Sunday 31 August 2014

हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान? नजमा उवाच

केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला ने अपनी एक टिप्पणी से भले ही आरएसएस सर संघचालक मोहन भागवत को खुश कर दिया हो लेकिन उनकी इस टिप्पणी पर पहले से सियासी बवाल मचना स्वाभाविक ही था। नजमा ने अंग्रेजी के हिन्दुस्तान टाइम्स को दिए एक साक्षात्कार में कह दिया कि हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी लोगों को यदि हिन्दू कह दिया तो इसमें गलत क्या है? यानि सभी भारतीय हिन्दू हैं। सभी भारतीयों के लिए पहचान की समरूपता होने की जरूरत का संकेत देते हुए नजमा ने कहा कि वह नहीं समझतीं कि कोई ऐसा देश है जहां तीन विभिन्न भाषाओं में तीन नाम हों। उन्होंने कहा कि अरबी में भारतीय हिन्दी और हिन्दुस्तानी कहे जाते हैं तथा फारसी और अंग्रेजी में इंडियन कहे जाते हैं। नजमा ने कहा कि हम हिन्दी हैं, राष्ट्रीयता की पहचान के रूप में हम हिन्दुस्तानी हैं। भौगोलिक रूप से और ऐतिहासिक रूप से सिंधु के इस पार रहने वाले लोगों को हिन्दू कहा जाता था। अरब देशों में आज भी आम तौर पर बोलचाल में हिन्दुस्तानियों को हिन्दू या हिन्दी कहा जाता है। इस इन्टरव्यू में नजमा ने यह बताने की कोशिश की है कि किस तरह कुछ इस्लामिक कट्टरपंथी देश की एकता तोड़ने पर उतारू हैं। उन्होंने संघ प्रमुख मोहन भागवत के उस बहुचर्चित बयान का बचाव भी किया है जिसमें उन्होंने कहा था कि हिन्दुस्तान में रहने वाले हर शख्स की पहचान हिन्दू ही है और भारत एक हिन्दू राष्ट्र है। बाद में हंगामा होने पर नजमा अपने बयान से पलट गईं। अपनी टिप्पणियों पर स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि उन्होंने सभी भारतीयों को हिन्दी कहा था जो भारत में रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है और जो उन्होंने कहा था वह धर्म के संबंध में नहीं बल्कि राष्ट्रीयता के रूप में एक पहचान के संबंध में कहा था। सवाल यहां  यह उठता है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान कि सभी भारतीयों को हिन्दू कहा जाना चाहिए, से उनकी हिन्दू की परिभाषा धर्म से है या भौगोलिक दृष्टि से? क्योंकि अगर धर्म से है तो यह किसी को स्वीकार्य नहीं होगी। संविधान में साफ कहा गया है कि भारत अर्थात इंडिया। यह नहीं कहा गया कि भारत अर्थात हिन्दू। भारत में सभी धर्मों के लोग रहते हैं और सब भारतीय हैं, हिन्दुस्तानी हैं। सर संघचालक मोहन भागवत के इस  बयान से उनके हिन्दुत्व के संकेत मिलते हैं। निसंदेह वह शायद इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद से संघ, विश्व हिन्दू परिषद इत्यादि खामोशी से हिन्दुत्व का एजेंडा बढ़ा रहे हैं। वह यह भूलते हैं कि नरेन्द्र मोदी को जो लोकसभा चुनाव में अभूतपूर्व सफलता मिली वह उनके हिन्दुत्व एजेंडे पर नहीं मिली। उन्हें यह मैनडेट देश के विकास के लिए मिली है, युवाओं को  बेहतर भविष्य देने के लिए मिली है। इस प्रकार के बयान उलटा मोदी की मुसीबतें ही बढ़ाते हैं। हमें समझ यह नहीं आता कि देश में महंगाई, बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, बिजली, पानी जैसी सैकड़ों समस्याएं मुंह फाड़ रही हैं। तीन महीने में मोदी इनका समाधान नहीं कर पाए। यह ठीक है कि तीन महीने का समय बहुत कम होता है पर सरकार कोई भी ठोस कदम नहीं उठा पाई है। ऐसे में यह फालतू के मुद्दे उठाकर संघ प्रमुख और नजमा क्या मोदी का भला कर रहे हैं?

-अनिल नरेन्द्र

भाजपा में सत्ता संघर्षö शह-मात का खेल

भाजपा और मोदी सरकार में जारी शह-मात का खेल जोरों पर चल रहा है। संसद के बजट सत्र के दौरान केंद्रीय परिवहन एवं सड़क मंत्री नितिन गडकरी के घर जासूसी उपकरणों के पाए जाने की खबरों ने जहां मोदी सरकार के भीतर सब कुछ ठीक-ठाक न होने के संकेत दिए वहीं दूसरी तरफ केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह और उनके पुत्र पंकज सिंह की वित्तीय अनियमितता की खबरों ने एक बार पुन सरकार के भीतर चल रही गुटबाजी को उजागर कर दिया है। भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह को एक माह के भीतर मोदी-शाह की जोड़ी ने दूसरी बार करारा झटका दिया है। संसद के बजट सत्र के दौरान सरकार की सबसे रसूखदार मानी जाने वाली कैबिनेट की नियुक्ति समिति में राजनाथ की शक्तियों को सीमित कर दिया। वहीं दूसरी तरफ गत दिनों भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह की राजनीतिक पार्टी को रेड सिग्नल दिखाते हुए नोएडा से उनकी टिकट काट कर विमला बाथम को मैदान में उतारा है। यही नहीं पिछले कुछ सप्ताह से राजधानी के राजनीतिक गलियारों में यह अफवाहें चल रही हैं कि प्रधानमंत्री ने कथित तौर पर कई मौकों पर कुछ नेताओं को उनके आचरण के लिए फटकार लगाई है। यह भी अफवाह थी कि राजनाथ सिंह के पुत्र ने किसी का काम कराने के लिए पैसे लिए थे। मोदी ने पंकज सिंह को बुलाकर डांट पिलाई थी और पैसा लौटाने का निर्देश दिया था। अफवाह है कि यह शख्स कोई और नहीं राजनाथ के बेटे पंकज सिंह हैं। राजनाथ सिंह अपने एक वरिष्ठ सहयोगी मंत्री (अरुण जेटली) से कथित तौर पर बहुत नाराज हैं। सिंह का कहना है कि उनके बेटे के खिलाफ द्वेषपूर्ण और झूठी बातें फैला रहे हैं। गृहमंत्री ने इस मामले को भाजपा और आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व के सामने उठाया है। सिंह की तरफ से मामले को उठाना मोदी सरकार से मतभेद की तरफ इशारा करता है। सीनियर भाजपा नेताओं का कहना है कि यह सत्ता के लिए संघर्ष का संकेत है। राजनाथ सिंह उनके पुत्र पंकज सिंह के खिलाफ आई खबरों के बाद स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय को सफाई देने और अमित शाह द्वारा राजनाथ को क्लीन चिट दी जानी इस बात को दर्शाता है कि पर्दे के पीछे काफी कुछ घटा है। पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ की मानें तो दरअसल मोदी सरकार में यह जारी शह-मात का खेल यहीं रुकने वाला नहीं है। अमित शाह का पार्टी कार्यालय में बैठकर पूरे घटनाक्रम पर स्वयं निगरानी रखना यह दर्शाता है कि सरकार के ऊपर ऐसा करने के लिए कहीं दूसरी जगह से दबाव पड़ रहा है। इशारा स्पष्ट है कि इस बार राजनाथ सिंह अपने आकाओं के जरिए पार्टी के अन्य गुट पर कहीं न कहीं भारी पड़ते दिख रहे हैं जिसके चलते ही सरकार और पार्टी के नम्बर एक पद पर बैठे लोगों द्वारा इतनी सक्रियता दिखानी पड़ी है। जाहिर है कि पार्टी के अन्दर अभी से सत्ता संघर्ष और शह-मात का खेल आरम्भ हो चुका है।

Saturday 30 August 2014

भाजपा नहीं मोदी-शाह प्राइवेट लिमिटेड कहो

भारतीय जनता पार्टी अब मोदी-शाह प्राइवेट लिमिटेड बनती जा रही है। यह दोनों जिस तरह चाहते हैं वैसे ही सरकार और पार्टी चल रही है। भाजपा संसदीय बोर्ड के पुनर्गठन पर इस तरह की चर्चा स्वाभाविक ही है। जिस तरह अटल जी, आडवाणी जी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी को संसदीय बोर्ड में न शामिल कर मार्गदर्शक मंडल में रखा गया है उससे नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की मंशा पर सवाल उठने लगे हैं। भाजपा का कहना है कि वह बुजुर्ग नेताओं की बजाय युवा नेतृत्व को जिम्मेदारी सौंपने की नीति पर चल रही है। मगर इतना होता तो शायद किसी को आलोचना का मौका नहीं मिलता। जिस तरीके से अमित शाह ने बागडोर संभाली उसी से लग गया था कि यह दोनों मिलकर सबसे पहले उन नेताओं को पार्टी मामलों से हटाएंगे जिनसे इनको खतरा है। पहले विपक्ष को समाप्त किया और अब पार्टी के अंदर किसी भी तरह की चुनौती देने वालों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। नरेन्द्र मोदी ने उन लाल कृष्ण आडवाणी को अपमानित किया है जिन्होंने मोदी को हाथ पकड़ कर राजनीति सिखाई। अमित शाह ने भाजपा की डोर संभाली तभी तय हो गया था कि पार्टी के फैसले गुजरात मॉडल की तर्ज पर होंगे। इन दोनों ने गुजरात में भी यही किया। सबसे पहला काम गुजरात में यह किया कि भाजपा-संघ के उन नेताओं को हटाया जो मोदी की राय से सहमत नहीं थे। अटल जी का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वे पार्टी की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी नहीं कर पाते मगर यह बात लाल कृष्ण आडवाणी और डॉ. जोशी के मामले में सही नहीं है। उनकी उम्र जरूर अधिक हो चली है पर पार्टी में उनकी सक्रियता लगातार बनी रही है। मैं आडवाणी जी के साथ कई यात्राओं पर गया हूं, दोनों विदेश और देश में। मैं दावे से कह सकता हूं कि आडवाणी जी युवाओं से भी ज्यादा फिट हैं। हमसे पहले वह तैयार खड़े हो जाते थे, हम नींद और थकान के कारण उन जैसी चुस्ती नहीं दिखा सकते थे। चाहे वह आडवाणी हों, चाहे मुरली मनोहर जोशी, दोनों पार्टी के गठन से महत्वपूर्ण फैसलों में साझीदार रहे हैं। इस बार भी वे लोकसभा चुनाव जीत कर आए हैं इसलिए उन्हें संसदीय बोर्ड से बाहर रखना चौंकाता है। साफ है कि आडवाणी और डॉ. जोशी द्वारा मोदी को कुछ समझाना उसे उन्होंने अपना विरोध समझा और दोनों को निकाल बाहर किया। आडवाणी इसी हिटलर शाही प्रवृत्ति का विरोध कर रहे थे। वह मोदी के प्रधानमंत्री बनने का विरोध नहीं कर रहे थे पर उनके काम करने और बदला लेने की प्रवृत्ति का विरोध कर रहे थे। वह पार्टी जनों को यह समझा रहे थे कि मोदी को इतना फ्री   हैंड न दो कि पछताना पड़े पर उस समय किसी ने आडवाणी के विरोध का कारण नहीं समझा और यह कहकर बात टाल दी कि चूंकि वह प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं इसलिए वह मोदी का विरोध कर रहे हैं। आज मोदी जी का क्या हाल है। आते ही उन्होंने सबसे पहला काम मीडिया से दूरी बनाई। वह न तो मीडिया से मिलते हैं और न ही मीडिया को कहीं ले जाते हैं। साधारण कार्यकर्ता तो दूर मंत्री तक प्रधानमंत्री से नहीं मिल सकते। अगर मंत्रियों को पीएम से कुछ जरूरी बात करनी है तो उन्हें अमित शाह को बताना पड़ता है। जहां तक डॉ. जोशी का सवाल है उन्हें इसलिए अपमानित किया जा रहा है क्योंकि उन्होंने नरेन्द्र मोदी के लिए अपनी बनारस की लोकसभा सीट छोड़ने से मना कर दिया था। इसकी खुन्नस नरेन्द्र मोदी को होगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। सरकार बनने के बाद इसके संकेत मिलने लगे थे। डॉ. जोशी एक सफल मानव संसाधन विकास मंत्री रहने के बावजूद उन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी गई है और उनको अपमानित करने, जख्म पर नमक छिड़कने के लिए एक नौसिखिया स्मृति ईरानी को कैबिनेट मंत्री बना दिया गया। आडवाणी को लोकसभा अध्यक्ष बना सकते थे। उनका राजनीतिक अनुभव, तजुर्बा पार्टी व सरकार के काम आता और फिर जहां तक मुझे याद है कि आडवाणी ने कभी भी मोदी की नीतियों का विरोध नहीं किया। पार्टी में वरिष्ठतम नेता होने के बावजूद उन्हें लोकसभा में प्रधानमंत्री के पास वाली सीट पर नहीं बैठने दिया गया। यह सब उन्हें सम्मान देने का सूचक तो नहीं कहा जा सकता। अब यह बात छिपी नहीं है कि नरेन्द्र मोदी अपनी परिधि में ऐसे किसी भी व्यक्ति को नहीं रखना चाहते जो उनका विरोधी रहा हो या विरोध कर सकता है। इस बात में भी दम लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी आडवाणी के विद्रोही तेवरों से नाराज चल रहा था और वह उन्हें किनारे करने का मौका तलाश रहा था, सो अमित शाह ने इसके लिए सही मौका तलाश कर लिया और अपने `साहेब' की इच्छा पूरी कर दी। आडवाणी-जोशी के आंसू पोंछने के लिए उन्हें मार्गदर्शक मंडल में भेजकर नीति-निर्धारण संबंधी अधिकारों से दूर कर दिया गया। मार्गदर्शक मंडल जैसी कोई व्यवस्था भाजपा के संविधान में नहीं है, इसलिए उनसे कितना मार्गदर्शन लिया जाएगा, अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं। कांग्रेस के राशिद अल्वी ने चुटकी लेते हुए कहा कि मार्गदर्शक मंडल नहीं, यह तो मूकदर्शक मंडल और ओल्ड एज होम है। 34 साल की भाजपा में पहली बार मार्गदर्शक मंडल जैसी समिति बनाई गई है। इसे तीनों  बुजुर्ग नेताओं की सम्मानजनक विदाई के मंच के रूप में देखा जा रहा है। दरअसल भाजपा यह संदेश नहीं देना चाहती कि उसने पार्टी के तीनों संस्थापकों को दरकिनार कर दिया। भाजपा ने मार्गदर्शक मंडल की जानकारी वाली जो विज्ञप्ति भी जारी की है जिसमें जिन पांच नामों की सूची दी गई है उसमें आडवाणी से पहले नरेन्द्र मोदी का नाम है। सूची का क्रम हैö1. अटल बिहारी वाजपेयी, 2. नरेन्द्र मोदी, 3. लाल कृष्ण आडवाणी, 4. मुरली मनोहर जोशी, 5. राजनाथ सिंह। आडवाणी-जोशी के बाद अब नम्बर है राम लाल का। साफ है  कि मोदी-शाह प्राइवेट लिमिटेड ही अब भारत पर  राज करेगी।

-अनिल नरेन्द्र

लोकसभा में नेता विपक्ष मुद्दे पर कांग्रेस की किरकिरी

आखिरकार लोकसभा अध्यक्ष ने कांग्रेस की यह मांग ठुकरा दी कि लोकसभा में उसके नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रतिपक्ष के नेता की मान्यता दी जाए। 16वीं लोकसभा में नेता विपक्ष की कुर्सी खाली ही रहेगी। स्पीकर सुमित्रा महाजन ने कांग्रेस की तमाम दलीलें, तर्प, दावों को नकारते हुए इस फैसले से कांग्रेस नेतृत्व को अवगत करा दिया है। सुमित्रा महाजन ने कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं दिए जाने के अपने निर्णय के बारे में कहाöमैंने नियमों और परंपराओं का अध्ययन किया है। यह निर्णय करने से पहले स्पीकर ने अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी के विचार भी लिए जिन्होंने कहा कि कांग्रेस के पास सदन में वह आवश्यक संख्या नहीं है जिससे उसे नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दिया जा सके। जाहिर है कि यह स्थिति देश की उस सबसे पुरानी पार्टी के लिए खासी अपमानजनक है जो ज्यादातर समय तक केंद्रीय सत्ता पर काबिज रही है। लेकिन इसके लिए यदि सबसे जिम्मेदार कोई है तो वह स्वयं कांग्रेस है। बेहतर यही होता कि लोकसभा चुनाव में करारी हार और 10 फीसद सीटें तक पाने में नाकाम रही कांग्रेस इस पद के लिए अपना दावा ही प्रस्तुत नहीं करती। स्पीकर का निर्णय परिपाटी के अनुरूप तो है पर हमारी संसदीय प्रणाली की मजबूती के लिए शायद ठीक नहीं है। लोकसभा में विपक्ष के नेता पद का मुद्दा बजट सत्र की शुरुआत से ही कांग्रेस और सत्तापक्ष के बीच तनातनी का विषय बना रहा है। लिहाजा स्पीकर ने इस मामले में निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले संबंधित और कानूनी जानकारों से सलाह-मशविरा किया है। खबर है कि लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर कांग्रेस की मांग को नामंजूर करने के पीछे दो खास कारण बताए हैं। एक यह कि कांग्रेस लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की जरूरी शर्त पूरी नहीं करती। उन्होंने परिपाटी का हवाला देते हुए बताया है कि इस पद के लिए लोकसभा में संबंधित पार्टी के पास कम से कम 10 फीसदी सीटें होना जरूरी है। पांच सौ तैंतालीस सदस्यीय लोकसभा में कांग्रेस के 44 सदस्य हैं। यह आंकड़ा लोकसभा की कुल संख्या के 10 प्रतिशत से कम है। स्पीकर ने दूसरे कारण के तौर पर महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी की राय का उल्लेख किया है। जाहिर है कि महाधिवक्ता ने भी परिपाटी को ही अपने सुझाव का आधार बनाया है। लेकिन 1977 में बने नेता प्रतिपक्ष के वेतन, भत्तों और अन्य सुविधाओं से संबंधित कानून ने इस चलन को ढीला करने की गुंजाइश पैदा की। इस कानून में लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को नेता प्रतिपक्ष मानने की बात कही गई है, इसमें न्यूनतम 10 फीसद सीटों का कोई प्रावधान नहीं है। विडंबना यह है कि आज कांग्रेस अपने पक्ष में इस कानून की दुहाई दे रही है पर उसने खुद इसका पालन नहीं किया। राजीव गांधी को चार सौ पंद्रह सीटों के साथ पूर्ण बहुमत मिला था, तब भी विपक्ष की कोई पार्टी 10 फीसद सीटों तक नहीं पहुंच पाई थी। उस समय लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी तेलुगूदेशम थी और इसी आधार पर वह सदन में अपने नेता पी. उपेन्द्र को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देने का आग्रह करती रही। लेकिन उसकी मांग अनसुनी कर दी गई, तब भी लोकसभा अध्यक्ष और सत्तारूढ़ पार्टी का रुख समान था। तब उस कानून को क्यों नजरंदाज कर दिया गया जो पहले बन चुका था? यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि 10 फीसदी की अहर्ता के कारण ही पहले आम चुनाव के तकरीबन 17 साल बाद तक नेता विपक्ष की कुर्सी रिक्त रही। यह भी तथ्य है कि 1977 में निर्मित जिस कानून के आधार पर कांग्रेस अपनी दावेदारी पेश करती रही, खुद उसके शासनकाल में 1980 और 1984 में गठित लोकसभाओं में सबसे बड़े दल को नेता विपक्ष पद से महरूम रखा गया। कहा जा सकता है कि इस मामले में कांग्रेस ने वही फसल काटी है जो उसने खुद बोई थी। अब किसी किस्म की आलोचना के बजाय उसे स्पीकर के फैसले का पूरा आदर करते हुए इस कड़वे राजनीतिक यथार्थ को स्वीकार करना चाहिए। बहरहाल प्रश्न यह भी है कि नेता विपक्ष की गैर मौजूदगी में मुख्य सूचना आयुक्त, केंद्रीय सतर्पता आयुक्त और लोकपाल के चयन प्रक्रिया में मुश्किल आ सकती है।

-अनिल नरेन्द्र

दिल्ली में राष्ट्रपति शासन के छह महीने पूरे हुए ः अब आगे क्या?

अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी की कुल 49 दिनों तक चली सरकार के इस्तीफे के बाद सूबे में  बीते फरवरी में लगाए गए राष्ट्रपति शासन के छह महीने पूरे हो गए हैं। फिलहाल दिल्ली विधानसभा निलंबित स्थिति में है और किसी की भी सरकार बनने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। सियासी गलियारों में अब नए सिरे से चुनाव कराए जाने की चर्चा जोर पकड़ने लगी है। आपको बता दें कि इसी साल 14 फरवरी को आम आदमी पार्टी की सरकार ने इस्तीफा दिया था और 17 फरवरी को दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। 1993 में दिल्ली विधानसभा के गठन के बाद से यह पहला मौका है जब यहां पर राष्ट्रपति शासन लगाने की नौबत आई है। सनद रहे कि केजरीवाल सरकार के इस्तीफे के बाद उपराज्यपाल नजीब जंग ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश तो की थी, लेकिन उन्होंने विधानसभा निलंबित स्थिति में रखने का फैसला किया। इसका सीधा-सा तात्पर्य यह था कि यहां पर सरकार बनने की संभावनाएं मौजूद थीं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जवाब-तलब के बावजूद केंद्र सरकार या उपराज्यपाल के स्तर पर सरकार के गठन को लेकर कोई औपचारिक कवायद नहीं की गई है। केंद्र सरकार को अगले महीने की शुरुआत में ही सुप्रीम कोर्ट को यह बताना होगा कि राजधानी में सरकार बनाने की दिशा में क्या पहल की गई है। असल में विधानसभा को भंग कर नए सिरे से चुनाव कराने की मांग को लेकर ही आम आदमी पार्टी अदालत गई थी और आज भी वह दिल्ली में नए चुनाव कराने के लिए माहौल बनाने की कोशिश कर रही है। हमारा मानना है कि दिल्ली में सरकार या चुनाव पर फैसला लेने में जितनी देरी हो रही है, भाजपा का नुकसान उतना ही रफ्तार से ज्यादा हो रहा है। राष्ट्रपति शासन तो केंद्र यानि भाजपा का ही एक तरह से शासन माना जा रहा है। इसका भाजपा के स्थानीय विधायकों और नेताओं को भले ही लाभ न मिल रहा हो लेकिन सारी नाकामी भाजपा के सिर ही डाली जा रही है। भाजपा नेतृत्व पिछले तीन महीने से यह तय ही नहीं कर पा रहा है कि उसको लाभ सरकार बनाने से होगा या मध्यावधि चुनाव से। अब जब अमित शाह ने भाजपा की राष्ट्रीय कमान संभाल ली है तो शायद फैसला हो जाए। फैसला तो वैसे भी अब करना होगा क्योंकि राष्ट्रपति शासन की अवधि समाप्त हो गई  है। अगर अंतत चुनाव का ही फैसला होता है तो उसके लिए यह जरूरी है कि दिल्ली की जनता को यह भी पता चले कि भाजपा का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा? सूत्रों का कहना है कि भाजपा विधायकों को संकेत मिला है कि चुनाव फरवरी तक हो सकते हैं, इसलिए घर-घर सम्पर्प पर जोर दिया जाए, जबकि एक धड़े की शिकायत यह भी है कि उपराज्यपाल उन्हें तरजीह नहीं दे रहे हैं जिससे दिक्कत आ रही है। दिल्ली में राष्ट्रपति शासन के छह महीने पूरे होने पर दोनों आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने चुनाव कराने की मांग तेज कर दी है। दोनों को लगता है कि चुनाव में उनकी स्थिति पहले से बेहतर होगी। अब फैसला भाजपा को करना है कि उसे आगे क्या करना है?

Friday 29 August 2014

शीला की वापसी से क्या कांग्रेस को संजीवनी मिल सकती है?

केरल के राज्यपाल पद से इस्तीफा देने के बाद दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के सक्रिय राजनीति में उतरने की अटकलें तेज हो गई हैं। शीला दीक्षित ने मंगलवार को अपना इस्तीफा राष्ट्रपति को सौंप दिया। गृहमंत्री राजनाथ सिंह के पद पर बने रहने के आश्वासन के बावजूद शीला जी ने मंगलवार को इस्तीफा देकर भाजपा की कोशिशों पर पानी फेर दिया। यूपीए के दौरान नियुक्त कांग्रेस के नजदीकी राज्यपालों की सूची में शीला एकमात्र ऐसी राज्यपाल थीं जिन्हें भाजपा फिलहाल हटाना नहीं चाह रही थी। भाजपा के रणनीतिकारों ने सरकार को इशारा कर दिया था कि शीला को त्रिवेन्द्रम राजभवन में काबिज रखकर दिल्ली की राजनीति से दूर रखा जाए। शीला के इस फैसले ने दिल्ली के 10 साल पुराने इतिहास को दोहराया है। 2004 में केंद्र में मनमोहन सरकार के गठन के बाद भाजपा नेता मदन लाल खुराना राजस्थान के राज्यपाल का पद छोड़कर दिल्ली की राजनीति में कूद पड़े थे। उस वक्त भी यूपीए सरकार खुराना को दिल्ली नहीं आने देना चाहती थी। दिल्ली की राजनीतिक नब्ज को बारीकी से समझने वाली शीला आने वाले विधानसभा चुनाव में  भाजपा के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती हैं। यही वजह थी कि सोमवार को राजनाथ से मुलाकात के दौरान शीला पर अन्य राज्यपालों की तरह इस्तीफा देने का कोई दबाव नहीं डाला गया था। लेकिन दिल्ली की लगातार 15 साल तक मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित ने आने वाले चुनाव के मद्देनजर इस्तीफा देकर अपना राजनीतिक कार्ड खेल दिया। शीला के अलावा अब तक इस्तीफा दे चुके कांग्रेस के नजदीकी राज्यपालों में कोई ऐसा नहीं था जो भाजपा को किसी राज्य में राजनीतिक स्तर पर चुनौती दे सके। सोमवार को 18 सीटों के उपचुनाव के नतीजों में धूमिल प्रदर्शन के बाद भाजपा आगे आने वाले चुनाव के प्रति सतर्प हो गई है। यही वजह है कि भाजपा दिल्ली चुनावी मैदान से शीला को दूर रखना चाह रही थी पर इसका एक दूसरा पहलू भी है। इस्तीफे के बाद शीला की मुश्किलें भी बढ़ सकती हैं। जब वह दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं उस समय उनके कार्यकाल के दौरान कई तरह की गड़बड़ियां हुई थीं अब वह फाइलें खुल सकती हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले को लेकर पहले से ही उनकी सरकार पर आरोप लगते रहे हैं। जल बोर्ड में कई घोटालों को लेकर एसीबी, सीबीआई और सीवीसी जांच कर रही है। दिल्ली में दोबारा से चुनाव होने हैं। ऐसे में भाजपा चुनावों में शीला को टारगेट बनाएगी। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय का कहना है कि वह शीला सरकार के समय में हुए घोटालों के मुद्दों को उठाएंगे। आने वाले दिनों में दिल्ली की सियासत में अगर शीला का दबदबा बढ़ता है तो यह कोई हैरान  होने वाली बात नहीं होगी। आखिर में यही कहा जाएगा कि शीला के अलावा और कोई विकल्प कांग्रेस के पास नहीं है। अगर ऐसा होता है तो देखना यह होगा कि कांग्रेस के लिए शीला संजीवनी का काम करेंगी? दिल्ली की जमीन पर काफी मुद्दे हैं और उन्हें पहचानना और भुनाना श्रीमती शीला दीक्षित अच्छी तरह जानती हैं।
-अनिल नरेन्द्र


सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किए कोयला आवंटन के सारे ब्लॉक

भारत के तत्कालीन नियंत्रक और महालेखा परीक्षक विनोद राय ने जब कोयला घोटाले को उजागर करते  हुए देश के खजाने को एक लाख 86 हजार करोड़ रुपए की चपत लगने की बात कही थी तो मनमोहन सरकार और कांग्रेस न जाने किन-किन तर्कों और कुतर्कों के साथ उन पर हमलावर थी। अब सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से उन निष्कर्षों पर अपनी मुहर लगा दी है। इसके आसार पहले से ही नजर आ रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट कोयला खदानों के आवंटन को सही नहीं पाएगा, क्योंकि उनका आवंटन मनमानी की ही कहानी कह रहा था। इस पर शायद ही किसी को आश्चर्य हो कि सुप्रीम कोर्ट ने 1993 के बाद के सभी कोयला खदानों के आवंटन को अवैध ठहरा दिया। आर्थिक सुधारों की बुनियाद क्या भ्रष्टाचार के पायों पर रखी गई थी? देश के दुर्लभ स्रोत कोयले के साथ डेढ़ दशकों से जो सरकारी खेल चल रहा था उसका नकाब देश की सर्वोच्च अदालत ने उतार दिया है। कोर्ट ने कोयला आवंटन की प्रक्रिया पर ही सवाल उठाते हुए इसे गैर कानूनी बता दिया है जिसमें देश का यह दुर्लभ खनिज चोरी-छिपे मनमानी तरीके से बांट दिया जाता था। देश में उपलब्ध ऊर्जा स्रोतों में सबसे प्रमुख कोयले को आर्थिक विकास का इंजन माना जाता है जिसे बिजली बनाने और औद्योगिक उत्पादों के बढ़ाने में लगाया जाता है। इसलिए सुधारों के नाम पर इसे इंस्पेक्टर राज की जगह क्रीनिंग कमेटी के हवाले कर दिया गया जो मनमानी करने को स्वतंत्र थी। लेकिन विकास के नाम पर जिस तरह चोरी-छिपे और मनमानी ढंग से देश के इस काले हीरे की बंदरबांट की गई उससे क्षुब्ध कोर्ट ने पूरे सौदे को ही अवैध बता दिया है। बिजली किल्लत से जूझते देश और कोयले के लिए तरसते बिजली घरों के लिए बेशक यह फैसला एक हथौड़े की चोट जैसा होगा लेकिन एक असरदार सबक भी साबित होगा। कोयला होते हुए भी आज हमारे बिजली घर इसके संकट से जूझ रहे हैं तो इसकी जिम्मेदार यही नीति है कि जिसे हमारे राजनेताओं, अफसरशाह, सेठ और  बिचौलिए व कोल माफिया मिलकर खेलते हैं और भारी मुनाफा जेबों में भरते हैं परन्तु खामियाजा देश के आम आदमी को भुगतना पड़ता है जो महानगरों में रहते हुए भी 12 घंटों की बिजली कटने के लिए अभिशप्त हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद 1993 से 2008 के बीच हुए सभी कोल आवंटनों के भविष्य पर अटकलों का दौर शुरू हो गया है क्योंकि अदालत ने इनका आवंटन रद्द नहीं किया है। अदालत अगली सुनवाई में इनके बारे में अपना रुख तय करेगी। अब देखना यह है कि अदालत उन्हें रद्द करती है या नहीं? यह संभव है कि वह उन कम्पनियों के मामले में उदारता से विचार करे जिन्होंने कोयले का खनन शुरू कर दिया है अथवा ऐसा करने के लिए काफी कुछ तैयारी कर ली है? जो भी हो सुप्रीम कोर्ट का निर्णय नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के आकलन के साथ-साथ केंद्रीय जांच ब्यूरो के निष्कर्ष की भी पुष्टि करता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पूरे प्रकरण में भूमिका पर भी नए सिरे से सवाल खड़े होंगे क्योंकि मनमोहन सिंह खुद काफी समय तक कोयला मंत्री भी रहे थे।

Thursday 28 August 2014

महिलाओं के खिलाफ यौन हमलों में वृद्धि निष्पभावी कदम

यह अत्यंत चिंता का विषय है कि राजधानी में महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों में कमी आने की जगह लगातार वृद्धि हो रही है। बढ़ती घटनाएं यह भी दर्शाती हैं कि इस स्थिति में कोई खास फर्क नहीं हुआ और जो कदम उठाए गए हैं वह निष्पभावी साबित हो रहे हैं। गत सोमवार को दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में एक नर्स से सामूहिक दुष्कर्म की घटना ने राजधानी को एक बार फिर शर्मसार कर दिया है। महिलाओं की अस्मिता पर किशोरों द्वारा हो रहे हमलों के मामलों में भी वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि ऐसे मामलों की संख्या में पिछले साल की तुलना में 132 पतिशत की वृद्धि हुई है और किशोरों द्वारा बलात्कारों के मामले में 60.3 पतिशत की वृद्धि  हुई है। ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि किशोरों द्वारा किए जाने वाले अपराधों में सबसे अधिक वृद्धि महिलाओं की अस्मिता पर किए जाने वाले हमलों में हुई है, यह वृद्धि  132.3 पतिशत हुई है। इसके बाद महिलाओं की अस्मिता के अपमान के मामले हैं जिनमें 70.5 पतिशत वृद्धि हुई है। किशोरों द्वारा महिलाओं से बलात्कार के मामलों में 60.3 पतिशत की वृद्धि हुई है। भारतीय दंड संहिता के तहत पकड़े गए कुल किशोरों में से 66.3 पतिशत की उम्र 16 से 18 वर्ष के बीच है। महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने बलात्कार जैसे घृणित अपराधों के आरोपी किशोरों के साथ वैसा ही बर्ताव करने का पक्ष लिया था जैसा कि वयस्क अपराधियों के साथ किया जाता है। उन्होंने कहा था कि सभी यौन अपराधों में से 50 पतिशत ऐसे हैं जो 16 वर्ष की उम्र वाले उन किशोरों द्वारा अंजाम दिए जाते हैं जो किशोर न्याय कानून जानते हैं। इसलिए वे ऐसा कर सकते हैं। आए दिन हो रहीं ऐसी घटनाओं से यह तो साफ है कि बसंत विहार सामूहिक दुष्कर्म की घटना के बाद से राजधानी में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर उठाए गए कदमों का कोई खास असर नहीं हुआ है। अपराधियों के इरादे बुलंद हैं और पुलिस के हौसले पस्त। इस घटना को बीते डेढ़ साल से भी ज्यादा समय हो गया है कि अपराधियों को सजा होनी तो दूर की बात है अभी अदालतों में ही मामला फंसा है। दिल दहला देने वाली इस घटना के बाद केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार और दिल्ली पुलिस ने महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों में कमी लाने के लिए कुछ कदम उठाए जरूर हैं पर आज के हालात इन दावों की हकीकत साफ बयां करते हैं। यह भी तय लगता है कि  केवल कानून, पुलिस इन बढ़ती घटनाओं को ही रोक सकते हैं। जब तक ऐसे अपराधियों को लटकाया नहीं जाता, इनमें खौफ पैदा नहीं किया जाता तब तक यह बाज आने वाले नहीं हैं। इसके साथ समाज को भी अपनी भूमिका निभानी होगी। जैसा पधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर कहा मां-बाप को अपने बेटे की गतिविधियों पर भी ध्यान रखना होगा शिक्षकों व समाज के लोगों को भी इस बुराई को दूर करने के लिए आगे आना होगा और एक स्वस्थ मानसिकता वाला समाज बनाने का पयास करना होगा जिससे दुष्कर्म या छेड़छाड़ की बढ़ती घटनाओं पर अंकुश लग सके।

öअनिल नरेंद्र

उपचुनाव परिणाम दर्शाते हैं कि मोदी लहर फीकी पड़ गई है

चार राज्यों की 18 सीटों पर हुए उप चुनावों के आधार पर कोई बड़ा निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है पर इन नतीजों से कुछ महत्वपूर्ण संकेत तो मिल ही रहे हैं। सामान्य तौर पर विधानसभाओं के उपचुनाव वहां के सत्ताधारी दल के पक्ष में जाते हैं लेकिन भारी बहुमत से केंद्र की सत्ता में आने के कारण हरेक चुनाव को नरेंद्र मोदी की हार-जीत के रूप में देखा जा रहा है। महज 100 दिन के ही कार्यकाल में मोदी को 2 उपचुनाव झेलने पड़े और दोनों के नतीजे उनके पक्ष में नहीं रहे। बिहार में लालू-नीतीश गठजोड़ भाजपा पर भारी साबित हुआ। कांग्रेस को सभी जगह राहत मिली है, आम आदमी पाटी सीन से लगभग गायब हो चुकी है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि भाजपा पर छाया सत्ता का नशा इन परिणामों से टूट गया है।  ब्यौरे में जाएं तो इन 18 सीटों में से सात भाजपा को, पांच कांग्रेस को, तीन आरजेडी को, दो जेडीयू को मिली हैं। इससे पहले उत्तराखंड के उपचुनावों में तीन की तीन सीटें कांग्रेस की झोली में गई थीं। उत्तराखंड के बाद बिहार से आए विधानसभा उपचुनाव के नतीजे जहां भाजपा के स्थानीय नेतृत्व के लिए आत्मावलोकन का विषय हैं वहीं भाजपा के विरोधी दलों और गठबंधनों के लिए ऑक्सीजन जैसे हैं। बीस साल बाद भाजपा के मुकाबले के लिए एक मंच पर आए धुर विरोधी लालू और नीतीश के महागठबंधन ने बिहार की दस सीटों में से छह पर सफलता हासिल करके यह साबित कर दिया है कि मोदी की हवा समाप्त हो गई है। 100 दिनों में ही धीमी पड़ गई है मोदी की आंधी। महागठबंधन के तीसरे घटक दल कांग्रेस की भी लाटरी खुली और भागलपुर की सीट उसे पाप्त हुई। कर्नाटक में कांग्रेस भारी पड़ी और भाजपा बेल्लारी जैसी पतिष्ठित सीट भी हार गई। पंजाब में मुकाबला बराबरी पर छूटा तो मध्य पदेश में जरूर भाजपा आगे रही है पर लोगों को सबसे ज्यादा दिलचस्पी बिहार के 10 विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनावों में थी जिन्हें अगले साल होने वाले राज्य विधानसभा चुनावो का सेमीफाइनल कहा जा रहा था। सबकी नजरें इस बात पर टिकी थीं कि नया गठबंधन (लालू-नीतीश) कितना कामयाब होता है। चुनाव के नतीजे बताते हैं कि इस गठबंधन को अच्छी खासी कामयाबी मिली है। जिन लोकसभा सीटों पर भाजपा उम्मीदवार जीते थे उन सीटों पर भी तीन महीने में भाजपा को हार देखनी पड़ी। वोट पतिशत में भी कमी आई है। बिहार में अस्तित्व की जंग लड़ रहे राजद, जदयू और कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनावों के लिए और मजबूती से लामबंद होंगे तो भाजपा को गहन आत्म अवलोकन से गुजर कर अपने अंतर्विरोधों को दूर करना होगा। बिहार भाजपा की बड़ी कमजोरी वहां एक सर्वमान्य नेता की कमी है। केंद्रीय नेतृत्व और अमित शाह को समय रहते इस  समस्या का अविलंब समाधान करना होगा अगर वह विधानसभा चुनावों में जीतना चाहते हैं। यह इसलिए भी जरूरी है कि तीन-चार महीने पहले मोदी की जो हवा चल रही थी वह अब समाप्त हो गई है। ताजा परिणामों से कांग्रेस में खासा उत्साह है। कांग्रेस का मानना है कि लोकसभा के बाद एनडीए सरकार के सत्ता में आने के महज 100 दिनों के भीतर ही मोदी लहर का असर खत्म होता दिखाई दे रहा है। सोमवार को सामने आए नतीजों के बारे में कांग्रेस महासचिव व पवक्ता शकील अहमद का कहना है कि इस उपचुनाव में जनता ने मोदी की लहर को न सिर्फ नकार दिया बल्कि उसकी हवा भी निकाल दी। लगातार दो उपचुनाव में भाजपा को लगे झटके को कांग्रेस आगामी चुनावों के मद्देनजर एक अच्छा संकेत मान रही है। इन उपचुनावों का अगर कोई बड़ा निष्कर्ष नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए निकलता है तो वह यह  है कि नरेंद्र मोदी ने चुनाव से पहले जो वादे किए थे लोगों में उम्मीदे ंजगाई थीं उन पर उन्हें पूरा खरा उतरना होगा। महंगाई एक मुद्दा है जो सारे देश को पभावित करता है। सारे आश्वासनों के बावजूद नरेंद्र मोदी 90 दिनों में इसे कम करना तो दूर रहा, कंट्रोल भी नहीं कर सके। देश में यह संदेश जा रहा है कि भाजपा की कथनी और करनी में बहुत अंतर आ रहा है और अगर यही रुख रहा तो आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ सकता है।

Wednesday 27 August 2014

एक और किताब बम आ गया कांग्रेस की मुश्किल बढ़ाने के लिए

कांग्रेस और पूर्व यूपीए-2 सरकार और खासकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर एक और किताब बम फूटने वाला है। 2जी, सीडब्ल्यूजी और कोयला घोटाले को लेकर मनमोहन सरकार की परेशानी का सबब बने रहे पूर्व नियंत्रण महालेखा परीक्षक (कैग) विनोद राय भी अपनी आगामी किताब के जरिए कांग्रेस और संप्रग की परेशानी बढ़ाने जा रहे हैं। अक्तूबर में प्रकाशित होने जा रही अपनी किताब `नॉट जस्ट ऐन एकाउंटेंट' में राय ने दावा किया है कि राष्ट्रमंडल खेल और कोयला घोटाले में शामिल कथित लोगों का नाम ऑडिट रिपोर्ट से हटाने के लिए संप्रग सरकार ने उन पर दबाव डाला था। राय का कहना है कि घोटालेबाजों को  बचाने के लिए तत्कालीन सरकार के लोगों ने उन पर दबाव बनाया था। राय के खुलासे के बाद कांग्रेस ने जहां पूर्व सीएजी पर निशाना साधा है, वहीं भाजपा ने कहा कि राय के खुलासे से पूर्ववर्ती यूपीए सरकार में चरम स्तर तक जा पहुंचे भ्रष्टाचार की एक बार फिर से पुष्टि हुई है। आम चुनाव के प्रचार के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने किताब लिखी थी जिसने चुनाव के समय कांग्रेस की मुसीबत बढ़ा दी थी। इसके बाद पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख और पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने अपनी किताब के जरिए पूर्ववर्ती यूपीए सरकार, तत्कालीन प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी को कठघरे में खड़ा किया था। उल्लेखनीय है कि पिछले साल सीएजी का पद छोड़ने वाले राय ने अपनी रिपोर्ट में 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में 1.76 लाख करोड़ रुपए और कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले में 1.86 लाख करोड़ रुपए के नुकसान का आंकलन किया था। विनोद राय का कहना है कि तत्कालीन यूपीए सरकार से जुड़े लोगों ने उनसे घोटाले में शामिल लोगों के नाम अपनी रिपोर्ट से हटाने का दबाव डाला। बकौल राय इस क्रम में यूपीए सरकार से संबंधित लोगों ने सीएजी बनने से पूर्व उनके आईएएस मित्र के माध्यम से भी अनुरोध भिजवाया था। संजय बारू की किताब से पता चलता है कि सत्ता के संचालन और सरकारी कामकाज में सोनिया गांधी का सीधा दखल था। नटवर सिंह की किताब ने काफी कुछ ऐसा बयान किया जो कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता की छवि धूमिल करने वाला था। रही-सही कसर विनोद राय ने पूरी कर दी। मनीष तिवारी (कांग्रेस) ने राय को बहस की चुनौती दी है। उनका कहना है कि राय साहब जहां चाहें बहस कर लें। उनका कार्यकाल सनसनी फैलाने वाला है। तथ्यों से उनका कोई नाता नहीं। यह किताब बेचने के लिए भी पब्लिसिटी स्टंट के अलावा कुछ और नहीं है। हो सकता है कि जब राय की किताब बाजार में आए तो उसके कुछ और तथ्य कांग्रेस जनों को  परेशान करें और वह हमेशा की तरह उनसे कन्नी काटें, लेकिन इससे हकीकत बदलने वाली नहीं। हकीकत यही है कि संप्रग सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में न केवल अपने साथ बल्कि देश के साथ भी अन्याय किया और इसका प्रमाण उसकी बुरी पराजय ने भी दिया। विचित्र यह है कि कांग्रेस जन सबसे बुरी पराजय से दो-चार होने के बावजूद सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और आश्चर्यजनक यह है कि खुद सोनिया गांधी यह साबित करने में लगी हैं कि भाजपा ने जनता से झूठे वादे किए और वह उसके जाल में फंस गई।

-अनिल नरेन्द्र

लव जेहाद के जरिए हिन्दू वोटों को गोलबंद करने की तैयारी

अब तक उत्तर पूर्वी और पूर्वी राज्यों में विशेषकर ईसाई मिशनरियों के खिलाफ धर्मांतरण का आरोप लगाती रही भारतीय जनता पार्टी ने अब उत्तर प्रदेश की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में `लव जेहाद' का प्रस्ताव लाकर धर्मांतरण के खिलाफ व्यापक आंदोलन छेड़ने की तैयारी कर ली है। भाजपा के आला नेताओं की मानें तो विदेशी ताकतों के इशारे और वित्त पोषण के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश सहित देश के बड़े क्षेत्रों में कुछ मुस्लिम संगठनों द्वारा हिन्दू लड़कियों का धर्मांतरण कराकर उनका विवाह करने वाले मुस्लिम युवाओं को अच्छी-खासी रकम देने के साथ ही उनके रोजगार की व्यवस्था करने का खुला खेल इस समय चल रहा है। इसका नमूना गत दिनों सहारनपुर की एक मस्जिद से भागी एक हिन्दू लड़की के बयान से देखने को मिलता है। लेकिन तुष्टिकरण की सियासत के चलते प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार इसे एक प्रेम-प्रसंग बताकर रफा-दफा करने में लगी है। भाजपा ने प्रदेश कार्यसमिति की बैठक के पहले ही दिन साफ कर दिया कि पार्टी विधानसभा चुनाव में वर्ग विशेष द्वारा दूसरे वर्ग की लड़कियों का धर्मांतरण कराने की घटनाओं `लव जेहाद' को मुद्दा बनाएगी। भले ही बैठक के भीतर पदाधिकारियों ने सीधे-सीधे इस नाम का जिक्र न किया हो, केंद्रीय नेतृत्व के तीखे तेवरों पर सीधे-सीधे इस शब्द का प्रदेशाध्यक्ष ने भाषण में इस्तेमाल न किया हो लेकिन अन्दर से बाहर तक प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से यही मुद्दा छाया रहा। भाजपा ने इस मुद्दे के सहारे हिन्दुत्व की धार देकर सत्ता पाने का सपना संजो लिया है। प्रदेशाध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने भले ही `लव जेहाद' शब्द का जिक्र नहीं किया लेकिन उन्होंने बाहर और भीतर जो कुछ कहा उसका इशारा इसी ओर था। अन्दर उन्होंने कहा कि कानून व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त है। सपा सरकार की नीति मजहब देखकर दंगाइयों को संरक्षण व धर्म देखकर निर्दोषों का उत्पीड़न करना है। मेरठ, अमीनगंज (फैजाबाद), लोनी (गाजियाबाद) की घटनाओं से साफ है कि सरकार वर्ग विशेष के अभियुक्तों पर नरम है। वर्ग विशेष का होने के कारण उन्हें सपा सरकार के संरक्षण में दुराचार करने व लड़कियों के धर्मांतरण कराने का लाइसेंस मिल गया है। जो तथ्य सामने आ रहे हैं उससे तो यही संभावना बलवती होती जा रही है कि मुस्लिमों द्वारा हिन्दू लड़कियों को जैसे भी हो फंसाकर चाहे प्रेम जाल में या अपहरण कर या और किसी तरह से धर्म परिवर्तन कराकर मुस्लिम बना लिया जाए। सूत्रों का कहना है कि ऐसा करने वाले मुस्लिम लड़कों को तो मोटी रकम दी ही जा रही, जो मौलवी हिन्दू लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराकर निकाह करा रहे हैं उनको काफी धन दिया जा रहा है। सूत्रों का कहना है कि इसके सूत्रधार हर राज्य में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के कुछ चुने हुए मस्जिद व मदरसे हैं। इसके लिए फंडिंग बाहर से हो रही है। गैर-भाजपा शासित राज्यों में यह काम तेजी से हो रहा है क्योंकि वहां की राज्य सरकारें मुस्लिम परस्ती वाली वोट की राजनीति कर रही हैं जिसके चलते मुस्लिमों के खिलाफ जल्दी केस दर्ज नहीं होते और उन्हें बचाने का प्रयास होता है, जब तक ऐसा कोई मामला बड़ा मुद्दा न बन जाए। सूत्रों के मुताबिक गरीब लेकिन घनी आबादी वाली हिन्दू बस्तियों में मकान खरीदकर उनमें मस्जिद व मदरसे खोले जा रहे हैं। इसके लिए फंड ज्यादातर पाकिस्तान, दुबई, ईरान, सऊदी अरब के धनी मुस्लिम देशों से तो आता ही है, भारत के भी मुस्लिम व्यापारी बहुत मदद कर रहे हैं। आईएसआई भी एक बड़ी फंडिंग एजेंसी है। बताया जाता है कि एक मुस्लिम युवक रकीबुल हसन ने अपना नाम रंजीत कुमार कोहली रख, हिन्दू बनकर राष्ट्रीय शूटर तारा शाहदेव को प्रेम जाल में फंसाकर शादी कर ली और उसके बाद उस पर धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनने का दबाव बनाने लगा। तारा शाहदेव के साथ घटे घटनाक्रम से भी साफ होता है कि लव जेहद भारत में हिन्दू आबादी के खिलाफ सोची-समझी साजिश का हिस्सा है। हालांकि लव जेहाद को उठाने के भाजपा के राजनीतिक कदम को दारुल उलूम ने साजिश करार दिया है। मौलानाओं का कहना है कि इस्लाम में लव इन जेहाद जैसा शब्द नहीं है। यह फिरकापरस्त ताकतों के मनगढ़ंत शब्द हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता को खंडित करने के लिए कुछ लोग ऐसा कर रहे हैं। विश्व प्रसिद्ध इस्लामिक शिक्षण संस्थान दारुल उलूम व अन्य मौलानाओं की राय में यह इस्लाम धर्म को बदनाम करने की साजिश है।

Tuesday 26 August 2014

न तो मुख्यमंत्रियों की हूटिंग ठीक है और न ही पीएम का बहिष्कार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यक्रमों में मुख्यमंत्रियों की हूटिंग का मामला व उनके कार्यक्रमों का कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों द्वारा बहिष्कार करने का फैसला एक गलत शुरुआत तो है बल्कि एक गलत राजनीतिक परंपरा को जन्म देना है। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भी हूटिंग हुई है और यह तब हुई जब प्रधानमंत्री खुद मंच पर मौजूद थे। इस मामले में कांग्रेस ने तय कर लिया है कि उनके मुख्यमंत्री भविष्य में अपने आपको प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों से अलग रखेंगे यानि वह प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों का बहिष्कार करेंगे। इसका एक परिणाम यह भी हुआ है कि झारखंड में केंद्रीय श्रम, इस्पात और खनन मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर को रांची में झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने काले झंडे दिखाकर उनके खिलाफ नारेबाजी की। दरअसल गलती दोनों तरफ से है। पहली गलती उन राजनीतिक कार्यकर्ताओं की तरफ से है जो यकीनन भारतीय जनता पार्टी या राजग से जुड़े होंगे क्योंकि वह न्यूनतम शिष्टाचार का पालना नहीं कर रहे हैं। देश के प्रधानमंत्री की मौजूदगी में मंचासीन किसी भी वरिष्ठ व्यक्ति के बोलने के दौरान उसको सुनने के बजाय हुड़दंग मचाना अशिष्टता है। मगर इसके साथ यह भी कहना जरूरी है कि प्रधानमंत्री को भी इन्हें रोकने के लिए प्रयास करने चाहिए थे, इसका विरोध करना चाहिए था। बेशक उन्होंने एक-दो बार रोकने का इशारा तो किया पर हुड़दंग मचाने वालों को और सख्ती से रोकना चाहिए था। मगर इसके साथ मुख्यमंत्रियों या राजनेताओं की भी कम जिम्मेदारी नहीं है। प्रदेश में कानून व्यवस्था से लेकर राजकाज एवं सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार से आम आदमी जिस तरह से आजिज आ चुका है उसकी वजह से अपने शासकों एवं राजनेताओं के प्रति उसके  मन में आदर-भाव कम होता जा रहा है, इसलिए कांग्रेस ने अपने मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा न करने की जो हिदायत दी है वह प्रोटोकॉल का उल्लंघन तो है ही, साथ-साथ कांग्रेस की हताशा का भी नमूना है। उसे अपने ही मुख्यमंत्री के. सिद्धरमैया से सीखना चाहिए जिन्होंने प्रोटोकॉल का पालन करने की प्रतिबद्धता जताई है। इस प्रकरण में यह बात खासतौर पर रेखांकित करने की है कि राष्ट्र के विकास के लिए केंद्र और राज्य के बीच का रिश्ता सौहार्दपूर्ण और सहयोग का होना चाहिए। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अपने भाषण में भी मोदी ने इस बात पर बल दिया था। लिहाजा यह मानने का न तो कोई कारण है और न ही आधार कि प्रधानमंत्री की सभाओं में जो कुछ हो रहा है वह उसे खुद अच्छा मान रहे होंगे। केंद्र में सत्ता के परिवर्तन के बाद अभी कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। जो स्थिति नजर आ रही है उसमें ज्यादातर सूबों में मौजूदा सरकारों के कामकाज से वहां की जनता खासी नाराज है। ऐसे में परिवर्तन की चाह का प्रकटीकरण जनता अपने तरीके से कर रही है। बेहतर हो कि इस सच्चाई को भी पार्टियां समझें। अलबत्ता यह जरूर है कि अभी जो हो रहा है उसे अगर किसी क्षुद्र राजनीतिक फायदे के लिए और बल दिया गया तो इससे केंद्र और राज्यों के बीच टकराव की एक खतरनाक शुरुआत होगी जो हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

-अनिल नरेन्द्र

मोदी सरकार के ऑपरेशन गवर्नर बदल मुहिम को झटका

राज्यपालों को हटाने की प्रक्रिया पर उत्तराखंड के राज्यपाल अजीज कुरैशी ने सुप्रीम कोर्ट जाकर मोदी सरकार के ऑपरेशन गवर्नर मुहिम को झटका दिया है। इसके चलते सरकार के निशाने पर आए कई राज्यपालों के ऑपरेशन का मामला फंस गया है। राज्यपाल अजीज कुरैशी ने अब सीधे तौर पर मोदी सरकार को चुनौती दी है। वह इस बात से खासतौर पर खफा हैं कि केंद्रीय गृह सचिव ने कैसे उनसे इस्तीफे की मांग कर डाली। राज्यपाल ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके सरकार के रवैये को चुनौती दी है। राज्यपाल कुरैशी ने संविधान की धारा 157() का हवाला देकर याचिका दायर की है। इसमें मई 2010 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देकर कहा गया है कि राज्यपाल केंद्र सरकार का कर्मचारी नहीं होता। ऐसे में उसे संवैधानिक पद पर बैठे राज्यपाल से इस्तीफा मांगने का अधिकार नहीं है। उल्लेखनीय है कि मई 2010 में राज्यपालों की बर्खास्तगी से जुड़े एक मामले में संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाया था। इसी फैसले को आधार बनाकर राज्यपाल कुरैशी के वकीलों ने चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है कि केंद्रीय गृह सचिव ने उनसे इस्तीफा देने के लिए कहा था जबकि ऐसा अधिकार केवल राष्ट्रपति के पास है। वह समझते हैं कि सरकार ने ऐसा करके गैर-कानूनी काम किया है। ऐसे में अदालत जरूरी निर्देश जारी करे। इस पर अदालत ने सरकार और गृह सचिव को नोटिस जारी करते हुए छह सप्ताह में जवाब देने का आदेश दिया है। साथ ही अदालत ने इस मामले को पांच सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेज दिया है क्योंकि यह अनुच्छेद 156 (राज्यपाल के कार्यकाल) की व्याख्या से संबंधित है। बहरहाल अदालत में जिस तरह राज्यपाल के पक्ष में पेशे से वकील परन्तु पूर्ववर्ती कैबिनेट के दो सदस्य मौजूद रहे, उससे साफ है कि यह लड़ाई कानूनी कम और राजनीतिक अधिक है लेकिन जिस तरह राज्यपाल और केंद्र सरकार आमने-सामने हैं, वह यकीनन बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। दरअसल आमतौर पर यही होता रहा है कि जब केंद्र में नई सरकार बनती है तो  पूर्व सरकार द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति चेंज हो जाती है। पूर्ववर्ती सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल या तो इस्तीफा दे देते हैं या फिर उन्हें बदल दिया जाता है। इसका कारण यह है कि वैसे तो राज्यपाल का पद संवैधानिक है लेकिन इस पर आमतौर पर केंद्र में सत्ताधारी दल के रिटायर्ड नेता या रिटायर्ड नौकरशाह आदि काबिज होते रहे हैं। 2004 में जब यूपीए सरकार सत्ता में आई तो उसने एनडीए कार्यकाल में नियुक्त ज्यादातर राज्यपालों को हटा दिया था। दरअसल यह मामला जितना संवैधानिक है उससे कहीं अधिक राजनीतिक अवमूल्यन से जुड़ा है। इससे यह बात भी जाहिर होती है कि हमारे सियासी दल और राजनेता संवैधानिक प्रावधानों को अपने फायदे के अनुरूप व्याख्या करने में ज्यादा संलग्न रहते हैं लेकिन किसी प्रावधान के पीछे संविधान की क्या भावना है इसे वह या तो समझते नहीं या समझना नहीं चाहते। बेहतर होगा कि दिन-रात कसमें खाने वाले हमारे सियासी दल राज्यपाल पद को संकीर्ण राजनीति में घसीटने से बाज आएं। इतना तय है कि चूंकि मामला अब सुप्रीम कोर्ट में आ गया है, इसलिए मोदी सरकार को बाकी राज्यपालों को हटाने की मुहिम को झटका जरूर लगा है।

Sunday 24 August 2014

सहारनपुर दंगा रिपोर्ट लीपापोती के सिवाय कुछ नहीं है

सहारनपुर में पिछले महीने हुए दंगों पर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित शिवपाल यादव कमेटी की रिपोर्ट के जो ब्यौरे सामने आए हैं उससे लगता है कि अखिलेश यादव सरकार अपनी जवाबदेही से बच निकलना चाहती है। कमेटी की यह रिपोर्ट लीपापोती से ज्यादा और कुछ नहीं है। राज्य सरकार दिखाना चाहती है कि दंगों से निपटने को लेकर वह गंभीर है लेकिन शायद ही कोई इस रिपोर्ट को गंभीरता से लेगा। शिवपाल यादव की अगुवाई वाली सपा नेताओं की जांच रिपोर्ट को सरकारी रिपोर्ट बताने से भड़की भाजपा ने इसे मानने से इंकार कर दिया है। पार्टी ने कहाöराजनीतिक रूप से प्रेरित इस रिपोर्ट में प्रदेश सरकार अपनी नाकामियों पर परदा डालने के लिए भाजपा को कठघरे में खड़ा कर रही है। रिपोर्ट पर कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जवाब मांगा है जबकि मायावती ने भाजपा व सपा दोनों को सांप्रदायिक तनाव के लिए जिम्मेदार ठहराया है। इस कमेटी की निष्पक्षता ही संदेह के घेरे में है क्योंकि इसमें सिर्प सरकार और समाजवादी पार्टी के लोग शामिल हैं। इस रिपोर्ट की सिफारिशें राजनीतिक रंग में रंगी हैं। सच्चाई तो यह है कि यह रिपोर्ट दंगा पीड़ितों और कानून व्यवस्था की बदहाली झेल रही यूपी की जनता को कोई राहत पहुंचाने या उम्मीद बांधने के बजाय उनके जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि देश के सबसे बड़े राज्य की सरकार को भी इस सस्ते सियासी ड्रॉमे का हिस्सा बना दिया गया है। राज्य सरकार दंगों के लिए भाजपा को तो जिम्मेदार ठहराती है लेकिन अपने प्रशासन को मुस्तैद करने की कोशिश नहीं करती। मुजफ्फरनगर की घटना से अगर उसने कोई सबक लिया होता तो सहारनपुर की घटना नहीं होती और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगातार सांप्रदायिक तनाव की स्थिति भी नहीं  बनी रहती। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार इस साल जुलाई तक उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की तकरीबन 65 घटनाएं सामने आ चुकी हैं। सहारनपुर दंगे की जांच के लिए एक स्वतंत्र हाई पॉवर कमेटी का गठन होना चाहिए ताकि सच सामने आए। अगर अखिलेश सरकार को राज्य की थोड़ी भी चिन्ता है तो उसे दंगों की निष्पक्ष जांच करवा कर दोषियों को सजा दिलानी चाहिए। लेकिन फिलहाल इससे भी ज्यादा चिन्ता उसे अपनी साख की करनी चाहिए क्योंकि उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार अब सिर्प राजनीति करने वाली सरकार बनती जा रही है जो भाई-भाई को अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए लड़वा रही है। मुझे नहीं लगता कि उत्तर प्रदेश की जनता के दिल में इस सरकार के कुछ इज्जत बची है।

-अनिल नरेन्द्र

कूरता और बेरहमी का संगठन आईएसआईएस

आईएसआईएस द्वारा अमेरिकी पत्रकार जेम्स फोले की हत्या इस पेशे से जुड़े बढ़ते खतरे का ताजा उदाहरण है। इस इंटरनेट और ऑनलाइन दौर में आतंकी संगठन पत्रकारों को शत्रु समझते हैं और युद्ध क्षेत्र की रिपोर्टिंग पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक और जोखिम भरी हो गई है। इस्लामिक स्टेट के आतंकियों ने दो साल पहले सीरिया में अगवा हुए अमेरिकी पत्रकार का सिर कलम कर दिया। आतंकियों ने पत्रकार जेम्स फोले की हत्या का एक चार मिनट 40 सैकेंड का वीडियो भी जारी किया। इस वीडियो को यूट्यूब पर भी पोस्ट किया गया। हालांकि बाद में इसे हटा दिया गया। जेम्स फोले का सिर कलम करने का जो वीडियो इराक के इस आतंकी संगठन आईएसआईएस की कूरता और बेरहमी के बारे में तो सब पहले से ही जानते हैं। वह ऐसा संगठन है जिसकी कूरता की वजह से अलकायदा ने भी उससे रिश्ते तोड़ लिए थे। इस संगठन ने चेतावनी दी है कि एक दूसरे अमेरिकी पत्रकार के साथ भी यही सलूक किया जाएगा। जुलाई के आखिर में द वाशिंगटन पोस्ट के एक पत्रकार जैसन रे जैन को ईरान में एक व्यक्ति ने गिरफ्तारी वारंट दिखाकर अगवा कर लिया था, तब से उनका कोई पता नहीं है। आईएसआईएस की हर कूरतापूर्ण गतिविधि सोची-समझी होती है और इससे भी दहशत पैदा होती है उसका इस्तेमाल वह अपनी ताकत से कहीं ज्यादा प्रभाव पैदा करने के लिए करता है। अपनी चतुराई के चलते उसने इराक और सीरिया के बड़े भूभाग पर कब्जा कर रखा है जबकि उसके लड़ाकों की संख्या 10,000 के आसपास ही है। पत्रकार जेम्स फोले को इस संगठन ने सीरिया में अगुवा किया था। अमेरिका के लिए संदेश नाम से जारी वीडियो में नारंगी रंग का कपड़ा पहने जेम्स फोले को रेगिस्तान में घुटने के बल बैठे दिखाया गया है। कुछ इसी तरह की यूनिफार्म अमेरिका के जेल गुआतानामो बे में बंद कैदी पहनते हैं। पत्रकार के बाएं खड़ा नकाबपोश आतंकी अंग्रेजी में बोलता दिखाई देता है। उसका उच्चारण पूर्वी लंदन में  बोली जाने वाली भाषा से मेल खाता है। हाथ में चाकू लिए आतंकी कहता है, इराक में हमारे लड़ाकों के खिलाफ राष्ट्रपति ओबामा द्वारा दिए गए हवाई हमले के आदेश का बदला लेने के लिए फोले की हत्या की गई है। वीडियो देखने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहाöपत्रकार जेम्स फोले की निर्मम हत्या ने पूरी दुनिया की अंतरात्मा को झकझोड़ कर रख दिया है। कोई भी ईश्वर इस्लामिक स्टेट के इस घिनौने कृत्य का समर्थन नहीं कर सकता। आतंकी संगठन आईएसआईएस की विचारधारा दिवालिया हो गई है। ऐसा नहीं कि अमेरिका ने जेम्स फोले को चंगुल से बचाने के लिए प्रयास नहीं किया। अमेरिका के विशेष अभियान दल ने ओबामा के निर्देश पर सीरिया में गिरफ्तार किए गए जेम्स फोले और अन्य अमेरिकी नागरिकों को बचाने के लिए गुप्त छापामारी अभियान चलाया था लेकिन यह जटिल अभियान असफल रहा और बचाव दल को खाली हाथ लौटना पड़ा। मीडिया में यह भी रिपोर्ट आई कि जेम्स फोले की रिहाई के लिए आईएसआईएस ने करीब 840 करोड़ रुपए की फिरौती मांगी थी। यह फिरौती फोले के परिवार और ऑनलाइन पोर्टल ग्लोबल पोस्ट से मांगी गई थी। ग्लोबल पोस्ट के प्रेसीडेंट और सीईओ फिलिप बालबेनी के मुताबिक जेम्स की रिहाई के लिए आतंकियों ने पहले फिरौती मांगी थी लेकिन जेम्स की हत्या से पहले आखिरी संदेश में कोई मांग नहीं रखी थी। फोले ग्लोबल पोस्ट के लिए ही काम करते थे। इराक और सीरिया के बड़े भाग पर कब्जा कर चुके जेम्स फोले की हत्या के बाद अब आईएसआईएस में एक नया विश्वास आया है और अब उसने अमेरिका पर हमले करने तक की चेतावनी दी है। उसके नेता अबू बकर अल बगदादी का लक्ष्य अमेरिकी हितों और अगर संभव हो तो अमेरिकी भूमि पर हमला करने का हो गया है। अल बगदादी का उद्देश्य क्या है और उसका भविष्य क्या होगा, यह बताना मुश्किल है। खिलाफत स्थापित करने का, उसका उद्देश्य तो हवाई किला है क्योंकि दुनिया की बहुसंख्यक सुन्नी मुस्लिम आबादी इसके समर्थन में नहीं है। सीरिया, इराक और ईरान की शिया हुकूमतों को कमजोर करने के लिए सउदी अरब और कतर जैसे सुन्नी देश आईएसआईएस के समर्थक जरूर हैं, लेकिन अब यह संगठन उनके लिए भी खतरा बनता जा रहा है। वक्त का तकाजा है कि दुनिया के सभी देश, खासकर अरब देश अपने संकीर्ण सियासी स्वार्थों को छोड़कर आईएसआईएस के आतंक को खत्म करने के लिए एकजुट हों।

Saturday 23 August 2014

लोकसभा में नेता विपक्ष मुद्दे पर कांग्रेस की किरकिरी

आखिरकार लोकसभा अध्यक्ष ने कांग्रेस की यह मांग ठुकरा दी कि लोकसभा में उसके नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रतिपक्ष के नेता की मान्यता दी जाए। 16वीं लोकसभा में नेता विपक्ष की कुर्सी खाली ही रहेगी। स्पीकर सुमित्रा महाजन ने कांग्रेस की तमाम दलीलें, तर्प, दावों को नकारते हुए इस फैसले से कांग्रेस नेतृत्व को अवगत करा दिया है। सुमित्रा महाजन ने कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं दिए जाने के अपने निर्णय के बारे में कहाöमैंने नियमों और परंपराओं का अध्ययन किया है। यह निर्णय करने से पहले स्पीकर ने अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी के विचार भी लिए जिन्होंने कहा कि कांग्रेस के पास सदन में वह आवश्यक संख्या नहीं है जिससे उसे नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दिया जा सके। जाहिर है कि यह स्थिति देश की उस सबसे पुरानी पार्टी के लिए खासी अपमानजनक है जो ज्यादातर समय तक केंद्रीय सत्ता पर काबिज रही है। लेकिन इसके लिए यदि सबसे जिम्मेदार कोई है तो वह स्वयं कांग्रेस है। बेहतर यही होता कि लोकसभा चुनाव में करारी हार और 10 फीसद सीटें तक पाने में नाकाम रही कांग्रेस इस पद के लिए अपना दावा ही प्रस्तुत नहीं करती। स्पीकर का निर्णय परिपाटी के अनुरूप तो है पर हमारी संसदीय प्रणाली की मजबूती के लिए शायद ठीक नहीं है। लोकसभा में विपक्ष के नेता पद का मुद्दा बजट सत्र की शुरुआत से ही कांग्रेस और सत्तापक्ष के बीच तनातनी का विषय बना रहा है। लिहाजा स्पीकर ने इस मामले में निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले संबंधित और कानूनी जानकारों से सलाह-मशविरा किया है। खबर है कि लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर कांग्रेस की मांग को नामंजूर करने के पीछे दो खास कारण बताए हैं। एक यह कि कांग्रेस लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की जरूरी शर्त पूरी नहीं करती। उन्होंने परिपाटी का हवाला देते हुए बताया है कि इस पद के लिए लोकसभा में संबंधित पार्टी के पास कम से कम 10 फीसदी सीटें होना जरूरी है। पांच सौ तैंतालीस सदस्यीय लोकसभा में कांग्रेस के 44 सदस्य हैं। यह आंकड़ा लोकसभा की कुल संख्या के 10 प्रतिशत से कम है। स्पीकर ने दूसरे कारण के तौर पर महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी की राय का उल्लेख किया है। जाहिर है कि महाधिवक्ता ने भी परिपाटी को ही अपने सुझाव का आधार बनाया है। लेकिन 1977 में बने नेता प्रतिपक्ष के वेतन, भत्तों और अन्य सुविधाओं से संबंधित कानून ने इस चलन को ढीला करने की गुंजाइश पैदा की। इस कानून में लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को नेता प्रतिपक्ष मानने की बात कही गई है, इसमें न्यूनतम 10 फीसद सीटों का कोई प्रावधान नहीं है। विडंबना यह है कि आज कांग्रेस अपने पक्ष में इस कानून की दुहाई दे रही है पर उसने खुद इसका पालन नहीं किया। राजीव गांधी को चार सौ पंद्रह सीटों के साथ पूर्ण बहुमत मिला था, तब भी विपक्ष की कोई पार्टी 10 फीसद सीटों तक नहीं पहुंच पाई थी। उस समय लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी तेलुगूदेशम थी और इसी आधार पर वह सदन में अपने नेता पी. उपेन्द्र को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देने का आग्रह करती रही। लेकिन उसकी मांग अनसुनी कर दी गई, तब भी लोकसभा अध्यक्ष और सत्तारूढ़ पार्टी का रुख समान था। तब उस कानून को क्यों नजरंदाज कर दिया गया जो पहले बन चुका था? यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि 10 फीसदी की अहर्ता के कारण ही पहले आम चुनाव के तकरीबन 17 साल बाद तक नेता विपक्ष की कुर्सी रिक्त रही। यह भी तथ्य है कि 1977 में निर्मित जिस कानून के आधार पर कांग्रेस अपनी दावेदारी पेश करती रही, खुद उसके शासनकाल में 1980 और 1984 में गठित लोकसभाओं में सबसे बड़े दल को नेता विपक्ष पद से महरूम रखा गया। कहा जा सकता है कि इस मामले में कांग्रेस ने वही फसल काटी है जो उसने खुद बोई थी। अब किसी किस्म की आलोचना के बजाय उसे स्पीकर के फैसले का पूरा आदर करते हुए इस कड़वे राजनीतिक यथार्थ को स्वीकार करना चाहिए। बहरहाल प्रश्न यह भी है कि नेता विपक्ष की गैर मौजूदगी में मुख्य सूचना आयुक्त, केंद्रीय सतर्पता आयुक्त और लोकपाल के चयन प्रक्रिया में मुश्किल आ सकती है।

-अनिल नरेन्द्र

दिल्ली में राष्ट्रपति शासन के छह महीने पूरे हुए ः अब आगे क्या?

अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी की कुल 49 दिनों तक चली सरकार के इस्तीफे के बाद सूबे में  बीते फरवरी में लगाए गए राष्ट्रपति शासन के छह महीने पूरे हो गए हैं। फिलहाल दिल्ली विधानसभा निलंबित स्थिति में है और किसी की भी सरकार बनने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। सियासी गलियारों में अब नए सिरे से चुनाव कराए जाने की चर्चा जोर पकड़ने लगी है। आपको बता दें कि इसी साल 14 फरवरी को आम आदमी पार्टी की सरकार ने इस्तीफा दिया था और 17 फरवरी को दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। 1993 में दिल्ली विधानसभा के गठन के बाद से यह पहला मौका है जब यहां पर राष्ट्रपति शासन लगाने की नौबत आई है। सनद रहे कि केजरीवाल सरकार के इस्तीफे के बाद उपराज्यपाल नजीब जंग ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश तो की थी, लेकिन उन्होंने विधानसभा निलंबित स्थिति में रखने का फैसला किया। इसका सीधा-सा तात्पर्य यह था कि यहां पर सरकार बनने की संभावनाएं मौजूद थीं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जवाब-तलब के बावजूद केंद्र सरकार या उपराज्यपाल के स्तर पर सरकार के गठन को लेकर कोई औपचारिक कवायद नहीं की गई है। केंद्र सरकार को अगले महीने की शुरुआत में ही सुप्रीम कोर्ट को यह बताना होगा कि राजधानी में सरकार बनाने की दिशा में क्या पहल की गई है। असल में विधानसभा को भंग कर नए सिरे से चुनाव कराने की मांग को लेकर ही आम आदमी पार्टी अदालत गई थी और आज भी वह दिल्ली में नए चुनाव कराने के लिए माहौल बनाने की कोशिश कर रही है। हमारा मानना है कि दिल्ली में सरकार या चुनाव पर फैसला लेने में जितनी देरी हो रही है, भाजपा का नुकसान उतना ही रफ्तार से ज्यादा हो रहा है। राष्ट्रपति शासन तो केंद्र यानि भाजपा का ही एक तरह से शासन माना जा रहा है। इसका भाजपा के स्थानीय विधायकों और नेताओं को भले ही लाभ न मिल रहा हो लेकिन सारी नाकामी भाजपा के सिर ही डाली जा रही है। भाजपा नेतृत्व पिछले तीन महीने से यह तय ही नहीं कर पा रहा है कि उसको लाभ सरकार बनाने से होगा या मध्यावधि चुनाव से। अब जब अमित शाह ने भाजपा की राष्ट्रीय कमान संभाल ली है तो शायद फैसला हो जाए। फैसला तो वैसे भी अब करना होगा क्योंकि राष्ट्रपति शासन की अवधि समाप्त हो गई  है। अगर अंतत चुनाव का ही फैसला होता है तो उसके लिए यह जरूरी है कि दिल्ली की जनता को यह भी पता चले कि भाजपा का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा? सूत्रों का कहना है कि भाजपा विधायकों को संकेत मिला है कि चुनाव फरवरी तक हो सकते हैं, इसलिए घर-घर सम्पर्प पर जोर दिया जाए, जबकि एक धड़े की शिकायत यह भी है कि उपराज्यपाल उन्हें तरजीह नहीं दे रहे हैं जिससे दिक्कत आ रही है। दिल्ली में राष्ट्रपति शासन के छह महीने पूरे होने पर दोनों आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने चुनाव कराने की मांग तेज कर दी है। दोनों को लगता है कि चुनाव में उनकी स्थिति पहले से बेहतर होगी। अब फैसला भाजपा को करना है कि उसे आगे क्या करना है?

Friday 22 August 2014

मोदी ने पाकिस्तान को करारा जवाब दिया, वार्ता रद्द होने का सबक

नरेन्द्र मोदी सरकार ने पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित द्वारा हुर्रियत के नेताओं से मुलाकात के बाद दोनों देशों के विदेश सचिवों की वार्ता को रद्द करके पाकिस्तान को कड़ा और सही संदेश दिया है। भारत सरकार की नाराजगी और विरोध के बावजूद पाक उच्चायुक्त अब्दुल बासित ने मंगलवार को कश्मीरी अलगाववादियों से मुलाकात का सिलसिला जारी रखा। भारत सरकार का संदेश साफ है कि पाकिस्तान को चुनी हुई सरकार और अलगाववादियों में से किसी एक को चुनना होगा। मोदी सरकार का यह रुख पिछली तमाम सरकारों से अलग है, जो पाकिस्तानी नेताओं और राजनयिकों से कश्मीरी अलगाववादी नेताओं की मुलाकात का विरोध तो करती थीं मगर ऐसी मुलाकातों को खास तवज्जो नहीं देती थीं। दरअसल पाकिस्तान की कश्मीर एक मजबूरी है। यह पाकिस्तान की एकता व अखंडता के लिए जरूरी है क्योंकि यही एक सीमेंट की तरह काम करता है। अगर कश्मीर का राग पाकिस्तान न अलापे तो पाकिस्तान कई टुकड़ों में बंट सकता है, पर हमें आज तक यह समझ नहीं आया कि पूर्ववर्ती सरकारें इन हुर्रियत नेताओं को इतना भाव क्यों देती आ रही हैं? यह खुलेआम कश्मीर को आजाद करने की  बात करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि यह आईएसआई के टुकड़ों पर इसी बात करने के लिए खाते हैं। आज तक इन्होंने न तो कोई विधानसभा चुनाव लड़ा है न संसद का। इनकी कश्मीरी आवाम पर भी कोई खास पकड़ नहीं। फिर भी भारत सरकार इन्हें वीआईपी ट्रीटमेंट क्यों देती है? इन्हें भारत सरकार ने निजी सुरक्षा गार्ड्स तक दे रखे हैं, क्यों? यह तो खुद आतंकवादी, अलगाववादी समर्थक है। यह सुरक्षा अविलंब समाप्त की जानी चाहिए। अगर यह कश्मीरी आवाम पे नुमाइंदे हैं तो इन्हें डर किसका है? हमें पाकिस्तान के बारे में एक-दो बातें समझनी होंगी। आतंकवाद को बढ़ावा देना, भारत में प्रॉक्सी वॉर छेड़ना, पाकिस्तान की विदेश नीति का एक अहम मुद्दा है। पाकिस्तान में सरकार कोई-सी भी आए वह राग कश्मीर जरूर अलापेगी और जब तक पाक भारत के खिलाफ यह प्रॉक्सी वॉर समाप्त नहीं करता दोनों देशों के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता। फिर सवाल यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि पाकिस्तान में सियासी बागडोर किसके हाथों में है? यह किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तान की असल नीति निर्धारण वहां की सेना करती है और आईएसआई हर कीमत पर न तो कश्मीर का राग अलापने से बाज आएगी और न ही अपने प्रॉक्सी वॉर बंद करेगी। फिर आजकल तो नवाज शरीफ की खुद की कुर्सी डगमगा रही है। घरेलू कठिनाइयों से ध्यान हटाने के लिए भी शरीफ सरकार ने हुर्रियत नेताओं से भारत सरकार के विरोध के बावजूद मुलाकात की है। मोदी ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया था पर पाकिस्तान ने साबित कर दिया कि वह इसके काबिल नहीं। अब मोदी का चांटा पड़ा है तो तिलमिला उठा है। पाकिस्तान दोनों देशों के बीच हुए तमाम फैसलों का भी उल्लंघन करता है। 1972 में इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला समझौता हुआ था। 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी और इसके प्रधानमंत्री नवाज शरीफ में भी लाहौर घोषणा पत्र हुआ था। दोनों में यह साफ लिखा हुआ है कि दोनों देश आपसी मसलों को आपस में मिल बैठकर सुलझाएंगे। फिर यह तीसरा पक्ष यानि हुर्रियत बीच में कहां से आ जाता है। आखिर भारत इसे बर्दाश्त क्यों करता है? 26 मई को नवाज शरीफ ने जब मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लिया था तो उन्होंने दोस्ती की बात की थी और उस मुलाकात में किसी हुर्रियत नेता से मिलना उचित नहीं समझा। इससे भारत को एक भरोसा पैदा हुआ था दोस्ती का माहौल बना था पर हुर्रियत नेताओं से मिलकर पाकिस्तान ने दोस्ती का माहौल समाप्त कर दिया है। हमें समझ यह भी नहीं आता कि इन नेताओं से मिलने में पाक को हासिल क्या होता है? इनमें न तो कोई एका है और न ही वफादारी। दिल्ली में पाक उच्चायुक्त से अलग-अलग मिलते हैं, क्यों? ऐसा नहीं है कि दोनों देशों के बीच संबंध सुधर सकते। सुधर नहीं सकते हैं किन्तु इसके लिए कुछ बातें जरूरी हैं। पहली, दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व में एक-दूसरे के प्रति सद्भाव हो। दूसरी, दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व अपने-अपने देशों की जनता में व्यापक आधार वाले हों और दोनों को अपने-अपने देश में किसी और ताकत से डर न हो। जहां तक शीर्ष नेतृत्व में सद्भावना का सवाल है तो नवाज शरीफ के बारे में भारत में अच्छी राय है और मोदी को शरीफ से कोई परहेज नहीं है। किन्तु जहां तक दूसरी बात है यानि अपने देश में व्यापक आधार के बारे में तो कोई संदेह नहीं कि शरीफ पाक सेना की मर्जी के खिलाफ एक पत्ता भी नहीं हिला सकते, किसी प्रकार का समझौता करना तो बहुत दूर की बात है। पाकिस्तान में भारत के प्रति किसी भी कूटनीतिक मसले की हरी झंडी सेना के हाथ में होती है। दरअसल हमारी राय में दोनों देशों के बीच मसलों से ज्यादा सोच की अड़चन है। भारत पाक से संबंध बनाना चाहे भी तो पाक सोच ऐसी है जो भारत को पाक से दूर रहने के लिए मजबूर करती है। नवाज शरीफ की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं, वह पाकिस्तान में सत्ता का अकेला केंद्र नहीं हैं। उनके खिलाफ अभी इमरान खान और मौलवी ताहिर अल कादिरी ने भी मोर्चा खोल रखा है। इसके अलावा पाक सेना व आईएसआई के साथ कट्टरपंथी जेहादियों का दबाव अलग। निश्चित ही इस घटनाक्रम की पृष्ठभूमि से यह भी देखने की जरूरत है कि ऐसे समय जब दोनों देशों के बीच वार्ता की प्रक्रिया पटरी पर लौटती दिख रही थी, पाकिस्तान की ओर से लगातार संघर्ष विराम का उल्लंघन कर भड़काने वाली कार्रवाई जारी है। दरअसल पाकिस्तान में ऐसी ताकतें कम नहीं हैं जो कभी नहीं चाहती कि दोनों देशों की लोकतांत्रिक सरकारें शांति प्रक्रिया की ओर आगे बढ़ें। अच्छे रिश्तों की इच्छा स्वागत योग्य है मगर उसे साकार करना तभी संभव होगा जब दूसरा पक्ष भी इसके लिए ईमानदार हो?

-अनिल नरेन्द्र

Thursday 21 August 2014

25 साल से लटका पड़ा है थलसेना के लिए एम-777 तोपों का सौदा

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषणों में एक बात कही थी कि भारत को रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना पड़ेगा। इस विचार का स्वागत होना चाहिए। हम अरबों रुपए रक्षा सामान के आयात पर खर्च करते हैं और फिर भी दूसरे मुल्कों के मोहताज रहते हैं। हालत यह है कि थलसेना को बोफोर्स के बाद 25 सालों में नई तोपें नहीं मिली हैं। अब और इंतजार करना पड़ सकता है क्योंकि 145 अल्ट्रा लाइट होवित्जर तोपों की खरीद के मामले में अमेरिका ने लागत बढ़ा दी है। इसके बाद भारत ने उसे बता दिया है कि तोपों को खरीद पाना अब मुमकिन नहीं होगा। एम-777 होवित्जर तोपों का सौदा 2013 के शुरू में होना था। तब लागत 3600 करोड़ रुपए आने वाली थी। लेकिन मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार ने कोई फैसला नहीं किया और अमेरिका ने अगस्त 2013 में सौदे के मूल्य में 300 करोड़ रुपए की वृद्धि कर दी। अमेरिकी खेमे की दलील है कि तोपों की उत्पादन यूनिट ऑर्डर न होने के कारण बंद कर दी गई है। ऐसे में उसे फिर शुरू करने में अतिरिक्त लागत लगेगी और इसका भार तोपों के खरीदार भारत को उठाना होगा। वहीं भारत का कहना है कि जब सौदे की बातचीत जारी हो तो लागत बढ़ा देना सही नहीं है। परिणामस्वरूप होवित्जर तोपों का सौदा 25 साल से लटका हुआ है। घरेलू रक्षा उत्पाद उद्योग को बढ़ावा देने के लिए मोदी सरकार ने हाल ही में देश की निजी कम्पनियों को विदेशी साझेदारों से मिलकर वायुसेना के लिए 56 परिवहन विमान बनाने की अनुमति दे दी। वायुसेना के 40 साल पुराने एवरो विमानों की जगह इन्हें शामिल किया जाएगा। इसके साथ ही सरकार ने 21 हजार करोड़ रुपए के रक्षा खरीद प्रस्तावों को भी मंजूरी दी। इसमें जंगी पोतों, गश्ती जहाजों और स्वदेशी हेलीकॉप्टरों की खरीद शामिल है। परिवहन विमान बनाने की परियोजना से एचएएल और बीईएमएल जैसी सरकारी कम्पनियों को दूर रखे जाने पर तत्कालीन भारी उद्योग मंत्री प्रफुल्ल पटेल की आपत्ति पर पूर्व सरकार निर्णय नहीं ले पाई। नई सरकार के कानून मंत्रालय से हरी झंडी मिलने के बाद मूल प्रस्ताव को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया गया। रक्षामंत्री अरुण जेटली की अध्यक्षता में रक्षा खरीदारी परिषद (डीएसी) की तीन घंटे चली मैराथन बैठक में इन प्रस्तावों को मंजूरी दी गई। मोदी सरकार के इस फैसले का स्वागत होना चाहिए। हमारी सुरक्षा फोर्सेस को जरूरी हथियारों की बहुत भारी कमी से जूझना पड़ रहा है। मनमोहन सरकार को तो न जाने क्या हुआ यानि लकवा मार गया था। वह कोई फैसला ही नहीं कर सकी। एक अन्य खबर के अनुसार भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान (आईआईटी) के वैज्ञानिकों ने कम्प्यूटर नियंत्रित ऐसा मानव रहित छोटा एयर क्रॉफ्ट (ड्रोन) बनाने में सफलता पाई है जो सीमा की तो निगरानी करेगा ही, दंगा नियंत्रण में भी प्रशासन का सहयोग करेगा। विमान की खासियत उसका शक्तिशाली वीडियो कैमरा है जो नियंत्रण कक्ष में पूरे क्षेत्र की वीडियो फिल्म भेजता है। यह विमान कार में रखकर कहीं भी ले जाया जा सकता है।

-अनिल नरेन्द्र

इस शर्मसार हार के बाद समय है कुछ कठोर फैसलों का

टीम इंडिया ने इंग्लैंड के हाथों टेस्ट सीरीज में शर्मनाक हार से देश को शर्मसार कर दिया है। टीम इंडिया ने इस सीरीज में सीरीज तो खोई ही साथ-साथ सम्मान भी खो दिया। हार-जीत खेल का हिस्सा है, लेकिन भारतीय क्रिकेट टीम ने बढ़त लेने के बाद जिस अंदाज में इंग्लैंड टीम से पांच टेस्ट मैचों की सीरीज को 3-1 से गंवाया वह काफी शर्मनाक और चौंकाने वाला है। भारतीय बल्लेबाजों ने इंग्लैंड के खिलाफ पांचवें और आखिरी टेस्ट में जिस तरह हथियार डाले, उसकी हाल-फिलहाल कोई मिसाल नहीं मिलती है। भारतीय टीम 40 साल पहले यानि 1974 में इंग्लैंड से लॉर्ड्स में पारी और 285 रन से हारी थी। उसके बाद से यह भारतीय टीम की सबसे शर्मनाक हार है। इस शर्मनाक प्रदर्शन के बाद अब आलोचना का दौर शुरू होना स्वाभाविक ही है। सुनील गावस्कर तो टीम के प्रदर्शन से काफी दुखी हैं। उन्होंने कहा, `अगर आप भारत के लिए टेस्ट नहीं खेलना चाहते तो इसे छोड़ दें। सिर्प सीमित ओवरों का क्रिकेट खेलो। आपको इस तरह देश को शर्मसार नहीं करना चाहिए।' पूर्व कप्तान अजीत वाडेकर ने कहा कि लॉर्ड्स की मुश्किल पिच पर हमारे जीतने के बाद कोच फ्लैचर क्या कर रहे थे? धोनी के संदर्भ में वाडेकर ने कहा, `उसने अपनी तकनीक में बदलाव किया और अच्छी बल्लेबाजी की। लेकिन मुझे समझ नहीं आ रहा है कि वह कप्तान के रूप में अपनी रणनीति में बदलाव क्यों नहीं करते।' पूर्व महान बल्लेबाज गुंडप्पा विश्वनाथ का भी मानना है कि मुश्किल समय में धोनी उम्मीद करते हैं कि करिश्मे से टीम उभरने में सफल रहेगी। मैं उसकी विकेट कीपिंग और कप्तानी से खुश नहीं हूं। उसका अपना दिमाग है। वह हमेशा चीजों को दोहराता है। पूर्व क्रिकेटर दिलीप वेंगसरकर ने कहा कि धोनी ने टीम की अगुवाई अच्छी तरह से नहीं की। उसकी चयन नीति, रणनीति, क्षेत्ररक्षण की सजावट और गेंदबाजी में बदलाव में व्यावहारिक समझ की कमी दिखी। सौरभ गांगुली ने कहा कि चयनकर्ताओं को अब अपना नजरिया बदलना होगा। कुछ कड़े निर्णय लेने होंगे। दरअसल धोनी के टेस्ट कप्तान के रूप में उनकी प्रतिभा पर सवाल खड़े हो रहे हैं। इंग्लैंड के पूर्व कप्तान माइकल वॉन ने ट्विटर पर अपमानजनक टिप्पणी कर टीम को निचले दर्जे का बताया। गौर से देखें तो हमारा टॉप बैटिंग ऑर्डर इस सीरीज में शुरू से ही बेबस साबित हुआ। लॉर्ड्स की पहली इनिंग के बाद से लगातार हमारा स्कोर नीचे आता रहा और अंतिम पारी में हमारी टीम 29.2 ओवर में ही महज 94 रन बनाकर ढेर हो गई। अगर अंतिम पांच इनिंग का हिसाब देखें तो टीम इंडिया ने सभी 50 विकेट खोकर सिर्प 733 रन बनाए यानि प्रति पारी डेढ़ सौ रन से भी कम। टीम द्वारा आजमाए गए कुल सात स्पेशलिस्ट बल्लेबाजों में सिर्प मुरली विजय और धोनी के अलावा अजिंक्य रहाणे ही कुछ रन बना सके। शिखर धवन, गौतम गंभीर, विराट कोहली और चेतेश्वर पुजारा ने बुरी तरह निराश किया। यह सिर्प एक सीरीज का मामला नहीं है। कोच गैरी कर्स्टन ने अपने समय में टीम को जिन बुलंदियों तक पहुंचाया था उसकी कोई झलक इस टीम में नहीं दिखी। टीम इंडिया विदेशी भूमि पर 2011 के बाद से 13 टेस्ट हार चुकी है और कोच कमियों को दूर नहीं करा पा रहे हैं तो उनके बने रहने का कोई मतलब नहीं रहा। यह बात कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी पर भी लागू होती है। उन्हें खुद ही अपनी असफलताओं को ध्यान में रखते हुए टेस्ट कप्तानी छोड़ देनी चाहिए। यह भी कहा जा रहा है कि खिलाड़ियों का वन डे क्रिकेट को लेकर बना माइंडसेट उन्हें टेस्ट क्रिकेट में सफल नहीं होने दे रहा है। यह बीसीसीआई की चयन समिति का फर्ज बनता है कि वह खिलाड़ियों से खुलकर पूछे कि कौन टेस्ट क्रिकेट नहीं खेलना चाहता है और ऐसे खिलाड़ियों को बाहर का रास्ता दिखाए। वह टेस्ट में उन्हीं क्रिकेटरों पर भरोसा करे जो क्रिकेट के इस प्रारूप के लिए समर्पित हों। समस्या यह भी है कि कप्तानी के मोर्चे पर महेन्द्र सिंह धोनी का फिलहाल कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा। विराट कोहली से उम्मीद थी पर वह इस टूर में बुरी तरह फ्लॉप हुए हैं और उनसे विश्वास डगमगा गया है। जल्द ही हमें कुछ नई सीरीज खेलनी है और फरवरी में वर्ल्ड कप बचाने की जंग लड़नी है। ऐसे में धोनी को अपनी टीम का आत्मविश्वास लौटाना होगा ताकि हम 13वीं बार तीन दिन में टेस्ट गंवाने के सदमे से बाहर आ सकें। बीसीसीआई में पैसे और सत्ता का इतना बड़ा खेल चलता रहता है कि पदाधिकारी अपनी सबसे जरूरी ड्यूटी ही भूल गए हैं। पैसे से ज्यादा क्रिकेट पर ध्यान देना होगा जिसका गिरता स्तर सभी को चिंतित कर रहा है।

Wednesday 20 August 2014

केजरीवाल के पास नेतृत्व क्षमता नहीं, पद छोड़ें दूसरे को दें

आम आदमी पार्टी (आप) की आंतरिक शांति एक बार फिर भंग हो गई है। इस बार तो पार्टी के सबसे वरिष्ठ संस्थापक नेताओं में शामिल, पार्टी को सबसे बड़ी डोनेशन वाले, पार्टी को खड़ा करने वाले 88 वर्षीय शांति भूषण ने ही पार्टी प्रमुख अरविन्द केजरीवाल पर सवाल खड़े कर दिए हैं। शांति भूषण ने बुधवार को अरविन्द केजरीवाल की नेतृत्व क्षमता पर तीखे कटाक्ष किए। उन्होंने कहा कि केजरीवाल के अंदर पार्टी को आगे  बढ़ाने की क्षमता नहीं है। उन्होंने कहा है कि पार्टी को खड़ा करने की जिम्मेदारी किसी और नेता को सौंप देनी चाहिए। इतना ही नहीं, पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र खत्म होने का दावा करते हुए शांति भूषण ने नेतृत्व परिवर्तन की बात भी कही। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि अरविन्द केजरीवाल के पास नेतृत्व क्षमता नहीं, पद छोड़ें। एक निजी चैनल को दिए इंटरव्यू में पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री ने कहा, अरविन्द में इतनी सांगठनिक क्षमता नहीं है कि वह राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी को संभाल सकें। पार्टी उनकी अगुवाई में पूरे भारत में विस्तार करने में नाकाम रही है। ऐसे में केजरीवाल को संगठन से जुड़े काम ऐसे शख्स को सौंप देने चाहिए जिसके पास समय हो। उन्होंने कहा कि अरविन्द सिर्प अपनी बात सुनते हैं जबकि पार्टी संयोजक को अहम मुद्दों पर दूसरे नेताओं से सलाह भी लेनी चाहिए। उनके मुताबिक दिल्ली सरकार से इस्तीफा देना केजरीवाल का बचकाना फैसला था। इससे पार्टी को काफी नुकसान हुआ। शांति भूषण पार्टी के संस्थापक सदस्य होने के साथ-साथ सबसे बुजुर्ग नेता भी हैं। प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण को पार्टी का मार्गदर्शक भी माना जाता है। वहीं आप से निकाले गए विधायक विनोद कुमार बिन्नी ने कहा कि अगर शांति भूषण जी जैसे अनुभवी नेता ऐसा कह रहे हैं तो यह एक गंभीर बात है। केजरीवाल को इस्तीफा दे देना चाहिए। शांति भूषण के बेटे प्रशांत भूषण की टिप्पणी थी ः शांति भूषण जी ने आम आदमी पार्टी का नेतृत्व दूसरे के हाथों में सौंपने की बात कही है तो वह उनकी निजी राय है। इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। पार्टी के प्रवक्ता व बड़बोले नेता आशुतोष कहते हैं, शांति भूषण व योगेन्द्र यादव चाहते थे कि पार्टी हरियाणा विधानसभा चुनाव लड़े, लेकिन अरविन्द इसके लिए तैयार नहीं हुए। इसी कारण शांति भूषण ने पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को लेकर अपनी राय दी। आप सूत्रों की मानें तो पार्टी में दो धड़े हो गए हैं। एक धड़े में अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसौदिया तो दूसरे धड़े में प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव हैं। केजरीवाल की लीडरशिप पर पहले भी कई बार सवाल उठे हैं। कुछ वक्त पहले पार्टी नेता योगेन्द्र यादव की ओर से लिखी गई कथित चिट्ठी में अरविन्द की लीडरशिप पर सवाल उठाए गए थे वहीं शाजिया इल्मी ने तानाशाही की तरफ `आप' के जाने का आरोप लगाते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। दिल्ली की जनता सब देख रही है। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरविन्दर सिंह लवली ने चुटकी लेते हुए कहा कि वह तो काफी समय पहले से ही यह बात कह रहे हैं कि केजरीवाल एक झूठे इंसान हैं जो सत्ता के लालची हैं। इसके लिए वह सब कुछ दांव पर लगा सकते हैं।
-अनिल नरेन्द्र

देखें अमित शाह की टीम क्या कलेवर दिखाती है

अपनी ताजपोशी पर पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की मुहर लगने के हफ्ते भर बाद भाजपा के नए अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी टीम का ऐलान कर दिया। 11 उपाध्यक्षों, आठ महासचिवों और 14 सचिवों की इस टीम में जहां पहले के कई पदाधिकारियों को उनकी जगह बनाए रखा गया है वहीं कई नए चेहरे भी शामिल किए गए हैं। अमित शाह की नई टीम को देखकर कुछ बातें बेहद साफ नजर आती हैं। पहली बात तो यह है कि उनकी टीम में अपेक्षाकृत कम उम्र के नेताओं को बड़ी तादाद में मौका दिया गया है ताकि संगठन का तेवर और धार दोनों मौका अनुसार आगे बढ़ें। नई टीम में हर दृष्टि से संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया गया है। आयु, भूगोल और सत्ता तीनों स्तरों पर मध्य मार्ग अपनाया गया है। संगठन में ऐसे चेहरों को ज्यादा स्थान दिया गया है जो उम्र की दृष्टि से न बहुत युवा हैं और न ही बूढ़े। इसके पीछे मंशा बहुत साफ है कि संगठन का काम देखने वाले पदाधिकारी समाज की नई और पुरानी पीढ़ी के बीच संतुलन एवं समन्वय स्थापित कर सकें। बुजुर्गों की परिपक्वता एवं युवाओं का जोश यदि मिला दिया जाए तो एक अच्छा मिश्रण तैयार होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं में ऐसे ही मिश्रण का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह बात भी साफ नजर आती है कि अमित शाह की टीम पर आरएसएस की छाप बेहद  गाढ़ी है। संगठन महासचिव पद पर जिस तरह रामलाल बरकरार रहे, मुरलीधर राव भी अपनी जगह पर कायम रहे और हाल में संघ से भाजपा में आने वाले राम माधव और शिव प्रकाश जैसों को अहम जिम्मेदारियां मिली हैं उससे स्पष्ट है कि भाजपा नेतृत्व और आरएसएस के बीच रणनीतिक और राजनीतिक स्तर पर अच्छा सामंजस्य कायम है। कोई ज्यादा चौंकाने वाला फैसला अगर कहा जा सकता है तो वह यही है कि वरुण गांधी को शाह की टीम में शामिल नहीं किया गया। शायद यह इसलिए नहीं किया गया हो ताकि वरुण गांधी को और कोई महत्वपूर्ण पद देने की योजना है। याद रहे कि उनकी मां मेनका गांधी ने जो केंद्र में मंत्री हैं यह इच्छा जताई थी कि वरुण को उत्तर प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया जाए। हालांकि शाह की टीम के ऐलान के साथ ही पार्टी में कुछ विरोधी स्वर उठने लगे हैं। इसकी शुरुआत लगातार चौथी बार अनुसूचित जाति मोर्चा का अध्यक्ष बनाए गए फग्गन सिंह कुलस्ते ने की है। पांच बार से सांसद रहे कुलस्ते ने नई जिम्मेदारी संभालने से फिलहाल इंकार कर दिया है। उनका कहना है कि पार्टी या तो उन्हें पदोन्नति दे या फिर वह बतौर सांसद ही ठीक हैं। इस दौरान वह यह भी याद दिलाने से नहीं चूके कि वह नरेन्द्र मोदी के साथ महासचिव पद की जिम्मेदारी भी संभाल चुके हैं। बीएस येदियुरप्पा को उपाध्यक्ष बनाने पर भाजपा की आलोचना हो रही है। भ्रष्टाचार से लड़ने का मुद्दा लेकर आई पार्टी खुद दागदार व्यक्ति को उपाध्यक्ष बना रही है, विपक्षियों के लिए विरोध करने का मुद्दा मिल गया है। विडम्बना यह भी है कि येदियुरप्पा ने भी यह कहकर परोक्ष नाराजगी जताई है कि उनके क्षेत्र के लोग उन्हें मंत्री के रूप में देखना चाहते थे। कई अन्य नेता भी नाराज हैं पर वह फिलहाल चुप्पी साधे हैं। दिल्ली से किसी भी व्यक्ति को नई टीम में जगह न मिलने से भी दिल्ली भाजपा में थोड़ा रोष है। अमित शाह ने अपनी टीम के गठन से साफ कर दिया है कि संगठन के विस्तार के साथ चुनाव प्रबंधन भी उनकी प्राथमिकता है। शाह की नई टीम में जगह पाने वाले हर नेता ने लोकसभा चुनाव में अहम भूमिका निभाई थी। लोकसभा में टिकट कटने वाले नेताओं को भी संगठन में एडजस्ट करने का प्रयास किया गया है। टीम शाह का पहला सबसे बड़ा इम्तिहान महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों में होगा। दिल्ली में कब चुनाव होंगे, फिलहाल साफ नहीं है। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यू) और कांग्रेस के गठजोड़ से निपटना शाह की टीम के लिए अलग चुनौती है जिससे निपटना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। भाजपा का लक्ष्य आने वाले विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज करने के साथ-साथ राज्यसभा में अपनी ताकत बढ़ाना है। जहां वह अल्पमत में है। शाह भी जानते हैं कि अब वह लोकसभा चुनाव जैसे माहौल की उम्मीद नहीं कर सकते। उत्तराखंड के तीन विधानसभा सीट के उपचुनावों ने यह साफ कर दिया है, इसलिए वह दूसरे दलों में सेंध लगाने में जुट गए हैं। देखना यह है कि अमित शाह की टीम पार्टी को कैसा कलेवर दे पाती है?

Tuesday 19 August 2014

अप्रासंगिक योजना आयोग जल्द बनेगा इतिहास

योजना आयोग के पुनर्गठन या उसमें व्यापक बदलाव की चर्चाओं पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विराम लगा दिया। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अपने भाषण में मोदी ने पंचवर्षीय योजना की रूपरेखा तैयार करने वाली 64 साल पुरानी संस्था को खत्म करने की घोषणा की। हाल में वर्षों से विवादों में रहा योजना आयोग अब इतिहास बन जाएगा। बदलते वैश्विक व घरेलू आर्थिक परिदृश्य के मद्देनजर मोदी सरकार जल्द ही नई संस्था बनाएगी जो मौजूदा आर्थिक चुनौतियों से निपटने, युवाओं की क्षमता के बेहतर उपयोग और संघीय ढांचे को मजबूत बनाने का काम करेगी। आयोग की स्थापना 1950 में ऐसे समय में हुई थी जबकि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र को अर्थव्यवस्था में सबसे ऊंचा स्थान देती थी। सोवियत योजना प्रणाली से बेहद प्रभावित देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देश की आर्थिक नीति को आगे बढ़ाने के लिए योजना आयोग की स्थापना की थी। मंत्रिमंडल के प्रस्ताव द्वारा स्थापित आयोग के पास असीम शक्ति और प्रतिष्ठा है क्योंकि इसकी अध्यक्षता हमेशा प्रधानमंत्री ने की। इसका सबसे महत्वपूर्ण काम है क्षेत्रवार वृद्धि का लक्ष्य तय करना और इसे प्राप्त करने के लिए संसाधन आबंटित करना। आयोग के उपाध्यक्ष पद पर बैठे व्यक्ति हमेशा ही राजनीतिक तौर पर कद्दावर व्यक्ति रहे हैं और उनका दर्जा कैबिनेट मंत्री का होता है। अब तक आयोग के उपाध्यक्ष का पद जिन लोगों ने संभाला उनमें गुलजारी लाल नंदा, वीटी कृष्णामाचारी, सी. सुब्रह्मण्यम, पीएन हक्सर, मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, जसवंत सिंह, मधु दंडवते, मोहन धारिया, केसी पंत और रामकृष्ण हेगड़े जैसे दिग्गज शामिल हैं। यह और बात है कि हाल के वर्षों में इसकी भूमिका पर सवाल उठने लगे। 1991 में आर्थिक सुधारों के आगाज से जिस तरह आर्थिक गतिविधियों में सरकार की भूमिका सिमटी और निजी क्षेत्र की बढ़ी है उसे देखते हुए आयोग का खास औचित्य नहीं बचा। एक और महत्वपूर्ण बदलाव यह आया कि बीते दो दशकों में राज्य विकास ध्रुव बनकर उभरे हैं। राज्यों के विकास की रफ्तार केंद्र से अधिक रही है। कई मौकों पर राज्यों ने ही लड़खड़ाती राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को संबल दिया। ऐसे में योजना आयोग की केंद्रीयकृत भूमिका की जरूरत अब नहीं है। प्रधानमंत्री ने कहा कि योजना आयोग का गठन तात्कालिक आवश्यकताओं को देखकर किया गया था। उसने देश के विकास में अपना योगदान तो दिया लेकिन अब स्थिति बदल गई है। अगर भारत को आगे बढ़ना है तो राज्यों का विकास जरूरी है। हाल ही में पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने भी आयोग के  पुनर्गठन की आवश्यकता का समर्थन किया था। पूर्व आरबीआई गवर्नर बिमल जालान ने कहाöयह अच्छा विचार है। योजना आयोग की अवधारणा पुरानी पड़ गई थी। इसको आधुनिक बनाने की जरूरत है। इसी तरह के विचार व्यक्त करते हुए आयोग के एक पूर्व सदस्य अभिजीत सैन ने कहा कि मोदी ने आयोग के भविष्य पर संदेह का पर्दा तो उठा दिया पर अभी भी यह साफ नहीं है कि नई संस्था का ढांचा क्या होगा? इनता तय है कि पहले वाला योजना आयोग अब नहीं होगा। उद्योग संगठन सीआईआई ने भी इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि हमें नए विकास और कार्यान्वयन संस्थान के बारे में विचारों की पेशकश के संबंध में सरकार से मिलकर काम करने में खुशी होगी।

-अनिल नरेन्द्र

फिर खतरनाक चौराहे पर खड़ा पाकिस्तान

पाकिस्तान की अंदरुनी सियासत एक बार फिर खतरनाक मोड़ पर आ गई है। वैसे तो पाकिस्तान के अंदर क्या हो रहा है यह उसका अपना मामला है और किसी को टीका-टिप्पणी, हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है पर हम इसलिए चिंतित जरूर हैं कि वह भारत का पड़ोसी है और वहां की सियासत का हमारे ऊपर सीधा प्रभाव पड़ता है। हम ही नहीं शेष दुनिया भी चाहती है कि पाक में एक मजबूत स्थायी और लोकतांत्रिक सरकार हो। आज उसे ही चुनौती मिल रही है, इसलिए मामला चिंता का हो रहा है। नवाज शरीफ की सरकार के विरोध में दो रैलियों के नेताओं ने शनिवार को संकल्प लिया है कि वह तब तक पीछे नहीं हटेंगे जब तक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ इस्तीफा नहीं देंगे। विरोध प्रदर्शनों की अगुवाई कर रहे विपक्षी नेता इमरान खान की गाड़ी पर शुक्रवार को गोलियां चलाई गईं लेकिन वह बाल-बाल बच गए। इमरान का आरोप है कि हमला नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएनएन के लोगों ने किया। घटना गुजरांवाला जिले में हुई जब इमरान अपने काफिले के साथ इस्लामाबाद जा रहे थे। हमले के बाद वह बुलैट प्रूफ गाड़ी में बैठ गए। पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में इमरान खान के और कनाडा निवासी धार्मिक नेता ताहिर उल कादरी के हजारों समर्थक इकट्ठे हो गए हैं और नवाज का इस्तीफा मांग रहे हैं। क्रिकेटर से नेता बने इमरान की पार्टी तहरीक--इंसाफ के हजारों समर्थक व धार्मिक नेता ताहिर उल कादरी के नेतृत्व में विपक्षी समूह पिछले साल के आम चुनावों में हेराफेरी किए जाने का आरोप लगाते हुए शरीफ पर दोबारा चुनाव कराने का दबाव बनाने के लिए राजधानी इस्लामाबाद में प्रदर्शन कर रहे हैं। विपक्षी पाकिस्तान तहरीक--इंसाफ पार्टी की अध्यक्षता करने वाले इमरान खान ने कहा कि किसी भी स्थिति में हम यह (पिछला) चुनाव स्वीकार नहीं करेंगे। मैं यहां बैठ रहा हूं, नवाज के पास एक विकल्प है। इस्तीफा दे दें और दोबारा चुनाव के आदेश दें। प्रदर्शनकारी लाहौर से 35 घंटे से ज्यादा समय में 300 किलोमीटर से ज्यादा का सफर तय कर इस्लामाबाद पहुंचे हैं। कादरी के क्रांति मार्च के हजारों समर्थक भी इस्लामाबाद में एक अलग आयोजन स्थल पर पहुंच गए हैं। कादरी ने मीडिया को बताया कि सब कुछ शांतिपूर्ण ढंग से हो रहा है। सरकार को इस्तीफा देना है, विधानसभाएं भंग की जानी हैं और नई व्यवस्था को उनकी जगह लेनी है। पाकिस्तान की सियासत में यह अस्थिरता ऐसे समय में पैदा हुई है जब पाकिस्तान आतंकियों के खिलाफ युद्ध लड़ रहा है, खासतौर पर अफगानिस्तान के साथ लगने वाली सीमा पर स्थित अशांत कबीलाई इलाकों में। पाकिस्तान के उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को असैन्य सरकार को हटाने के किसी भी असंवैधानिक कदम के खिलाफ आदेश जारी किया था क्योंकि विरोध प्रदर्शनों के परिणामस्वरूप सरकार को सत्ता से हटाए जाने का खतरा है और इससे देश में सैन्य हस्तक्षेप का डर बना हुआ है। उधर नवाज शरीफ की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। पाक की एक अदालत ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ, उनके भाई एवं पंजाब के मुख्यमंत्री शाहवाज शरीफ और 19 अन्य लोगों के खिलाफ हत्या का आरोप दर्ज करने का आदेश दिया है। पाकिस्तान में बढ़ती सियासी अस्थिरता दुर्भाग्यपूर्ण है और पाकिस्तान खतरनाक मोड़ पर फिर खड़ा है।