Sunday 15 May 2016

सवाल कार्य पालिका में न्याय पालिका के बढ़ते हस्तक्षेप का

वित्त विधेयक पर बुधवार को राज्यसभा में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने न्यायपालिका पर सरकारी कामकाज में दखल देने का गंभीर आरोप लगाया। जेटली ने न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाते हुए कहा कि इससे सरकार को परेशानी हो रही है। न्यायपालिका की तीखी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि इसने कार्यपालिका और विधायकों के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण किया है। ऐसे में अब सरकार के पास बजट बनाना और टैक्स लेने का काम ही रह गया है। न्यायपालिका को यह काम भी ले लेना चाहिए। अरुण जेटली ने जो कहा है उस पर बहस की दरकार है। स्वर्गीय पीवी नरसिंह राव के कार्यकाल में ही न्यायपालिका की सरकारी कामकाज में दखलंदाजी आरंभ हो गई थी। सरकारों ने भी अपनी मुसीबत टालने के लिए मामलों को अदालतों के सुपुर्द कर दिया। पिछले दिनों तो उत्तराखंड में फ्लोर टेस्ट जैसा कार्य भी सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में हुआ। आरक्षण के मामलों में भी राज्य सरकारों ने सियासी दबाव के चलते असंवैधानिक कदम सोच-समझ कर उठाए ताकि अदालतें उसे अस्वीकार कर दें क्योंकि संविधान ऐसा करने की इजाजत नहीं देता। राजनीति में गिरावट के कारण चाहे कोई न्यायपालिका की अतिसक्रियता पर जितना प्रफुल्लित हो जाए पर व्यवस्था शासन के तीनों अंगों के संतुलन से ही चलती है। हमारे संविधान निर्माताओं ने तीनों के बीच हर स्तर पर कोई मोटी सीमा रेखा नहीं खींची। किन्तु उनसे यह अपेक्षा अवश्य की थी कि वे अपने दायरे में सीमित रहें। जेटली ने कहा कि जिस तरह से न्यायपालिका का हस्तक्षेप बढ़ा है उससे एक दिन सरकार का काम केवल बजट बनाना रह जाएगा और सारे काम न्यायपालिका के पास चले जाएंगे। हो सकता है कि इसमें थोड़ी अतिश्योक्ति हो, किन्तु न्यायपालिका हर क्षेत्र में आदेश देने लगी है यह सच है। कार्यपालिका या विधायिका अगर न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल दें तो इसे कोई भी उचित नहीं ठहरा सकता, बल्कि इसे तानाशाही का ही लक्षण माना जाएगा। इसी तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में अदालती दखलंदाजी भी सही नहीं कही जा सकती। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सूखे पर भी एक राहत कोष बनाने का आदेश दिया। प्रधानमंत्री ने स्वयं पहल करते हुए सूखे से पीड़ित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मिलकर उनके यहां क्या आवश्यकता है, वे क्या कर सकते हैं आदि विषयों पर विचार किया। सूखे और बाढ़ से सरकारें कैसे निपटें, क्या करे ऐसा निर्देश देने का काम न्यायपालिका का नहीं। दूसरी ओर ऐसे लोगों की कमी भी नहीं जो कहते हैं कि चूंकि सरकारें अपनी जिम्मेदारियां सही तरीके से नहीं निभातीं इसलिए अदालतों को ऐसे आदेश देने पड़ते हैं ताकि जनता को न्याय मिल सके। 1990 के दशक में जब न्यायिक सक्रियता का दौर आरंभ हुआ यह थोड़ा राहतकारी लगता था। धीरे-धीरे ऐसा लगता है मानो न्यायपालिका वाकई शेष दोनों अंगों के अधिकारों और कर्तव्यों दोनों का अतिक्रमण कर रही हो। कुछ ऐसे मामले होते हैं जो कार्यपालिका या विधायिका से भी वास्ता रखते हैं और न्यायपालिका से भी। अगर किसी के मौलिक अधिकार का हनन हो रहा है या किसी कानून की व्याख्या की जरूरत हो तो उस मामले को अदालत ले जाना और उस पर सुनवाई होना स्वाभाविक तथा उचित है पर अगर नीति निर्माण व प्रशासनिक क्षेत्र में अदालतों का दखल होता है तो वह एक गलत मिसाल बनता है। कोशिश दोनों तरफ से होनी चाहिए। अदालतों को समझना होगा कि वह देश की हर समस्या का निदान करने या करवाने में सफल नहीं हो सकतीं। साथ ही विधायिका-कार्यपालिका अपनी भूमिका इस तरह निभाएं कि सामान्य स्थितियों में न्यायपालिका को हस्तक्षेप का अवसर न मिले।

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