक पार्टियों को आगे की सीटों का आवंटन हो जाए। यदि ऐसा होता है तो कांग्रेस को अग्रिम पंक्ति में दो से अधिक सीटें नहीं मिल पाएंगी। अब बात करते हैं कांग्रेस के गठबंधन सहयोगियों की। अक्टूबर-नवंबर में हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने है। करीब  6 साल तक गठबंधन में होने के बाद जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांपेंस विधानसभा चुनाव में अलग-अलग लड़ेंगे। यानी दोनों का गठबंधन समाप्त हो गया है। कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद, अंबिका सोनी ने जम्मू में घोषणा की थी कि उनकी पाटी आगामी विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी और चुनावों से पहले कोई गठबंधन नहीं होगा। उधर नेशनल कांपेंस के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला जो पाटी के कार्यकारी अध्यक्ष भी हैं, ने सोशल मीडिया पर घोषणा की उन्होंने दस दिन पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को सूचित कर दिया था कि राज्य में चुनाव पूर्व कोई तालमेल नहीं होगा। उन्होंने कहा कि कांग्रेस का यह कहना कि उसने फैसला किया है कि पूरी तरह से तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की है, असत्य है। महाराष्ट्र में कांग्रेस एनसीपी के बीच काफी पुराना गठबंधन है। यहां पर साझा सरकार के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण हैं लेकिन एनसीपी के सुपीमो शरद पवार अपनी सियासी चालें चलने से बाज नहीं आ रहे हैं। पवार का कहना है कि चुनाव से पहले कांग्रेस पृथ्वीराज चव्हाण को हटाकर किसी और को मुख्यमंत्री बनाए क्योंकि चव्हाण के नेतृत्व में राज्य में भाजपा-शिवसेना की राजनीति से निपटना बहुत मुश्किल होगा। अब कांग्रेस ने एक राजनीतिक दांव चलते हुए एनसीपी के पास एक पस्ताव भेजा है कि यदि पाटी कांग्रेस में विलय करने को तैयार हो तो शरद पवार जिसे चाहेंगे उसी को मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि पिछले कई सालों से कांग्रेस नेतृत्व इस कोशिश में रहा है कि एनसीपी का विलय कांग्रेस में हो जाए। याद रहे कि सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को उठाते हुए शरद पवार ने कांगेस से बगावत करके अपनी पाटी एनसीपी का गठन किया था। पिछले 15 सालों से महाराष्ट्र में इस गठबंधन की सरकार चल रही है। लेकिन हर बार चुनावी मौके पर दोनों दलों के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर खींचतान शुरू हो जाती है। अटकलें लगने लगती हैं कि दोनों दलों के बीच चुनावी गठबंधन बचेगा या टूटेगा। एनसीपी ने विलय से साफ इंकार कर दिया है। कुल मिलाकर कांग्रेस पाटी अत्यंत चुनौतिपूर्ण दौर से गुजर रही है और देखना है कांग्रेस नेतृत्व पाटी को इससे उभार सकता है या नहीं?

-अनिल नरेंद्र

काटजू ने उठाया न्यायपालिका की साख, विश्वसनीयता पर सवाल

अकसर विवादित बयान देने के लिए पूर्व न्यायाधीश और पेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू चर्चा में रहते है पर इस बार तो उन्होंने एक ऐसा बयान दे डाले हैं जिससे हमारी न्यायपालिका के चरित्र पर ही सवाल खड़ा हो गया है। अदालती फैसलों को मीडिया की सुर्खियां बनते तो हमने अकसर देखा है लेकिन ऐसा बहुत कम होता है जब न्यायपालिका खुद किन्हीं कारणों से देश-दुनिया में बहस का मुद्दा बन जाए। मार्कंडेय काटजू ने जिस सनसनीखेज अवाज में भ्रष्टाचार के आरोपों में लिप्त एक सीनियर जज के संबंध में राजनीतिक कारणों से सेवा विस्तार दिए जाने के मामले का जो रहस्योद्घाटन किया है उससे भूचाल आना स्वाभाविक ही है। काटजू ने कहा है कि मद्रास हाई कोर्ट के एक अतिरिक्त न्यायाधीश को भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद न केवल बनाए रखा गया बल्कि सेवा विस्तार भी दिया गया। यही नहीं, उन्हें बाद में एक दूसरे उच्च न्यायालय में स्थाई जज बना दिया गया। यह लाभ उन्हें इसलिए मिला क्योंकि उन्हें तमिलनाडु के उन शीर्ष राजनेता की कृपा पाप्त थी जिनके समर्थन के बगैर यूपीए की पहली सरकार चल ही नहीं सकती थी। मामले की गूंज संसद में भी सुनाई पड़ी है और तमाम पार्टियों अपने-अपने नजरिए के साथ इस मामले की विवेचना में जुटी है। सवाल उठाए जा रहे हैं कि आखिर दस साल बाद काटजू की अंतरात्मा अचानक कैसे जग गई? लेकिन इस सवाल के जवाब में काटजू खुद सवाल दागते हैं कि क्या सच्चाई भी किसी समय सीमा में बांधी जा सकती है? इस रहस्योद्घाटन का समय चुनने के पीछे बेशक काटजू के अपने कारण होंगे लेकिन इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि उन्होंने एक संवेदनशील और गंभीर मसले को देश के सामने उठा दिया है। उन्होंने इरादे और खुलासे के मौके को लेकर बेशक सवाल उठाए जाएं और यह सवाल कुछ गिने-चुने लोगों के लिए महत्वपूर्ण हो सकते है लेकिन बात इस मुद्दे पर होनी चाहिए कि न्यायपालिका में कदाचार की जड़े क्यों गहरा रही है? न्यायपालिका लोकतंत्र का केवल तीसरा खंभा ही नहीं है बल्कि आम आदमी की नजर में यह सबसे भरोसेमंद आधार भी है जो उसके लिए न्याय की पतिष्ठा स्थापित करता है। ऐसे में न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता लोकतंत्र का सबसे बड़ा कवच है। यह कवच असरदार बना रहे इसके लिए जरुरी है कि भ्रष्टाचार या राजनीतिक हस्तक्षेप से इसे पूरी तरह युक्त रखा जाए। काटजू ने संबंधित अतिरिक्त न्यायाधीश पर मेहरबाजी के लिए तीन पूर्व पधान न्यायाधीशों को जिम्मेदार ठजहराया है जिन्होंने बारी-बारी से सुपीम कोर्ट की अगुवाई की। गौरतलब है कि  उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति सर्वेच्च अदालत के तीन वरिष्ठतम जजों का कॉलिजियम करता है। सर्वेच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति करने वाले कॉलिजियम में पांच वरिष्ठतम जज शामिल होते हैं। काटजू के मुताबिक जब वे मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, तब उन्हें वहां के एक अतिरिक्त न्यायाधीश के बारे में भ्रष्टाचार की शिकायतें मिली थी। उनके आग्रह पर पधान न्यायाधीश  ने आईबी से इसकी जांच कराई और आरोपों को सही पाया गया। काटजू का दावा है कि आईबी की इस रिपोर्ट के बारे में सर्वेच्च न्यायालय के उन तीन मुख्य न्यायाधीशों को पता था जिनके नाम उन्होंने लिए है। फिर भी मद्रास हाई कोर्ट से संबंधित अतिरिक्त न्यायाधीश के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय उन्हें सेवा विस्तार और पदोन्नति का लाभ दिया गया। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि यूपीए सरकार को समर्थन दे रही तमिलनाडु की पाटी ने धमकी दी थी कि अगर उस जन के खिलाफ कोई कार्रवाई की गई तो यूपीए सरकार गिर सकती है। साफ है कि तमिलनाडु की यह पाटी द्रमुक थी जिसके एक नेता को उस जज ने जमानत दी थी। इस पकरण में द्रमुक के दामन पर दो दाग लगा ही है, तीन पूर्व न्यायाधीशों के साथ-साथ कांग्रेस भी कठघरे में खड़ी नजर आती है। काटजू का खुलासा भी बताता हे कि द्रमुक को खुश करने और इस तरह पअनी सरकार बचाने के चक्कर में कांग्रेस कॉलिजियम पर दबाव डालने की हद तक चली गई। क्या तत्कालीन पधानमंत्री मनमोहन सिंह इससे अनजान थे? जस्टिस काटजू ने न सिर्फ जानी-पहचानी बात को सार्वजनिक कर दिया है। आजादी के 67 साल गुजर जाने के बाद अगर हम हाई कोर्ट और सुपीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति पकिया को पारदशी बनाने के बारे में सोचने तक को तैयार नहीं है तो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए इससे ज्याद चिंताजनक बात और क्या हो सकती है?

Wednesday 23 July 2014

समाज में बढ़ती नशे की प्रवृत्ति चिन्ता का विषय है

समाज में नशे की बढ़ती प्रवृत्ति को घातक बताते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नशे के आदी लोगों को नशामुक्त बनाने के आह्वान के साथ ही उन्हें समाज के लिए उपयोगी बनाने की जरूरत पर बल दिया। संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के अनुसार दुनियाभर में करीब 200 मिलियन लोग मादक पदार्थों का सेवन करते हैं। शराब से लेकर कोकीन, हेरोइन और न जाने किस-किस तरह के नशीले पदार्थों से आज की युवा पीढ़ी तबाह हो रही है। वास्तव में नशीले पदार्थों का सेवन और इनका गैर कानूनी कारोबार भारत के लिए एक बड़ी मुसीबत बन गया है। हम अपने देश की बात करते हैं। पंजाब में मादक पदार्थों के अवैध धंधे ने कहां तक अपनी जड़ें जमा ली हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिन लोगों पर इसे रोकने की जिम्मेदारी है वह भी इसकी गिरफ्त में दिखते हैं। मुक्तसर पुलिस के चार जवानों का ड्यूटी के समय मादक पदार्थ का सेवन करते पकड़ा जाना और नशा मुक्ति केंद्र में भेजा जाना इसका ताजा उदाहरण है। यूं तो उनके पकड़े जाने से पुलिस महकमे की चिन्ता भी जाहिर होती है। मगर राज्य में युवाओं में जिस तरह मादक पदार्थों की पहुंच बढ़ती जा रही है उस पर रोक लगाने की दिशा में कोई सार्थक कदम अभी तक नहीं उठाया जा सका है। समस्या और भी गंभीर हो जाती है जब मादक पदार्थों की तस्करी और बिक्री में पुलिसकर्मी की भी मिलीभगत हो। देश में इस समय अफीम, चरस, स्मैक, कोकीन आदि की शिनाख्त से बचने के लिए कुछ तस्करों ने दवा की गोलियों के रूप में नशीली गोलियां तैयार करनी शुरू कर दी हैं जिन्हें सिंथेटिक ड्रग्स के रूप में जाना जाता है। दिल्ली में कई रेव पार्टियों में ऐसी गोलियों के सेवन की खबरें आती रहती हैं। दुखद यह है कि ऐसी गोलियों को तैयार करने में और उनकी आपूर्ति का तंत्र फैलाने का दोषी पंजाब पुलिस का ही एक अधिकारी पाया गया। नशे की प्रवृत्ति क्योंकि मनुष्य की आधारभूत आदतों का हिस्सा है, इसलिए अमीर से लेकर गरीब तबके तक समाज का बड़ा हिस्सा इसका आदी होता है। बेतरतीब और बेहिसाब आबादी वाले भारत जैसे देश में नशीले पदार्थों का कारोबार उसकी अर्थव्यवस्था को तो घुन के रूप मे खोखला करता जा रहा है, गरीब तबके को खास तरीके से अपराध की दुनिया में भी धकेलता जा रहा है। नशाखोरी के कारण समाज में जहां यौन अपराधों में बेतहाशा बढ़ोतरी देखने को मिल रही है वहीं घर-परिवार के विघटन का भी यह बड़ा कारण साबित हो रहा है। नशे के आदी तमाम लोगों के घर-परिवार बर्बादी की कगार पर आ जाते हैं। ऐसे कई लोग अपने बच्चों तक की चिन्ता से बेपरवाह हो जाते हैं। महिलाओं के प्रति हो रहे यौन अपराधों के अधिकतर केसों में नशीले पदार्थों का सेवन एक बड़ा कारण पाया जाता है। जिस अवैध कारोबार के चलते देश के लाखों युवा नशे की गिरफ्त में हों और उनमें हर साल हजारों असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं, उस पर नकेल कसने में केंद्र व राज्य सरकारों की शिथिलता हैरानी जरूर पैदा करती है।

-अनिल नरेन्द्र

खुद को नाबालिग बताकर भारतीय कानूनों का फायदा उठाएं

भारत के खिलाफ कई आतंकी हमलों को अंजाम देने वाले पाकिस्तान स्थित आतंकवादी गुट लश्कर--तैयबा ने अब नई रणनीति जो अपनाई है वह हमारे लिए चिन्ता का विषय होनी चाहिए। बेकसूरों और मासूमों की निर्दयता से जानें लेने वाले अपने लड़ाकों को बचाने के लिए वह हमारे ही कानूनों को हमारे ही खिलाफ इस्तेमाल करना चाहते हैं। लश्कर ने जम्मू-कश्मीर में मौजूद अपने लड़ाकों से कहा है कि यदि वह भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा पकड़े जाएं तो अपनी उम्र 18 साल से कम बताएं, जिससे उन्हें कम से कम सजा भुगतनी पड़े। लश्कर की इस नई रणनीति का खुलासा गिरफ्तार किए गए आतंकी मोहम्मद नवेद जट ने किया। जट पूछताछ के दौरान लगातार अपनी उम्र 17 साल की बताता रहा लेकिन जांच में उसकी उम्र 22 साल निकली। पाकिस्तान के मुल्तान निवासी जट को पुलिस ने दक्षिण कश्मीर में पिछले महीने के तीसरे हफ्ते में गिरफ्तार किया था। उसने बताया कि वह अक्तूबर 2012 में छह लड़कों के साथ उत्तर कश्मीर के केरन सेक्टर से कश्मीर पहुंचा था। सेना के रिटायर्ड ड्राइवर के बेटे जट को लश्कर के मखौटा संगठन जमात-उद-दावा के कई मदरसों में ट्रेनिंग की दी गई थी।  जट पर दक्षिण कश्मीर में कई पुलिसकर्मियों की हत्या, सेना, पुलिस बल पर हमला, नेशनल कांफ्रेंस के विधान परिषद सदस्य की हत्या के प्रयास का आरोप है। पूछताछ में जट ने बताया कि सीमापार बैठे लश्कर आकाओं ने उसे अपनी उम्र 17 साल की बताने को कहा था। उसने बताया कि लश्कर ने अपने नए आतंकियों से कहा था कि उन्हें 18 साल से कम उम्र के लड़कों की तरह व्यवहार करना है ताकि उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत नहीं बल्कि किशोर न्याय अधिनियम के तहत मामला दर्ज हो। भारत में किशोर न्याय अधिनियम के तहत अधिकतम सजा तीन साल है। हालांकि अल्पवयस्क बच्चों से कानून कितनी कड़ाई से निपटेöएक बार फिर से यह मामला सुर्खियों में है। इस बार बाल और महिला मामलों की मंत्री मेनका गांधी ने इस संवेदनशील मुद्दे को न केवल उठाया है बल्कि उनका मंत्रालय इससे जुड़े कानून में असरदार बदलाव की कसरत में भी जुट गया है। राष्ट्रीय रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में अल्पवयस्क अपराधियों के हाथों किए जा रहे अपराधों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। वर्ष 2003 से 2010 की अवधि में ऐसे कथित मासूम अपराधियों के हाथों की गई हत्या की वारदातें 465 से बढ़कर 1007 यानि इनमें 117 फीसद की बढ़ोतरी हुई। इसी अवधि में इनके द्वारा अंजाम दी जाने वाली बलात्कार की घटनाएं 466 से छलांग लगाकर 1884 हो गईं यानि 304 फीसद की वृद्धि। आंकड़े साफ तौर पर बताते हैं कि महज नाजुक उम्र का ख्याल कर गंभीर अपराधों में रियायत बरतना अब समाज के लिए बुरा सपना बनता जा रहा है। 16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में निर्भया के साथ सामूहिक बलात्कार में सबसे अधिक हैवानियत दिखाने वाला एक अल्पवयस्क अपराधी है लेकिन विवश कानून उसे महज तीन वर्षों के लिए बाल सुधार गृह में भेजने से अधिक कुछ नहीं कर पाया था जबकि अन्य वयस्क साथियों को अदालत में मौत की सजा सुना दी गई थी। इससे भी बड़ी विडम्बना यह हुई कि इस अपराध के महज छह महीने बाद यह अल्पवयस्क बलात्कारी 18 साल पूरे कर वयस्कों की श्रेणी में आ गया। निर्भया के साथ हुई त्रासदी से टूट चुके उसके माता-पिता ने सुप्रीम कोर्ट से इस अल्पवयस्क को भी वयस्कों की श्रेणी वाली सख्त सजा की गुहार लगाई थी पर वह ठुकरा दी गई। अब जब देश के दुश्मन भी इसी कमी का फायदा उठा रहे हैं तो क्या यह जरूरी नहीं  बनता कि अल्पवयस्कों से जुड़े कानून में ऐसे आवश्यक बदलाव किए जाएं जो इन अपराधी किशोरों के मन में कानून का खौफ पैदा कर सकें और इन्हें ऐसे अपराधों से दूर रखने में सहायक हों। उल्लेखनीय है कि अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा जैसे विकसित देशों में गंभीर अपराधों के मामलों में अल्पवयस्कों के साथ कोई विशेष रियायत नहीं बरती जाती। अपने देश में अनेक मामले ऐसे देखे गए हैं जिनमें अल्पवयस्क अपराधी को कानून की इस कमजोरी का पता होता है और वह जमकर इसका दुरुपयोग करते हैं। अब तो लश्कर--तैयबा भी इसका फायदा उठाने के चक्कर में है, इसलिए बेहतर होगा कि ऐसे अपराधों के लिए 16 से 18 वर्ष का एक वर्ग बनाया जाए और अपराध की प्रकृति को नजर में रखते हुए सजा दी जाए। वैसे भी जब अल्पवयस्क ऐसे गंभीर अपराध करते हैं (निर्भया केस) तो वह कहां का किशोर रह गया?

Tuesday 22 July 2014

आतंकियों के निशाने पर शिवभक्त

अमरनाथ यात्रा के आधार शिविर बालटाल बेस कैम्प पर शुक्रवार को हुई हिंसा में 65 लोग घायल हो गए, 300 से अधिक टैंटों में आग लगा दी गई और अमरनाथ यात्रा को रोक दिया गया। बालटाल में सामुदायिक लंगर में आग और झड़पों में 65 लोग घायल हो गए और 300 टैंटों व 10 सामुदायिक लंगर में आग लगा दी। जले हुए टैंट व लंगर, बिखरा हुआ राशन, चारों तरफ राख के ढेर और उनमें कहीं-कहीं निकल रहे धुएं के बीच अपने लिए जिंदगी का सामान तलाशते लोग, सभी के चेहरों पर डर और मायूसी की  लकीरें अपनी कहानी सुना रही थीं। ऐसा नजारा था मानो नादिरशाह की फौज कहर मचाकर यहां से गुजरी हो। शनिवार को बालटाल कहीं से भी बाबा बर्फानी की पवित्र गुफा की तरफ जाने वाले श्रद्धालुओं का मुख्य आधार शिविर नजर नहीं आ रहा था। भिवानी निवासी अरुण कुमार ने कहाöभाई साहब यह भगवान शंकर की कृपा है और फौज की हिम्मत जो हम लोग बच गए। मैं तो अपने परिवार के लोगों को भी गंवा चुका था, लेकिन फौजियों ने उनका भी पता लगाया और हम सभी को यहां वोमेल में अपने शिविर में जगह दी। अरुण कुमार ने कहा कि हम लोग तो पवित्र गुफा की तरफ जाने की धुन में मस्त थे। लेकिन पता नहीं कहां से लोगों का हुजूम आ गया, नारे लगाते हुए इन लोगों ने हमारे साथ मारपीट शुरू कर दी, लंगरों में घुस गए, टैंटों में सोए हुए लोगों को उठाकर पीटने लगे। हम सभी जान बचाकर भागे। हमें सेना के जवानों ने वहां से निकाला और अपने शिविर में ले गए। यह संतोषजनक है कि बालटाल में हिंसा के बाद रोकी  गई अमरनाथ यात्रा फिर से शुरू हो गई और श्रद्धालु हर-हर महादेव, ओम नम शिवाय के नारे लगाते आगे की यात्रा के लिए रवाना हो गए, लेकिन सवाल यह उठता है कि यह हिंसा आखिर हुई क्यों? यह सभी जानते हैं कि हर वर्ष अमरनाथ यात्रा को रोकने व उसमें विघ्न डालने के लिए कुछ लोग ऐसी हरकत करने की फिराक में रहते हैं। इस हिंसा के विरोध में जिस तरह देश के दूसरे हिस्सों, विशेष रूप से पंजाब और जम्मू-कश्मीर में तनाव फैला वह चिन्ताजनक है। अमरनाथ यात्रियों की सुरक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की जाती है लेकिन फिर भी हर वर्ष कुछ न कुछ अप्रिय घटना घट जाती है। चूंकि अमरनाथ की यात्रा एक कठिन यात्रा है, इसलिए भी यात्रियों के समक्ष अनेक बाधाएं खड़ी होती रहती हैं। बालटाल में जिस तरह बड़े पैमाने पर हिंसा हुई उससे लगता है कि इसके लिए पूरी तैयारी की गई थी। चूंकि यह भी स्पष्ट नहीं कि किस विवाद के चलते हिंसा भड़की और उसके लिए कौन जिम्मेदार है, इसलिए यह जरूर पता लगाया जाना चाहिए कि आखिर इस यात्रा में खलल डालने वाले तत्व कौन हैं? जिस तरह से शिवभक्तों को निशाने पर लिया जाता है वह अच्छा संकेत नहीं। दुखद बात यह है कि न तो जम्मू-कश्मीर सरकार ही पर्याप्त सुरक्षा कदम उठाना चाहती है और न ही स्थानीय लोग यात्रियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं। यह तो तब है कि जब इनकी रोटी-रोजी अमरनाथ यात्रा से ही चलती है। हमें तो अब डर इस बात का भी लगता है कि देशभर में चल रही कांवड़ यात्रा को भी आतंकी सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के लिए हमला करें। गृह मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि वैसे तो हमेशा कांवड़ यात्रा के दौरान सुरक्षा के मद्देनजर एहतियात बरते जाते हैं, लेकिन पिछले दिनों पश्चिम उत्तर प्रदेश में हुई सांप्रदायिक हिंसा की वजह से इस बार की परिस्थितियां थोड़ा भिन्न हैं। खुफिया एजेंसियों को ऐसी जानकारी मिली है कि कांवड़ में गड़बड़ी फैलाई जा सकती है। साफ है कि उत्तर भारत में शिवभक्त आतंकियों के निशाने पर हैं। गृह मंत्रालय को शिवभक्तों की सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध करने चाहिए। जम्मू-कश्मीर की सरकार की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि न केवल वह यह पता लगाए कि शरारती तत्व कौन हैं बल्कि उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई भी करें।


-अनिल नरेन्द्र

Obama invites Modi to visit America

Anil Narendra

Hardly after one an half month of taking over of new regime under the Prime Minister, Narendra Modi, the world super powers have been striving hard to steal opportunities at the earliest to get associated in the process of economic revival in India.  The countries like USA, Russia, China, France, Singapore and others have joined the race in sending their representatives to contact the weeks old  government in India to express their crystal clear desire to co operate in the development agenda of Modi.  Apart from this Japan, China, Germany and USA have already sent invitation to Modi to visit their respective countries.  Obama, American president has sent a formal invitation to Modi to visit his country sometimes in September, 2014.  American Dy. Secretary of States, William Berns handed over this invitation on behalf of Obama to Modi during his scheduled call.  A statement issued by the PM office sated that Obama has reiterated his invitation to Modi to visit Washington and has further expressed his willingness to boost Indo-Us relations to a level of decisive partnership in the 21st century and to strengthen further the bilateral relationship based on trust and confidence.  Modi while immediately accepting invitation conveyed his sincere thanks to Obama and stated that he is eagerly looking for his result oriented visit to the States in September.
We are of the opinion that there was no ground with Narender Modi to accept invitation of Obama spontaneously as USA had been insulting Modi for the last nine years by declining a visa to him.  The frequent visits of American high ups immediately after taking over as the PM by Modi are surprising.  No doubt, we support better relations between the two countries.  The first visit of Indian PM to USA is going to be of paramount importance.  The so called first visit in reference cannot be termed as the first visit of Modi to America as he is otherwise also scheduled to visit New York to attend UN General Assembly meeting in September.  From there he would go to Washington, hence, the visit is just co- incidental and an extension of the scheduled programme.  We must not forget that America is a selfish country as far as her conduct, behaviour and past record are concerned.  America feels no hesitation in taking frequent u- turns and making denials. Presently engagement with India has become a compulsion for America.  Hence it is becoming impossible for America to neglect the huge Indian market.  Apart from this America is looking restive as other major countries like Britain, France, Japan and all others have been seriously contacting India to exploit their business interests.  This forced Obama to send a formal invitation in hurry as he doesn’t want to lag behind.  The earlier government headed by Manmohan Singh, had been blindly following American footprints during last decade.  This became evident from Yes Boss approach followed by UPA II government.  We expect from Modi that he while keeping in view the self respect of India and American compulsions would never ink any agreement going to be detrimental to our interests.  Will Modi would easily forget the insult met to him by America during last decade.  It would have been better and appropriate for Modi to adopt a wait and watch approach at least for a few months before taking any decision on his visit to America; this would have definitely enhanced his stature.   

अमेरिका का वर्चस्व तोड़ने हेतु ब्रिक्स देशों की बड़ी कामयाबी

ब्रिक्स यानि ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का अपना अंतर्राष्ट्रीय बैंक का सुझाव जो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिया था पूरा हो गया है। छठा ब्रिक्स शिखर सम्मेलन विश्व मंच पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति का पहला मौका था और इस अवसर पर अंतर्राष्ट्रीय बैंक बनाने के साथ-साथ आतंकवाद के खिलाफ कदम उठाने की बात कर उन्होंने सकारात्मक संदेश भी दिया। हालांकि सबकी उत्सुकता ब्रिक्स बैंक को लेकर थी जिसे मंजूरी मिल गई। यह एक बड़ी उपलब्धि है। इससे 70 वर्ष पहले अमेरिका में न्यू हैम्पशायर ब्रेटन-वुड्स में 44 देशों के प्रतिनिधियों द्वारा विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की स्थापना के बाद उनकी तर्ज पर समानांतर संस्थाएं  बनाने की कोशिश पहली बार फलीभूत हुई है। विश्व बैंक और आईएमएफ के जरिये अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों द्वारा पूरी दुनिया पर अपना आर्थिक एजेंडा थोपने की शिकायतें गुजरे दशकों में खूब की गईं। ब्रिक्स का उद्देश्य अमेरिका और यूरोप के बरकस एक समानांतर व्यवस्था स्थापित करना है जो पक्षपात से रहित हो, किसी के एजेंडे पर चलने पर मजबूर न करे। ब्रिक्स बैंक का जो प्रशासनिक ढांचा तय हुआ है, इसमें एक देश एक वोट की व्यवस्था है यानि इस बैंक से जुड़े फैसले में कोई भी सदस्य वीटो नहीं कर पाएगा। मतलब यह है कि ब्रिक्स बैंक को विश्व बैंक, जिसमें अमेरिका का घोषित वर्चस्व है और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, जो सिर्प यूरोप का हित देखता है की तुलना में अधिक लोकतांत्रिक वित्तीय संस्था बनाने का लक्ष्य है। अमेरिका और यूरोप का वर्चस्व कम करने की मांग तो उठती रही पर यह संभव न हो सका। इसे ब्रिक्स देशों के नेतृत्व की समझदारी और दूरदर्शिता ही माना जाएगा कि उन्होंने शिकायत और मांगों से उठकर विकल्प तैयार करने का संकल्प लिया। परिणाम है कि ब्रिक्स देशों में विकास परियोजनाओं की मदद के लिए न्यू डेवलपमेंट बैंक और मौद्रिक या वित्तीय संकट के समय प्रत्यक्ष सहायता के लिए आकस्मिक कोष व्यवस्था अब अस्तित्व में आ गई है, लेकिन इस क्रम में चीन और दूसरे देशों के बीच हुई खींचतान ने कुछ आशंकाओं को भी जन्म दिया है। चीन  लम्बे समय तक अड़ा रहा कि नए बैंक और आकस्मिक कोष में वह ज्यादा योगदान करेगा, जिससे उनके प्रबंधन पर उसकी अधिक पकड़ बन जाती। बहरहाल भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और दूसरे नेताओं के अडिग रुख के कारण चीन को यह मानना पड़ा कि बैंक में पांच सदस्य देशों की समान हिस्सेदारी होगी लेकिन आईएमएफ की तर्ज पर बने आकस्मिक कोष में चीन का आरंभिक योगदान 41 अरब डॉलर होगा जबकि ब्राजील, भारत और रूस 18-18 अरब डॉलर तथा दक्षिण अफ्रीका पांच अरब डॉलर का योगदान करेगा। ब्रिक्स विकास बैंक के शुरू होने में दो साल लगेंगे। ब्रिक्स देशों ने भारत (नरेन्द्र मोदी) के रुख की जोरदार पैरवी करते हुए आतंकवाद के सभी स्वरूपों और उससे जुड़ी गतिविधियों की कड़ी निन्दा की। फोर्टलेजा घोषणा पत्र में जोर देकर कहा गया है कि वैचारिक, राजनीतिक, आर्थिक अथवा धार्मिक मुद्दों पर आधारित आतंकवाद की किसी भी गतिविधि को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। ब्रिक्स शिखर बैठक के बाद जारी 17 पेज के घोषणा पत्र में कहा गया है कि हम सभी इकाइयों को आह्वान करते हैं कि वह आतंकवादी गतिविधियों को वित्तीय मदद देने, प्रोत्साहन देने, प्रशिक्षण देने अथवा किसी दूसरी तरह से सहयोग करने में परहेज करें। मोदी ने यह सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रों की सामूहिक कार्रवाई का आह्वान किया कि आतंकवादियों को कहीं भी शरण न मिले। इसे भारत के पड़ोस की ओर इशारे के तौर पर देखा गया। अगला ब्रिक्स सम्मेलन 2015 में रूस में होगा। ब्रिक्स देशों से शुरुआती अपेक्षा यही है कि वह अपने आपसी विवादों को खत्म करें। मसलन ब्राजील में उठे ठोस कदम के बाद हम क्या यह उम्मीद नहीं कर सकते कि चीन और भारत सीमा विवाद समेत तमाम मुद्दों को हल करने की दिशा में भी आगे बढ़ेंगे। श्री नरेन्द्र मोदी का यह पहला अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन था और इसमें वह भारत के मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में उभरे हैं।

Sunday 20 July 2014

फिर सुलगा मध्य पूर्व एशिया

मध्य पूर्व एशिया एक बार फिर अशांत हो गया है। इस्राइल और फलस्तीन के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया है जो थमने का नाम ही नहीं ले रहा। उल्टा फैलता ही जा रहा है। दोनों देश एक बार फिर उस मोड़ पर खड़े हैं जहां से आगे का रास्ता नजर नहीं आ रहा है। दरअसल ताजा संघर्ष तब शुरू हुआ जब फलस्तीनी लड़ाकों ने जिसको हमास कहते हैं ने एक हमले में तीन इस्राइली किशोरों की मौत हो गई। इसके बाद इस्राइल ने जवाबी कार्रवाई शुरू की और वह बढ़ती ही जा रही है। पिछले 10 दिन में 200 से अधिक लोग मारे गए हैं। बुधवार को इस्राइल के हमले किए जिसमें गाजा के समुद्र तट पर खेल रहे एक ही परिवार के चार बच्चों की मौत हो गई। सभी बच्चे नौ से 11 साल के थे। इन बच्चों की मौत की फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हो गई। तस्वीरें हमले से कुछ क्षण पहले की हैं जिसमें बच्चे खेल रहे हैं। तभी रॉकेट ठीक उसी जगह गिरता है। इसके बाद रेत पर पड़े बच्चों के शव लेकर भागते परिजनों की तस्वीरें सामने आईं। इन बच्चों के शव फतह मूवमेंट के पीले झंडों में लपेटे गए थे न कि हमास के हरे झंडों में। जिसका संदेश यह था कि हमले में केवल हमास के आतंकी ही नहीं बल्कि निर्दोष बच्चे व नागरिक भी मर रहे हैं। 10 दिन के भीतर वहां 200 से अधिक लोग मारे गए हैं। इनमें अधिकांश निर्दोष नागरिक हैं। कहने को गाजा में 2012 से संघर्ष विराम की स्थिति थी लेकिन हकीकत यह है कि वहां राख के नीचे दबी आग को थोड़ी-सी हवा की जरूरत थी। इस्राइल अपना कब्जा छोड़ने को तैयार नहीं है और फलस्तीन अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र की पहल पर हुए कुछ घंटों के संघर्ष विराम में अलबत्ता लोगों को थोड़ी राहत जरूर मिली, लेकिन वहां हिंसा रोकने की ठोस पहल की सख्त जरूरत है। आम नागरिकों की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं। हवाई हमलों और नाकेबंदी के कारण आम नागरिकों को रोजमर्रा की जरूरत का सामान जुटाने में खासी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। जहां तक भारत का सवाल है तो इस्राइल और फलस्तीन दोनों से ही पुराने रिश्ते हैं। इसके अलावा पश्चिम एशिया में हजारों भारतीय रहते हैं और वह हमारे लिए तेल का भी बड़ा जरिया है। ऐसे में वहां किसी भी तरह की अस्थिरता न तो उस क्षेत्र के लिए अच्छा है और न ही भारत के लिए। जाहिर है कि भारत सरकार वहां के हालात पर कड़ी निगरानी रख रही है। संसद में भी इस मुद्दे को लेकर सियासी टकराव बना हुआ है। आवश्यकता इस बात की है कि इस जंग को सियासी मुद्दा बनाने की जगह देशहित को ध्यान में रखकर इस बार विचार हो। कोशिश तो यह भी होनी चाहिए कि इस्राइल और फलस्तीन में छिड़ी इस जंग को रोकने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहल करें। उधर जंग का क्षेत्र बढ़ता नजर आ रहा है। इस्राइली सेना ने फलस्तीनी हमास के खिलाफ गाजा में जमीनी कार्रवाई भी शुरू कर दी है। इस्राइली प्रवक्ता का कहना है कि यह कार्रवाई चरमपंथियों के रॉकेट दागने और हमास को मजबूत झटका देने के लिए की जा रही है जो गाजा पर नियंत्रण कायम किए हुए है।

-अनिल नरेन्द्र

मलेशियन प्लेन रूस- यूकेन जंग में निशाना बना

गुरुवार को युद्ध प्रभावित यूकेन में मलेशियाई एयरलाइंस के एक यात्री विमान को मार गिरने का अत्यंत दुखद समाचार आया। यह विमान एमएच-17 पूर्वी यूकेन के इलाके में 33 हजार फुट की उंचाई पर उड़ान भर रहा था। विमान को मास्को के समय के मुताबिक गुरुवार शाम 5.20 बजे रूस में दाखिल होना था। रूसी सीमा से 60 किलोमीटर पहले ही विमान पर मिसाइल से हमला हो गया। घटना यूकेन के वोनेत्सक इलाके में हुई। इस हादसे में विमान में सवार सभी 298 लोगों की मौत हो गई। इनमें 80 बच्चे भी थे। यूकेन के गृहमंत्री का दावा है कि हमला रूस समर्थक आतंकवादियों ने किया है। हमले से मलेशिया, रूस, यूकेन समेत कई देशों में हड़कम्प मच गया। रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने फौरन अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा को फोन लगाकर सफाई दी कि हमले में हमारा कोई हाथ नहीं है। ऐसा पहली बार हुआ है जब आतंकियों या विद्रोहियों ने किसी यात्री विमान को निशाना बनाया। मलेशिया का यह विमान एम्सटर्डम से कुआलालम्पुर जा रहा था। रूसी सीमा में दाखिल होने से पहले ही उस पर मिसाइल हमला हो गया। शुरुआती जानकारी के मुताबिक विमान में अमेरिका के 23, नीदरलैंड के 20 से 30, ब्रिटेन के 10, फ्रांस के चार यात्रियों समेत आठ से 10 देशों के नागरिक थे। घटना जिस इलाके में हुई है वहां यूकेन सरकार और रूस समर्थित विद्रोहियों में जंग जारी है। घटना के फौरन बाद यूकेन के राष्ट्रपति पेत्रो पोरोशेंको ने कहा कि हमले के पीछे विद्रोहियों का हाथ है। यूकेन की सेना ने मिसाइल नहीं दागी है जबकि पूर्वी यूकेन के अलगाववादी नेता का दावा है कि हमला यूकेनी सेना ने किया है। क्योंकि जिस मिसाइल सिस्टम की बात की जा रही है वह हमारे पास नहीं है। विमान पर बीयूके मिसाइल लांचर से हमला किया गया है। यह मिसाइल प्रणाली सिर्प रूस के पास है। रूस सैनिक साजो-सामान यूकेन के विद्रोहियों को दे रहा है। ऐसे में  घटना में विद्रोहियों का हाथ होने की पूरी आशंका है। कहा यह भी जा रहा है कि यात्री विमान को विद्रोहियों ने यूकेनी वायुसेना का लड़ाका विमान समझ लिया और मिसाइल दाग दी। विद्रोहियों ने एक दिन पहले ही यानि बुधवार को भी यूकेन के दो जेट मार गिराए थे। चार महीने में मलेशिया को दूसरा बड़ा झटका लगा है। इससे पहले मार्च में कुआलालम्पुर से बीजिंग जा रहा मलेशियाई विमान लापता हो गया था। महीनों खोज होने के बाद भी न विमान का पता चला और न ही उसमें सवार 240 यात्रियों का। अखिरकार सभी को मृत मान लिया गया। विमान का मलबा आज तक नहीं मिल पाया। इत्तेफाक से वह विमान भी बोइंग-777 श्रेणी का ही था। इस बीच एक चौंकाने वाली खबर यह आई है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी उसी फ्लाइट रुट से लौटने वाले थे जिस पर एमएच-17 के साथ हादसा हुआ। एक अंग्रेजी अखबार में छपी खबर के मुताबिक मोदी की फ्लाइट रुट को इस हादसे के बाद बदल दिया गया। दरअसल मोदी की फ्लाइट ने हादसे के दो घंटे बाद जर्मनी के फ्रैंकफर्ट से उड़ान भरी। अगर यह हादसा नहीं होता तो ऐसी स्थिति में पीएम का प्लेन इसी रुट से गुजरता। यह एक निहायत दुखद हादसा है। हम निर्दोष यात्रियों के मरने पर अपना दुख प्रकट करते हैं और उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देते हैं।

Saturday 19 July 2014

भारतीय युवाओं के आईएसआईएस में शामिल होने की आशंका

इस बात की आशंका पहले से ही जताई जा रही थी कि इराक में जारी खूनी संघर्ष में कुछ भारतीय युवा भी शामिल हो सकते हैं लेकिन अब ऐसी सूचनाएं मिल रही हैं कि यहां के कुछ युवा आईएसआईएस जैसे खूंखार आतंकी संगठन में शामिल होकर वहां हिंसा में लिप्त हैं। एक अंग्रेजी समाचार पत्र की रिपोर्ट के मुताबिक मुंबई के चार मुस्लिम लड़के धार्मिक यात्रा पर इराक गए थे। वहां पहुंचकर चारों लड़के उन 22 लोगों के ग्रुप से अलग हो गए जिनके साथ वह इराक गए थे। बताया जा रहा है कि यह चारों लड़के आईएसआईएस के जेहाद के नाम पर खूनी संघर्ष में शामिल हो गए हैं। इनमें से एक के पिता ने पुलिस में शिकायत कर सरकार से सहायता की मांग की है और उन लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की है जिन लोगों ने इस काम के लिए उन्हें उकसाया है। मुंबई से सटे कल्याण में रहने वाले एजाज बदरुद्दीन का बेटा आरिफ एजाज माजिद भी आईएसआईएस में शामिल होने वाले नौजवानों में से एक है। एजाज का कहना है कि उनका बेटा इराक जाने से पहले घर में एक चिट्ठी छोड़ गया था जिसमें उसने लिखा था कि `मेरे घर के पिछवाड़े सूरज डूब रहा है। मैंने अपने दोस्तों से कहा है कि हमें अपनी महान यात्रा शुरू करनी है। यह यात्रा मेरे लिए खुदा की नेमत होगी क्योंकि मैं इस देश में नहीं रहना चाहता हूं। जब मेरी मौत होगी तो खुदा मुझसे पूछेगा कि मैं अल्लाह की जमीन पर क्यों नहीं गया। अब आपसे जन्नत में मुलाकात होगी।' एजाज ने यह चिट्ठी मुंबई पुलिस को सौंपी है और अपने बेटे को सुरक्षित वापस लाने की गुहार लगाई है। जानकारी के मुताबिक आरिफ एजाज माजिद (22), शाहीन फारुकी टाकी (24), फहद तनवीर शेख (25) और अमन नईम टंडेल (24) 23 मई को घर से चले गए थे। तीन ने परिजन के लिए पत्र भी छोड़े। मामले की गम्भीरता  को देखते हुए महाराष्ट्र का आतंकरोधी दस्ता (एटीएस), राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) और खुफिया एजेंसियां जांच में जुट गई हैं। इस बीच यह भी खबर आई है कि भारत के करीब 18 लोग इराक में आईएसआईएस का हिस्सा बन गए हैं यह लोग संगठन की तरफ से जारी लड़ाई में हिस्सा ले रहे हैं। यही नहीं कि भारत के युवा आईएसआईएस में शामिल हो रहे हैं बल्कि समस्या यह भी है कि इराक और सीरिया से दहशत मचा रही इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया के दहशतगर्दों से भारतीयों ने ट्रेनिंग ली है और अब वापस लौटकर भारत में तबाही के निशाने ढूंढ रहे हैं। पिछले दिनों पुणे के एक पुलिस थाने के पास हुए बम विस्फोट के पीछे क्या आतंकियों की इस नई पौध का हाथ है? पुलिस ने दक्षिण और पश्चिम भारत के ऐसे डेढ़ दर्जन नौजवानों की शिनाख्त की है जिन्हें बहका कर सीरिया और इराक ले जाया गया है और वहां खूनखराबे में झोंक दिया गया है। चिन्ता की बात यह भी है कि आईएसआईएस के मुखिया अबु बकर बगदादी ने खुद को इस्लामी राज्य का खलीफा घोषित कर जिन देशों में तबाही फैलाने का प्लान बनाया है उनमें भारत भी शामिल है। केवल भारत ही नहीं बल्कि यूरोप, अमेरिका और आस्ट्रेलिया में भी मुस्लिम युवकों को इंटरनेट पर बहकाया जा रहा है।
-अनिल नरेन्द्र


अगर उपराज्यपाल भाजपा को सरकार बनाने के लिए बुलाते हैं तो...

दिल्ली में सरकार बनेगी या फिर से विधानसभा चुनाव होगा? इस प्रश्न पर सियासी हलचल तेज हो गई है। एक बात पक्की है कि कोई-सा भी विधायक चाहे वह भाजपा का हो, कांग्रेस का हो या फिर आप का हो चुनाव नहीं चाहता। वह चुनाव को टालना चाहता है और अगर सम्भव हो तो सरकार बनाने के पक्ष में है। भाजपा ने दिल्ली में सरकार बनाने के संकेत दिए हैं। प्रतीक्षा हो रही थी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ब्राजील से लौटने की। अब नरेन्द्र मोदी स्वदेश लौट आए हैं। उम्मीद की जाती है कि वह दिल्ली में भाजपा सरकार बनाने के लिए हरी झंडी दे देंगे। हालांकि डॉ. हर्षवर्धन और नितिन गडकरी जैसे पार्टी के बड़े नेता बहुमत न होने का हवाला देते हुए सरकार बनाने की पहल करने से इंकार करते रहे हैं। मीडिया में पिछले दो-तीन दिनों से हालांकि यह खबरें आ रही हैं कि भाजपा खेमे की ओर से सरकार बनाने की कवायद तेज हो गई है। भाजपा के नवनियुक्त प्रदेशाध्यक्ष सतीश उपाध्याय ने बुधवार को कहा कि पार्टी के विधायकों और सांसदों के साथ मीटिंग में राय थी कि अगर उपराज्यपाल सरकार बनाने के लिए बुलाते हैं तो विचार किया जा सकता है। विधायक और सांसद भी सरकार बनाने के पक्ष में हैं। बिना सरकार के इस समय दिल्ली एक तरह से लावारिस-सी है। कोई पूछने वाला नहीं, कोई जवाब देने वाला नहीं। अफसरों पर दिल्ली का दारोमदार अटक गया है। मेरी राय में भाजपा को अब मौका चूकना नहीं चाहिए। उसे सरकार बनाकर दिल्ली की जनता को इस दल-दल से निकालना चाहिए। आखिर अरविन्द केजरीवाल ने भी एक तरह से बिना बहुमत के सरकार चलाई थी। यह और बात है कि अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद को लात मार दी। भाजपा सूत्रों के अनुसार कांग्रेस के आठ में से छह विधायकों की पाला बदल राजनीति के लिए समझदारी लगभग बन गई है। यदि कांग्रेस के छह विधायक पाला बदल लेते हैं तो भाजपा जोड़तोड़ की उस्तादी दिखाकर आराम से बहुमत की सरकार बना लेगी। मैं तो यहां तक कहता हूं कि अल्पमत सरकार भी बनानी पड़े तो बना लेनी चाहिए। देखेंगे कि भाजपा की अल्पमत सरकार को गिराकर कौन चुनाव चाहता है। हां एक व्यक्ति है जो चुनाव के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं वह हैं अरविन्द केजरीवाल पर वह दिन लद गए जब केजरीवाल को लोग गम्भीरता से लेते थे। उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष दिसम्बर में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को 70 में से 31 सीटों पर जीत मिली थी। एक सीट भाजपा के सहयोगी अकाली दल ने जीती थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा के तीन विधायक लोकसभा के सदस्य बने तो विधानसभा में उसका संख्याबल घटकर 29 रह गया है। एक सदस्य अकाली दल का है। ऐसे में भाजपा को महज पांच और विधायकों का समर्थन सरकार बनाने के लिए चाहिए। सूत्रों का दावा है कि कांग्रेस में अरविन्दर सिंह लवली और हारुन यूसुफ को छोड़कर बाकी सभी विधायक सरकार बनाने के लिए उत्सुक हो गए हैं। पिछले दो दिनों से प्रदेशाध्यक्ष सतीश उपाध्याय पार्टी विधायकों सहित कई बड़े नेताओं से विमर्श करते आ रहे हैं। सूत्रों का दावा है कि पार्टी नेतृत्व ने नए मुख्यमंत्री के लिए वरिष्ठ नेता जगदीश मुखी का नाम भी तय कर लिया है। उधर आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने एक ट्विट में कहाöआप के किसी भी विधायक को खरीदने में विफल रहने पर अब भाजपा कांग्रेस के छह विधायकों को खरीदने की कोशिश कर रही है। कीमत 20 करोड़ रुपए प्रत्येक, दो मंत्री और चार अध्यक्ष। भाजपा ने केजरीवाल के इस बयान पर मानहानि का केस भी कर दिया है। केजरीवाल ने तो उपराज्यपाल की निष्ठा पर भी सवाल उठा दिया है। केजरीवाल ने दावा किया कि उपराज्यपाल भाजपा को सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए बुला सकते हैं और भाजपा इसे स्वीकार करेगी। अब मामला भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पाले में है। उल्लेखनीय है कि फरवरी में दिल्ली से राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। यहां पर 49 दिन की सरकार चलाकर केजरीवाल ने पद से इस्तीफा दे दिया था। दरअसल भाजपा ने सरकार बनाने के लिए यूटर्न इसलिए लिया कि उसके सारे विधायक सरकार बनाने के पक्ष में अब हैं। महंगाई, बिजली-पानी जैसी बढ़ती समस्याओं के कारण आज दिल्लीवासियों के दुख-दर्द को कोई पूछने वाला नहीं, समाधान करने वाला नहीं। अगर विधानसभा होगी तो बहुत-सी ज्वलंत समस्याओं का समाधान सम्भव हो सकता है। दिल्ली में सरकार बननी चाहिए।

Friday 18 July 2014

वैदिक को बताना होगा, किस मकसद से हाफिज सईद से मुलाकात की


भारत के मोस्ट वांटेड आतंकी और जमात-उद-दावा के सरगना हाफिज सईद से दो जुलाई को भारतीय पत्रकार वेद प्रताप वैदिक की पाकिस्तान में हुई मुलाकात से देशभर में भारी हंगामा हो रहा है। कहीं वैदिक का पुतला जलाया जा रहा है तो कहीं उन पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हो रहा है। वैदिक जी ने सही किया, क्या एक पत्रकार को किसी भी व्यक्ति भले ही वह आतंकी हो से मिलने का अधिकार है या नहीं, इन सब पर टिप्पणी करने से पहले मैं कुछ महत्वपूर्ण बातें करना जरूरी समझता हूं। श्री वैदिक का मैं बहुत सम्मान करता हूं। उनके साथ हमारे पारिवारिक रिश्ते हैं। मेरे दादा जी महाशय कृष्ण जी, ताऊ जी वीरेन्द्र जी और पिता जी स्वर्गीय के. नरेन्द्र जी सभी के वैदिक जी से रिश्ते थे। वही रिश्ते मेरे भी हैं। मुझे बड़ी पीड़ा हो रही है श्री वैदिक के बारे में टिप्पणी करने में पर यहां सवाल जान-पहचान, रिश्तेदारी का नहीं यहां सवाल देशहित का है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि एक पत्रकार को किसी से भी मिलने पर चाहे वह आतंकी ही क्यों न हो कोई पाबंदी नहीं। मुझे याद है कि वीरप्पन, नक्सलियों से पत्रकारों की मुलाकात होती रही है और पत्रकारों को इसके लिए कानूनी लड़ाई भी लड़नी पड़ी है। सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला गया और देश की शीर्ष अदालत ने पत्रकार को सही माना और रिहा किया पर उन्होंने वीरप्पन या नक्सलियों से जो बातचीत की उसका पूरा ब्यौरा छापा। वह बात तो समझ में आती है पर वैदिक जी ने इंडियाज मोस्ट वांटेड से क्या बात की, इसका न तो कोई साक्षात्कार किसी समाचार पत्र में छापा और न ही सईद के साथ हुई बातचीत का कोई ऑडियो-वीडियो टेप ही जारी किया। जब आपने न छापा और न ही ट्रांसक्रिप्ट दिया तो यह कैसे पता चले कि आपन हाफिज सईद से क्या बातें कीं? क्यों कीं? आपका बातचीत करने के पीछे उद्देश्य क्या था, मकसद क्या था? मुंबई हमले के मास्टर माइंड सईद से किसी भारतीय पत्रकार की मुलाकात सामान्य बात नहीं है। इसमें आईएसआई की भूमिका भी रही होगी। क्योंकि हाफिज सईद न केवल इंडियाज मोस्ट वांटेड ही है बल्कि अमेरिका की आतंकी लिस्ट में शामिल है जिस पर भारी-भरकम इनाम रखा गया है। हाफिज सईद की सुरक्षा पाकिस्तानी सेना व वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई करती है। आईएसआई की मर्जी के बिना सईद किसी भारतीय या अन्य विदेशी पत्रकार से मिल ही नहीं सकता। वैदिक की सईद से मुलाकात कराने में आखिर किसकी कोशिश रंग लाई? इस मुलाकात के लिए या तो पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकारों ने कोशिश की होगी या भारतीय उच्चायुक्त ने मदद की होगी, क्योंकि वैदिक को भारतीय उच्चायुक्त का अच्छा खासा प्रोटोकॉल मिला हुआ था जो आमतौर पर किसी भारतीय पत्रकार को नहीं मिलता। चाहे वह कितना भी वरिष्ठ क्यों न हो। इस मुलाकात से यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या वैदिक ने सईद को भारत सरकार का कोई संदेश दिया या सईद ने वैदिक के जरिये भारत सरकार को कोई संदेश भेजा है? हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और वित्तमंत्री अरुण जेटली ने दो टूक कहा है कि श्री वैदिक भारतीय दूत बनकर नहीं गए और न ही सरकार का इससे कुछ लेनादेना है और न ही वैदिक ने जाने से पहले सरकार को बताया और न ही आने के बाद कोई जानकारी दी। खुद श्री वैदिक ने सफाई दी है कि मैं सरकारी दूत बनकर सईद से नहीं मिला। उन्होंने कहा कि वह सरकार या बाबा रामदेव के नौकर नहीं हैं। उनके सभी से पत्रकारिता के नाते सम्पर्प हैं। उन्होंने तो यह भी सवाल उठाया कि क्या किसी से मिलने के लिए प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की मंजूरी लेनी पड़ती है? पाकिस्तानी टीवी न्यूज चैनल ने वैदिक का एक इंटरव्यू दोबारा प्रसारित किया है। यह इंटरव्यू चैनल ने 30 जून को वैदिक से लिया था। इसमें कश्मीर के मुद्दे पर वैदिक ने कई विवादित मशविरे दिए हैं। उन्होंने कहा कि भारत और पाकिस्तान दोनों कश्मीरी हिस्सों के लोगों की रोजमर्रा की समस्याएं लगभग एक जैसी हैं। यहां दशकों से अमन-चैन की स्थिति नहीं है। कश्मीर के दोनों हिस्सों में यदि आजादी के लिए समझदारी बने और इस पर भारत और पाकिस्तान भी राजी हो तो आजादी देने में कोई बुराई नहीं है। वैदिक की इस टिप्पणी पर संसद में जोरदार हंगामा हो रहा है। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने तो यहां तक कह दिया कि वैदिक आरएसएस के आदमी हैं। वैदिक ने इस बात की भी वकालत की कि पहले दोनों कश्मीरों के बॉर्डर खोले जाएं ताकि दोनों देशों में आवाजाही बढ़े। मेरी इच्छा है कि दोनों हिस्सों को मिलाकर एक मुख्यमंत्री बने और एक राज्यपाल हो। इस पर टीवी पत्रकार ने सवाल दागा कि लेकिन इस व्यवस्था पर कंट्रोल किस देश का होगा तो वैदिक ने कई तरह के अटपटे विकल्प बताए। टीवी एंकर ने यह भी टिप्पणी की कि वैदिक ने यह भी कहा कि वह मोदी के करीबी हैं। दिल्ली लौटने पर भी उन्होंने एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि मैंने नरेन्द्र मोदी को पीएम बनने में भारी योगदान दिया है। निसंदेह यह कुपित होने वाली बात है, लेकिन क्या ऐसा भी कोई नियम-कानून है कि जिससे वैदिक या उनके जैसे लोगों के मुंह पर पट्टी बांधी जा सके? एक तो वेद प्रताप वैदिक न तो भाजपा से जुड़े हैं और न ही मोदी सरकार से और दूसरी उनकी ऐसी शख्सियत भी नहीं कि वह किसी मसले पर कुछ कहें और सारा देश उस पर चिन्तन-मनन करने में जुट जाए। मोदी सरकार के स्वयंभू राजदूत व पत्रकार वैदिक ने आतंकी हाफिज सईद से मुलाकात कर और उसे खुद ही लीक कर अपनी और सरकार की फजीहत करवा दी है। भाजपा और मोदी सरकार का मानना है कि उन्होंने सुर्खियों में आने के लिए जो कुछ भी किया व कहा है वह सरकार की घोषित नीति का मखौल उड़ाने वाला है कि वह मुंबई बम कांड के आतंकियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई चाहती है। जिस खूंखार आतंकवादी के खिलाफ करोड़ों का इनाम घोषित हो व जिसके प्रत्यर्पण के लिए भारत लगातार पाकिस्तान पर दबाव बनाए हो, उसके साथ वैदिक की मुलाकात और उसके खुलासे से वैदिक जी ने अपने पांव में कुल्हाड़ी ही नहीं मारी बल्कि मोदी सरकार को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। अब वैदिक का यह फर्ज बनता है कि वह देश को बताएं कि उनकी हाफिज सईद से क्या बात हुई, उसका पूरा ब्यौरा दें और डॉन टीवी साक्षात्कार का टेप उपलब्ध कराएं ताकि देश को पता चल सके कि आपने किस मकसद से यह सब कुछ किया?

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