Wednesday 18 May 2016

अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार असीम नहीं है

मानहानि के मामले में जेल की सजा खत्म नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट ने मानहानि से जुड़े कानून के दंडात्मक प्रावधानों की संवैधानिक वैधता की शुक्रवार को पुष्टि की। देश की शीर्ष अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार कोई असीम अधिकार नहीं है। अदालत ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, भाजपा नेता सुब्रह्मणयम स्वामी और अन्य की तरफ से दायर याचिकाओं की एक श्रृंखला पर यह आदेश पारित किया। न्यायमूर्ति दीपक मिश्र और न्यायमूर्ति प्रफुल्ल सी. पंत की खंडपीठ ने कहाöहमने माना है कि दंडात्मक प्रावधान संवैधानिक रूप से वैध है। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार कोई असीम अधिकार नहीं है। खंडपीठ ने देशभर के मजिस्ट्रेटों को निर्देश दिए हैं कि वे मानहानि की निजी शिकायतों पर समन जारी करने पर अत्यंत सतर्पता बरतें। अदालत ने व्यवस्था दी कि आपराधिक मानहानि से जुड़ी भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 और आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 119 संवैधानिक रूप से वैध हैं। करीब डेढ़ सौ साल पुराने इस मानहानि कानून को सही ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर स्वाभाविक ही तीखी प्रक्रिया होनी थी। दुनिया के अधिकतर देशों में मानहानि के मामले को दीवानी मामले की तरह देखा जाता है। इसलिए यह उम्मीद की जा रही थी कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी विश्व भर में अधिकाधिक मान्य होते जा रहे दृष्टिकोण और लोकतांत्रिक तकाजों को ध्यान में रखकर मानहानि कानून की संवैधानिकता पर विचार करेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गौरतलब है कि भारत में मानहानि एक आपराधिक मामला है, जिसमें दोष सिद्ध होने पर दो साल की सजा हो सकती है, इसके अलावा जुर्माना भी भरना पड़ सकता है। इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वालों में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल और भाजपा नेता सुब्रह्मणयम स्वामी भी थे। ये तीनों मानहानि के किसी न किसी मामले में आरोपी हैं, इसलिए संबंधित कानून को चुनौती देने में इनकी व्यक्तिगत दिलचस्पी भी रही होगी। रोचक तथ्य यह है कि इन कानूनों को चुनौती ऐसे राजनेताओं और पत्रकारों ने दी थी, जिनमें से कुछ का तो काम ही दूसरों पर लगातार आरोप लगाकर कठघरे में खड़ा करना है। हालांकि स्थिति उसके उलट भी है और इस समय समाज में ऐसे लोग भी पैदा हो गए हैं, जिनका काम किसी भी राजनीतिक बयान या पत्रकारिता, रिपोर्ट व टिप्पणी पर मानहानि का मुकदमा दायर कर देना है। यह काम एक सहज पीड़ा और उसके निदान के लिए नहीं बल्कि एक धंधे के तौर पर किए जाते हैं। मौजूदा मानहानि कानून सरकारों, ताकतवर नेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों व भ्रष्ट उद्योगपतियों को ही रास आता है जिन्हें आलोचनाओं और खुलासों से अपने किले दरकने का भय सताता है। दूसरी तरफ इस कानून ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकारों के काम को अनावश्यक रूप से बहुत जोखिम भरा बना रखा है। अगर बात-बात पर राजनेता की जुबान थाम ली जाएगी या पत्रकार की कलम और कैमरा निशाने पर लिया जाएगा या हमेशा कोई न कोई स्कैंडल ही उछाला जाता रहेगा तो न तो स्वस्थ जनमत का निर्माण हो पाएगा और न ही किसी की प्रतिष्ठा सुरक्षित बच पाएगी। अभिव्यक्ति की आजादी होनी चाहिए और उससे आहत लोगों को न्यायालय की शरण में जाने का अधिकार भी होना चाहिए। अगर न्यायपालिका से कड़ी कार्रवाई की मांग का हक नहीं रहेगा तो उसके प्रतिकार में हिंसा ही एकमात्र उपाय बचेगा और वह लोकतंत्र के लिए और भी घातक होगा। पर संसद चाहे तो इस कानून की प्रासंगिकता या उसके प्रावधानों पर पुनर्विचार की पहल कर सकती है।
-अनिल नरेन्द्र

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