चुनावी
तालमेल के नाम पर भारत की सियासत में पिछले कुछ दिनों से कई तरह के बेशर्म किस्म के
खेल शुरू हुए हैं। सत्ता की खातिर चुनावी गठबंधन के नाम पर कुछ सियासी लीडरों ने खुले
तौर पर तोल-मोल की सियासत करने में कोई कसर
नहीं छोड़ी और इस तरह की सियासत करने में उन्हें कोई हिचक भी महसूस नहीं होती। कुछ
ऐसा ही नजारा पिछले दिनों हमने बिहार में देखा जब भाजपा के बढ़ते कदमों को रोकने के
लिए दो पूर्व मुख्यमंत्रियों ने हाथ मिला लिए जबकि दो-ढाई दशक
से लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एक-दूसरे को कोसते रहे। नीतीश
तो लालू के जंगलराज और भ्रष्टाचार के खिलाफ मैदान में आए थे पर राजनीति में न तो कोई
स्थायी दोस्त होता है न स्थायी दुश्मन। स्थायी है तो निजी स्वार्थ और सत्ता तक पहुंचने
की कोशिश। अगर लालू और नीतीश मोदी के खिलाफ हाथ मिला सकते हैं तो उत्तर प्रदेश में
मुलायम और मायावती क्यों नहीं हाथ मिला सकते? राजद प्रमुख लालू
प्रसाद यादव ने यूपी में मुलायम सिंह और मायावती को भी समय की जरूरत को देखते हुए एक
साथ आने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को रोकने
के लिए महागठबंधन की जरूरत है। लालू यादव की सलाह पर सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव
ने तो मायावती से हाथ मिलाने के लिए तैयार होने के संकेत दे दिए पर बसपा सुप्रीमो मायावती
ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया। 1995 के लखनऊ गेस्ट
हाउस कांड को याद करते हुए बहन जी लालू पर भी बरसीं। उन्होंने कहा कि वैसी घटना लालू
की बहन-बेटी के साथ हुई होती तो वह इस गठबंधन की बात कभी नहीं
करते। मुलायम ने इससे पहले कहा था कि अगर लालू खुद मायावती का हाथ पकड़ कर लाएं तो
वह उनसे हाथ मिला लेंगे। मायावती ने आरोप लगाया कि जब भी सपा सत्ता में आई है,
अपराध, सांप्रदायिक हिंसा और बलात्कार की घटनाएं
बढ़ी हैं। यूपी की जनता पर भरोसा जताते हुए मायावती ने कहा कि बसपा बिना किसी मदद के
सत्ता में लौटेगी। सवाल यहां यह उठता है कि सियासत के शातिर खिलाड़ी मुलायम सिंह ने
पत्ता क्यों चला? न संकेत, न संभावना और
न ही वक्ती सियासत की जरूरत? फिर भी मुलायम ने बसपा से दोस्ती
का दरवाजा खुला रखने जैसा बयान देकर आलोचनाओं को न्यौता दिया है तो इसके सियासी निहितार्थ
तलाशे जाने लगे हैं। माना जा रहा है कि मुलायम सिंह की कोशिश अल्पसंख्यकों के बीच यह
संदेश देने की है कि उत्तर प्रदेश में उनसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष कोई नहीं है और भाजपा
को रोकने के लिए वह किसी हद तक जा सकते हैं। इसीलिए मायावती ने इसका तीखा प्रतिरोध
कर इस इम्पैक्ट को कम करने की कोशिश भी की। बिहार और उत्तर प्रदेश की सियासत में लालू
और मुलायम लगभग एक जैसी राजनीति करते आए हैं। दोनों की धुरी एमवाई (मुस्लिम और यादव) समीकरण ही रहे हैं। विधानसभा चुनाव
में यह फैक्टर अपना असर दिखा सकता है, इसलिए मुलायम अल्पसंख्यकों
पर अपनी पकड़ नहीं छोड़ना चाहते। यही वजह है कि भाजपा के आधार से बेचैन बिहार के छत्रप
लालू यादव ने नीतीश से हाथ मिला बसपा-सपा गठजोड़ का आह्वान किया
तो राजनीति के सुजान मुलायम ने इसे लपक लिया।
-अनिल नरेन्द्र
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