Friday, 11 July 2014

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला, शरई अदालत गैर कानूनी

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट कर दिया है कि इस्लामी कानून के तहत कुरान और हदीस की रोशनी में फैसले सुनाने वाली शरई अदालतें और उनके आदेशों व फतवों की कोई कानूनी हैसियत या मान्यता नहीं है। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में इन अदालतों और फतवों का कोई स्थान नहीं है। वकील विश्व लोचन मदान ने नौ साल पहले 2005 में सुप्रीम कोर्ट में  जनहित याचिका दाखिल कर शरई अदालतों की वैधानिकता को चुनौती दी थी। मदान ने ऐसी अदालतें समाप्त करने व फतवे पर रोक लगाने की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने गत 25 फरवरी को इस मामले में फैसला सुरक्षित रख लिया था। सोमवार को न्यायमूर्ति चंद्रमौली कुमार प्रसाद व न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्रघोष की पीठ ने वकील विश्व लोचन मदान की याचिका का निपटारा करते हुए यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया। पीठ ने शरीयत अदालत की ओर से ऐसे व्यक्ति के बारे में फतवा (आदेश) जारी करने को गलत ठहराया जिसने उनके पास अपील नहीं की हो। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बेगुनाहों को सजा देने के लिए फतवों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा है कि शरीयत अदालतों को कानूनी मंजूरी नहीं मिली है। ऐसे में उनका फतवा किसी के लिए बाध्यकारी नहीं है। इसे जबरन लागू कराने पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी। फतवा सिर्प राय है, अदालत ने कहाöइसकी कानूनी वैधता नहीं है। काजी या मुफ्ती को अधिकार नहीं कि वह अपनी राय लागू कराएं। ऐसा ब्रिटिश काल में होता था। वकील विश्व लोचन मदान की याचिका की सुनवाई के दौरान ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वकील ने कहा था कि फतवा लोगों पर बाध्यकारी नहीं होता और यह मुफ्ती का विचार होता है। उनके पास इस आदेश का पालन करवाने के लिए कोई अधिकार या अथारिटी नहीं होती। वहीं यूपी सरकार की ओर से कहा गया था कि फतवा सलाह की तरह है और इसे मानना अनिवार्य नहीं है। मध्यप्रदेश की ओर से कहा गया कि दारुल कजा के फतवे की कोई लीगल वैल्यू नहीं है। याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी गई थी कि इस तरह की कोर्ट (शरीयत अदालतों) की कानूनी मान्यता नहीं है और मुसलमानों के मूल अधिकारों को फतवे के जरिये कंट्रोल नहीं किया जा सकता। ऐसी अदालतें देश के जुडिशियल प्रोसेस के समानांतर चलाई जाती हैं। इस दलील को अदालत ने नकार दिया और कहा कि याचिकाकर्ता का यह कहना कि दारुल कजा और निजाम--कजा समानांतर अदालतें चला रही हैं, गलत व्याख्या है। सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद मुस्लिम समाज में इसको लेकर बहस तेज हो गई है। मशहूर रंगकर्मी इरफान हबीब ने कहा है कि कोर्ट यह पहले भी कह चुका है। इस फैसले से कोई विवाद नहीं होना चाहिए। कुछ लोग फैसले का विरोध करेंगे और कुछ समर्थन। इस समाज में बदलाव आने तक रोका नहीं जा सकता। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य कमाल फारुकी ने फैसले को पूरे परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत बताई और कहा कि अगर फैसला किसी खास कानून पर दिया गया हो तब यह गलत है। हमें अपने धर्म का पालन करने का संवैधानिक अधिकार है। यह सोचना कि दारुल कजा और दारुल इफ्ता गैर कानूनी हैं पूरी तरह गलत है। दारुल उलूम देवबंद के वकील शकील अहमद सैयद का कहना है कि हम कोई समानांतर अदालत नहीं चला रहे हैं। दो लोगों के विवाद में यदि कोई तीसरा आता है तो शरई अदालत को उस पर फैसला नहीं सुनाना चाहिए। फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम डॉ. मुफ्ती मुकर्रम ने कहा कि हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है, मुसलमानों को यह अधिकार है कि वह अपनी शरई के मुताबिक जीवन-यापन करें। संविधान के अनुसार कोई भी अदालत या जमात इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। मुस्लिम धर्मगुरु खालिद रशीद फिरंगी की टिप्पणी थी, संविधान उन्हें पर्सनल लॉ के मुताबिक काम करने का अधिकार प्रदान करता है। व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि शरीयत एप्लीकेशन एक्ट 1937 ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उन मामलों में, जहां दोनों ही पक्ष मुसलमान हों और मामला निकाह, तलाक, जिहर, लियान, खुला और मुबारत से जुड़ा हो तो मुस्लिम पर्सनल लॉ के आलोक में निर्णय लिए जाएंगे। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी ने कहा कि हम न्यायपालिका के समानांतर कुछ भी नहीं कर रहे और हम यह नहीं कहते कि काजी का कोई भी फतवा सभी पर बाध्यकारी है। सुप्रीम कोर्ट ने मुजफ्फरनगर के इमराना प्रकरण का उल्लेख किया, जिसमें ससुर द्वारा इमराना से दुष्कर्म करने के बाद उससे शादी करने को सही ठहराया गया था। कोर्ट ने कहा कि यह फतवा एक पत्रकार के आग्रह पर जारी किया गया जो मामले से पूरी तरह अजनबी था। इस फतवे से एक पीड़िता को ही सजा मिल गई। इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर बहस होना स्वाभाविक ही है।

-अनिल नरेन्द्र

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