Tuesday, 1 July 2014

कहां रह गए अच्छे दिन? मोदी सरकार के 30 दिन

तमाम उम्मीदों और अपेक्षाओं के साथ केंद्र की सत्ता में आई मोदी सरकार के कार्यकाल का एक महीना पूरा हो गया है। पांच वर्षों के लिए चुनी गई किसी भी सरकार को उसके एक माह के काम के आधार पर नहीं परखा जा सकता, लेकिन जिस तरह के अप्रत्याशित जनादेश के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी सरकार बनाई, उसमें इस सरकार के केवल एक माह ही नहीं  बल्कि एक-एक दिन की समीक्षा होना स्वाभाविक ही है। करीब दो महीने लम्बे चले चुनाव अभियान के दौरान भाजपा का जो नारा सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ, वह थाöअच्छे दिन आने वाले हैं। यह नारा आम जनता के दिलो-दिमाग में बैठा हुआ है, इसलिए जिस दिन नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, उसी दिन से अच्छे दिन लौटने की उम्मीद की जा रही है। आम आदमी के लिए अच्छे दिन का मतलब है महंगाई कम होना, युवा बेरोजगारों को नौकरी, सरकार में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना, कानून व्यवस्था में सुधार, बिजली-पानी जैसी रोजमर्रा की दिक्कतों से राहत पाना है। मोदी सरकार को एक महीना पूरा होने पर बधाइयां और आलोचनाओं के साथ एक जनहित याचिका भी मिली है। मुंबई की एक संस्था ने वादे तोड़ने का आरोप लगाते हुए याचिका दायर कर पूछा है कि अच्छे दिन कहां हैं? ऑल इंडिया एंटी करप्शन एंड सिटीजंस वेलफेयर कोर कमेटी व इसके संस्थापक एमवी होलमागी की तरफ से मुंबई हाई कोर्ट में यह जनहित याचिका दायर की गई है। कांग्रेस सांसद और पूर्व मंत्री शशि थरूर का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सफेद घोड़े पर सवार एक निर्णायक नेता की छवि जल्दी ही फीकी पड़ने वाली है। उनका कहना है कि हो सकता कि मोदी की छवि जनता के बीच इस वजह से लोकप्रिय हो गई कि जनता फैसले लेने में हिचकिचाहट के कारण संप्रग शासन से ऊब गई हो, लेकिन उन्हें अब लगता है कि मोदी की एक व्यक्ति के शासन वाले अंदाज की ताकत और सीमाएं जल्दी ही सामने आ जाएंगी। उन्होंने कहा कि मोदी का मंत्रियों की अनुपस्थिति में सचिवों से अलग मिलना हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मंत्रिमंडल की जवाबदेही के सिद्धांत पर वास्तव में कुछ सवाल उठाता है। हमारी व्यवस्था के अनुसार सामान्य तौर पर मंत्री अपने विभागों के लिए जवाबदेह होते हैं। इस एक माह के कार्यकाल के दौरान आने वाले समय में अच्छे दिन देख पाने की आम आदमी की उम्मीदें भले ही बरकरार हों पर अभी अच्छे दिन आ गए हों, ऐसा नहीं  लग रहा। मानसून के बादलों की तरह अभी तो यह सुहावने दिन दूर-दूर तक नजर नहीं आते। यह जरूर रहा है कि इस बीच मोदी सरकार ने ढर्रे की कार्य संस्कृति को बदला है। शीर्ष स्तर पर राज्य सत्ता में राजनीतिक शुचिता का एजेंडा भी कुछ कारगर होता दिखाई पड़ रहा है। क्योंकि प्रधानमंत्री ने साफ-सफाई का काम सत्ता की गंगोत्री से ही शुरू किया है। लेकिन मुश्किल यह है कि अभी एक भी ऐसा फैसला नहीं हो पाया है जिससे कि लोगों को यह पक्का यकीन हो कि वाकई ही अच्छे दिनों का वादा सिर्प चुनावी झांसा भर नहीं था। पिछले दिनों मोदी सरकार ने रेल यात्री भाड़ा और माल भाड़ा में जबरदस्त वृद्धि की कड़वी डोज जनता को दी है। रेलवे के इतिहास में कभी एक साथ भाड़े में इतनी बढ़ोत्तरी नहीं हुई थी। माल भाड़ा बढ़ जाने से महंगाई को और करंट लगना तय है। बढ़ी हुई दरें लागू भी कर दी गईं। संसद सत्र सात जुलाई से शुरू हो रहा है, क्या सरकार रेलवे बजट में यह बढ़ोत्तरी नहीं कर सकती थी? इन्हीं बातों का नरेन्द्र मोदी संप्रग सरकार की आलोचना करते थे अब खुद वही कर रहे हैं। सरकार कई और क्षेत्रों में सब्सिडी बोझ कम करना चाहती है। खास तौर पर तेल के सैक्टर में जाहिर है कि इस पर अमल हुआ तो गरीबों को मिलने वाला सस्ता केरोसिन भी महंगा हो जाएगा। रसोई गैस के दाम भी इतने बढ़ जाएंगे कि मध्यम वर्ग के अच्छे दिनों के सपने एकदम चकनाचूर हो जाएंगे। इराक संकट जहां बाहरी मोर्चे पर सरकार की अग्नि-परीक्षा बन गई वहीं महंगाई के और विकराल हो जाने से सरकार को घरेलू मोर्चे पर भी बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। इस दौरान सुस्त दिखने वाली देश की शीर्ष नौकरशाही नई सरकार के तेवरों से हलकान जरूर हुई है। वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार चलाने की अपनी शैली के कारण मंत्री की जगह खुद मोदी ही केवल सर्वाधिक चर्चा में हैं बल्कि जनता से संवाद करने में भी मंत्री बहुत पीछे दिखे। हां शपथ ग्रहण के दौरान सार्प देशों के शासनाध्यक्षों को बुलाने के बाद पहली विदेश यात्रा के लिए भूटान को चुनकर प्रधानमंत्री ने पड़ोसी देशों से बेहतर संबंध बनाने का साफ संदेश देकर दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसी दौरान वीजा विवाद के कारण अमेरिका से खुद का मधुर रिश्ता न होने के बावजूद प्रधानमंत्री ने अमेरिका जाने का कार्यक्रम तय कर सबको चौंकाया। मोदी सरकार के समय कुछ अनपेक्षित चुनौतियां भी आ खड़ी हुई हैं। इनमें एक है कमजोर मानसून और दूसरा इराक संकट। इन दोनों चुनौतियों के चलते इस सरकार को वह समक्ष भी नहीं मिला जो आम तौर पर किसी नई सरकार को मिलता है। एक महीना पूरा होने पर शुरू हुई आलोचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि हर नई सरकार को कुछ वक्त दिया जाता है, जिसे हनीमून पीरियड कहते हैं। पिछली सरकार को भी 100 दिन दिए गए थे लेकिन हमें 100 घंटे भी नहीं मिले। उन्होंने कहा कि 67 साल के मुकाबले एक महीना कुछ भी नहीं है। अपनी ख्याति के अनुरूप मोदी ने कठोर फैसले में कोई झिझक न दिखाने का इरादा जाहिर किया है। अगले महीने में रेलवे बजट के साथ आम बजट आना है। जिस तरह से आर्थिक हालात हैं उनमें बहुत राहत की उम्मीद नहीं है। बावजूद इसके मोदी सरकार से उम्मीद की जा रही है कि वह देश में निवेश का माहौल सुधारेगी, जिससे नौकरियों की गुंजाइश बने और बेरोजगार युवाओं में निराशा कम हो। रेल भाड़ा बढ़ने व मानसून औसत से कम रहने की खबरों से महंगाई और बढ़ने की आशंका बनी है। संप्रग सरकार के फैसलों पर मुहर लगाकर मोदी सरकार कांग्रेस की बी टीम कही जाए तो गलत न होगा। मध्यम व कमजोर वर्ग, जिसने महंगाई से त्रस्त होकर ही कांग्रेस को सबक सिखाया, वह मोदी सरकार के शुरुआती फैसलों को मजबूरी मानकर फिलहाल सब्र कर सकता है पर वह कब तक यह कड़वी दवा निगलता रहेगा, यह कहना मुश्किल है।

-अनिल नरेन्द्र

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