Sunday, 6 July 2014

दहेज उत्पीड़न कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए साहसी पहल

सुप्रीम कोर्ट ने आम नागरिक की दुखती रग को पकड़ा है। दहेज जैसी कुप्रथा को रोकने के लिए बनाया गया कड़ा कानून कैसे कई बार निर्दोषों के उत्पीड़न का औजार बन जाता है, इस पर अदालत की नजर गई है। दहेज विरोधी कानून उन चुनिन्दा कानूनों में से एक है जिसका सर्वाधिक दुरुपयोग किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान लेकर एक महत्वपूर्ण कानूनी विसंगति को ही दूर किया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दहेज का मामला बेहद संवेदनशील है और दहेज उत्पीड़न और दहेज प्रताड़ना से संबंधित संज्ञेय और गैर-जमानती कानून के बावजूद ऐसे मामले कम नहीं हो रहे हैं। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी उतना ही गम्भीर है कि इसकी आड़ में अकसर पति और ससुराल वालों को जबरन फंसा दिया जाता है, जिसकी वजह से बरसों उन्हें जेल में रहना पड़ता है। वास्तव में दहेज विरोधी इस कानून के दुरुपयोग का हाल यह है कि पुलिस 93 फीसदी मामलों में तो आरोप पत्र दाखिल कर पाती है। लेकिन सिर्प 15 फीसदी मामलों में ही सजा हो पाती है और बाकी मामलों में आरोपी बरी हो जाते हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए में वर्णित इस कानून के प्रावधान इतने कड़े हैं कि जिक्र आते ही प्रभावित लोगों के प्राण सूख जाते हैं। इसमें रिपोर्ट दर्ज होते ही पति और परिजनों की गिरफ्तारी का प्रावधान है। ऐसे मामलों में जमानत की प्रक्रिया भी बेहद कठिन और जटिल है। कानून को इतना कड़ा बनाने का मकसद दहेज जैसी कुप्रथा को मिटाना और इसकी खातिर होने वाली हत्या जैसे जघन्य अपराध पर रोक लगाना था। इससे नवविवाहित स्त्रियों को इस अत्याचार से राहत मिलना स्वाभाविक था किन्तु अधिकतर मामलों में यह देखा गया कि निहित स्वार्थी तत्वों ने इसे ही उत्पीड़न का औजार बना लिया। मामूली पारिवारिक कलहों से लेकर अन्य छोटे-बड़े कारणों से इसके दुरुपयोग के किस्से सामने आने लगे और पीड़ित परिवारों की महिलाएं और बच्चियां तक इसके शिकार होकर जेल में वर्षों रहने पर मजबूर हुए। सर्वोच्च न्यायालय की दो सदस्यीय बैंच ने इस कानून के दुरुपयोग पर चिन्ता जताते हुए सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि ऐसे मामलों में पुलिस भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत गिरफ्तारी से पहले पूरी तरह आश्वस्त हो  जाए। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि दहेज हत्या के मामले में किसी व्यक्ति पर मुकदमा चलाने के लिए उसे उस समय तक रिश्तेदार नहीं माना जा सकता जब तक कि पति से उसका खून, विवाह या गोद  लिए जाने का रिश्ता नहीं हो। बुधवार को जस्टिस चन्द्रमौली के. प्रसाद व जस्टिस पीसी घोष की पीठ ने कहा कि असंतुष्ट पत्नियों द्वारा पति और ससुराल के लोगों के खिलाफ दहेज विरोधी कानून के दुरुपयोग पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि पुलिस ऐसे मामलों में स्वत आरोपियों को गिरफ्तार नहीं कर सकती। पुलिस को ऐसा करने के पीछे कारण बताना होगा, जिसका न्यायिक परीक्षण किया जाएगा। इसके लिए सभी राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि दहेज उत्पीड़न सहित सात वर्ष तक की सजा वाले सभी अपराधों में गिरफ्तारी का सहारा न लिया जाए। दहेज यदि एक सामाजिक बुराई है तो बदलते समाज की सच्चाइयों को भी स्वीकार करना होगा। सामाजिक दबाव, जीवन शैली में बदलाव और आर्थिक समृद्धि की चाहत ने पति-पत्नी के रिश्तों को भी बदला है, जिसकी परिणति दहेज के झूठे मामलों के रूप में दिखाई देती है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला साहसिक तो है ही लेकिन इसने एक बड़ी बहस को भी जन्म दिया है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 8000 मौतें हर वर्ष दहेज प्रताड़ना की वजह से होती हैं। जाहिर है कि दहेज के खिलाफ लड़ाई सिर्प कानून से नहीं  लड़ी जा सकती, इसके लिए व्यापक सामाजिक बदलाव की भी जरूरत है। उम्मीद है कि इससे अच्छे कानून का दुरुपयोग रुक सकेगा।

-अनिल नरेन्द्र

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