Tuesday, 10 May 2016

लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और परंपराओं को बरकरार रखता फैसला

देश के इतिहास में यह तीसरा मौका है जब उत्तराखंड में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में किसी विधानसभा में शक्ति परीक्षण करवाया जाएगा। 10 मई को उत्तराखंड विधानसभा में अदालती निगरानी में होने वाले शक्ति परीक्षण में दो घंटे के लिए पुनर्जीवित हुई हरीश रावत की सरकार के लिए जीवन-मरण का प्रश्न होगा। इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में उत्तर प्रदेश और 2005 में झारखंड में ऐसा आदेश दिया था। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न्यायपालिका के जाने-पहचाने सैद्धांतिक रूप के अनुकूल ही है। सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार बनाम एसआर बोम्मई मामले में यह कहा था कि विधानसभा में बहुमत का फैसला विधानसभा के भीतर ही शक्ति परीक्षण के जरिये होना चाहिए। इसके बाद ऐसे जितने मामले अदालत के सामने आए, सभी में अदालत ने इसी सिद्धांत के आधार पर फैसले सुनाए। उत्तराखंड के ताजा मामले में भी हाई कोर्ट ने भी यही कहा था कि हरीश रावत सरकार को विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने का मौका मिलना चाहिए। यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार ने अदालत के इस फैसले को स्वीकार कर लिया कि अगर वह पटल पर बहुमत के  परीक्षण के लिए तैयार हो जाए तो इससे लोकतंत्र का उद्देश्य पूरा होगा। शायद यह बात सरकार को समझ में आ गई है कि लोकतंत्र लोकलाज से चलता है और हरीश रावत की जो सरकार स्वयं ही पहाड़ की ढलान से खाई में गिरने को तैयार है उसे धक्का देने का लांछन उसे ज्यादा समय तक अपने माथे पर नहीं लगाना चाहिए। हालांकि स्टिंग ऑपरेशन के बहाने खरीद-फरोख्त के आरोप से गुजर रहे हरीश रावत को सीबीआई ने घेर लिया है फिर भी भाजपा को मदद पहुंचाने निकले कांग्रेस के नौ बागी विधायकों को मतदान के लिए अयोग्य करार करके सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व मुख्यमंत्री रावत को बड़ा राजनीतिक गलियारा दे दिया है। अब सारे देश की निगाहें 10 मई को देहरादून पर टिकी हैं। 10 मई के फ्लोर टेस्ट के निर्देश के बाद अब उत्तराखंड की पूरी सियासत 32 के आंकड़े पर आ टिकी है। यही वह जादुई संख्या है जिसका स्पर्श कर कांग्रेस या भाजपा सत्ता हासिल कर लेगी। नौ बागी विधायकों के बगैर होने वाले फ्लोर टेस्ट में कुल 62 सदस्य सरकार का भविष्य तय करेंगे। मौजूदा संख्याबल को अगर आधार माना जाए तो निवर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत यानि कांग्रेस को 34 विधायकों के बूते बहुमत साबित करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए बशर्ते भाजपा कांग्रेस और उसे समर्थन दे रहे छह गैर कांग्रेसी विधायकों के गुट प्रोग्रेसिव डेमोकेटिक फ्रंट (पीडीएफ) में सेंधमारी में कामयाब न हो जाए। मंगलवार को होने वाले इस शक्ति परीक्षण के लिए भाजपा प्रबंधकों ने देहरादून से दिल्ली तक मोर्चा संभाल लिया है। भाजपा नेतृत्व किसी भी तरह से हरीश रावत सरकार का बहुमत साबित नहीं होने देना चाहता है। इसके लिए भाजपा अपने विधायकों को एकजुट रखने के साथ पीडीएफ और कांग्रेस में रावत से नाराज विधायकों को साधने में जुट गई है। रावत सरकार गिराने की मुहिम में अभी तक भाजपा को दांव भले ही सफल नहीं रहे हों, लेकिन अब वह इस आखिरी मौके पर चूकना नहीं चाहती। दरअसल यह मामला भाजपा नेतृत्व के लिए अब प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है। राजनीतिक, नैतिकता और लोकतांत्रिक परंपरा के लिहाज से भी यह बेहतर होता कि संविधान के अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल नहीं किया जाता। एक दौर था जब अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर राज्य सरकारों को गिराने के लिए किया गया था। बमुश्किल तमाम पिछले वर्षों से इस पर अंकुश लगा था। अब फिर उस सिलसिले से बचना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और परंपराओं के हक में ही फैसला सुनाया है। उसकी भावना का सम्मान होना चाहिए। ऐसे माहौल में उत्तराखंड में विधानसभा के पटल पर शक्ति परीक्षण का फैसला न सिर्प कांग्रेस और भाजपा के बीच बढ़ते टकराव को कम करेगा बल्कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच बनती गलतफहमी को भी दूर करेगा।

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