Friday, 27 May 2016

भारतीय बैंकिंग इतिहास का सबसे बड़ा घाटा

सार्वजनिक बैंकों के लिए फंसे हुए कर्ज (एनपीए) भारी मुसीबत की वजह बनते जा रहे हैं। बता दें कि एनपीए (गैर निष्पादित परिसम्पत्तियांöनॉन परफार्मिंग एसेट्स) बैंकों की ऐसी परिसम्पत्तियों को कहते हैं जिस पर कोई रिटर्न (लाभ) नहीं मिल रहा है। चूंकि बैंकों की सम्पत्तियां कर्ज और अग्रिम (एडवांस) होती हैं, इसलिए इनके परफार्म न करने (लाभ न कमाने को) नॉन परफार्मिंग एसेट्स कहते हैं। कहने का मतलब यह है कि बैंकों के कर्जे में फंस चुके होते हैं। कर्जदार इस पर न तो बैंक को कोई ब्याज दे रहा होता है और न ही मूलधन लौटा रहा होता है। पंजाब नेशनल बैंक ने पिछले वित्त वर्ष की आखिरी तिमाही यानि जनवरी-मार्च 2016 में 5,367.14 करोड़ का घाटा दर्ज किया है, जो भारत के इतिहास में किसी बैंक का सबसे बड़ा घाटा है। पंजाब नेशनल बैंक के अलावा आठ सरकारी बैंकों ने इस तिमाही में घाटा दर्ज किया है, जो कुल जमा 14 हजार करोड़ रुपए का है। पंजाब नेशनल बैंक ने पिछले साल की इसी तिमाही में 306 करोड़ रुपए का मुनाफा दिखाया था और बाकी बैंकों की हालत भी इतनी बुरी नहीं दिख रही थी। इसकी वजह यह नहीं है कि एक साल में भारतीय अर्थव्यवस्था में कोई बड़ी गिरावट आई है या बैंकों का कामकाज अचानक बहुत खराब हुआ है। हुआ यह है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने सभी बैंकों को अपना हिसाब-किताब ठीक करने और अपने डूबे हुए कर्जों को साफ-साफ दर्ज करने का आदेश दिया है। इसके बाद बैंकों की माली हालत की असलियत सामने आ रही है। यह भी कहा जा रहा है कि इन बैंकों के हिसाब-किताब की सफाई अभी पूरी नहीं हुई है, इसलिए कम से कम अगले एक साल तक इससे भी ज्यादा चौंकाने वाले नतीजे सामने आ सकते हैं। चिन्ता का विषय यह है कि रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक 31 दिसम्बर 2015 तक 26 सार्वजनिक बैंकों का एनपीए बढ़कर 4,04,667 करोड़ हो चुका है। हालात नहीं सुधारे तो जल्द ही यह आंकड़ा आठ लाख करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है, जो बैंकों की ओर से दिए गए कुल कर्ज का 11.25 प्रतिशत है। बैंकों में आम आदमी का पैसा जमा होता है और उस पर सभी को काफी कम ब्याज मिलता है। लिहाजा कर्ज की उगाही न होने पर कम ब्याज देकर इकट्ठा किया हुआ जनता का पैसा ही डूबता है और हमारे देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान होता है। भ्रष्टाचार, लापरवाही या राजनीतिक दबाव इस स्थिति के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। निजी बैंकों की हालत ऐसी नहीं है, केवल सरकारी बैंक ही इस दलदल में फंसे हैं। समय आ चुका है कि इन बैंकों के कामकाज को पूरी तरह बदलना अतिआवश्यक हो चुका है। अब इस काम को टाला नहीं जा सकता। जिन बैंकों को अर्थव्यवस्था का इंजन बनना था, वे घाटे का नया रिकार्ड बना रहे हैं।

-अनिल नरेन्द्र

No comments:

Post a Comment