Tuesday 31 May 2016

दीदी की दूसरी पारी चुनौतियों से भरी है

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज कर गवर्नर हाउस के बजाय रेड रोड में भव्य तरीके से शपथ ग्रहण समारोह आयोजित कर ममता बनर्जी ने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद संभाल लिया है। अपने समर्थकों में प्यार से कहलाने वाली 61 वर्षीय दीदी ने साबित कर दिया है कि सड़कों पर आंदोलन करने के साथ उन्हें रणनीति बनाने में भी महारथ हासिल है। यही वजह है कि ममता ने अपने खिलाफ धुआंधार अभियान के बावजूद वाम-कांग्रेस गठबंधन तथा भाजपा की चुनौतियों को सफलतापूर्वक दरकिनार कर दिया। बहरहाल, अपने दूसरे कार्यकाल में राज्य की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना, निवेश के अनुकूल माहौल बनाना और औद्योगिक विकास को गति देने जैसी चुनौतियों से जरूर उन्हें जूझना पड़ेगा। राज्य पर भारी भरकम कर्ज भी है। दूसरी ओर पहली बार से बड़ी जीत के महत्व को रेखांकित किया, वहीं इस शपथ ग्रहण समारोह के अवसर पर ज्यादातर भाजपा-विरोधी पार्टी नेताओं में एक नए गठजोड़ की सुगबुगाहट भी तेज हो गई। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले तृणमूल कांग्रेस ने ही सबसे पहले फेडरल पंट गठित करने की पहल की थी, लेकिन यह  सपना साकार नहीं हो सका है। वहीं ममता के शपथ ग्रहण में भाग लेने पहुंचे राजद पमुख लालू पसाद यादव, नेशनल कांपेंस के पमुख फारुख अब्दुल्ला व दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने फेडरल पंट की चर्चा छोड़कर नए राजनीतिक समीकरण के जन्म लेने के संकेत दे दिए हैं। बेशक दूसरी पारी में उद्योग धंधे और रोजगार के मोर्चे पर कुछ सार्थक करने के लिए दीदी को केंद्र से सहयोग की जरूरत पड़ेगी। पदेश भाजपा के बहिष्कार के बावजूद शपथ ग्रहण समारोह में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली की उपस्थिति बताती है कि दोनों ही सहयोग करने के पक्ष में हैं। अपनी दूसरी पारी में तमाम विपक्ष को चित्त कर चुकीं दीदी ने दो सौ से ज्यादा जीते हुए विधायकों में से 41 का बतौर मंत्री चयन करते हुए उन्होंने अनुभव, क्षेत्र और समुदाय सबका ध्यान रखा। मंत्रिमंडल में माकपा से आए तेज तर्रार अब्दुल रज्जाक मोल्ला भी हैं और बंगाल के पूर्व किकेटर लक्ष्मी रत्न शुक्ला भी। नारद स्टिंग में फंसे दो मंत्रियों को दीदी ने दोबारा मंत्री तो बनाया ही, उसमें फंसे दो विधायकों को भी मंत्रिपरिषद देकर उन्होंने जता दिया कि वह नैतिकता की परवाह नहीं करतीं। चूंकि पिछली सरकार में कई मंत्रियों के भ्रष्टाचार के मामले सामने आए थे, ऐसे में भ्रष्टाचार के मामले में दीदी का यह रुख आश्वस्त नहीं करता। पश्चिम बंगाल को आर्थिक विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए उन्हें बहुत मेहनत करने की जरूरत है। क्या उम्मीद करें कि अपनी दूसरी पारी में ममता बनर्जी इस दिशा में जरूरी गंभीरता का परिचय देंगी। शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस या वाम मोर्चा का कोई भी शीर्ष नेता मौजूद नहीं था। दीदी को बधाई।

 -अनिल नरेन्द्र

दिल्ली पुलिस की सकियता से दूसरा निर्भया कांड बनने से बचा

आए दिन दिल्ली पुलिस की आलोचना होती रहती है पर जब वह अच्छा काम करते हैं तो उसकी तारीफ करने में इतनी कंजूसी क्यों? दिल्ली पुलिस कितनी कठिन परिस्थितियों में काम करती है इसकी भी तो बात होनी चाहिए। हाल ही में पुलिस की सकियता से दूसरा निर्भया कांड होते-होते बचा। मामला उत्तरी दिल्ली के सिविल लाइन इलाके का है। यहां सफेद रंग की सैंट्रों कार में सवार तीन युवकों ने एक युवती और उसके दोस्त को अपनी कार में लिफ्ट दी। रास्ते में युवक को कार से बाहर फेंक तीनों युवक युवती को लेकर फरार हो गए। युवक की सूचना पर पीसीआर वैन में सवार दो पुलिस कर्मियों ने करीब 6 किलोमीटर तक सैंट्रों कार का पीछा करने के बाद युवती को तीनों युवकों के चंगुल से मुक्त करा लिया। तीनों आरोपियों को सिविल लाइन थाना पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। आरोपियों की पहचान शिव विहार निवासी शिव कुमार(32), नेहरू विहार निवासी सौरभ कुमार (35) और जौहरी पुर निवासी सचिन (34) के रूप में हुई है। तीनों आरोपियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 365/366 और 392 के तहत अपहरण और लूटपाट का मुकदमा दर्ज किया गया है। पुलिस के अनुसार शुकवार देर शाम युवती अपने दोस्त के साथ बुराड़ी चौक पर ऑटो का इंतजार कर रही थी। तभी सफेद रंग की सैंट्रों पर सवार तीन युवक वहां पहुंचे। तीनों ने युवक एवं युवती को बस स्टैंड तक छोड़ने की बात कह अपनी कार में लिफ्ट दी। कार में बैठते ही युवक को कार में शराब की बोतल नजर आई। जिसके बाद उसने तीनों आरोपियों से कार रोकने की बात कही और उन्हें उतारने का अनुरोध किया। तीनों युवकों ने युवक से उसका मोबाइल छीनने के बाद उसे चंदगी राम अखाड़े के पास कार से बाहर फेंक दिया और युवती को लेकर फरार हो गए। इसी दौरान चौक से गुजर रही एक पीसीआर वैन में मौजूद एएसआई महेन्द्र सिंह और हेड कांस्टेबल जगदीश को युवक ने अपनी आपबीती बताई। दोनों पुलिस कर्मियों ने बिना किसी देरी किए युवक को अपने साथ लिया और कार का करीब 6 किलोमीटर तक पीछा करने के बाद कश्मीरी गेट फ्लाईओवर के शाहदरा की ओर जाने वाले लूप पर पीसीआर वैन कार को रोकने में कामयाब रही। पुलिस से बचने के लिए आरोपियों ने कार से पीसीआर वैन में टक्कर भी मारी। तमाम कोशिशों के बावजूद तीनों आरोपी खुद को पुलिस की गिरफ्त से नहीं बचा सके। आरोपियों की गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने कार से शराब की बोतलें और खाने के अन्य सामान बरामद किए। जांच में पता चला कि तीनों ने करीब डेढ़ बोतल विहस्की का सेवन किया था। शराब का सेवन करने के बाद एक आरोपी ने ड्रग्स का इंजेक्शन भी लिया था। शाबाश एएसआई महेन्द्र सिंह और हेड कांस्टेबल जगदीश। तमाम दिल्ली पुलिस को बधाई।

Sunday 29 May 2016

पश्चिम बंगाल में खिसकता वामदलों का जनाधार

लाल गढ़ कहे जाने वाले पश्चिम बंगाल में हालिया विधानसभा में माकपा नीत वाम मोर्चे की बुरी हार के बाद माकपा के एक पोलित ब्यूरो सदस्य ने स्वीकार किया है कि कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन पार्टी के खिलाफ गया और अगर वह अपने वोट बैंक में टूट-फूट रोकने में विफल रही तो उसके सियासी वजूद पर गंभीर सवाल खड़े हो जाएंगे। पश्चिम बंगाल में सत्ता में तृणमूल कांग्रेस को डिगाने के लिए वाम मोर्चे ने अपनी विचारधारा को एक किनारे करते हुए सियासी दुश्मन मानी जाने वाली कांग्रेस से हाथ मिलाया, लेकिन इस पर भी उसे चुनाव में सबसे ज्यादा खोना पड़ा। उसको 2011 की 62 सीटों में से खिसककर इस बार महज 32 सीटें ही मिल सकीं। माकपा पोलित ब्यूरो सदस्य व पूर्व सांसद हन्नान मुल्ला ने कहा, अगर हम अपने वोट बैंक और जनाधार में और क्षरण को नहीं रोक पाए तो हम बंगाल में माकपा और वामपंथ के वजूद पर गंभीर सवाल का सामना करेंगे। हम न सिर्फ लोगों का मिजाज और नब्ज पहचानने में नाकाम रहे बल्कि पिछले पांच साल में अपनी खोई ताकत वापस पाने में भी असफल रहे हैं। मुल्ला ने कहा कि लोगों ने कांग्रेस के साथ वामपंथ का गठबंधन स्वीकार नहीं किया। हम इससे इंकार नहीं कर सकते कि लोगों ने बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और औद्योगिकीकरण के मुद्दों के बावजूद बड़ी संख्या में ममता बनर्जी और तृणमूल को वोट दिया। इसके मुकाबले 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद कुछ हद तक अपना पभाव खो चुकी भाजपा ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में बेहतर पदर्शन किया है। इस बार उसने 70 से अधिक सीटों पर विपक्षी वाम मोर्चा और कांग्रेस के गठबंधन का खेल बिगाड़ने का काम किया है। प. बंगाल में भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनावों में 17.5 फीसदी वोट की तुलना में विधानसभा चुनावों में 10.2 फीसदी मत मिले लेकिन पहली बार पार्टी ने इस राज्य में अपने दमखम पर चुनाव लड़कर तीन सीटें हासिल की हैं। इससे पहले भाजपा 2011 में उपचुनावों में दो बार जीत चुकी है और उसका मत फीसद 4.06 रहा था। प. बंगाल में ऐसा लगता है कि वाम नेतृत्व अपना जनाधार बहाल कर पाने में नाकाम रहा है। वृंदा करात ने बताया कि पार्टी नेतृत्व माकपा के खराब पदर्शन और बंगाल इकाई की चुनावी दशा का विश्लेषण करेगा जिससे सही स्थिति का पता चल सके और पार्टी जनाधार बहाल करने की रणनीति बनाई जा सके। माकपा की प. बंगाल राज्य समिति के एक वरिष्ठ सदस्य ने कहा कि परिणाम इंगित करते हैं कि नेतृत्व परिवर्तन से लेकर विभिन्न स्तरों पर जो नए चेहरे लाने के कदम उठाए वह आमजन तक पहुंचने में हमें मदद देने में नाकाम रहे।

-अनिल नरेन्द्र

पत्रकार राजदेव रंजन हत्याकांड के पीछे कौन और क्यों?

बुधवार को बिहार पुलिस ने बहुचर्चित दैनिक हिंदुस्तान के पत्रकार राजदेव रंजन हत्याकांड के पर्दाफाश का दावा किया है। ज्ञात रहे कि 13 मई को शाम 7.30 बजे अपराधियों ने सीवान में हिंदुस्तान के वरिष्ठ पत्रकार राजदेव रंजन को टाउन थाना क्षेत्र के अंतर्गत ओवर ब्रिज के पास गोली मार दी थी। राजदेव रंजन को मार डालने वाले पांच शूटरों को गिरफ्तार कर लिया गया है। पुलिस को अब लड्डन मियां की तलाश है। पुलिस का मानना है कि राजद के पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के करीबी माने जाने वाले लड्डन से हत्या कांड के राज खुल सकते हैं। पुलिस अभी लड्डन को गिरफ्तार नहीं कर पाई है। शूटर समेत पांच लोगों की गिरफ्तारी के बावजूद हत्या के पीछे के कारणों का खुलासा नहीं हो सका है। एडीजी सुनील कुमार ने भी माना कि लड्डन जांच में अहम साबित हो सकता है। घटना के तुरंत बाद पुलिस ने उसके सीवान स्थित घर पर दबिश डाली थी, लेकिन वह बीबी-बच्चों को लेकर फरार हो गया। पांच अपराधियों की गिरफ्तारी के बाद यह भी खुलासा हुआ है कि रोहित को हत्या के लिए सुपारी मिली थी। यह सुपारी लड्डन मियां ने दी थी। हत्या के तार सीवान जेल से जुड़े हैं या नहीं फिलहाल पुलिस इसको लेकर कुछ भी स्पष्ट करने की स्थिति में नहीं है। इस संबंध में एडीजी ने कहा कि रोहित ने साजिश के बिंदु पर अभी तक कुछ नहीं कहा है। इनके पास से पुलिस ने एक कट्टा, दो कारतूस और हत्याकांड में इस्तेमाल की गई तीन मोटरसाइकिल बरामद की है। गिरफ्तार शूटर रोहित कुमार, विजय कुमार, राजेश कुमार, ईशु कुमार और सोनू कुमार गुप्ता शामिल हैं। इन सभी की उम्र 24 से 26 साल के बीच है। रोहित ने राजदेव रंजन पर गोलियां चलाने की बात स्वीकार कर ली है। उसने उन रास्तों की सूचना भी दी जहां से इन सभी पांच शूटरों ने राजदेव का पीछा किया था। उसने सिवान के आंदर ढाला स्थित कलमंडी के उस स्थल की भी शिनाख्त कराई जहां राजदेव को गोली मारी गई थी। एडीजी ने कहा कि जिन तीन मोटरसाइकिलों को बरामद किया है उनमें से एक पर खून के निशान भी मिले हैं। वहीं पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या की सुपारी देने वाले लड्डन मियां का पुराना आपराधिक इतिहास रहा है। पत्रकार को मारने वाले पांच शूटर गिरफ्तार हुए तो पूरी कहानी सुना दी। कैसे पीछा किया, कहां मारा, किसने मारा और फिर क्या हुआ। हालांकि किसी ने यह नहीं बताया कि पत्रकार के क्यों मारा गया? पांच युवक तीन बाइक पर राजदेव रंजन के पीछे लगे थे। अखबार के कार्यालय से निकलने के साथ ही उन्होंने राजदेव का पीछा शुरू कर दिया था। राजदेव रंजन की पत्नी आशा देवी ने कहा कि दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए और कारणों का खुलासा करने की मांग भी की। नीतिश कुमार ने कहा कि हमने शुरू से कहा है कि लोगों को भरोसा रखना चाहिए। पुलिस इस मामले की तह तक पहुंच रही है। जो भी दोषी पाया जाएगा उस पर कार्रवाई होगी।

Saturday 28 May 2016

Two years of Modi Government: results some sour and some sweet

Two year tenure of the NDA government led by the Prime Minister Narendra Modi is very much under review thesedays. Modi Government was sworn in on 26th May 2014. It has to be admitted that public opinion about Modi Government has emerged that undoubtedly the government’s record may not be much positive in case of fulfilling some of the election promises yet in general it has got achieved a  pro-active image in the eyes of the public. Some media houses are bent on criticizing it while others are going all out praising it.  All the ministers are propagating their achievements overtime during the last two years but it has to be said surely this government has introduced many development schemes which will yield results also, but this will take some time. It will take many years for positive results. One the other hand we do not hesitate to say the preceding governments have spoilt the taste of the public. Public now wants instant results without hard working and waiting. Most of the public is concerned about it’s Roti-Rozi. It wants to get rid of inflation, needs security, needs employment (that too instant) and it is unhappy with Modi Government on these accounts. It wants welfare schemes from this government. We watched in the recently concluded TamilNadu Assembly elections that how Jayalalitha centred herself to only these public welfare schemes. Amma brand flour, Amma canteen, Amma saree, Amma clinic,Amma Saris etc. were such schemes which fulfill the daily needs of the public. She got its benefit too. Since Narendra Modi was  sworn in, some sections of the country including political opponents, minorities, a group of reporters and media, some intellectuals have literally waged a war against this government. Due to this one sect of the public, especially the minority one has developed a feeling of insecurity. The country has been divided to some extent. The government will have to put some solid efforts to minimize the feeling of insecurity, to bridge this gap, to keep the nation united. People are disappointed but not angry with the two years of Modi Government and most of them say that two years are not enough; we will have to wait for results. We do not hesitate to say that people have high  expectations and at the moment they are feeling somewhat let down. Good days promised have not come yet though the  efforts are going on. States have an important role in the performance of the Central Government at the ground level as most of the schemes are implemented by the states. Modi Government needs to have better co-ordination to maintain its repo with the states. Leaving one or two terrorist attacks the nation was peaceful in general. Inabilities counted by the media and other institutions need not be ignored and need to be taken seriously. For example, the Assocham has warned the government to be careful, as the huge amount of the loans blocked  in the tax disputes and banking system may be much troublesome. Keeping in view the business recession, much is needed in this issue. Both the Government and the RBI need to be alert in this regard. Besides it , the government has to do much more regarding  the disposal of tax disputes, agricultural reforms, disinvestment and important GST bill. At present the performance of the NDA government is like: work in progress : till the results of the solid efforts in railways and highways are not visible. On the international level, none can deny it that Narendra Modi has surged the prestige of Indians in the world, Indians throughout the world are seen more respectfully and are now being honoured and India is emerging as an emerging power. English Newspaper Economic Times and Big data firm Mavne Magnet had an online survey for public opinion on the two years’ performance of the Modi Government. The result was brought out on the basis of conversation with people on social media, blogs and topics on news sites. This study is based on more than 15000 conversations over internet during 1st June 2015 to 20th April 2016. As per study 48 per cent people had positive attitude on the first anniversary of the Modi Government. But this got 8 per cent negative this year. As per study, on the conversation about the government 46 per cent people were positive, while 54 per cent were not. Attraction towards Modi Government of 48 per cent in the first year has decreased by 8 per cent in the second year. We expect from Modi Government that it will be aware of this. The upcoming one or two year will be either make or break moment. During this it will not only require full speed to fulfill the promises but will have to put efforts to show them on ground also. The next year will decide the fate of the Modi Government. There are 5 such issues, points that are important for the government. During these two years voices were being raised somewhere that the government didn’t take the bold steps in the economic front as expected. As such the government will have to take huge steps fronts like labour, bank, land reforms including GST next year. Economic development has not speeded even after two years. Exports are down. Rural economy is in poor state and new projects are not coming forward. However the government succeeded to some extent to give a message amidst such negativity and global crisis (economic) that the steps taken by it will show its results soon. As such how far the government is true on these claims will decide the fate of the government. Modi Government has come to the power after the scandals of the UPA government. It has succeeded to curb the corruption after assuming the power. But now it will not work with mere allegations, the honeymoon period is over. If these scandals are not met with solid actions, its intention may be in question. In all we can say that the results of the two year tenure are some what sweet and sour.

Anil Narendra

मोदी सरकार के दो वर्ष ः कुछ खट्टे, कुछ मीठे परिणाम

पधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के दो साल पूरे होने पर इन दिनों खूब समीक्षा हो रही है। मोदी सरकार ने 26 मई 2014 को शपथ ली थी। यह स्वीकार करना होगा कि मोदी सरकार के बारे में आम राय यही उभरी है कि बेशक कुछ चुनावी वादे पूरे करने में भले ही इस सरकार का रिकार्ड बहुत सकारात्मक न रहा हो पर आमतौर पर जनता की नजरों में इसकी पो-एक्टिव छवि बनी है। कुछ मीडिया हाउस इस सरकार की बखियां उधेड़ रहे हैं तो कुछ गुणगान करने में लगे हैं। मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर सभी मंत्री अपनी-अपनी उपलब्धियां गिना रहे हैं लेकिन यह भी कहना होगा कि बेशक इस सरकार ने बहुत-सी विकासकारी योजनाएं चालू की हैं और इनका परिणाम भी आएगा पर इन योजनाओं के परिणाम आने में वक्त लगता है। कई साल लगेंगे सकारात्मक परिणाम आने में। दूसरी ओर हमें यह कहने में भी संकोच नहीं कि पूर्ववर्ती सरकार ने जनता की आदतें खराब कर दी हैं। जनता अब बिना मेहनत किए, पतीक्षा किए तुरंत रिजल्ट चाहती है। अधिकतर जनता को रोजी-रोटी से मतलब है। वह महंगाई से निजात पाना चाहती है, सुरक्षा चाहती है, रोजगार चाहिए (वह भी तुरंत) और इन क्षेत्रों में वह मोदी सरकार से नाखुश है। वह इस सरकार से ज्यादा कल्याणकारी स्कीमें चाहती है। हाल में संपन्न हुए तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में हमने देखा कि किस तरह जयललिता ने केवल ऐसी कल्याणकारी योजनाओं पर अपना सारा ध्यान केंद्रित किया। अम्मा ब्रांड आटा, अम्मा पैंटीन, अम्मा साड़ी, अम्मा क्लीनिक इत्यादि इत्यादी ऐसी योजनाएं थीं जिससे जनता की रोजमर्रा की जरूरतें पूरी होती हैं। इसी का लाभ भी उन्हें मिला। जब से नरेन्द्र मोदी ने पदभार संभाला है तभी से देश के कुछ वर्ग जिनमें राजनीतिक विरोधी भी हैं, अल्प संख्यकों का एक वर्ग, पत्रकार और मीडिया से जुड़ा एक वर्ग, कुछ बुद्धिजीवी इस सरकार के खिलाफ हैं। इनकी वजह से जनता के एक वर्ग में खासकर अल्पसंख्यक वर्ग में असुरक्षा की भावना बढ़ी है। देश कुछ हद तक विभाजित हुआ है। इस सरकार को  असुरक्षा की भावना को कम करने, इस खाई को पाटने के लिए, देश को एकजुट करने के लिए और ठोस पयास करने होंगे। मोदी सरकार के दो साल से लोगों में निराशा तो है लेकिन गुस्सा नहीं है और अधिकतर कहते हैं कि दो साल का वक्त बहुत कम होता है, हमें नतीजे आने की पतीक्षा करनी होगी। हमें यह कहने में संकोच नहीं कि जनता की उम्मीदें जरूरत से ज्यादा बढ़ गई थीं। अच्छे दिनों का जो वादा किया गया था वह अभी तक आए तो नहीं लेकिन उन्हें लाने की कोशिश जरूर हो रही है। उसे जमीन पर उतरने में वक्त लगेगा। किसी भी केंद्र सरकार के काम जमीनी स्तर पर दिखने में राज्यों की बड़ी भूमिका होती है क्योंकि ज्यादातर स्कीमें राज्यों को ही लागू करनी होती हैं। मोदी सरकार को राज्यों के साथ अपना रैपो कायम करने के लिए बेहतर तालमेल बिठाने की जरूरत है। एक-दो आतंकी हमलों को छोड़ दें तो घरेलू मोर्चे पर मोटे तौर पर देश में शांति रही। मीडिया व अन्य संस्थाओं द्वारा गिनाई जाने वाली नाकामियों को सिरे से खारिज करना सही नहीं है और इन पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। उदाहरण के तौर पर उद्योग मंडल एसोचैम ने सरकार को आगाह किया है कि वह संभल जाए, क्योंकि टेक्स विवादों और बैंकिंग पणाली में फंसे हुए कर्ज की भारी-भरकम राशि काफी परेशान करने वाली है। कारोबारी मंदी को ध्यान में रखते हुए इस मसले पर बढ़ती चिंताओं पर अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। इस मामले में सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक दोनों को काफी सजगता से काम करने की जरूरत है। इसके अलावा टैक्स विवादों के निस्तारण, कृषि सुधार, विनिवेश और महत्वपूर्ण जीएसटी विधेयक पर सरकार को अभी बहुत काम करने की जरूरत है। यानी फिलहाल राजग सरकार का `कार्य पगति पर है' वाली सरकार तब तक ठीक होगी, जब तक कि रेलवे और राजमार्ग क्षेत्रों में किए गए ठोस कामों के परिणाम सामने नहीं आते। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि नरेन्द्र मोदी ने दुनिया की नजरों में भारतीयों की इज्जत बढ़ाई है उनका अब दुनिया में सम्मान होना शुरू हो गया है और भारत एक उभरती शक्ति बन कर उभरा है। अंगेजी अखबार इकोनामिक टाइम्स और बिग डेटा फर्म मवने मैग्नेट ने एक ऑन लाइन सर्वे कर मोदी सरकार के दो वर्षों के कामकाज के बारे में लोगों की राय ली। इस सर्वे के लिए सोशल मीडिया पर लोगों से बातचीत, ब्लॉग्स और न्यूज साइट्स पर टॉपिक्स को आधार बनाकर रिजल्ट निकाला गया। यह स्टडी एक जून 2015 से लेकर 20 अपैल 2016 तक इंटरनेट पर 15000 से ज्यादा बातचीतों पर आधारित है। इसके मुताबिक मोदी सरकार की पहली एनिवर्सिरी पर 48 पतिशत लोगों का सकारात्मक रुख देखा गया। लेकिन इस साल यह 8 पतिशत नेगेटिव हो गया। स्टडी के मुताबिक सरकार पर हुई बातचीत  में 46 पतिशत लोग सकारात्मक दिखे, वहीं 54 पतिशत नाखुश। लोगों का मोदी सरकार की तरफ खिंचाव पहले साल के +48 पतिशत के मुकाबले दूसरे साल -8 पतिशत तक गिर गया है। मोदी सरकार से हम उम्मीद करते हैं कि उसे इस निराशा का ज्ञान होगा। आगामी एक-दो साल मेक या ब्रेक मोमेंट होगा। इस दौरान न सिर्फ वादों को पूरा करने के लिए फुल स्पीड लानी होगी बल्कि वह जमीन पर fिदखे इसके लिए भी और पयास करने होंगे। अगला एक साल ही 2019 में मोदी सरकार की किस्मत तय करेगा। अगले एक साल में 5 ऐसे मुद्दे हैं, बिंदु हैं जो मोदी सरकार के लिए बहुत अहम हैं। इन दो वर्षों में कहीं न कहीं यह आवाज उठने लगी कि सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर उतने बोल्ड रिफार्म नहीं उठाए, जितनी अपेक्षा थी। ऐसे में अगले साल जीटीएस सहित लेबर, बैंक, लैंड रिफार्म जैसे मोर्चों पर सरकार को बड़े कदम उठाने होंगे। दो साल बाद भी आर्थिक विकास जोर नहीं पकड़ सका है। एक्सपोर्ट गिरा हुआ है। रूरल इकॉनिमी खस्ता हाल में है और नए पोजेक्ट आगे नहीं बढ़ रहे हैं। बहरहाल दो साल पूरा करने तक सरकार ऐसी नेगेटिविटी और वैश्विक संकट (आर्थिक) के बीच यह संदेश देने में कुछ हद तक सफल रही कि उसने जो कदम उठाए उसका असर जल्द दिखने लगेगा। ऐसे में अगले साल में वह इन दावों पर कितना खरा उतरती है उससे सरकार का भविष्य तय होगा। यूपीए सरकार में हुए घोटालों के बाद मोदी सरकार सत्ता में आई है। उसने सत्ता में आने के बाद भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सफलता पाई है। पर अब आरोपों से काम नहीं चलेगा वह हनीमून पीरियड खत्म हो चुका है। अगर ठोस कार्रवाई इन घोटालों पर नहीं हुई तो उसकी मंशा पर सवाल उठेंगे। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि मोदी सरकार के दो वर्ष के कार्यकाल के नतीजे खट्टे-मीठे रहे हैं।

अनिल नरेन्द्र

Friday 27 May 2016

भारतीय बैंकिंग इतिहास का सबसे बड़ा घाटा

सार्वजनिक बैंकों के लिए फंसे हुए कर्ज (एनपीए) भारी मुसीबत की वजह बनते जा रहे हैं। बता दें कि एनपीए (गैर निष्पादित परिसम्पत्तियांöनॉन परफार्मिंग एसेट्स) बैंकों की ऐसी परिसम्पत्तियों को कहते हैं जिस पर कोई रिटर्न (लाभ) नहीं मिल रहा है। चूंकि बैंकों की सम्पत्तियां कर्ज और अग्रिम (एडवांस) होती हैं, इसलिए इनके परफार्म न करने (लाभ न कमाने को) नॉन परफार्मिंग एसेट्स कहते हैं। कहने का मतलब यह है कि बैंकों के कर्जे में फंस चुके होते हैं। कर्जदार इस पर न तो बैंक को कोई ब्याज दे रहा होता है और न ही मूलधन लौटा रहा होता है। पंजाब नेशनल बैंक ने पिछले वित्त वर्ष की आखिरी तिमाही यानि जनवरी-मार्च 2016 में 5,367.14 करोड़ का घाटा दर्ज किया है, जो भारत के इतिहास में किसी बैंक का सबसे बड़ा घाटा है। पंजाब नेशनल बैंक के अलावा आठ सरकारी बैंकों ने इस तिमाही में घाटा दर्ज किया है, जो कुल जमा 14 हजार करोड़ रुपए का है। पंजाब नेशनल बैंक ने पिछले साल की इसी तिमाही में 306 करोड़ रुपए का मुनाफा दिखाया था और बाकी बैंकों की हालत भी इतनी बुरी नहीं दिख रही थी। इसकी वजह यह नहीं है कि एक साल में भारतीय अर्थव्यवस्था में कोई बड़ी गिरावट आई है या बैंकों का कामकाज अचानक बहुत खराब हुआ है। हुआ यह है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने सभी बैंकों को अपना हिसाब-किताब ठीक करने और अपने डूबे हुए कर्जों को साफ-साफ दर्ज करने का आदेश दिया है। इसके बाद बैंकों की माली हालत की असलियत सामने आ रही है। यह भी कहा जा रहा है कि इन बैंकों के हिसाब-किताब की सफाई अभी पूरी नहीं हुई है, इसलिए कम से कम अगले एक साल तक इससे भी ज्यादा चौंकाने वाले नतीजे सामने आ सकते हैं। चिन्ता का विषय यह है कि रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक 31 दिसम्बर 2015 तक 26 सार्वजनिक बैंकों का एनपीए बढ़कर 4,04,667 करोड़ हो चुका है। हालात नहीं सुधारे तो जल्द ही यह आंकड़ा आठ लाख करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है, जो बैंकों की ओर से दिए गए कुल कर्ज का 11.25 प्रतिशत है। बैंकों में आम आदमी का पैसा जमा होता है और उस पर सभी को काफी कम ब्याज मिलता है। लिहाजा कर्ज की उगाही न होने पर कम ब्याज देकर इकट्ठा किया हुआ जनता का पैसा ही डूबता है और हमारे देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान होता है। भ्रष्टाचार, लापरवाही या राजनीतिक दबाव इस स्थिति के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। निजी बैंकों की हालत ऐसी नहीं है, केवल सरकारी बैंक ही इस दलदल में फंसे हैं। समय आ चुका है कि इन बैंकों के कामकाज को पूरी तरह बदलना अतिआवश्यक हो चुका है। अब इस काम को टाला नहीं जा सकता। जिन बैंकों को अर्थव्यवस्था का इंजन बनना था, वे घाटे का नया रिकार्ड बना रहे हैं।

-अनिल नरेन्द्र

पूर्वोत्तर में भी खिला कमल

पूर्वोत्तर के प्रवेश द्वार बने असम में मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल के शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत लगभग समूचे एनडीए ने गुवाहाटी में अपनी ताकत और एकजुटता का प्रदर्शन किया। असम में या यूं कहें पूर्वोत्तर में पहली बार भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में एनडीए की सरकार बनी है। सर्वानंद सोनोवाल के रूप में एक ऐसा मुख्यमंत्री भी मिला है, जो अपेक्षाकृत युवा है और राज्य की जमीनी हकीकत से भी अच्छी तरह वाकिफ है। असम में भाजपा को मिली इस ऐतिहासिक जीत का जहां श्रेय पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति को जाता है वहीं इसका श्रेय मोदी सरकार में मंत्री रह चुके सोनोवाल के लंबे राजनीतिक संघर्ष और उनकी लोकप्रियता को भी दिया जाना चाहिए। इस मौके पर पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई भी मौजूद थे। चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए हेमंत शर्मा को मंत्री बनाया गया है। राज्य के 14वें सीएम के रूप में पदभार संभालने वाले सोनोवाल के शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और एनडीए शासित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ ही सारे प्रमुख केंद्रीय मंत्री और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी दर्शाता है कि भाजपा के लिए असम कितना महत्वपूर्ण राज्य है। खुद पीएम ने जताया कि असम का उनके लिए सिर्प राजनीतिक महत्व नहीं है, बल्कि वह उसे पूर्व के ऐसे दरवाजे के रूप में भी देख रहे हैं, जहां से न सिर्प पूर्वोत्तर के विकास का रास्ता खुलेगा, बल्कि इसके जरिये पूर्वी देशों तक भी सकारात्मक संदेश जाएगा। शपथ ग्रहण समारोह के बाद सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा कि केंद्र एक्ट ईस्ट नीति के तहत पूर्वोत्तर के सभी राज्यों के साथ असम का त्वरित विकास सुनिश्चित करने के लिए भी सहायता उपलब्ध कराएगा। उन्होंने कहाöएक्ट ईस्ट पॉलिसी के तहत असम पूरे पूर्वोत्तर का प्रभावी सर्वांगीण विकास करने के लिए केंद्रबिंदु होगा और यह देश के प्रभावशाली विकसित हिस्से के रूप में उभरेगा। सोनोवाल ने अपने भाषण में कहाöआने वाले दिनों में असम को अवैध विदेशियों एवं भ्रष्टाचार से मुक्त कराना हमारी कटिबद्धता है। हम कटिबद्ध हैं कि हम सफल होंगे। पूर्वोत्तर के राज्यों की भौगोलिक स्थितियां और जनजातीय समूहों की वजह से प्राथमिकताएं अलग रही हैं, लेकिन कटु सत्य यह भी है कि अतीत की सरकारों के प्रयासों के बावजूद आज भी यह हिस्सा विकास की कहानी में कहीं न कहीं उपेक्षित रह जाता है। ऐसे में पूर्वोत्तर के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री होने के नाते सोनोवाल पर पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों के साथ संतुलन बनाने की जिम्मेदारी होगी। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सोनोवाल को विरासत में एक ऐसा राज्य मिला है, जहां विगत डेढ़ दशक से कांग्रेस सत्ता में थी और बेशक यहां अलगाववादी गतिविधियां कम हुई हों मगर घुसपैठ एक बहुत बड़ी समस्या बनी हुई है। खुद सोनोवाल ने कहा कि अगले दो वर्षों में बांग्लादेश की सीमा को पूरी तरह से सील कर दिया जाएगा। भाजपा का असम में सत्ता के आने का मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि अवैध बांग्लादेशियों के मुद्दे पर स्थानीय मुस्लिम वर्ग का भी सोनोवाल को समर्थन मिला है। वह भी इन अवैध बांग्लादेशियों से परेशान हैं। मगर बड़ा सवाल यह भी है कि राज्य में मौजूद प्रवासियों के मामले में सहयोगी बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट की राय भाजपा से मेल नहीं खाती। वैसे असम में संसाधनों की कमी नहीं है और प्रधानमंत्री ने सहकारी संघवाद की बात भी दोहराई है, ऐसे में सोनोवाल के पास पूरा मौका है कि वह असम को अग्रणी राज्यों की लाइन में लाकर खड़ा कर दिखाएं। हम श्री सोनोवाल को असम का मुख्यमंत्री बनने पर बधाई देते हैं।

Thursday 26 May 2016

क्रिकेट, प्यार और फिक्सिंग की कहानी `अजहर'

भाग मिल्खा भाग और मैरीकॉम के बाद कई निर्देशक बायोपिक फिल्मों पर हाथ आजमा रहे हैं। ब्लू और बॉस जैसी मसाला एक्शन फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर टोनी डिसूजा की इंडियन क्रिकेट टीम के कप्तान रहे बहुचर्चित स्टाइलिस्ट बल्लेबाज मोहम्मद अजहरुद्दीन की फिल्म को देखने के लिए मैं उत्सुक था और मैंने देखी भी। उम्मीद तो यह थी कि इस बार हमें एक ईमानदार बायोपिक फिल्म देखने को मिलेगी और पता चलेगा कि अजहर पर मैच फिक्सिंग के आरोपों की सच्चाई क्या है? पर फिल्म देखने के बाद ऐसा लगा कि डायरेक्टर डिसूजा ने मोहम्मद अजहरुद्दीन के उसी पक्ष को ही अपनी फिल्म का हिस्सा बनाया जो अजहर शायद अपने फैंस के साथ शेयर करना चाहते थे। उन्होंने अजहर से जुड़े कई गंभीर पक्षों को फिल्म में शामिल करने की कोशिश नहीं की जो मेरे जैसे दर्शक देखना चाहते थे। शायद यही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी भी है। स्टार्ट से अंत तक फिल्म अजहर के किरदार में नजर आ रहे इमरान हाशमी पर टिकी है और उन्होंने ईमानदारी से यह भूमिका निभाने का प्रयास भी किया है। अजहर का रोल करने के लिए इमरान ने निश्चित रूप से बड़ी मेहनत की होगी, करीब पांच महीने तक क्रिकेट की बारीकियां सीखीं और क्रिकेट ग्राउंड में जमकर पसीना बहाया। इमरान ने अजहर के किरदार को जानने की ईमानदार कोशिश की है और इसमें काफी हद तक सफल भी रहे हैं। पहले प्राची और बाद में नरगिस के साथ उनके बहुचर्चित किस सीन भी फिल्म में मौजूद हैं। एक्ट्रेस संगीता के किरदार में नरगिस फाकरी अजहर की दूसरी बीवी के किरदार में नजर आती है। अजहर के नाना बने कुलभूषण खरबंदा अपनी छाप व पहचान छोड़ने में कामयाब रहे तो वकील बनी लारा दत्ता ने ठीक भूमिका निभाई। अजहर का केस लड़ रहे वकील के किरदार में कुणाल रॉय कपूर की एक्टिंग काबिले तारीफ है। लगातार कामयाबियों की ओर बढ़ रहे अजहर के करियर में टर्न उस वक्त आया जब उसकी खुशहाल जिन्दगी में मैच फिक्सिंग के आरोप के साथ ही एक्ट्रेस संगीता बिजलानी की एंट्री होती है। खूबसूरत बेगम नौरीन (प्राची देसाई) को तलाक देने के बाद अजहर एक्ट्रेस संगीता के साथ दूसरा निकाह कर लेता है। इसी दौरान अजहर का नाम मैच फिक्सिंग के साथ जुड़ता है और इंडियन क्रिकेट टीम से अजहर को बाहर कर दिया जाता है। कल तक अजहर की एक झलक पाने को बेताब उनके फैंस अब उनके पुतले जलाते नजर आते हैं। मैच फिक्सिंग के आरोप के बाद अजहर की लोकप्रियता खत्म हो चुकी है। ऐसे में खुद को बेगुनाह साबित करने और अपनी इमेज को बेदाग साबित करने के लिए अजहर इस आरोप को कोर्ट में चैलेंज करते हैं। बता दें कि वर्ष 2000 में मैच फिक्सिंग की जांच करने वाली सीबीआई टीम के सदस्य 1986 बैच के आईपीएस एमए गणपति ने पुष्टि की है कि दो घंटे से ज्यादा की पूछताछ में अजहर ने आरोप स्वीकार किए थे। जांच रिपोर्ट गृह मंत्रालय को भेज दी गई थी। पूछताछ की रिकार्डिंग भी है। साथ ही गैंगस्टर अबु सलेम से बातचीत का वह टेप भी मौजूद है, जिसमें वह मैच हारने की बात कर रहे हैं। लेकिन उस समय फिक्सिंग को लेकर कानून नहीं होने की वजह से केस आगे नहीं बढ़ा। दक्षिण अफ्रीका के पूर्व कप्तान हैंसी क्रोनिए ने बयान दिया था कि अजहर ने उन्हें फिक्सरों से मिलवाया था। इस मामले में भारत के अजय शर्मा, अजय जडेजा और मनोज प्रभाकर पर भी प्रतिबंध लगा था। 99 टेस्ट खेले अजहर ने 22 शतक, 6215 रन बनाए। उन्होंने 334 वन डे में 9378 रन बनाए, जिसमें सात शतक शामिल थे। सबूतों के अभाव में आठ नवम्बर 2012 को आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने अजहर पर लगे आजीवन प्रतिबंध को हटा दिया था। अदालत ने प्रतिबंध को गैर कानूनी ठहराया था, साथ ही जांच एजेंसी के काम पर भी सवाल उठाए। 2013 में केंद्रीय कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने भारतीय दंड संहिता में फिक्सिंग को लेकर नया कानून बनाने का प्रस्ताव रखा था। अनुराग ठाकुर ने राष्ट्रीय खेल आचार आयोग को लेकर बिल पेश किया, जिसमें 10 साल जेल का प्रस्ताव है। अजहरुद्दीन ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहाöउस समय लोग मेरा पक्ष सुनने को तैयार नहीं थे। अब यह फिल्म देश के सामने मेरा पक्ष रखेगी। मैं उस समय निर्दोष था।
-अनिल नरेन्द्र



कई मायनों में ऐतिहासिक है मोदी की ईरान यात्रा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ईरान दौरा बेहद सफल रहा। भारत और ईरान के बीच हुए 12 समझौते हमारी कूटनीति में एक नया अध्याय जोड़ने वाले हैं। बीते सोमवार को भारत और ईरान ने आतंकवाद, चरमपंथ और साइबर स्पेस से मिलकर निपटने का निर्णय किया। प्रधानमंत्री की ईरान यात्रा के दौरान हुआ चाबहार बंदरगाह को विकसित करने से संबंधित समझौता द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से ही नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक रणनीति की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। यह चीन द्वारा पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह से होकर बनाए जा रहे भारी-भरकम आर्थिक गलियारे का जवाब हो या न हो, इससे अफगानिस्तान तक पहुंचने के लिए भारत की पाकिस्तान पर निर्भरता जरूर पूरी तरह से खत्म हो जाएगी। इस तरह भारत सीधे मध्य एशिया और रूस तक भी अपनी पहुंचा बना सकेगा। अमेरिका के तिरछे तेवर के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ईरान यात्रा इस बात का भी संकेत है कि हम धीरे-धीरे स्वतंत्र सोच पर आधारित एक संतुलित डिप्लोमेसी की तरफ बढ़ रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में हमारी सियासत पर अमेरिकी छाया कुछ ज्यादा ही गहरी दिखने लगी थी। भारत के साथ ईरान के रिश्ते हमेशा से अच्छे रहे हैं लेकिन अब इन्हें और ज्यादा ठोस रूप देना होगा। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में 2003 में चाबहार को विकसित करने पर सहमति बनी थी, जिसके तहत भारत ने अफगानिस्तान को ईरान से जोड़ने वाली सड़क का निर्माण भी किया है। मगर ईरान के अलग-थलग पड़ने के बाद से यह परियोजना भी सुस्त पड़ गई थी। दूसरी ओर भारत लंबे समय से ईरान तथा पाकिस्तान से होकर गैस पाइप लाइन लाने का प्रयास कर रहा था, मगर अब तक यह परियोजना सिरे नहीं चढ़ सकी। पिछले महीने भारत में ईरान के राजदूत ने तो समुद्र के भीतर से होकर प्रस्तावित 2700 किलोमीटर लंबी इस परियोजना के एक तरह से दफन होने का संकेत ही कर दिया। परमाणु कार्यक्रम की वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ जाने का दौर खत्म होने के बाद से ईरान का सारा जोर अपनी अर्थव्यवस्था को गति देने और अपना कूटनीतिक अलगाव खत्म करने पर है। चूंकि भारत से उसके रिश्ते हमेशा से अच्छे रहे हैं लेकिन अब वह इन्हें ज्यादा ठोस रूप देना चाहता है। ईरान से हुए विविध समझौतों में चाबहार समझौता इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके जरिये हमने ग्वादर पोर्ट के इर्द-गिर्द जारी चीन और पाकिस्तान के नए कूटनीतिक खेल को करारा जवाब दिया है। दरअसल चीन की तरफ से पाकिस्तान में यह बंदरगाह उसके दूरगामी हितों को ध्यान में रखकर विकसित किया जा रहा है। इस पोर्ट के पीछे चीन का मकसद हिन्द महासागर में सीधी निकासी के अलावा खाड़ी क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाना है। लेकिन अब ग्वादर के ठीक बगल में चाबहार बंदरगाह भी खड़ा होगा। अभी पाकिस्तान और चीन इसमें अड़ंगा लगा रहे थे। दोनों ही नहीं चाहते कि इस क्षेत्र में भारत मजबूत हो। लेकिन चाबहार बंदरगाह से चीन समेत कई महाशक्तियों के कूटनीतिक समीकरण पलट सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी की मौजूदगी के  बीच करीब एक दर्जन सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर हुए हैं जिनमें भारतीय सहयोग से एक यूरिया और एक एल्युमीनियम संयंत्र का निर्माण भी शामिल है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि चाबहार बंदरगाह और इससे जुड़े बुनियादी ढांचे से संबंधित करार ऐतिहासिक उपलब्धि है। इससे इस क्षेत्र में आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहन मिलेगा। हम इन समझौतों के शीघ्र क्रियान्वयन के लिए प्रतिबद्ध हैं। ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहाöईरान के लोगों के लिए यह बहुत अहम दिन है। आज ईरान-भारत और अफगानिस्तान के बीच सहयोग का नया युग शुरू हो रहा है। 23 मई को अब हर साल चाबहार दिवस के रूप में मनाया जाएगा।

Wednesday 25 May 2016

अनुराग के युवा कंधों पर बीसीसीआई का भार

भाजपा में टाइगर के नाम से मशहूर युवा सांसद अनुराग ठाकुर ने भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) के सर्वोच्च पद पर पहुंचकर यह सूक्ति चरितार्थ की है कि `पूत के पांव पालने में।' दुनिया की सबसे ताकतवर क्रिकेट संस्था की कमान अब 41 साल के अनुराग के हाथ में है। वे उस छोटे से राज्य हिमाचल प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं, जो अभी तक केवल सेब राज्य के रूप में ही ज्यादा मशहूर था। भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष बने अनुराग का कार्यकाल 2017 तक रहेगा। वे भाजपा के पहले सांसद हैं जो यह पद संभालेंगे। अनुराग बोर्ड के दूसरे सबसे कम उम्र के अध्यक्ष हैं। उनसे पहले 1963 में फतेह सिंह गायकवाड़ ने 33 साल की उम्र में यह पद संभाला था। बीसीसीआई का अध्यक्ष पद शशांक मनोहर के इस्तीफे के बाद खाली हुआ था। अभी जितनी उनकी उम्र है (41 साल) उतनी उम्र में तो लोग क्रिकेट मैदान में सक्रिय रहते हैं पर उन्होंने मैदान की जगह बाहर बैठकर खेल का भविष्य सुधारने का बीड़ा उठाया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त जस्टिस आरएम लोढ़ा समिति की बोर्ड में सुधार के लिए क्रांतिकारी सिफारिश लागू करने की बात कही है। इस मुद्दे पर अनुराग का मानना है कि वह बोर्ड में सुधारों के पक्षधर रहे हैं लेकिन व्यावहारिक सुधारों को ही लागू किया जा सकेगा। अध्यक्ष की कुर्सी संभालने के बाद अनुराग ने कहा कि मैं इस दिन केवल यही कह सकता हूं कि यदि आप आज ट्विटर रिपोर्ट को देखें तो कोई तेजी से बढ़ती हुई लीग है तो वह आईपीएल है। यदि आप इसका अलग पहलू देखना चाहते हैं तो सबसे अधिक राजस्व घरेलू सीरीज और विज्ञापनों से होता है। राज्य संघ अपना ढांचा खुद बना रहे हैं। भारत में जहां बाकी खेलों के लिए आधारभूत ढांचा सरकार बनाती है तो वहीं भारत में केवल क्रिकेट में यह काम बीसीसीआई करती है। बीसीसीआई अध्यक्ष पद के आरोहण से विरोधी अंदर से उस अनुराग से सन्न हैं जिन्होंने हमीरपुर की तीन संसदीय चुनावों की जंग जीतकर कांग्रेस को मूर्छित कर रखा है। बहरहाल हिमाचल क्रिकेट संघ के मुखिया की जिम्मेवारी के दौरान 2008 की उपचुनावी लड़ाई में प्रचंड बहुमत से पिता प्रेम कुमार धूमल की उस विरासत को 34 बरस की उम्र में आगे बढ़ाया जो खुद धूमल ने 1989 में 45 साल की आयु में हासिल की थी। बीसीसीआई में सर्वोच्च क्रिकेट प्रशासक के तौर पर अनुराग की उपलब्धि यकीनन पिता धूमल के लिए गौरवशाली है। अनुराग जिस जिम्मेदारी को संभालने जा रहे हैं उसे कभी जगमोहन डालमिया, माधव राव सिंधिया, राज सिंह डुंगरपुर, शरद पवार, मनोहर जैसे दिग्गज संभाल चुके हैं। हम अनुराग को इस शानदार उपलब्धि पर अपनी बधाई देते हैं और उम्मीद करते हैं कि वह नए पद पर सफल होंगे।
-अनिल नरेन्द्र



अमेरिका ने ओसामा की तरह मंसूर को पाक में घुसकर मारा?

ओसामा बिन लादेन की तरह ही पाकिस्तानी सेना की नाक के नीचे रहे अफगान-तालिबान प्रमुख मुल्ला अख्तर मंसूर को अमेरिका ने मार गिराने में भारी सफलता पाई है। रविवार को अफगानिस्तान की खुफिया एजेंसी नेशनल डायरेक्ट्रेट ऑफ सिक्यूरिटी ने मंसूर के मारे जाने की जानकारी दी। इससे पहले पेंटागन ने मंसूर को मार गिराने की घोषणा की थी। मंसूर पाकिस्तान के छावनी शहर क्वेटा में छिपा हुआ था, जिसे अमेरिकी ड्रोन से ढेर कर दिया। पेंटागन ने एक बयान में कहाöमंसूर और उसका एक अन्य साथी शनिवार को हमारे ड्रोन हमले में उस समय मारा गया जब वह पाकिस्तान के क्वेटा में वाहन में कहीं जा रहा था। पेंटागन के मुताबिक अमेरिकी एजेंसियां कुछ समय से मंसूर पर नजर रख रही थीं। इस सैन्य कार्रवाई की इजाजत और ड्रोन स्ट्राइक की मंजूरी खुद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने दी थी। मुल्ला मंसूर के मारे जाने से आतंकी संगठन तालिबान को बड़ा झटका लगा है। युद्ध से जर्जर अफगानिस्तान की शांति प्रक्रिया के लिए यह बड़ी कामयाबी मानी जा रही है। अफगानिस्तान में जन्मा मंसूर 1990 के दशक में अफगान-तालिबान के सदस्य के तौर पर संगठन में शामिल हुआ था। मंसूर ने मुल्ला उमर की मौत के बाद पिछले साल जुलाई में अफगान-तालिबान की कमान संभाली थी। मुल्ला उमर के सहायक रह चुके मंसूर को तालिबान के अन्य नेताओं का भी समर्थन मिला हुआ था। हालांकि कई तालिबानी कमांडर मंसूर की नियुक्ति के खिलाफ भी थे और उन्होंने अलग गुट बना लिया। पाक विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया कि कार में बैठे जिस व्यक्ति को मंसूर बताया जा रहा है उसके पास वली मोहम्मद के नाम से पासपोर्ट था और वह ईरान से लौट रहा था। उन्होंने कहा कि अभी औपचारिक तौर पर इसकी पहचान बाकी है। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने कहा कि मंसूर अमेरिकी कर्मचारियों, अफगानिस्तान के नागरिकों और अफगान सुरक्षा बलों के लिए बड़ा खतरा था। वह तालिबान और अफगान सरकार के बीच शांति वार्ता का भी विरोधी था। उसके जाने के बाद अफगान और तालिबान में शांति वार्ता शुरू हो सकती है। ओसामा की तरह मंसूर के भी पाक सीमा के अंदर घुसकर अमेरिका द्वारा मारने से तिलमिलाए इस्लामाबाद ने इस पूरी घटना पर अमेरिका से सफाई मांगी है। हालांकि पाक सरकार ने इस मामले में दो विरोधाभासी बयान जारी किए हैं। अपनी धरती पर अमेरिका द्वारा अचानक ड्रोन हमला किए जाने से भड़के पाक ने इसे पाक की संप्रभुत्ता का उल्लंघन बताया है। पाक विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि हम अपना विरोध जता रहे हैं। उधर अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने भी कहा कि उन्होंने पाक के पीएम नवाज शरीफ को फोन पर इस हमले की जानकारी दे दी है।

Monday 23 May 2016

Results of the Assemble elections will have far reaching effects

With the mandate of the assembly elections in five states, two-three things come to front. First, the Congress has been significantly thrashed. The BJP’s Congress free India campaign has been successful up to a large extent. While the Congress ruled in 15 states in 2000, it has now been reduced to only six small states. If we add Puduchery and Bihar, the Congress is ruling in mere eight states. Congress is now ruling over just 15.6 per cent population of the country while it used to be more than 50 per cent at one time. Congress used to make fun of the chaye wala ,the chaye wala In Assam has taken over the entire tea state. Kerala too was captured by the Left Front. Due to lack of political foresight Congress had an alliance with the Left Front in West Bengal rejecting the offer of Mamta Banarjee. Now there is neither the Left nor the Congress. Shouldn’t it be treated as the beginning of Congress free India? Left in West Bengal and DMK in Tamil Nadu had the alliance with Congress, but after the crushing defeats both the Left and the DMK held the Congress responsible for it. DMK said that it had to face defeat due to alliance with Congress. While the CPI-M said that it was a mistake, an error to join hands with Congress. People of the state rejected the left parties holding them responsible for this alliance. The second important fact emerging is that in the elections of five states; BJP has only gained and lost nothing. It is important that the impact of these election results will be visible on the assembly elections next year and it may echo in the Lok Sabha polls too. The biggest achievement is that  for the first time the party  won the elections in any state in the North-East and going to form the government there. Besides it has opened its account in a state like Kerala. Party has not only increased its vote in West Bengal but increased its previous seats tally also. Assam results are like animation for the BJP. This is the first state where party projected the leader of party other than Narendra Modi after the Lok Sabha polls. Party succeeded in this game. Prior to this BJP had to face crushing defeat for contesting without projecting a  leader in Bihar and projecting outsider Kiran Bedi in Delhi. But by projecting Sarvanand Sonowal as the Chief Minister the party played a game and this was fully successful. It is itself significant that despite landslide victory in the Lok Sabha polls questions arose that the BJP is neither in the North-East nor in the South, so how it can be called a national party? BJP is ruling in 13 states (four NDA) which accounts for 43.1 per cent population of the country. Though BJP succeeded to form its government in just one state in the election in these five states; these results will have much impact on the duo of PM Modi and the Party President Amit Shah. Magic of Modi and the strategic understanding of Shah were being questioned after the crushing defeat in Delhi and Bihar but both will be in on a high horse now. Now we should talk about the increasing political status of the regional parties. We believe that the weakening of Congress is not in the favour of the nation. Leaders like Mamta Banarjee and Jayalalitha,Nitish kumar etc have been filling the political space vacated by the Congress. Voters have once again expressed confidence on Mamta Banarjee in West Bengal and given a clear message that whosoever works among the people there will only rule.  After MGR if any ruling party has come back to power again in Tamil Nadu, the credit goes to Jaylalitha. Jayalalitha has  become the Chief Minister of the State for the sixth term. Behind the win of Jayalalitha the impact of her welfare schemes was clear. Schemes like Amma Canteen, Amma Dispensary, and distribution of 20 kg rice to Ration Card holders, free mixer grinder, milking cows, goats and four grams of gold for mangal-sutras for women have been fruitful. The Centre should also take a lesson from Amma for welfare schemes along with development schemes. After two successive wins Mamta Banarjee and Jayalalitha are sure to get much importance at the Centre. The Centre will need support from Trinomool and AIADMK on various important bills including JTS pending in the Rajya Sabha. Congress had contested against Mamta in West Bengal and Jayalalitha in Tamil Nadu. As such it may be believed it’ll be difficult to maintain the relations of Congress with Trinomool and AIADMK in the Rajya Sabha as earlier. As such BJP may be gaining much as the party lacks majority in the Rajya Sabha. The party expects that Mamta and Jaya may now consider supporting the Centre in economic reforms. These two leaders not only maintained their magic but set new records also.

-        Anil Narendra

Sunday 22 May 2016

पांच राज्यों के परिणाम से भाजपा और क्षेत्रीय दलों की ताकत बढ़ी है

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के जो जनादेश आए हैं उससे दो-तीन बातें सामने आती हैं। पहली कि इन चुनावों में कांग्रेस औंधे मुंह गिरी है। भाजपा का कांग्रेस मुक्त अभियान काफी हद तक सफल होता नजर आ रहा है। जहां कभी कांग्रेस सन् 2000 में 15 राज्यों में शासन करती थी वहीं यह अब घटकर सिर्प छह छोटे राज्यों में सिमट गई है। पुडुचेरी और बिहार को मिला दें तो आठ राज्यों में ही कांग्रेस शासन रह गया है। कांग्रेस देश की सिर्प 15.6 फीसदी आबादी पर ही अब राज कर रही है। जबकि यह 50 फीसदी से अधिक कभी हुआ करता था। इस पर सोशल मीडिया पर एक पोस्ट वायरल हुआ है जिसमें जुमला लिखा हैö`सोनिया-राहुल' ः हम-तुम जंगल में बैठे हों और मोदी आ जाए...। वास्तव में पांच चुनावों के नतीजों पर यह तंज सही ही है। असम में कुर्सी छिनी, मोदी ने कब्जा कर लिया। चाय बेचने वाले ने तो चाय के बागानों पर ही कब्जा कर लिया। केरल में भी वाम मोर्चे ने कब्जा कर लिया। पश्चिम बंगाल में अपनी राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण ममता बनर्जी के ऑफर को ठुकरा कर लेफ्ट के साथ गठबंधन कर लिया। अब वहां न तो लेफ्ट ही बचा और न कांग्रेस। क्या इसे कांग्रेस मुक्त भारत की शुरुआत न माना जाए। पश्चिम बंगाल में वामदलों ने और तमिलनाडु में डीएमके ने कांग्रेस के साथ गठजोड़ किया था, लेकिन करारी हार के बाद लेफ्ट और डीएमके दोनों ने इसका ठीकरा कांग्रेस के ही सिर फोड़ दिया है। डीएमके ने कहा कि कांग्रेस से गठजोड़ करने की वजह से उसे हार का सामना करना पड़ा है। वहीं माकपा ने कहा कि कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना एक बड़ी भूल थी, एक बड़ी गलती थी। राज्य के लोगों ने इस गठजोड़ के लिए वामदलों को जिम्मेदार मानते हुए उसे पूरी तरह नाकार दिया। दूसरी प्रमुख बात जो उभर कर आती है वह है कि पांच राज्यों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने सिर्प पाया ही है खोया कुछ नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि इन चुनाव नतीजों का असर अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव पर नजर आएगा और फिर इसकी गूंज लोकसभा चुनाव में भी सुनाई दे सकती है। पार्टी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि उसने नॉर्थ-ईस्ट में पहली बार किसी राज्य में चुनावी जीत हासिल की है और वह सरकार बनाने जा रही है। इसके अलावा उसने केरल जैसे राज्य में भी अपना खाता खोल लिया है। पश्चिम बंगाल में भी पार्टी ने न केवल वोट बढ़ाया है बल्कि पार्टी ने अपनी पिछली सीटों की संख्या में बढ़ोत्तरी भी की है। भाजपा के लिए असम के नतीजे एक तरह से संजीवनी की तरह हैं। यह पहला राज्य है जहां लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी ने नरेंद्र मोदी के अलावा पार्टी के ही किसी नेता का चेहरा पेश किया। पार्टी का यह दांव कामयाब रहा। इससे पहले बिहार में बिना चेहरे के और दिल्ली में बाहर से किरण बेदी को लाकर चुनाव लड़ने से भाजपा की करारी हार हुई थी। लेकिन सर्वानंद सोनेवाल को मुख्यमंत्री उम्मीदवार पेश कर पार्टी ने दांव चला और यह पूरी तरह कामयाब हुआ। यह इस मायने से ही महत्वपूर्ण है कि लोकसभा चुनाव में भारी जीत हासिल करने के बावजूद यह सवाल उठते रहे हैं कि भाजपा न तो नॉर्थ-ईस्ट में है और न साउथ में, इसलिए उसे नेशनल पार्टी कैसे कहा जा सकता है? भाजपा का अब 13 राज्यों (चार एनडीए) में शासन स्थापित हो चुका है जो देश की 43.1 प्रतिशत आबादी बनती है। पांच राज्यों के चुनाव में से भले ही भाजपा ने सिर्प एक राज्य में अपनी सरकार बनाने में कामयाबी पाई हो लेकिन इन नतीजों का सबसे बड़ा असर पीएम मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी पर नजर आएगा। दिल्ली और बिहार में मिली करारी हार के बाद मोदी के करिश्मे और शाह की रणनीतिक समझ पर सवाल उठने लगे थे लेकिन अब दोनों की स्थिति मजबूत होती नजर आएगी और अब बात करते हैं क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती सियासी हैसियत की। हमारा मानना है कि कांग्रेस का कमजोर होना देशहित में नहीं है। जो सियासी स्पेस कांग्रेस छोड़ती जा रही है उसे ममता बनर्जी व जयललिता सरीखे की नेता भरती जा रही हैं। पश्चिम बंगाल में मतदाताओं ने ममता बनर्जी पर दोबारा भरोसा जताया है और यह साफ संदेश दिया है कि वहां जनता के बीच जाकर जो काम करेगा, वही राज करेगा। तमिलनाडु में एमजीआर के बाद कोई सत्ताधारी पार्टी लगातार दूसरी बार लौटी है तो इसका श्रेय जयललिता को जाता है। जयललिता छठी बार सूबे की मुख्यमंत्री बनेंगी। जयललिता की जीत के पीछे उनकी कल्याणकारी योजनाओं का असर साफ दिखा। अम्मा कैंटीन, अम्मा औषधालय, राशनधारी कार्ड वालों को 20 किलो चावल, मुफ्त मिक्सर ग्राइंडर, दुधारू गाय, बकरियों को बांटना और महिलाओं के लिए मंगल-सूत्र के लिए चार ग्राम सोना देने जैसी योजनाएं रंग लाई हैं। केंद्र सरकार को भी विकासकारी योजनाओं के साथ कल्याणकारी योजनाओं पर अम्मा से सबक लेना चाहिए। लगातार दो चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी और जयललिता की केंद्र में धमक बढ़ना तय माना जा रहा है। केंद्र सरकार को तृणमूल और अन्नाद्रमुक से राज्यसभा में अटके पड़े जेटीएस समेत कई महत्वपूर्ण बिलों पर समर्थन की जरूरत पड़ेगी। कांग्रेस ने बंगाल में ममता और तमिलनाडु में जया के खिलाफ चुनाव लड़ा था। ऐसे में यह माना जा सकता है कि राज्यसभा में तृणमूल और अन्नाद्रमुक के रिश्ते कांग्रेस के साथ पहले जैसे रहना मुश्किल हैं। ऐसे में भाजपा को इसका फायदा हो सकता है क्योंकि पार्टी के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है। पार्टी को उम्मीद है कि ममता और जया आर्थिक सुधारों में केंद्र का साथ दे सकती हैं। इन दोनों राज्यों में न केवल इन दोनों नेताओं ने अपना जादू बरकरार रखा बल्कि नए कीर्तिमान भी स्थापित किए हैं।

-अनिल नरेन्द्र

Saturday 21 May 2016

मसूद अजहर के खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस

इंटरपोल द्वारा पठानकोट आतंकी हमले के मुख्य आरोपी जैश--मोहम्मद सरगना मालना मसूद अजहर और उनके भाई अब्दुल रऊफ के खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस जारी होना भारत की कूटनीतिक सफलता है। पठानकोट हमला मामले में मसूद अजहर और रऊफ के खिलाफ एनआईए के गैर जमानती वारंट हासिल करने के बाद इंटरपोल ने यह नया रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया है। रेड कॉर्नर नोटिस होने पर दोनों आतंकियों को किसी भी देश की पुलिस गिरफ्तार कर सकती है। रेड कॉर्नर नोटिस जारी कराने को एनआईए ने वीडियो सहित कई सबूत पेश किए। मसूद अजहर के जिन तीन साथियों के खिलाफ रेड कॉर्नर जारी हुआ है, उनमें अब्दुल रऊफ, काशिफ खान और शाहिद लतीफ शामिल हैं। अब्दुल रऊफ, मसूद अजहर का भाई है, काशिफ खान और शाहिद लतीफ वे लोग हैं, जो पाकिस्तान से पठानकोट के आतंकियों को निर्देश दे रहे थे। मसूद अजहर के खिलाफ यह पहला रेड कॉर्नर नोटिस नहीं है, भारत की संसद और जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर आतंकी हमलों के सिलसिले में उस पर पहले भी एक रेड कॉर्नर नोटिस जारी हो चुका है। उसी तरह रऊफ पर भी सन् 1999 में भारतीय हवाई जहाज को अगवा करने के मामले में रेड कॉर्नर नोटिस जारी हो चुका है। इस रेड कॉर्नर नोटिस से व्यवहारिक स्तर पर कोई खास फर्प तो नहीं पड़ेगा क्योकि मसूद अजहर खुले तौर पर पाकिस्तान के अलावा किसी और देश में नहीं जाता। इसलिए रेड कॉर्नर नोटिस जारी होने के बावजूद पाकिस्तान की सेहत पर कोई तत्काल असर पड़ने के आसार कम ही हैं, लेकिन फिर भी इसका महत्व जरूर है। सबसे पहले तो पाकिस्तान के अंध-समर्थक चीन के लिए अजहर की तरफदारी करना अब ज्यादा मुश्किल होगा। अगर वह अपने देश के किसी नागरिक अर्थात ईसा डोल्कन के खिलाफ जारी रेड कॉर्नर नोटिस के आधार पर उसके भारत आगमन का विरोध जता सकता है तो फिर वह ऐसे ही नोटिस से दो-चार मसूद अजहर का पक्ष कैसे ले सकता है? स्पष्ट है कि यदि भविष्य में संयुक्त राष्ट्र के स्तर पर अजहर पर पाबंदी के लिए नए सिरे से पहल होती है तो चीन को पाकिस्तान का साथ देने के पहले कई बार सोचना पड़ेगा। बहरहाल पाकिस्तान से यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती कि वह मसूद अजहर के खिलाफ कार्रवाई करेगा। पाकिस्तानी सेना भले ही आतंकियों के खिलाफ जोरदार कार्रवाई का दावा कर रही हो, लेकिन यह कार्रवाई सिर्प उन आतंकी गुटों के खिलाफ है, जो पाक में उपद्रव कर रहे हैं। पाकिस्तानी सरकार अगर चाहे भी तो मसूद अजहर और लश्कर मुखिया हाफिज सईद के खिलाफ कुछ नहीं कर सकती। पाक सरकार हमेशा यही कहती है कि इन लोगों के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं हैं। आतंकवाद के खिलाफ लंबी लड़ाई में यह नोटिस एक छोटी सफलता है, जो देर-सबेर ज्यादा बड़े नतीजों तक ले जा सकती है।

-अनिल नरेन्द्र

14 साल बाद गोधरा कांड का मुख्य आरोपी गिरफ्तार

गुजरात एटीएस ने बुधवार को 2002 बहुचर्चित, कुख्यात गोधरा कांड के मुख्य आरोपी फारुक मोहम्मद भाना को अंतत गिरफ्तार कर लिया। यह 14 साल से फरार था। गौरतलब है कि गोधरा की साबरमती एक्सप्रेस से घर लौट रहे 59 कारसेवकों को जिन्दा जलाकर मार डालने का मुख्य साजिशकर्ता है ये भाना। एटीएस ने बुधवार को गुप्त सूचना के आधार पर भाना को पंचमहल जिले में एक टोल नाके पर धर दबोचा। एटीएस के महानिरीक्षक जेके भट्ट ने बताया कि उस समय वह अपने बेटे से मिलने मुंबई से गोधरा आ रहा था। भट्ट ने कहा कि भाना मुख्य आरोपियों में से एक था। इसी ने 27 फरवरी 2002 को गोधरा रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के एस-6 कोच में आग लगाने की साजिश रची थी। 55 वर्षीय भाना 2002 से ही फरार चल रहा था। शुरुआती जांच से पता चला है कि गोधरा कांड के बाद वह फर्जी पासपोर्ट बनवाकर पाकिस्तान चला गया। चार साल बाद वह पाकिस्तान से लौटा और अलग-अलग राज्यों में घूमता रहा। भट्ट के अनुसार भाना ने अपना नाम बदलकर शेख उमर रख लिया और मुंबई में प्रॉपर्टी डीलर का काम करने लगा। वह स्थानीय निकायों के छोटे-मोटे ठेके भी लेने लगा। अपनी पहचान छिपाने के लिए उसने गोधरा कांड के बाद अपनी दाढ़ी बढ़ा ली थी। पिछले दो महीने से उस पर निगाह रखी जा रही थी। 2002 में जब यह घटना हुई थी तब वह गोधरा के पोलन बाजार क्षेत्र का पार्षद था। उस पर आरोप है कि गोधरा रेलवे स्टेशन के समीप स्थित अमन गेस्ट हाउस में 26 फरवरी को अन्य आरोपियों के साथ हुई बैठक में उसने साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में आग लगाने की साजिश रची थी। भाना ने एस-6 कोच में आग लगाने संबंधी मौलाना हुसैन उमर जी को विशेष निर्देश बैठक में दिया था। गुजरात एटीएस के अनुसार गोधरा कांड को अंजाम देने के लिए करीब 140 लीटर पेट्रोल का इंतजाम भाना के कहने पर ही किया गया। उसने एक अन्य पार्षद बिलाल हाजी से अन्य आरोपियों को मौलाना उमर जी से मिले निर्देशों के अनुसार ट्रेन कोच को आग लगाने को कहा था। मौलाना उमर जी को इस घटना के आरोप में गिरफ्तार किया गया था लेकिन बाद में छोड़ दिया गया। भट्ट ने कहाöबैठक में एक सलीम पानवाला भी शामिल था जो रेलवे टिकटों की कालाबाजारी करता था। इसके अलावा अब्दुल रज्जाक और एक दूसरे पार्षद बिलाल हाजी सहित अन्य लोग भी बैठक में शामिल थे। भट्ट ने बताया कि गोधरा कांड के सिलसिले में पुलिस अब तक 94 आरोपियों को गिरफ्तार कर चुकी है। 2011 में विशेष अदालत ने इस मामले में 11 आरोपियों को फांसी और 20 को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। इन लोगों का मामला फिलहाल गुजरात हाई कोर्ट के पास है। सात आरोपी अब भी फरार हैं। ज्ञात रहे कि 27 फरवरी 2002 को कट्टरपंथियों ने गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस की स्लीपर बोगी एस-6 को आग के हवाले कर दिया था। इस डिब्बे में अयोध्या से लौट रहे कारसेवकों को जिन्दा जला दिया गया था। इसके अगले दिन गुजरात में दंगे भड़क गए। इन दंगों में एक हजार से अधिक लोग मारे गए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जलाई गई ट्रेन का स्वयं मुआयना किया था। श्री नरेंद्र मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। इस कांड की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट से  लेकर निचली अदालतों, सुरक्षा एजेंसियों ने विभिन्न स्तरों पर जांच कमेटी बनाई। इतने साल बीतने के बाद भी नरेंद्र मोदी पर आज तक एक वर्ग ने अभियान छेड़ रखा है और उन पर गुजरात दंगों में ढील देने का आरोप लगाने से बाज नहीं आते। अब जब मुख्य आरोपी फारुक मोहम्मद भाना गिरफ्तार हो चुका है तो उम्मीद की जाती है कि 2002 साबरमती एक्सप्रेस कांड का पूरा सच देश के सामने आएगा और दूध का दूध-पानी का पानी हो जाएगा।

Friday 20 May 2016

पाक सेना अध्यक्ष ने नवाज शरीफ को कठघरे में खड़ा किया

पाकिस्तान में पनामा पेपर्स को लेकर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ संकट में घिरते नजर आ रहे हैं। पाक सेना प्रमुख जनरल रहील शरीफ ने बुधवार को प्रधानमंत्री से उनके आवास पर मुलाकात की थी। इस मुलाकात में जनरल रहील शरीफ ने उनसे जल्द से जल्द मामले में जांच शुरू करवाने को कहा है। उच्चस्तरीय सूत्रों ने बतायाöजनरल शरीफ का कहना है कि पनामा पेपर्स लीक जांच में फैले विवाद से पाकिस्तान की शासन प्रणाली और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों ही प्रभावित हो रही हैं। इसलिए मामले को जल्द निपटाए जाने की जरूरत है। सरकार और विपक्ष दोनों ने ही मामले की न्यायिक जांच किस प्रकार से आगे बढ़ेगी इस पर मतभेद के कारण मामला फंसा हुआ है। विपक्ष ने नवाज शरीफ से इन सात सवालों का जवाब मांगा है। पाकिस्तान के संयुक्त विपक्ष ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से कहा है कि वे जब भी संसद में आएं इन सवालों का जवाब लेकर आएं। क्या प्रधानमंत्री के बेटों और बेटी के इत्तेफाक शुगर मिल्स और चौधरी शुगर मिल्स में शेयर हैं? क्या उन्होंने टैक्स रिटर्न में यह जानकारी दी है? क्या उन्होंने ऑफशोर कंपनियों से होने वाली आय घोषित की है? प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और उनके परिवार के मालिकाना हक वाली ऑफशोर कंपनियों के नाम क्या हैं? पीएम व उनके परिवार के मेफेयर अपार्टमेंट में किस तरह के हित हैं? मेफेयर अपार्टमेंट खरीदने के लिए पैसा कहां से आया? क्या प्रधानमंत्री जानते हैं कि कुलसुम नवाज पहले ही मेफेयर को खरीदा मान चुकी हैं? प्रधानमंत्री ने 1985 और 2016 के बीच कितनी सम्पत्ति खरीदी? पनामा पेपर्स में अपने पुत्रों का नाम आने के बाद से ही नवाज शरीफ दबाव में हैं और विपक्ष उनके इस्तीफे के साथ पूरे मामले की जांच की मांग कर रहा है। उन्होंने पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस से जांच के लिए न्यायिक आयोग नियुक्त करने की भी सिफारिश की थी, किन्तु चीफ जस्टिस ने इसे जांच का विषय तथा आयोग का अधिकार क्षेत्र स्पष्ट करने के सुझाव के साथ सरकार को प्रस्ताव वापस भेज दिया था। प्रधानमंत्री के पुत्रों के विरुद्ध आरोप हैं कि विदेशों में उनकी कई कंपनियां हैं जिनमें जमाधन का उपयोग लंदन में सम्पत्ति खरीदने के लिए किया लेकिन प्रधानमंत्री ने इन आरोपों का खंडन किया है और कहा है कि उनके पुत्रों ने कोई गैर कानूनी काम नहीं किया। शरीफ ने पाक संसद में कहाöवह सदस्यों को इस बात से आश्वस्त करना चाहते हैं कि देश से एक नया पैसा भी बाहर नहीं गया। उन्होंने सदस्यों से अपील की कि वह जांच के लिए आयोग नियुक्त करने में सहयोग करें। तहरीक--इंसाफ पार्टी के नेता इमरान खान ने कहाöहम प्रधानमंत्री से लंबी कहानी नहीं सुनना चाहते। दस्तावेजों में स्थिति साफ है। मियां नवाज पर दबाव बढ़ता जा रहा है।

-अनिल नरेन्द्र

फोर्ड फाउंडेशन से बैन हटाने के लिए 250 करोड़ का ऑफर था ः जोशी

गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) को कथित तौर पर गैर कानूनी एफसीआरए नोटिस भेजने के मामले में गिरफ्तार गृह मंत्रालय के अवर सचिव आनंद जोशी ने सीबीआई के सामने कई सनसनीखेज खुलासे किए हैं। आनंद जोशी गिरफ्तारी से बचने के लिए बड़ी साजिश में लगे थे, लेकिन सीबीआई ने ऐन मौके पर उन्हें दबोचकर उनका प्लान बिगाड़ दिया। सूत्रों के अनुसार वह अपने परिवार को इंग्लैंड भेजने की फिराक में थे, जिसके बाद वह भी उनके पीछे किसी तरीके से जा सकते थे। मालूम हो कि सीबीआई ने उन्हें गत रविवार को खोज लिया। सीबीआई सूत्रों के अनुसार वह तिलक नगर में एक घर में मिले। सूत्रों के अनुसार सीबीआई को कुछ अहम दस्तावेज मिले, जिससे संकेत मिले कि जोशी कई एनजीओ को परेशान भी कर रहे थे। जोशी पर आरोप है कि विदेशी माध्यम से गलत तरीके से फंड लेने का केस झेल रहे सोशल एक्टिविस्ट तीस्ता शीतलवाड़ के एनजीओ से जुड़ी फाइलों को उन्होंने गायब कर दिया। हालांकि आनंद जोशी ने उलटे होम मिनिस्ट्री के सीनियर अधिकारियों पर ही मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगाया था। जोशी ने सीबीआई की पूछताछ में कहा है कि फोर्ड फाउंडेशन पर प्रतिबंध हटाने के सिलसिले में 200 से 250 करोड़ रुपए के लेन-देन की बात चल रही थी। साथ ही जोशी ने खुद पर लगे आरोपों और उच्च अधिकारियों के फैसले पर कई तकनीकी सवाल खड़े किए हैं। सीबीआई इस मामले में जोशी के वरिष्ठ अधिकारी और शिकायतकर्ता अतिरिक्त सचिव बीके प्रसाद से भी पूछताछ करेगी। सीबीआई सूत्रों के मुताबिक जोशी के बयान को रिकार्ड कर लिया गया है। इसके सभी पहलुओं की जांच होगी। चार दिन तक रहस्यमयी तरीके से गायब जोशी को सीबीआई ने रविवार शाम को अपनी गिरफ्त में  लिया था। शुरुआती पूछताछ में सूत्रों के मुताबिक जोशी ने बताया कि अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ फोर्ड फाउंडेशन की इंडिया चैप्टर की तरफ से प्रतिबंध हटाने के लिए नवम्बर-दिसम्बर महीने में 200 से 250 करोड़ रुपए की पेशकश की जा रही थी। लेकिन वह तकनीकी कारणों से इसके विरोध में थे। सूत्रों के मुताबिक जोशी के तबादले के करीब 15 दिन बाद फोर्ड फाउंडेशन को प्रतिबंध सूची से हटा दिया गया। तकनीकी तौर पर इस फैसले के बाद फोर्ड फाउंडेशन को विदेशी धन के लिए गृह मंत्रालय की मंजूरी की जरूरत नहीं थी। जोशी पर आरोप है कि उन्होंने करीब 50 एनजीओ को गैर कानूनी तरीके से एफसीआरए नोटिस भेजे थे। इसके अलावा गुजरात की स्वयंसेवी कार्यकर्ता तीस्ता शीतलवाड़ की संस्था सबरंग ट्रस्ट की फाइलें अपने घर ले गए थे जो उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर था। इस आरोप के जवाब में जोशी ने कहा कि बिना उच्च अधिकारी के आदेश के वह इतने एनजीओ को नोटिस नहीं भेज सकते थे।

Thursday 19 May 2016

उपचुनाव परिणाम ः भाजपा और आप को झटका, कांग्रेस को संजीवनी

करीब एक वर्ष की अवधि के लिए तीनों निगमों के 13 वार्डों में रविवार को संपन्न दिल्ली नगर निगम उपचुनाव भाजपा, कांग्रेस और आप तीनों के लिए सेमीफाइनल की तरह था। नतीजे चौंकाने वाले माने जा सकते हैं। पहले बात करते हैं भाजपा की। भाजपा के लिए रिजल्ट निराशाजनक रहा क्येंकि तीनों नगर निगमों में उसका शासन था। पार्टी नेतृत्व दावा कर रहा था कि निगमों में उसकी परफार्मेंस इस चुनाव में उसकी जीत सुनिश्चित करेगी। लेकिन सिर्प तीन सीटें जीतकर यह जाहिर हो गया कि नेता विहीन इस पार्टी को जनता ने नकार दिया है। भाजपा के लिए चिंता का विषय यह भी होना चाहिए कि जिन 13 सीटों पर उपचुनाव हुए थे उनमें से सात पर भाजपा चुनाव जीती हुई थी। इस हिसाब से उसे चार सीटों का नुकसान तो झेलना ही पड़ा साथ ही उसे बुरी तरह हार का सामना भी करना पड़ा। इन परिणामों से भाजपा रणनीतिकार इतना जरूर कह सकते हैं कि बेशक उनकी सीटें कम हुईं पर वोट पतिशत बढ़ा। विधानसभा चुनाव में भाजपा को करीब 32 फीसदी वोट मिले थे, इन उपचुनावों में उसका वोट पतिशत बढ़कर 34.1 फीसदी हो गया। अब बात करते हैं कांग्रेस पार्टी की। इन उपचुनावों में कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं था। पार्टी निगम चुनाव 2007, 2012 विधानसभा चुनाव 2013 और 2015 में कभी इन 13 वार्डों में पहले नंबर पर नहीं रही है। कांग्रेस के लिए यह उपचुनाव खासा संतोषजनक माना जा सकता है और उसने चार सीटें हासिल कीं पांचवीं भी एक तरह से कांग्रेस के खाते में गई क्योंकि यहां से जीता पार्षद बागी कांग्रेसी है। कांग्रेस के लिए एक खुशी की बात यह भी हो सकती है कि जिन 13 वार्डों में उपचुनाव हुए उनमें से उसकी कोई भी सीट नहीं थी। याद रहे कि विधानसभा चुनाव (2015) में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली थी, उसका पमुख कारण था कि कांग्रेस का वोट बैंक खिसक कर आम आदमी पार्टी में चला गया था, लेकिन इन नतीजों ने जाहिर कर दिया है कि उपचुनाव में उसका खोया जनाधार एक बार फिर से वापस लौटने लगा है। कांग्रेसी नेताओं ने पिछले कुछ महीनों में सकिय राजनीति की है और कई मुद्दों पर आंदोलन, पदर्शन करके अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। इसी का नतीजा सामने आया है पार्टी के लिए यह परिणाम अगले साल होने वाले नगर निगम चुनावों में उसको संजीवनी पदान करेंगे। कांग्रेस 2007 के बाद से नगर निगम की सत्ता से दूर रही है। इस दौरान दिल्ली में उसकी सरकार जरूर रही, लेकिन 2013 में यहां से भी इसकी विदाई हो गई। 2015 विधानसभा चुनाव में तो इसका पूरा सफाया हो गया और विधानसभा में एक भी विधायक कांग्रेस का नहीं है। इसका परम्परागत वोट बैंक आम आदमी पार्टी के खेमे में चला गया। इसलिए इस उपचुनाव में उसके पास  खोने के लिए कुछ नहीं था, पार्टी तो बस अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने की लड़ाई लड़ रही थी। उपचुनाव में कांग्रेस पार्टी को 4 सीटें मिली हैं उसको 24.8 पतिशत वोट मिला है। अब बात करते हैं आम आदमी पार्टी की। आप के लिए यह रिजल्ट चौंकाने वाला कहा जाएगा। यह चुनाव पार्टी के चुनाव लड़ने वाले पार्षद पत्याशियों से ज्यादा विधायकों की अग्नि परीक्षा थी। इस तरह से आप के 67 में से 12 विधायकों की छवि दांव पर लगी हुई थी। दरअसल आम आदमी पार्टी ने अपनी कार्यशैली और तौर तरीके से इस उपचुनाव को आगामी वर्ष दिल्ली में पस्तावित तीनों निगमों के चुनावों का सेमीफाइनल बनाने की भरसक कोशिश की। चूंकि आम आदमी पार्टी इस समय दिल्ली में सत्ता में है इसलिए पार्टी  साख बचाए रखने के लिए अधिकांश सीटों पर जीत हासिल करना चाहती थी। तभी जाकर पार्टी अपने पक्ष में हवा बना पाती। आम आदमी पार्टी को कम से कम 12 सीटों पर जीतने की पूरी उम्मीद थी। पार्टी सूत्रों की मानें तो पार्टी के आंतरिक सर्वे में भी आप को 13 में से 12 सीटें जीतती दिख रही थी। उपचुनाव से पहले आप के दिल्ली पदेश पभारी की देखरेख में एक सर्वे कराया गया था। इसमें आम लोगों की नब्ज टटोलने की कोशिश की गई थी। यह चुनाव दिल्ली सरकार के पिछले सवा साल के कामों का लिटमस टेस्ट भी एक तरह से था। यह कहना भी कुछ लोगों का है कि अब आप सरकार से जनता का विश्वास उठने लगा है इसीलिए पार्टी को 13 वार्डों में मात्र 5 पर ही संतोष करना पड़ा। आप के विधानसभा अध्यक्ष और विधानसभा उपाध्यक्ष के क्षेत्रों से लड़े पत्याशियों को हार का सामना करना पड़ा है। आप सरकार और पार्टी नेता बार-बार दावा कर रहे थे कि यह चुनाव दिल्ली सरकार की उपलब्धियों पर लड़ा जा रहा है, क्योंकि सरकार ने बहुत काम किए हैं, इसलिए उसकी जीत सुनिश्चित है। लेकिन चुनाव के नतीजे उसके इस दावे पर सवाल जरूर खड़ा करेंगे । हां, पार्टी यह दावा तो कर ही सकती है कि निगम में उसका कोई भी पतिनिधि नहीं था अब पांच पतिनिधि तो पहुंच गए हैं  और पार्टी ने नगर निगम में भी एंट्री मार ली है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने किसी भी वार्ड में चुनाव पचार तो नहीं किया, लेकिन उपचुनाव की अधिसूचना जारी होने के पहले इन वार्डों में आयोजित कार्यकमों में भाग लिया था। वहीं उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के साथ ही कुमार विश्वास, संजय सिंह, दिलीप पांडे सहित अन्य नेता व दिल्ली सरकार के मंत्रियों ने पत्याशियों के पक्ष में जमकर पचार जरूर किया था। सिवाय कांग्रेस के बाकी दोनों दलों भाजपा और आप पार्टी के लिए यह परिणाम खतरे की घंटी साबित हो सकते हैं।

-अनिल नरेन्द्र

Wednesday 18 May 2016

अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार असीम नहीं है

मानहानि के मामले में जेल की सजा खत्म नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट ने मानहानि से जुड़े कानून के दंडात्मक प्रावधानों की संवैधानिक वैधता की शुक्रवार को पुष्टि की। देश की शीर्ष अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार कोई असीम अधिकार नहीं है। अदालत ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, भाजपा नेता सुब्रह्मणयम स्वामी और अन्य की तरफ से दायर याचिकाओं की एक श्रृंखला पर यह आदेश पारित किया। न्यायमूर्ति दीपक मिश्र और न्यायमूर्ति प्रफुल्ल सी. पंत की खंडपीठ ने कहाöहमने माना है कि दंडात्मक प्रावधान संवैधानिक रूप से वैध है। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार कोई असीम अधिकार नहीं है। खंडपीठ ने देशभर के मजिस्ट्रेटों को निर्देश दिए हैं कि वे मानहानि की निजी शिकायतों पर समन जारी करने पर अत्यंत सतर्पता बरतें। अदालत ने व्यवस्था दी कि आपराधिक मानहानि से जुड़ी भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 और आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 119 संवैधानिक रूप से वैध हैं। करीब डेढ़ सौ साल पुराने इस मानहानि कानून को सही ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर स्वाभाविक ही तीखी प्रक्रिया होनी थी। दुनिया के अधिकतर देशों में मानहानि के मामले को दीवानी मामले की तरह देखा जाता है। इसलिए यह उम्मीद की जा रही थी कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी विश्व भर में अधिकाधिक मान्य होते जा रहे दृष्टिकोण और लोकतांत्रिक तकाजों को ध्यान में रखकर मानहानि कानून की संवैधानिकता पर विचार करेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गौरतलब है कि भारत में मानहानि एक आपराधिक मामला है, जिसमें दोष सिद्ध होने पर दो साल की सजा हो सकती है, इसके अलावा जुर्माना भी भरना पड़ सकता है। इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वालों में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल और भाजपा नेता सुब्रह्मणयम स्वामी भी थे। ये तीनों मानहानि के किसी न किसी मामले में आरोपी हैं, इसलिए संबंधित कानून को चुनौती देने में इनकी व्यक्तिगत दिलचस्पी भी रही होगी। रोचक तथ्य यह है कि इन कानूनों को चुनौती ऐसे राजनेताओं और पत्रकारों ने दी थी, जिनमें से कुछ का तो काम ही दूसरों पर लगातार आरोप लगाकर कठघरे में खड़ा करना है। हालांकि स्थिति उसके उलट भी है और इस समय समाज में ऐसे लोग भी पैदा हो गए हैं, जिनका काम किसी भी राजनीतिक बयान या पत्रकारिता, रिपोर्ट व टिप्पणी पर मानहानि का मुकदमा दायर कर देना है। यह काम एक सहज पीड़ा और उसके निदान के लिए नहीं बल्कि एक धंधे के तौर पर किए जाते हैं। मौजूदा मानहानि कानून सरकारों, ताकतवर नेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों व भ्रष्ट उद्योगपतियों को ही रास आता है जिन्हें आलोचनाओं और खुलासों से अपने किले दरकने का भय सताता है। दूसरी तरफ इस कानून ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकारों के काम को अनावश्यक रूप से बहुत जोखिम भरा बना रखा है। अगर बात-बात पर राजनेता की जुबान थाम ली जाएगी या पत्रकार की कलम और कैमरा निशाने पर लिया जाएगा या हमेशा कोई न कोई स्कैंडल ही उछाला जाता रहेगा तो न तो स्वस्थ जनमत का निर्माण हो पाएगा और न ही किसी की प्रतिष्ठा सुरक्षित बच पाएगी। अभिव्यक्ति की आजादी होनी चाहिए और उससे आहत लोगों को न्यायालय की शरण में जाने का अधिकार भी होना चाहिए। अगर न्यायपालिका से कड़ी कार्रवाई की मांग का हक नहीं रहेगा तो उसके प्रतिकार में हिंसा ही एकमात्र उपाय बचेगा और वह लोकतंत्र के लिए और भी घातक होगा। पर संसद चाहे तो इस कानून की प्रासंगिकता या उसके प्रावधानों पर पुनर्विचार की पहल कर सकती है।
-अनिल नरेन्द्र

एक और कलम का सिपाही शहीद हो गया

बिहार में जंगल राज नहीं महाजंगल राज है। सीवान में हिन्दुस्तान समाचार पत्र के वरिष्ठ पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या ने एक बार फिर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। यह पहला मौका नहीं जब किसी पत्रकार की आवाज को यूं खामोश कर दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय संस्था `कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट' के शोध के अनुसार देश में साल 1992 से अब तक 91 पत्रकारों को मौत के घाट उतारा जा चुका है। विडंबना यह है कि सिर्प चार फीसदी मामलों में ही इंसाफ मिला। वह भी आधा-अधूरा। 96 फीसदी मामलों में अपराधियों को माफी मिल गई। 23 मामलों में हत्या के पीछे छिपा मंसूबा नहीं पता चल सका। सिर्प 38 मामलों में मोटिव स्पष्ट हो पाया। जिनकी मौत का कारण स्पष्ट हुआ उनमें कई को इंसाफ नहीं मिला। कुछ को मिला भी तो वह भी आधा-अधूरा। 88 फीसदी पत्रकार जो अपनी ड्यूटी निभा रहे थे, जो मारे गए वह प्रिन्ट मीडिया से जुड़े थे। नौ फीसदी रेडियो पत्रकार थे। बेखौफ अपराधियों ने 13 मई की रात को सीवान में हिन्दुस्तान के ब्यूरो चीफ पत्रकार राजदेव रंजन को गोली मारकर हत्या कर दी। उन्हें करीब से गोली मारी गई। रंजन कार्यालय से लौट रहे थे। रात आठ बजे के करीब टाऊन थाना क्षेत्र के ओवरब्रिज के समीप अज्ञात अपराधियों ने उन्हें गोली मारी। अपराधी मोटर साइकिल पर थे और घटना को अंजाम देकर भागने में सफल रहे। 46 वर्षीय राजदेव रंजन की मौत से एक दिन पहले अपराधियों ने झारखंड के चतरा में पत्रकार इंद्रदेव यादव की ताबड़तोड़ गोलियां मारकर हत्या कर दी थी। राजदेव रंजन और इंद्रदेव यादव की सरेआम नृशंस हत्या को लेकर बिहार और झारखंड में ही नहीं, देशभर में हर ओर गम और गुस्सा है। सोशल मीडिया से सड़क तक विरोध की आवाज साफ सुनाई दे रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हत्यारों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई के निर्देश दिए हैं। राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने कहा है कि हत्यारा कोई भी हो बख्शा नहीं जाएगा। बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और सीवान के सांसद ओम प्रकाश यादव ने इस घटना की जांच सीबीआई से कराने की मांग की है। राजदेव की हत्या के विरोध में पूरा सीवान स्वस्फूर्त बंद रहा। राजदेव रंजन के बेटे आशीष रंजन ने भी हत्याकांड की सीबीआई से जांच की मांग की है। वित्तमंत्री और केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने ट्विट कर कहाöमैं सीवान में पत्रकार राजदेव रंजन और चतरा में इंद्रदेव यादव की हत्या की कड़ी निन्दा करता हूं। इसकी निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए और दोषियों को दंडित किया जाना चाहिए। राजदेव रंजन की पत्नी ने हत्यारों को फांसी की सजा दिए जाने की मांग करते हुए अपने पति को अपनी अंतिम सांस तक न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करने का प्रण लिया। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष मंगल पांडे और अन्य भाजपा नेताओं ने सीवान शहर में धरना दिया। पांडे ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि मृतक पत्रकार के परिजनों ने आरोप लगाया है कि राजदेव की हत्या राजद नेता मोहम्मद शहाबुद्दीन के गुर्गों द्वारा की गई है और बिहार पुलिस के पास इस मामले की निष्पक्ष जांच करने की हिम्मत नहीं है, ऐसे में इस मामले की जांच सीबीआई को सौंपी जानी चाहिए। उन्होंने मृतक के आश्रितों को 25 लाख रुपए मुआवजा के तौर पर दिए जाने की भी मांग की। राजदेव की पत्नी आशा देवी ने अपने पति की हत्या अज्ञात अपराधियों द्वारा व्यक्तिगत कारणों से नहीं, बल्कि उनके पेशे के कारण किए जाने का दावा किया। उन्होंने कहा कि उनके पति की किसी से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी। पत्रकार की हत्या लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर हमला है। क्या नीतीश कुमार का यही सुशासन है? कहने की जरूरत नहीं कि पत्रकारिता संसार के सबसे खतरनाक व्यवसायों में शामिल है। लोग पत्रकारिता सिर्प इसलिए करते हैं ताकि समाज के सच को सामने ला सकें। सत्य को सामने लाने का सबसे सशक्त माध्यम है पत्रकार। हम पत्रकार शहादत देते आए हैं और आगे भी देते रहेंगे पर अपने फर्ज से पीछे नहीं हटेंगे। पंजाबी के महान कवि `पाशा' के शब्दों में कहूं तो हम लड़ेंगे साथी क्योकि लड़ने की जरूरत है। फिलहाल इस जंग का पहला मुकाम राजदेव रंजन के हत्यारों को इंसाफ की चौखट तक पहुंचाना है। हम राजदेव व इंद्रदेव के परिवारों के साथ दुख की बेला में साथ खड़े हैं और दोनों शहीदों को अपनी श्रद्धांजलि देते हैं।

Tuesday 17 May 2016

घटती खेती की जमीन ः 13 राज्यों में सूखा

केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री संजीव बल्यान ने हाल ही में राज्यसभा में एक चिन्ताजनक जानकारी दी है। उन्होंने बताया कि देश में हर साल औसतन 30 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि कम हो रही है। देश में खेती योग्य भूमि 2010-11 में 18.201 करोड़ हेक्टेयर से मामूली-सी घटकर 2011-12 में 18.196 करोड़ हेक्टेयर हो गई है। 2012-13 में यह 18.195 करोड़ हेक्टेयर हो गई। ज्ञात रहे कि देश की 64 फीसदी आबादी आज भी कृषि संबंधित कार्यों से जुड़ी हुई है। लगभग 1.1 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर पिछले पांच सालों में खेती नहीं हुई है। अधिकतर स्थानों पर एक ही फसल ली जाती है। इन समस्याओं को दूर करने के लिए हरित क्रांति की शुरुआत की गई है। बाल्यान ने बताया कि कुल 2.6 करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी है जिसे खेती योग्य बनाया जा सकता है। इजरायल के तमाम चुनौतियों के बाद भी कृषि क्षेत्र में काफी प्रगति करने के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि कृषि क्षेत्र में निवेश में भारत उस देश से काफी पीछे है। इजरायल में सिंचाई के लिए पानी के अधिकतम उपयोग पर जोर दिए जाने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि तमिलनाडु, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे कई राज्यों में उसने यहां इस क्षेत्र में काफी अच्छा काम किया है। देश में औसतन हर साल 30 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि कम होने और 13 राज्यों के गंभीर सूखे की चपेट में आने के बीच पर्यावरणविदों ने सरकार से मांग की है कि सूखे से निपटने के लिए दीर्घकालीन पहल करने और देशभर में जल धाराओं, पुराने जलाशयों, कुओं को जीवंत बनाए जाने की सख्त जरूरत है। हालांकि खेती योग्य भूमि बेशक कम हुई है पर संतोष की बात यह है कि गिरावट के बावजूद कुल उत्पादकता कम नहीं हुई है। भारत में कृषि की सबसे बड़ी समस्या सिंचाई की है और सिर्प 45 प्रतिशत भूमि ही सिंचित हैं। देश के 13 राज्यों के 306 गांवों में सूखे की स्थिति है और इससे 4,42,560 लोग प्रभावित हैं। जल क्षेत्र की संस्था सहस्त्रधारा की रिपोर्ट के मुताबिक पृथ्वी पर जितना जल उपलब्ध है, उसमें से 97.3 प्रतिशत लवणयुक्त है और शेष 2.7 प्रतिशत ताजा जल है। इस 2.7 प्रतिशत ताजा जल में से 2.1 प्रतिशत बर्प के रूप में और 0.6 प्रतिशत तरल जल के रूप में उपलब्ध है। इस 0.6 प्रतिशत तरल जल में 98 प्रतिशत भूजल और दो प्रतिशत सतही जल है। पर्यावरणविदों का कहना है कि यह गंभीर स्थिति का संकेत कर रही है क्योंकि भूजल स्तर लगातार गिरता चला जा रहा है और देश के बड़े भूभाग से सूखे की समस्या के कारण स्थिति गंभीर होती जा रही है। पर्यावरणविद् उमा राउत ने कहा कि हमें जल को समवर्ती सूची के अंतर्गत ले लेना चाहिए ताकि केंद्र के हाथ में कुछ संवैधानिक शक्ति आ जाए।

-अनिल नरेन्द्र

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की रिहाई का रास्ता साफ

हमारे देश का यह अत्यंत दुर्भाग्य है कि वोटों की खातिर निर्दोष लोगों को कसूरवार बनाकर सालों जबरन जेलों में ठूंस दिया जाता है। ऐसे ही एक दर्दनाक केस में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को सालों जेल की सलाखों के पीछे गुजारने पड़े। 2008 के मालेगांव ब्लास्ट केस में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की ओर से बम धमाके की आरोपी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और पांच अन्य को क्लीन चिट दिए जाने पर हैरत नहीं हुई क्योंकि एक अरसे से कहा जा रहा है कि इनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं। मालेगांव ब्लास्ट की जांच एनआईए की दो टीमों ने की थी। पहली टीम का नेतृत्व आईजी संजीव सिंह ने किया और दूसरी टीम के प्रमुख आईजी जीपी सिंह थे। संजीव सिंह की टीम अपनी चार्जशीट इस मामले में तभी दायर करने वाली थी जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार शपथ ग्रहण कर रही थी। इस टीम ने गवाहों के 164 स्टेटमेंट रिकार्ड कर लिए थे। वहीं दूसरे जांच दल जिसके प्रमुख जीपी सिंह थे, ने सभी 164 गवाहों के बयान दोबारा लिए। इन सभी गवाहों ने कहा कि प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित को फंसाने के लिए उन्हें डराया-धमकाया गया था। इन सभी गवाहों ने कहा कि वे अपना बयान नए सिरे से देना चाहते हैं और उन्हें इस ब्लास्ट के षड्यंत्र का पता नहीं था। इस टीम के बयानों से ही एनआईए ने गत शुक्रवार को विशेष कोर्ट में कहा कि इन सभी आरोपियों के खिलाफ कमजोर सबूत हैं और उन पर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। बता दें कि मालेगांव ब्लास्ट के चन्द दिनों बाद ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष शरद पवार ने हिन्दू संगठनों पर भी निगाहें डालने की गुजारिश की थी। इस बयान के बाद ही भगवा आतंकवाद की चर्चा खुलकर शुरू हुई और कुछ दिन बाद ही साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को गिरफ्तार कर लिया गया। एनआईए के महानिदेशक शरद कुमार ने दावा किया है कि केस को कतई कमजोर नहीं किया गया है। जब तक हमारी जांच पूरी नहीं हुई थी, हमें एटीएस जांच के हिसाब से चलना था। अब हमने जांच पूरी कर ली और अपना आरोप-पत्र दाखिल कर दिया है। सरकारी वकील गीता गोड़ेबे ने अदालत में शुक्रवार को आरोप-पत्र दायर किया। इस क्लीन चिट के बाद इन सभी की रिहाई का रास्ता साफ दिख रहा है, लेकिन इसी के साथ कांग्रेस व अन्य दलों और खासकर खुद को सेक्यूलर बताने वाले दलों की ओर से चीख-पुकार भी शुरू हो गई है। इन दलों के कुछ नेता ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे वे जांच टीमों में शामिल रहे हों या फिर जज की कुर्सी पर बैठे रहे हों। आखिर वे किस आधार पर इस आरोप के सहारे देश को गुमराह कर रहे हैं कि मोदी सरकार तो इन लोगों की रिहाई के ही पक्ष में थी? अगर प्रज्ञा और उसके साथियों के खिलाफ मालेगांव में विस्फोट करने की साजिश में शामिल होने के पुष्ट प्रमाण थे तो फिर आज जो नेता जनता को वरगला रहे हैं उन्हें यह भी तो बताना चाहिए कि संप्रग शासन के समय इन लोगों को सजा देना क्यों नहीं सुनिश्चित किया जा सका? आखिर 2011 से लेकर 2014 तक एनआईए यह काम क्यों नहीं कर सकी? इसके पहले मुंबई पुलिस का आतंकवाद निरोधी दस्ता (एटीएस) यह काम क्यों नहीं कर सका? बता दें कि 29 सितम्बर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव में धमाके हुए थे। इसी दौरान गुजरात के भादेसा में भी अन्य धमाका हुआ। यह नवरात्रि के पास हुआ था। 24 अक्तूबर 2008 को पुलिस ने तीन लोगोंöसाध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, शिव नारायण गोपाल सिंह काल सागरा और श्याम भंवर लाल साहू को गिरफ्तार किया। जिन नेताओं को यह लग रहा है कि एनआईए ने राजनीतिक दबाव में गलत फैसला लिया है। उन्हें मालेगांव में ही 2006 में हुए बम विस्फोट के सिलसिले में पकड़े गए आठ आरोपियों की रिहाई पर भी कुछ कहना चाहिए, जिन्हें चन्द दिनों पहले ही रिहा किया गया है। किसी नतीजे पर न पहुंचने वाली आधी-अधूरी जांच पर आंख मूंदकर भरोसा करने का कोई कारण नहीं। आज जितना जरूरी यह है कि मालेगांव में 2006 और 2008 में धमाके करने वाले दंड का पात्र बनें, उतना ही यह भी कि जांच के नाम पर खिलवाड़ करने वाले बेनकाब हों। चाहे निर्दोष मामला प्रज्ञा ठाकुर का हो या फिर उन लड़कों का हो जिन्हें जबरन आतंकवाद के नाम पर फंसाया जाता है।