Saturday 23 August 2014

लोकसभा में नेता विपक्ष मुद्दे पर कांग्रेस की किरकिरी

आखिरकार लोकसभा अध्यक्ष ने कांग्रेस की यह मांग ठुकरा दी कि लोकसभा में उसके नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रतिपक्ष के नेता की मान्यता दी जाए। 16वीं लोकसभा में नेता विपक्ष की कुर्सी खाली ही रहेगी। स्पीकर सुमित्रा महाजन ने कांग्रेस की तमाम दलीलें, तर्प, दावों को नकारते हुए इस फैसले से कांग्रेस नेतृत्व को अवगत करा दिया है। सुमित्रा महाजन ने कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं दिए जाने के अपने निर्णय के बारे में कहाöमैंने नियमों और परंपराओं का अध्ययन किया है। यह निर्णय करने से पहले स्पीकर ने अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी के विचार भी लिए जिन्होंने कहा कि कांग्रेस के पास सदन में वह आवश्यक संख्या नहीं है जिससे उसे नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दिया जा सके। जाहिर है कि यह स्थिति देश की उस सबसे पुरानी पार्टी के लिए खासी अपमानजनक है जो ज्यादातर समय तक केंद्रीय सत्ता पर काबिज रही है। लेकिन इसके लिए यदि सबसे जिम्मेदार कोई है तो वह स्वयं कांग्रेस है। बेहतर यही होता कि लोकसभा चुनाव में करारी हार और 10 फीसद सीटें तक पाने में नाकाम रही कांग्रेस इस पद के लिए अपना दावा ही प्रस्तुत नहीं करती। स्पीकर का निर्णय परिपाटी के अनुरूप तो है पर हमारी संसदीय प्रणाली की मजबूती के लिए शायद ठीक नहीं है। लोकसभा में विपक्ष के नेता पद का मुद्दा बजट सत्र की शुरुआत से ही कांग्रेस और सत्तापक्ष के बीच तनातनी का विषय बना रहा है। लिहाजा स्पीकर ने इस मामले में निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले संबंधित और कानूनी जानकारों से सलाह-मशविरा किया है। खबर है कि लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर कांग्रेस की मांग को नामंजूर करने के पीछे दो खास कारण बताए हैं। एक यह कि कांग्रेस लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की जरूरी शर्त पूरी नहीं करती। उन्होंने परिपाटी का हवाला देते हुए बताया है कि इस पद के लिए लोकसभा में संबंधित पार्टी के पास कम से कम 10 फीसदी सीटें होना जरूरी है। पांच सौ तैंतालीस सदस्यीय लोकसभा में कांग्रेस के 44 सदस्य हैं। यह आंकड़ा लोकसभा की कुल संख्या के 10 प्रतिशत से कम है। स्पीकर ने दूसरे कारण के तौर पर महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी की राय का उल्लेख किया है। जाहिर है कि महाधिवक्ता ने भी परिपाटी को ही अपने सुझाव का आधार बनाया है। लेकिन 1977 में बने नेता प्रतिपक्ष के वेतन, भत्तों और अन्य सुविधाओं से संबंधित कानून ने इस चलन को ढीला करने की गुंजाइश पैदा की। इस कानून में लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को नेता प्रतिपक्ष मानने की बात कही गई है, इसमें न्यूनतम 10 फीसद सीटों का कोई प्रावधान नहीं है। विडंबना यह है कि आज कांग्रेस अपने पक्ष में इस कानून की दुहाई दे रही है पर उसने खुद इसका पालन नहीं किया। राजीव गांधी को चार सौ पंद्रह सीटों के साथ पूर्ण बहुमत मिला था, तब भी विपक्ष की कोई पार्टी 10 फीसद सीटों तक नहीं पहुंच पाई थी। उस समय लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी तेलुगूदेशम थी और इसी आधार पर वह सदन में अपने नेता पी. उपेन्द्र को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देने का आग्रह करती रही। लेकिन उसकी मांग अनसुनी कर दी गई, तब भी लोकसभा अध्यक्ष और सत्तारूढ़ पार्टी का रुख समान था। तब उस कानून को क्यों नजरंदाज कर दिया गया जो पहले बन चुका था? यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि 10 फीसदी की अहर्ता के कारण ही पहले आम चुनाव के तकरीबन 17 साल बाद तक नेता विपक्ष की कुर्सी रिक्त रही। यह भी तथ्य है कि 1977 में निर्मित जिस कानून के आधार पर कांग्रेस अपनी दावेदारी पेश करती रही, खुद उसके शासनकाल में 1980 और 1984 में गठित लोकसभाओं में सबसे बड़े दल को नेता विपक्ष पद से महरूम रखा गया। कहा जा सकता है कि इस मामले में कांग्रेस ने वही फसल काटी है जो उसने खुद बोई थी। अब किसी किस्म की आलोचना के बजाय उसे स्पीकर के फैसले का पूरा आदर करते हुए इस कड़वे राजनीतिक यथार्थ को स्वीकार करना चाहिए। बहरहाल प्रश्न यह भी है कि नेता विपक्ष की गैर मौजूदगी में मुख्य सूचना आयुक्त, केंद्रीय सतर्पता आयुक्त और लोकपाल के चयन प्रक्रिया में मुश्किल आ सकती है।

-अनिल नरेन्द्र

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