Sunday 31 March 2013

Parvez Musharraf’s home coming


Anil Narendra 
Amidst Taliban threats of suicide bomb attack on his life and to save Pakistan from numerous challenges, former Pak President, General Parvez Musharraf has returned home after a self-imposed exile of four years. One must praise his spirit and courage that he has returned home under a great illusion of once again forcing history to side with him. Though we talk of history repeating itself, but experts say that it would not be easy for him to re-assert his power as before. But, a glimpse about the future, however, can be seen in the dispirited welcome that he received on returning home with an eye on participating in the general elections to be held on May 11. It may also be claimed that his presence could transform the nature of electioneering. But the problem is that his party – Pakistan Muslim League lacks a strong organizational structure. The party also badly lacks of experienced leadership. Political leaders whom Musharaff had patronized during his rule, have now joined other parties. Musharraff has even failed to establish a cadre of dedicated workers for his party. It is difficult to say, what Musharraff could achieve with the help of this weak structure. Elections are not far off, just one and a half months is left for people to elect their government. It is very difficult to raise an organization and effectively fight elections in such a short time. The impressive tamasha that was witnessed at the return of Benazir, was nowhere to be seen on his return, nor there was a crowd of one lakh of people that had gathered at the rally of Imran Khan, a day earlier to his return. What he will be able to achieve with a mob of just 10-15 thousand people? Emphasis on numbers is important as it could prove a serious challenge in Pakistan where by completing its tenure the first democratically elected government of President Asif Ali Zardari has created a history. Moreover, Musharraff has a number of other crises to face. Tehrik-e-Taliban Pakistan and other organizations are after his blood. He is also entangled in a number of suits in Pakistan. Cases relating to the assassinations of Benazir Bhutto and Akbar Bugti, military operation at Red Mosque and detention of 62 judges will continue plaguing him. During these four years, after his leaving Pakistan, situation has undergone a considerable change. Human Rights Watch, an international organization, has asked the Pakistan Government to press charges of human rights violations on Musharraff on his return. He has been accused of involvement in the conspiracy to murder the Baloch leader Akbar Bugti, who died in mysterious circumstances in 2006. A Rawalpindi Court admitted the interim charge sheet filed by the Federal Investigation Agency of Pakistan in February 2011, which alleged his involvement in the conspiracy to murder former Prime Minister, Benazir Bhutto. Later, the Court declared Musharraff an absconder. Human Rights Watch says that during Musharraff’s tenure as the Army Chief, the Army and intelligence agencies of the country violated human rights with impunity. A number of political opponents were either exiled or detained and were tortured. Baloch nationalists and Imran Khan’s Tehrik-e-Taliban Pakistan have posed challenges for Musharraff in their own ways. Pak media is also claiming that for his return, Musharraff had to make a deal with Nawaz Sharief. According to a leading Pakistani newspaper ‘The Tribune Express’, the main opposition party of Pakistan, Pakistan Muslim League was persuaded not to obstruct the return of Mushsarraff. An assurance was also sought from General Kayani for Musharraff’s safety. According to a source close to Musharraff, Nawaz Sharief and General Ashfaq Kayani had recently traveled to Saudi Arabia. No doubt, people in Pakistan are angry with the Zaradari Government, but it may be quite difficult for them to accept Musharraff, because as far as governance is concerned, Musharraff has greater faith on Army than on democracy. He prefers to run the democratic government under military command. Musharraff considers democratic governments as corrupt and possessed of all evils. The youth of today in Pakistan and rich classes are not likely to subscribe to this thinking, but we have to wait and watch for the future strategy of Musharraff to unfold. Whether he will follow the democratic secular agenda as of now or shake hands with the Pak Army and extremists directly or through back-door to secure power?

        


लियाकत की गिरफ्तारी ः जम्मू-कश्मीर और दिल्ली पुलिस आमने-सामने



 Published on 31 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 आतंक फैलाने की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किए गए हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादी सैयद लियाकत शाह की  गिरफ्तारी विवादों में आ गई है और गिरफ्तारी को लेकर एक बार फिर दो राज्यों की पुलिस के बीच होने वाले टकराव को उजागर करके रख दिया है। अब केंद्र सरकार इस मामले की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपे जाने के मुद्दे पर पशोपेश में पड़ी है। दिल्ली पुलिस का दावा है कि वह नेपाल से गोरखपुर के रास्ते राजधानी में होली के मौके पर आतंक फैलाने के लिए आ रहा था। उसके पास से एक एके-56 राइफल, तीन हथगोले, दो मैगजीन व 30 कारतूस बरामद किए गए। वहीं जम्मू-कश्मीर पुलिस का कहना है कि वह तो आत्मसमर्पण करने के लिए भारत आ रहा था जिससे कि राज्य सरकार की पुनर्वास नीति का लाभ उठा सके। जाहिर है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस या दिल्ली पुलिस दोनों में से एक भी तो सच नहीं बोल रही हैं। आतंकवाद इस देश के लिए कितनी गम्भीर समस्या बन गई है लेकिन इस घटना से साफ है कि उसके प्रति सरकार गम्भीर नहीं दिखती। लियाकत पुनर्वास के लिए आ रहा था या तबाही मचाने, उसका परिवार उसके साथ था या नहीं, इसकी सही जानकारी न हो पाना सरकार की अक्षमता नहीं तो और क्या है? आतंकवाद पर ऐसी गफलत देश और नागरिकों की सुरक्षा के लिए कितनी खतरनाक है, शायद सरकार यह समझने को तैयार नहीं। पहले भी बटला हाउस मुठभेड़ जैसी घटनाओं को लेकर पुलिस की कार्रवाई पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। उन विवादों में देश की सुरक्षा से ज्यादा राजनीति ही सामने आई है। अब जम्मू-कश्मीर पुलिस ने लियाकत को राज्य की पुनर्वास नीति के तहत समर्पण के लिए भारत आ रहे पूर्व आतंकवादी बताकर दिल्ली पुलिस के दावे पर सवाल खड़े कर दिए हैं। जबकि दिल्ली पुलिस के अनुसार लियाकत अली आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन का गुर्गा है और अपने पाकिस्तानी आकाओं के निर्देश पर तबाही मचाने भारत लौट रहा था। इस सच्चाई को सामने लाने के साथ-साथ इस बात की भी तस्दीक होनी चाहिए कि कहीं जम्मू-कश्मीर विधानसभा के इस साल होने वाले चुनावों के मद्देनजर इस गिरफ्तारी को लेकर कोई सियासत तो नहीं हो रही क्योंकि पिछले 23 साल से आतंकवाद की तपिश झेल रहे राज्य में आतंकवाद और राजनीति के कथित मेलजोल पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं चाहे वह पीडीपी सरकार की आतंक के प्रति उदार नीति रही हो या मौजूदा नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन सरकार की पुनर्वास नीति। केंद्र सरकार ने संकेत दिया है कि वह लियाकत की गिरफ्तारी से जुड़े सवालों के जवाब के लिए एनआईए को जांच सौंप सकती है। सवाल उठता है कि एनआईए किन-किन बिन्दुओं पर जांच करेगी? यह तय है कि एनआईए को लियाकत की कस्टडी लेकर उससे पूछताछ करनी पड़ेगी पर लियाकत क्या कहेगा, वह क्यों मानेगा कि दिल्ली में फिदायीन अटैक के लिए आया था? इस मुद्दे पर दिल्ली पुलिस बैकफुट पर है। उसे अपना सोर्स बताना पड़ेगा, कुछ फोन नम्बरों पर बातचीत इंटरसेप्ट की है वह भी बतानी पड़ेगी, जांच के सभी कोण एनआईए के अफसरों को बताने पड़ सकते हैं। एनआईए को यह भी देखना पड़ेगा कि जामा मस्जिद के निकट गैस्ट हाउस में मिले इतने खतरनाक हथियार किसके हैं, वहां कैसे पहुंचे, वहां आए दो शख्स असल में कौन थे, होटल के स्टाफ का अब क्या कहना है? उधर खबर आई है कि लियाकत की गिरफ्तारी से हिजबुल मुजाहिद्दीन में खलबली है। ऑपरेशन के फेल होने से आतंकी सकते में हैं। एक आला दिल्ली पुलिस के अफसर की मानें तो कुछ इसी आशय की कॉल खुफिया एजेंसियों ने इंटरसेप्ट की है। जम्मू-कश्मीर से कुछ लोगों ने पाकिस्तान में आकाओं को फोन कर लियाकत की गिरफ्तारी की सूचना दी थी। जांच में पता चला है कि जो एके-56 राइफल जामा मस्जिद इलाके से बरामद हुई वह चीन निर्मित है। गैस्ट हाउस में जिस आतंकी ने कमरा बुक कराया था उसने अपना नाम मोहम्मद तथा पता भिवानी, हरियाणा का लिखाया था। जो फर्जी पाए गए। उधर स्पेशल सेल अधिकारियों ने बताया कि लियाकत की गिरफ्तारी में सशस्त्र सीमा बल की भी मदद ली  गई थी। लियाकत अली शाह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर मुजफ्फराबाद में रहता था। उसके पास से एक मुहाजिर कार्ड मिला है जिससे पता चलता है कि वह मुहाजिर बनकर वहां अपनी पत्नी व बच्चे के साथ रहता था। बता दें कि इस कार्ड के धारक को वहां की सरकार की तरफ से 15 हजार रुपए प्रतिमाह की मदद मिलती है।

मुलायम की बढ़ती तल्खी निशाने पर संप्रग और कांग्रेस



 Published on 31 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 पिछले कुछ दिनों से सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और कांग्रेस पार्टी में तल्खी बढ़ गई है। यह तकरार कहां जाकर रुकेगी, कहा नहीं जा सकता पर जिस तरह से दोनों पक्ष एक-दूसरे को धमका रहे हैं उससे नहीं लगता कि इनका साथ अब ज्यादा दिन चलने वाला है। मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेस को धोखेबाज और चालाक लोगों की पार्टी करार दिया है।  बुधवार को सैफई में मुलायम पूरे जोश में दिखे। उन्होंने कहा कि जनता केंद्र की यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार से ऊब चुकी है और कांग्रेस से लोगों का मोहभंग हो चुका है। लोगों के पास अब तीसरा मोर्चा ही विकल्प है। इधर आजम खान ने भी कांग्रेस पर वार करते हुए कह दिया कि राहुल और प्रियंका गांधी एक सिक्के के दो पहलू हैं। जिसमें से राहुल खोटे सिक्के हैं। यूपीए सरकार की सबसे बड़ी सहयोगी रही डीएमके के समर्थन वापसी के बाद मुलायम सिंह ने सियासी दांव-पेंच तेज कर दिए हैं। हाल ही में उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता एलके आडवाणी की जमकर तारीफ कर दी थी। तंग आकर डॉ. मनमोहन सिंह ने रिएक्ट करते हुए दक्षिण अफ्रीका से लौटते हुए कहा कि लोकसभा चुनाव अपने समय पर 2014 में होंगे। पीएम ने यह भी कहा कि समाजवादी पार्टी समर्थन वापस ले सकती है। प्रधानमंत्री को जवाब देते हुए एक टीवी चैनल पर इंटरव्यू के दौरान कहा कि संप्रग से समर्थन वापसी की उनकी फिलहाल कोई योजना नहीं है। मुझे नहीं पता कि प्रधानमंत्री ने किस आधार पर यह टिप्पणी की मुलायम ने कहा पर साक्षातकार में कांग्रेस पर हमला करने से बाज नहीं आए। मुलायम ने कहा कि कांग्रेस अपनी सरकार सीबीआई और इन्कम टैक्स विभाग के जरिए बचा रही है। कांग्रेस हमेशा से अपनी सरकार बचाने के लिए इन दोनों विभागों को हथियार बनाती  रही है। कांग्रेस भरोसेमंद पार्टी कभी नहीं रही। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के पास बहुत कागज हैं। पता नहीं कहां-कहां से कागज लाती है। मीडिया की ताकत भी कांग्रेस के साथ है। दिल्ली में रोज बलात्कार होते हैं लेकिन मीडिया यूपी के मामले ज्यादा उठाती है। मुलायम सिंह एक नहीं, दर्जनों बार कह चुके हैं कि यह संप्रग सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं करेगी। अब उन्होंने कहा कि नवम्बर  में आम चुनाव हो सकते हैं। हालांकि कांग्रेस ने 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी नवम्बर 2012 से शुरू कर दी है लेकिन डीएमके के समर्थन वापसी के बाद पार्टी और सरकार में बेचैनी जरूर बढ़ी है। कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि पार्टी मुलायम सिंह पर जैसे ही बजट सत्र समाप्त होता है हल्ला बोल देगी। कानून व्यवस्था के साथ-साथ भाजपा के प्रति मुलायम की नरमी जैसे दो दर्जन से ज्यादा मुद्दों पर सपा सरकार को घेरा जाएगा। उत्तर प्रदेश चुनाव से उलट यह आंदोलन ऊपर से न शुरू होकर ब्लॉक, तहसील, जिला और प्रदेश स्तर पर छेड़ा जाएगा। कांग्रेस मान रही है कि वाम दल व बसपा जैसे दल अभी चुनाव नहीं चाहते। वाम मोर्चा पश्चिम बंगाल में जहां ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ने का इंतजार कर रहा है वहीं मायावती भी मान रही हैं कि उत्तर प्रदेश में हर दिन सपा सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर बढ़ती जा रही है। उधर द्रमुक भी सरकार से बाहर जाने के बावजूद केंद्र के खिलाफ नहीं दिख रही। इन हालात में मुलायम के समर्थन वापस लेने से भी सरकार शायद ही संकट में आए। अभी फिलहाल संप्रग सरकार और कांग्रेस की प्राथमिकता संसद से बजट पारित कराने की है, इसीलिए कांग्रेस बजट सत्र निपटते ही मुलायम और अखिलेश सरकार के खिलाफ उत्तर प्रदेश में जोरदार अभियान छेड़ेगी। संसद में सपा के साथ की जरूरत होने के साथ-साथ इन दिनों कांग्रेस उत्तर प्रदेश में संगठन को दुरुस्त करने की कवायद भी तेजी से चला रही है। मुलायम का हल्ला बोल क्या रंग लाता है, कब लाता है, यह कहना मुश्किल है?

Saturday 30 March 2013

आतंकवाद को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं उमर अब्दुल्ला



 Published on 30 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार हिजबुल आतंकी लियाकत शाह के मामले में एक नया विवादास्पद मोड़ तब आया जब जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने लियाकत मामले में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे से बातचीत की। मुख्यमंत्री ने फोन पर शिंदे के समक्ष यह मामला उठाया और लियाकत की गिरफ्तारी के मामले में दिल्ली सरकार से एनआईए को स्थानांतरित करने की मांग की। उमर अब्दुल्ला ने प्रश्न किया कि लियाकत सरेंडर होने के लिए क्या अपने परिवार के साथ आता? सवाल यह उठता है कि उमर अब्दुल्ला किस मुंह से सवाल-जवाब कर सकते हैं? नेशनल पैंथर्स पार्टी के मुख्य संरक्षक प्रो. भीम सिंह ने भारत सरकार को चेतावनी दी है कि समर्पित आतंकवादियों की पुनर्वास नीति के बहाने उमर सरकार आतंकवाद को बढ़ावा दे रही है। जिससे जम्मू-कश्मीर आईएसआई के अधूरे एजेंडे को पूरा किया जा रहा है। एक आपात पत्रकार सम्मेलन में प्रो. भीम सिंह ने अनेक सवाल उठाए जिन्हें तथाकथित पुनर्वास नीति को समझने के लिए उनके जवाब देने की जरूरत है। पाकिस्तानी पासपोर्ट के साथ एक पाकिस्तानी नागरिक को नेपाल में  प्रवेश कैसे करने दिया गया? फिर ये लोग सीमा पार कर भारत में कैसे प्रवेश कर गए? क्या पुनर्वास नीति पाकिस्तान और नेपाल के साथ किए अंतर्राष्ट्रीय समझौते से भी ऊपर है, जो उनके नागरिक भारत में प्रवेश कर सकें? क्या नेपाल समझौते के अंतर्गत विदेशियों को नेपाल के रास्ते भारत में बिना पहचान पत्र के प्रवेश करने की इजाजत है? यह पुनर्वास नीति सीधे-सीधे भारत के संविधान में हस्तक्षेप करती है, खासकर नागरिक कानून के अंतर्गत। कैसे एक पाकिस्तानी नागरिक को भारत में प्रवेश करने दिया गया और फिर उसे जम्मू-कश्मीर में घुसने के लिए राज्य सरकार ने सहायता की जिसमें भारत सरकार का मौन सहयोग रहा? जम्मू-कश्मीर पुलिस ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को दी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि आने वाले दिनों में कुछ आतंकी भारत में समर्पण करने वाले हैं, लेकिन इस प्रकरण से अब इस पर संशय बन गया है। जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार पुनर्वास प्रक्रिया के तहत आने वाले दिनों में चार आतंकी भारत में प्रवेश करने वाले हैं। सूत्रों की मानें तो इनमें से एक आतंकी कश्मीर के डोडा का एरिया कमांडर रह चुका है। जबकि दो आतंकी पुलवामा घाटी से संबंध रखते हैं। भारत सरकार ने खुद स्वीकार किया है कि करीब 250 ऐसे लोगों को जो अपने आपको कश्मीरी बताते हैं दिल्ली के रास्ते जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने दिया गया, जिनके पास जम्मू-कश्मीर सरकार के पहचान पत्र थे। ये कार्ड उन लोगों को जारी किए जाते हैं जिनके पास पाकिस्तानी पासपोर्ट हैं और जो नेपाल में प्रवेश करते हैं। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री और आईएसआई के बीच एक निश्चित समझौते के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर में बसाए जाते हैं, यह कहना है प्रो. भीम सिंह का। यह सरासर धोखाधड़ी और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। केंद्र सरकार भी इससे चिंतित है तभी तो इस पुनर्वास नीति की समीक्षा करने की बात कर रही है।

सहारा समूह को दोहरा झटका




 Published on 30 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
सहारा इंडिया ग्रुप को मंगलवार को दोहरा झटका लगा। बाजार नियामक सेबी ने जहां सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत राय और तीन शीर्ष अधिकारियों को निवेशकों को लगभग 24 हजार करोड़ रुपए  लौटाने के मामले में सम्पत्ति की सूची को अंतिम रूप देने के लिए 10 अप्रैल को तलब किया, वहीं हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने सहारा की पांच इकाइयों को आम निवेशकों से पैसा इकट्ठा करने से रोक दिया। सेबी ने मंगलवार को अपने आदेश में यह भी कहा है कि अगर सुब्रत राय, अशोक राज चौधरी, रवि शंकर दूबे और वंदना भार्गव उसके समक्ष 10 अप्रैल को हाजिर नहीं होते तो वह बिना सुने ही एकतरफा बिक्री की कार्रवाई की शर्तें निर्धारित कर देगा। इस बीच हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने लखनऊ स्थित सहारा समूह और उसकी इकाइयों को अपनी योजनाओं के जरिए आम लोगों से पैसा लेने पर रोक लगा दी। सहारा की पांच इकाइयों, सहारा इंडिया परिवार, सुब्रत राय सहारा, सहारा केडिट को-ऑपरेटिव सोसायटी लि., सहारा क्यू शॉप यूनिक प्रोडक्ट रेंज लि. और सहारा क्यू गोल्ड आर्ट लि. के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने यह आदेश दिए। मामले की सुनवाई 22 अप्रैल को तय करते हुए अदालत ने अंतरिम आदेश में यह भी कहा कि मामले की आगे की जांच रिजर्व बैंक और सेबी कर सकते हैं। साथ ही मामले को प्रवर्तन निदेशालय को भेजा गया। आइए जानते हैं कि सहारा समूह के खिलाफ न्यायालयों और नियामकों की यह सख्ती किसलिए है? सहारा समूह की तमाम फर्में जनता से तमाम तरह की स्कीमों के जरिए पैसा जमा करती हैं। इनमें से ही दो कम्पनियोंöसहारा इंडिया रीयल एस्टेट कारपोरेशन  लि. (एसआईआरईसीएल) और सहारा हाउसिंग इंवेस्टमेंट कार्प लि. (एसएचआईसीएल) ने तीन करोड़ निवेशकों से 24,000 करोड़ रुपए जुटाए थे। यह रकम वैकल्पिक पूर्ण परिवर्तन डिबेंचर (ओएफसीडी) जारी करके एकत्र की गई थी। 10 अप्रैल को पेश होकर सुब्रत राय को बताना होगा कि उनकी कौन-कौन-सी सम्पत्तियों को बेचकर निवेशकों को 24,000 करोड़ रुपए चुकाए जाएं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर समूह को यह रकम निवेशकों को लौटानी है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनियम बोर्ड (सेबी) के अध्यक्ष यूके सिन्हा ने कोलकाता में भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) द्वारा आयोजित कार्यक्रम में कहा कि अनियमित रूप से चिट फंड कारोबार फैल रहा है। मंगलवार को कार्यक्रम में श्री सिन्हा ने कहा कि सेबी ऐसी सूचीबद्ध कम्पनियों पर भी कार्रवाई करेगा जो निर्धारित समय सीमा के भीतर 25 प्रतिशत सार्वजनिक भागीदारी के नियम का अनुपालन नहीं करेंगी। उन्होंने कहा कि कुछ चिट फंड कम्पनियां तो इस तरह के वादे कर रही हैं जिनके तहत कोई भी वैध तरीके से व्यावसायिक गतिविधियां करते हुए वादे के अनुरूप रिटर्न नहीं दे सकता। हमने इनमें से कुछ कम्पनियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की है, जांच चल रही है। कुछ मामलों में अंतरिम आदेश भी दिए हैं लेकिन फिर यह कम्पनियां कोर्ट पहुंच जाती हैं। कई लोग इन चिट फंड कम्पनियों की योजनाओं में निवेश कर रहे हैं जोकि जोखिम भरा है। ये कम्पनियां कानून में व्याप्त खामियों का फायदा उठाती हैं। उन्होंने कहा, हमने सरकार से आग्रह किया है कि उसे नए कानून के साथ आगे आना चाहिए जिसमें इन कम्पनियों के लिए एक नियामक की व्यवस्था हो। सिन्हा से जब सहारा के मुद्दे पर सवाल किया गया तो उन्होंने कुछ भी कहने से इंकार कर दिया। कम्पनियों में न्यूनतम 25 प्रतिशत सार्वजनिक हिस्सेदारी के नियम का अनुपालन किए जाने के मुद्दे पर सेबी अध्यक्ष ने कहा कि अनुपालन में असफल रहने वाली कम्पनियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी।

Friday 29 March 2013

परवेज मुशर्रफ की वतन वापसी



 Published on 29 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ जानलेवा हमले के तालिबानी ऐलान और तमाम चुनौतियों के बीच पाकिस्तान को बचाने के लिए चार साल बाद वतन लौट आए हैं। उनकी हिम्मत व साहस की तो दाद देनी ही पड़ेगी। भव्यता के इस भ्रम में कि वे एक बार फिर इतिहास को अपने साथ खड़ा कर लेंगे। इतिहास दोहराने के मुहावरे के बावजूद जानकार जानते हैं कि इसे उसके चारों पांवों पर ठीक पहले की तरह ख़ड़ा करना आसान काम नहीं है। अगर पूत के पांव पालने में देखना किसी प्रारम्भिक प्रक्रिया का परिणाम बनता है तो मुशर्रफ का बेजान स्वागत उनका भविष्य बांचता  है, जो पाक में 11 मई को होने वाले संसदीय चुनाव में शिरकत करने के मकसद से आए हैं। हालांकि यह भी कहा जा सकता है कि उनकी मौजूदगी से चुनावी संघर्ष का रूप बदल सकता है। मुश्किल यह है कि उनकी पार्टी ऑल पाकिस्तान मुस्लिम लीग का कोई मजबूत सांगठनिक ढांचा नहीं है। पार्टी में अनुभवी राजनेताओं की भारी कमी है। अपने शासनकाल में मुशर्रफ ने जिन राजनेताओं को संरक्षण दिया था, वे आज अन्य दलों से जुड़ गए हैं। मुशर्रफ अपने लिए कैडर तक तैयार नहीं कर सके। एक कमजोर सांगठनिक ढांचे के सहारे मुशर्रफ क्या कुछ कर पाएंगे कहा नहीं जा सकता। अब चुनाव का करीब डेढ़ महीना ही रह गया है। इतने दिनों में संगठन खड़ा कर पूरे देश में चुनाव लड़ना बहुत मुश्किल काम है। उनकी वापसी पर वह शानदार तमाशा नदारद था जैसा बेनजीर की वापसी पर देखा गया था और तो और मुशर्रफ की वापसी के एक दिन पहले ही इमरान खान की सभा में उमड़ी एक लाख की वह उत्साही भीड़ उनके यहां नहीं नजर आई। मात्र हजार-पन्द्रह सौ लोग जुटाने पर क्या मुकाम हासिल कर सकते हैं? तादाद पर जोर इसलिए कि पहली लोकतांत्रिक आसिफ जरदारी सरकार के लिए कार्यकाल पूरा कर इतिहास रचने वाली पाकिस्तान में बहुमत पाने की यह विश्वसनीय चुनौती है। फिर मुशर्रफ के लिए कई और तरह के संकट भी हैं। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान और दूसरे आतंकी संगठन उनकी जान के पीछे पड़े हुए हैं। फिर उन पर कई मुकदमे चल रहे हैं। बेनजीर भुट्टो और अकबर बुग्ती की हत्या, लाल मस्जिद की सैन्य कार्रवाई और 62 जजों की गिरफ्तारी के मामले उन्हें परेशान करते रहेंगे। उनके जाने के बाद 4 सालों में हालात काफी बदले हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने मांग की है कि पाक सरकार मुशर्रफ के देश लौटने पर मानवाधिकारों के हनन के लिए उन्हें जवाबदेह ठहराए। उन पर नवम्बर 2011 में बलूच नेता अकबर बुग्ती की हत्या में शामिल होने का आरोप है जिनकी वर्ष 2006 में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई। फरवरी 2011 में रावलपिंडी की अदालत ने मुशर्रफ के खिलाफ पाकिस्तान की संघीय जांच एजेंसी की ओर से दायर अंतरिम आरोप पत्र स्वीकार किया, जिसमें उन पर पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या में शामिल होने का आरोप लगाया गया। इसके बाद न्यायालय ने मुशर्रफ को भगौड़ा घोषित कर दिया। संगठन ने कहा कि मुशर्रफ के सेना प्रमुख रहते हुए पाक सेना तथा देश की खुफिया एजेंसियों ने कई मानवाधिकारों का हनन किया। कई राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निर्वासन या जेल भेजा तथा उन्हें प्रताड़ित किया गया। बलूच राष्ट्रवादियों और इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ ने अपने तरीके से चुनौतियां पैदा की हैं। पाकिस्तानी मीडिया में यह भी कहा जा रहा है कि मुशर्रफ की वापसी के लिए उन्हें नवाज शरीफ से डील करनी पड़ी। यह डील साउदी अरब के राज परिवार ने कराई है। पाकिस्तान के प्रमुख अखबार `द ट्रिब्यून एक्सप्रेस' के मुताबिक पाकिस्तान की मुख्य विपक्षी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज को इस बात के लिए तैयार किया गया कि वह मुशर्रफ की वापसी पर रोड़े न अटकाए। मुशर्रफ की सुरक्षा को लेकर जनरल कयानी से आश्वासन लिया गया। मुशर्रफ के एक करीबी के अनुसार नवाज शरीफ और जनरल अशफाक कयानी ने हाल में साउदी अरब की यात्रा की थी। बेशक जरदारी सरकार के खिलाफ आज पाकिस्तान में रोष है पर फिर भी मुशर्रफ मुश्किल से ही पाकिस्तान  की जनता को स्वीकार्य हों, इसलिए कि सरकार व शासन के बारे में उनका नजरिया जम्हूरियत पर कम सेना पर ज्यादा भरोसा करता है। वह सेना की कमान में ही लोकवादी सरकार चलाना चाहते हैं। मुशर्रफ की नजर में लोकतांत्रिक सरकारें भ्रष्ट व तमाम बुराइयों से ग्रस्त हैं। इससे आज का पाकिस्तान का युवा वर्ग, सम्पन्न वर्ग शायद ही सहमत हो, देखना यही होगा कि अब मुशर्रफ क्या रणनीति अपनाते हैं। अब तक के डेमोकेटिक सेक्यूलर एजेंडे पर चलते हैं या सत्ता का लाभ लेने के लिए सीधे-सीधे या बैक डोर से पाक सेना व कट्टरपंथियों से हाथ मिलाते हैं?

पोंटी चड्ढा की तर्ज पर दीपक भारद्वाज हत्याकांड



 Published on 29 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
रीयल एस्टेट व शराब के बड़े कारोबारी पोंटी चड्ढा हत्याकांड की तरह ही मंगलवार सुबह दक्षिण दिल्ली के रजोकरी इलाके के अरबपति बिल्डर एवं कारोबारी दीपक भारद्वाज (62) की उनके फार्म हाउस में गोली मारकर हत्या कर दी गई। राष्ट्रीय राजमार्ग-8 पर स्थित नितेश पुंज होटल काम्प्लैक्स में एक स्कोडा कार में आए तीन बदमाशों ने भारद्वाज को गोलियां मारकर हरियाणा की ओर फरार हो गए। बदमाशों ने कार में मारुति वैन की फर्जी नम्बर प्लेट लगा रखी थी। दीपक भारद्वाज ने 2009 में पश्चिमी दिल्ली से लोकसभा का चुनाव बसपा के टिकट पर लड़ा था। तब वे अकूत सम्पत्ति के कारण लोकसभा के चर्चित उम्मीदवारों में थे। हालांकि वह कांग्रेस के महाबल मिश्रा से चुनाव हार गए थे। पुलिस आयुक्त नीरज कुमार ने बताया कि सुबह लगभग 8.55 बजे सिल्वर रंग की स्कोडा कार में सवार होकर तीन युवक रजोकरी इलाके में एनएच-8 पर नितेश पुंज नामक फार्म हाउस के अन्दर दाखिल हुए। उन्होंने बताया कि वे शादी के लिए बुकिंग कराने आए हैं। गेट पर उन्होंने सामंत नाम से एंट्री भी की। इसके बाद कार में सवार होकर अन्दर चले गए। सुबह लगभग 9.10 बजे गोली चलने की आवाज आई। अन्दर काम करने वाली एक कर्मचारी जिसका नाम आरती बताया जा रहा है, ने आवाज लगाई कि उसके मालिक को गोली मार दी गई है। फार्म हाउस में तैनात गार्डों ने बदमाशों को रोकने की कोशिश की लेकिन बदमाश पिस्तौल दिखाकर कार से फरार हो गए। अभी तक हत्या की वजह साफ नहीं हो पाई है। पुलिस को शक है कि आपसी रंजिश या प्रॉपर्टी का विवाद वजह हो सकती है। दिल्ली पुलिस के स्पेशल कमिश्नर लॉ एण्ड ऑर्डर दीपक मिश्रा ने बताया कि सीसीटीवी फुटेज से हमलावरों की पहचान की जा चुकी है। जांच में अभी तक यह लग रहा है कि आरोपी वारदात के बाद गुड़गांव की ओर फरार हुए हैं। पोंटी चड्ढा हत्याकांड के बाद यह एक और हाई-प्रोफाइल मर्डर है। दीपक भारद्वाज सेल्फ मेड मैन थे। उन्होंने तीस साल पूर्व एक स्टेनोग्रॉफर के रूप में करियर शुरू किया था। बाद में वह दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास गांवों में प्रॉपर्टी के कारोबार से जुड़ गए। उनका कारोबार फार्म हाउस, हाउसिंग, स्कूल आदि क्षेत्रों में फैला था। दीपक भारद्वाज ने 2009 के चुनाव में अपने हल्फनामे में  बताया था कि वह 603 करोड़ की सम्पत्ति के मालिक हैं। 368 करोड़ रुपए की खेती योग्य जमीन है। 29 करोड़ की इमारतें थीं इस  बिल्डर के नाम। दीपक भारद्वाज के दो बेटे हैं। बड़ा बेटा हितेश उर्प सोनू वसंत विहार में परिवार के साथ रहता है। इनसे दीपक का मनमुटाव चलता था और बातचीत भी बन्द थी। हितेश की पहली शादी शाहदरा से हुई थी लेकिन पत्नी से उनका तलाक हो गया। दूसरा बेटा नितेश मां, पत्नी व बच्चों के साथ द्वारका सेक्टर-22 स्थित नव संसद अपार्टमेंट में रहता है। नितेश पुंज काम्प्लैक्स में भारद्वाज अकेले रहते थे। पारिवारिक लोगों के अनुसार नितेश की शादी फिल्म अभिनेता शाहरुख खान की पत्नी गौरी खान की मौसेरी बहन प्रियंक तिवारी से हुई है। पुलिस जांच में सामने आया है कि दीपक भारद्वाज का अपने रिश्तेदारों से भी सम्पत्ति को लेकर विवाद चल रहा था। जमीन कब्जाने के आरोप में उनके खिलाफ अगस्त 2012 में स्थानीय एसडीएम की शिकायत पर मुकदमा भी दर्ज किया गया था। इसके अलावा राजनीति में आने के कारण उनके कई विरोधी भी बन गए थे। दीपक हरिद्वार में मॉल व टाउनशिप बसा रहे थे। उनके कई बिजनेस पार्टनर हैं। पुलिस के अनुसार इनके खिलाफ दक्षिण-पश्चिमी जिला के उपायुक्त ने 15 साल पूर्व पांच एकड़ प्रॉपर्टी पर कब्जे को लेकर मुकदमा दर्ज कराया था। उनका कनाडा और दुबई में भी कारोबार है। पुलिस मामले की छानबीन कर रही है और उम्मीद है कि जल्द ही यह हत्या की गुत्थी सुलझ जाएगी।

Wednesday 27 March 2013

इमामों के वेतन बढ़ाने की मांग ः निशाने पर सरकार और वक्फ बोर्ड



 Published on 27 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 दिल्ली सरकार और दिल्ली वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष चौधरी मतीन के खिलाफ दिल्ली की मस्जिदों के इमामों ने मोर्चा खोल दिया है। कुल हिन्द इमाम एसोसिएशन के सदर मौलाना साजिद रशीदी ने दिल्ली सरकार व दिल्ली वक्फ बोर्ड पर आरोप लगाया है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी इमामों की तनख्वाह में बढ़ोतरी नहीं की गई। उनका आरोप है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से इमाम कई बार मिलने गए लेकिन उन्होंने उनसे मिलने तक का समय नहीं दिया। उन्होंने कहा कि दिल्ली वक्फ बोर्ड के आधीन 371 प्रॉपर्टी हैं। अगर उनको इमामों को सौंप दिया जाए तो सरकार को इमामों के वेतन का पैसा अदा करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। क्योंकि इन प्रॉपर्टियों पर या तो कब्जे हैं या कुछ कम किराए पर उठी हुई हैं। इनसे कम आमदनी का बहाना करके दिल्ली वक्फ बोर्ड इमामों की तनख्वाह बढ़ाने से बच रहा है। उन्होंने बताया कि आज की महंगाई के चलते 6000 रुपए इमाम की तनख्वाह बहुत कम है। सुप्रीम कोर्ट दिल्ली सरकार और सेंट्रल वक्फ बोर्ड को आदेश दे चुका है कि वह मौजूदा ग्रेड के अनुसार इन इमामों को वेतन अदा करें लेकिन वक्फ बोर्ड और दिल्ली सरकार इस आदेश को तिलांजलि दिए हुए हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर दिल्ली सरकार ने उनकी मांगें 15 दिनों में नहीं मानीं तो वे मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ आंदोलन करेंगे और उनके आवास के बाहर भूख हड़ताल करेंगे। पिछले दिनों नई दिल्ली में शिया मुस्लिमों के धार्मिक गुरु मौलाना क्लबे जव्वाद ने प्रेस क्लब में एक संवाददाता सम्मेलन किया था। यह सम्मेलन मौलाना जव्वाद ने डीडीए द्वारा महरौली में अवैध रूप से गिराई गई गोसिया मस्जिद को लेकर किया था। मौलाना जव्वाद खासतौर से लखनऊ से दिल्ली इस सम्मेलन के लिए आए थे। उन्होंने कांग्रेस सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि सरकार विकास के नाम पर मस्जिद और कब्रगाह को ढहा रही है। यह कार्रवाई अवैध कब्जे की बताकर की जाती है जबकि हकीकत यह है कि वक्फ बोर्ड की जमीन पर सबसे ज्यादा कब्जा सरकार द्वारा किया गया है। उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने अपने कार्यकाल में लखनऊ में वक्फ बोर्ड की जमीन पर नेहरू और इन्दिरा गांधी के नाम पर भवन बना दिए हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस का काम ही है वक्फ बोर्ड की जमीन पर कब्जा करना। उन्होंने कांग्रेस के दो मुस्लिम नेताओं का नाम लेते हुए कहा कि यह मुस्लिमों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। मौलाना साजिद रशीदी ने केंद्र और दिल्ली सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि वक्फ बोर्ड की 271 ऐसी  बड़ी सम्पत्तियां हैं जिन पर सरकारी महकमों का कब्जा है। इनमें से डीडीए के पास ही 172 सम्पत्तियां हैं। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार अगर वक्फ बोर्ड की जमीन लौटा दे तो मुसलमानों को सरकार की मदद की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। मौलाना कल्वे जव्वाद ने कहा कि कांग्रेस और वक्फ बोर्ड मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। अपने-अपने कारणों से सुन्नी-शिया, दोनों समुदायों के मुसलमान नेता कांग्रेस सरकार और वक्फ बोर्ड के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। इमामों के वेतन की वृद्धि तो जायज मांग है।

होली मनाएं पर एहतियात भी बरतें, होली मुबारक



 Published on 27 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
खुशी और हर्षोल्लास के पर्व होली की तैयारियां जोरों पर हैं। वैदिक विद्वानों के मुताबिक यह पर्व प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें भद्रकाल वर्जित है। धर्म शास्त्राsं के अनुसार प्रतिपदा, चतुर्दशी व आधी रात के बाद होलिका दहन निषिद्ध है। होलिका दहन करना राष्ट्र व समाज के लिए कल्याणकारी रहेगा। बढ़ती महंगाई का असर होली पर भी दिख रहा है। खरीदारों को पिचकारी और गुलाल खरीदना काफी महंगा पड़ रहा है। कारोबारियों का कहना है कि इस साल गुलाल की मांग में 40 फीसदी की कमी आई है और इसकी कीमत में 15 से 30 फीसदी इजाफा हुआ है। जबकि पिचकारियों के लिए भी लोगों को पिछले साल की तुलना में 20 से 25 फीसदी ज्यादा कीमत अदा करनी पड़ रही है। सदर बाजार के एक व्यवसायी ने कहा कि पिचकारियों के कारोबार में इस साल भी चीनी पिचकारियों की मांग ज्यादा है। दरअसल दिल्ली  का पिचकारियों का कारोबार 250-300 करोड़ का है, जो पिचकारियां दिल्ली में बनाई जाती हैं उनकी मांग दिल्ली के आसपास के राज्यों में ज्यादा है। इन दिनों दुकानों में दबंग टू, जब तक है जान, खिलाड़ी नम्बर 786 जैसी फिल्मों और बॉलीवुड स्टार सलमान खान, सोनाक्षी सिन्हा के पोस्टर स्टीकर थीम वाली छोटी-बड़ी पिचकारियां खरीदारों को खूब लुभा रही हैं। चीनी पिचकारियों पर भी बॉलीवुड का तड़का देखने को मिल रहा है। इस साल की होली में एक नई चीज  देखने को मिली है। बेरंग जीवन जी रहीं वृंदावन की विधवाओं का जीवन रविवार को रंग से भर गया। सभी पर्वों खासकर रंगों के पर्व से अलग-थलग रहने वाली विधवाओं ने रविवार को रंग से होली खेली। दरअसल कृष्ण की भूमि वृंदावन के मीरा सहभागिनी विधवाश्रम की महिलाओं ने रविवार से होली खेलनी शुरू कर दी है। यहां होली का पर्व चार दिनों तक मनाया जाएगा। इन चार दिनों में करीब पांच आश्रमों की 800 महिलाएं होली मनाएंगी। अभी तक ये महिलाएं केवल अपने ठाकुर जी (श्रीकृष्ण) के साथ होली खेलती थीं। यह सुविधाएं एनजीओ सुलभ इंटरनेशनल द्वारा मुहैया करवाई  गई हैं। होली का पर्व प्रेम और खुशी का प्रतीक है और इसको समाज व मन में फैली गंदगी को साफ करने के तौर पर मनाया जाना चाहिए। रंगों का त्यौहार होली बसंत के आगमन की खुशी में मनाया जाता है। होली में इस्तेमाल किए जाने वाले विभिन्न रंगों को भी बसंत का ही प्रतीक माना जाता है लेकिन आजकल होली के रंगों में ऐसे कैमिकलों का इस्तेमाल होने लगा है जिससे शरीर को नुकसान होता है। पहले मैरीरोज, चाइना रोज, केशु व परीजात आदि फूलों से रंग बनाए जाते थे। ये रंग त्वचा के लिए नुकसानदेय नहीं होते थे। इनमें खुशबू भी होती थी। लेकिन लगातार कट रहे पेड़ों व फूलों की कमी के चलते अब  इनकी जगह कैमिकलयुक्त रंगों ने ले ली है। रंगों में विभिन्न तरह के कैमिकल जैसे क्रोमियत्र से अस्थमा, सांस की बीमारी, निकिल, आयरन से त्वचा संबंधी रोग, हड्डियों में रोग व बुखार हो सकता है। वहीं मिट्टी व पानी के साथ मिलकर यह कैमिकलयुक्त रंग ज्यादा जहरीले हो जाते हैं। रंग छुड़ाने के लिए कठोर साबुन का प्रयोग न करें। साबुन में एलकलाइन होता है जिससे रूखापन और बढ़ता है। पहले क्लीजिंग क्रीम और लोशन से त्वचा की मालिश करें फिर रुई से साफ करें। नींबू का  प्रयोग भी किया जा सकता है। इससे दाग हल्के हो जाएंगे। एक डाक्टर के अनुसार रंग में सिंथेटिक होता है। हरे रंग में कॉपर सल्फेट होता है जिससे आंखों में एलर्जी, अल्पकालीन अंधापन, कंजक्टीवाइटिस हो सकता है। महिलाएं इन बातों का रखें ख्याल ः  अकेले होली खेलने न निकलें, केवल परिचित व रिश्तेदारों के साथ होली खेलें, भांग न पीएं, अनजान से कोई खाद्य पदार्थ न लें और भीड़ में शामिल न हों। आवारागर्द का सामना होने पर तुरन्त पुलिस हेल्पलाइन की मदद लें और महंगे जेवरात न पहनें। अपने बच्चों के लिए बड़ी बॉल्टी में पानी भरकर रखें ताकि वह कच्चे पानी से या गटर के पानी का इस्तेमाल न करें। सभी पाठकों को दैनिक वीर अर्जुन, प्रताप व सांध्य वीर अर्जुन के तमाम साथियों की ओर से होली की शुभकामनाएं और यह होली आप सबके लिए शुभ और मंगलमय हो।


Tuesday 26 March 2013

गर्दिश में चलते बॉलीवुड सितारों के ग्रह



 Published on 26 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
बॉलीवुड के सितारे गर्दिश में चल रहे हैं। मैं बॉलीवुड के धंधे की बात नहीं कर रहा, मैं तो सितारों के सितारों की बात कर रहा हूं। इधर संजय दत्त जेल जाने की तैयारी कर रहे हैं उधर राजस्थान के जोधपुर की एक अदालत में कई और सितारे गर्दिश में जाते दिख रहे हैं। काले हिरणों के शिकार के मामले में शनिवार को बॉलीवुड सितारे सैफ अली खान, सोनाली, बिन्द्रs, नीलम और तब्बू व सतीश शाह पर नए सिरे से आरोप तय किए गए। इस मामले में एक अन्य आरोपी सलमान खान इलाज के लिए अमेरिका में होने की वजह से अदालत में हाजिर नहीं हो सके। जोधपुर के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में हाजिर होने वाले सितारों पर शिकार करने, शिकार में मदद करने और शिकार के लिए उकसाने के आरोप लगाए गए हैं। इन अपराधों के लिए तीन से छह साल की सजा का प्रावधान है। सभी सितारों ने आरोपों से इंकार किया है। मामले की अगली सुनवाई अब 27 अप्रैल को होगी। वैसे सलमान खान के फैंसों के लिए अमेरिका से गुड न्यूज आई है। अपने हेल्थ चैकअप के लिए अमेरिका पहुंचे सलमान को डाक्टरों ने क्लीन चिट दे दी है। अब सल्लू को कोई सर्जरी नहीं करानी होगी। गौरतलब है कि उन्हें 2011 में न्यूरेलजिया की प्रॉब्लम हुई थी और तब उनकी सर्जरी भी हुई थी। भले ही फिल्म दबंग में सलमान खान पुलिस वाले का रोल करते हों लेकिन जोधपुर में चिंकारा शिकार मामले में उन्हें 1996 में तीन दिन जेल में बिताने पड़े थे। इसके बाद 1998 में भी सल्लू इसी सिलसिले में एक बार फिर जले गए थे। सलमान के बुरे दिन यहीं खत्म नहीं हुए। 2002 में उनकी गाड़ी ने बेकरी में घुसकर पांच लोगों को कुचल दिया, जिसमें एक की मौत मौके पर ही हो गई। हिट एण्ड रन का केस अभी कोर्ट में चल रहा है। अगर उनका यह गुनाह साबित हो जाता है तो फिर उन्हें 10 साल की सजा हो सकती है। यह भी सही है कि जब भी सल्लू जेल गए हैं तो उनके प्रोड्यूसर्स की रातों की नींद उड़ जाती है लेकिन इसे सलमान की किस्मत कहें कि उनके जेल जाने के बावजूद भी कैरियर पर कोई असर नहीं पड़ा। जब बात जेल जाने और कैरियर पर प्रभाव की हो रही है तो संजय दत्त के पास जेल जाने से पहले सिर्प एक महीना बचा है और उन्होंने अपने बचे शूटिंग शेड्यूल को कम्पलीट करने का फैसला किया है। खबर है कि इसी बीच संजय दत्त ने अपनी फिल्मों के डायरेक्टर्स राजकुमार हिरानी, अपूर्व लखिया और राहुल अग्रवाल के साथ मीटिंग की है। सूत्रों के मुताबिक संजू ने अपनी फिल्में पीके, जंजीर और पुलिसगीरी के निर्माताओं को भरोसा दिलाया है कि वह उन्हें बीच में छोड़कर नहीं जाएंगे और अपनी शूटिंग पूरी करेंगे। जहां राहुल को फिल्म पूरी करने के लिए संजू के 15 दिन चाहिए वहीं हिरानी और लखिया को पांच-पांच दिन का वक्त चाहिए। अगर संजू इसी शेड्यूल पर चले तो उनके पास अपने परिवार के साथ बिताने के लिए सिर्प तीन ही बचते हैं। उधर संजय दत्त को माफी देने की मांग जोर पकड़ती जा रही है। दरअसल पक्ष और विपक्ष दोनों ओर से दलीलें पेश की जा रही हैं। संजू के पक्ष में राष्ट्रीय दलित आयोग के उपाध्यक्ष राजकुमार वेरका ने शनिवार को जालंधर में बताया कि उन्होंने राष्ट्रपति और महाराष्ट्र के राज्यपाल को पत्र लिखकर देश के लिए उनके पिता के योगदान का हवाला देते हुए संजू को माफी देने की प्रार्थना की है। वेरका ने पत्र में कहा है कि संजय के पिता तथा पूर्व केंद्रीय मंत्री सुनील दत्त ने देश की सप्रभुता तथा शांति के लिए उत्पन्न समस्याओं का समाधान करने की दिशा में बेहतर काम किया है। मुंबई से अमृतसर, पंजाब तथा हजरत बल जम्मू-कश्मीर तक उन्होंने पदयात्रा की थी और लोगों को शांति का संदेश दिया था। देशभर में कैंसर के लिए उनके किए गए काम को भुलाया नहीं जा सकता है। कैंसर के बारे में लोगों के  बीच जिस तरह उन्होंने जागरुकता फैलाई और देशभर में कैंसर अस्पताल की स्थापना के लिए धन एकत्रित किया वह काबिले तारीफ है। वेरका ने अपने पत्र में राज्यपाल से यह भी कहा है कि दत्त परिवार ने देश में कई सामाजिक परियोजनाएं चलाई हैं। संजय दत्त की बहन प्रिया दत्त आज भी सांसद हैं और मुंबई सहित कई स्थानों पर सामाजिक हित में परियोजनाएं चला रही हैं। आयोग के उपाध्यक्ष ने पत्र में दावा किया है कि इस फैसले से एक ओर जहां राजस्व में कमी आएगी वहीं दूसरी ओर संजय दत्त की फिल्म से जुड़े फिल्मी उद्योग के सैकड़ों कर्मी तथा अन्य लोगों के जीवन स्तर भी प्रभावित होंगे।

आतंक के साए में राजधानी दिल्ली



  Published on 26 March, 2013  
 अनिल नरेन्द्र 
 दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने होली से पहले आत्मघाती हमला करके दिल्ली को दहलाने की बड़ी आतंकी साजिश को नाकाम करने का दावा किया है। पुलिस ने हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकी सैयद लियाकत शाह को यूपी के गोरखपुर से गिरफ्तार कर उसकी निशानदेही पर दिल्ली के जामा मस्जिद इलाके में स्थित एक गेस्ट हाउस से तबाही का सामान बरामद किया, जिसमें विस्फोटक ग्रेनेड और एक एके-56 राइफल शामिल है। गिरफ्तार आतंकी सैयद लियाकत शाह उर्प लियाकत बुखारी जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा का रहने वाला है। दिल्ली पुलिस के विशेष आयुक्त (स्पेशल सेल) एसएन श्रीवास्तव ने बताया कि खुफिया विभाग को सूचना थी कि लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकी अफजल गुरू की फांसी के विरोध में आतंकी हमले करने की फिराक में हैं। सूचना मिली थी कि हिजबुल के आतंकी दिल्ली में मौजूद हैं। इसके बाद सैयद लियाकत को गोरखपुर में भारत-नेपाल के सोनोली बॉर्डर से गिरफ्तार किया गया। लियाकत कराची से नेपाल पहुंचा था। लियाकत की निशानदेही पर पुलिस ने दिल्ली स्थित हाजी अराफात गेस्ट हाउस में दबिश दी तो विस्फोटक लाने वाले आतंकी रिसेप्शन पर चाबी देकर खाना खाने की बात कहकर गया था। 21 मार्च की रात करीब पौने 11 बजे स्पेशल सेल की टीम जामा मस्जिद स्थित हाजी अराफात गेस्ट हाउस पहुंची। पुलिस टीम कमरा नम्बर 304 की तलाशी लेना चाहती थी। कमरा नम्बर 304 में रहने वाले के बारे में पूछताछ की तो पता चला कि कमरे में रहने वाला व्यक्ति 27 घंटे पहले ही कमरे में ताला लगाकर जा चुका है। पुलिस की टीम रात करीब ढाई बजे तक छानबीन करती रही। इस दौरान कमरे से विस्फोटक और एक एके-56 के अलावा कई कागजात मिले। पुलिस को विस्फोटक और हथियार तो मिले लेकिन वहां तक पहुंचाने वाला नहीं मिला। पुलिस को शक है कि दिल्ली के अन्य इलाके में भी उस आतंकी ने अपना ठिकाना बना रखा है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि दिल्ली में अभी तक आतंकी खतरा टला नहीं। जामा मस्जिद इलाके से भारी विस्फोटक बरामद होने के बाद फिरोजशाह कोटला स्टेडियम पर सुरक्षा कड़ी कर दी गई है। स्पेशल सेल एसएन श्रीवास्तव ने बताया कि देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में बम ब्लास्ट करने की योजना आतंकी बनाते ही रहते हैं। दिल्ली में विस्फोट करने का सीधा मतलब होता है कि यहां होने वाले विस्फोट की गूंज भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में सुनी जाती है। इसका प्रभाव भी साफ दिखाई देता है। आतंकियों से लोहा लेने के लिए ही स्पेशल सेल का गठन किया गया है। आंकड़ों के अनुसार उन्होंने बताया कि 2011 से अब तक एलटीई, जेईएम, आईएम के कुल 28 आतंकवादियों को गिरफ्तार किया जा चुका है। इनमें सबसे ज्यादा 18 आतंकी हिजबुल मुजाहिद्दीन से संबंधित हैं। सूत्रों की मानें तो इस बार किसी वीआईपी को निशाना बनाने की योजना थी। इसके लिए फिदायीन हमला किया जाना था। साथ ही इजरायली एम्बेंसी की तरह ही किसी वीआईपी पर ग्रेनेड हमला करने की पूरी क्रिप्ट तैयार कर ली गई थी। पुलिस यह मान रही है कि लियाकत इस खेल में अकेला शामिल नहीं है बल्कि छह लोगों की टीम राजधानी में दहशत फैलाने के लिए भेजी गई थी। लियाकत को तो गिरफ्तार कर लिया गया है लेकिन पांच अन्य आतंकी और संदिग्ध अभी भी फरार चल रहे हैं। जिससे कहा जा सकता है कि राजधानी में खतरा अभी टला नहीं है। वैसे स्पेशल सेल द्वारा लियाकत की गिरफ्तारी पर भी विवाद पैदा हो गया है। कश्मीर पुलिस के हवाले से आई खबरों ने स्पेशल सेल के इस एक्शन पर सवाल उठाए हैं। कश्मीर पुलिस ने कहा बताते हैं कि लियाकत राज्य सरकार की माफी नीति के तहत पाक कब्जे के कश्मीर से बरास्ता नेपाल फिर से कश्मीर में बसने के लिए आ रहा था। इस पर दिल्ली पुलिस और खुफिया अफसरों का कहना है कि यदि लियाकत सरेंडर करने और फिर से कश्मीर में बसने के लिए आ रहा था तो उसने नेपाल का रूट क्यों पकड़ा? वह पाक कब्जे के कश्मीर से आसानी से इधर के कश्मीर में बस से आ सकता था? यदि वह सरेंडर करने आ रहा था तो कश्मीर पुलिस का कोई कर्मी उसे लेने के लिए भारत-नेपाल बॉर्डर पर क्यों नहीं पहुंचा? यह भी पूछा जा सकता है कि जामा मस्जिद क्षेत्र के गेस्ट हाउस से मिले इतने खतरनाक हथियार किसके हैं, किसने, किसके लिए रखे थे? यह भी कि गेस्ट हाउस में ठहरने आया शख्स असल में कौन था, उससे वह मिलने आया शख्स कौन था?

Sunday 24 March 2013

भारतीय दबाव के कारण ही इटली ने वापस भेजे आरोपी मरीन



 Published on 24 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 केरल तट से दूर दो भारतीय मछुआरों की हत्या के आरोपी दोनों इतालवी नौसैनिकों का शुक्रवार को भारत लौटना भारतीय कूटनीति व सुप्रीम कोर्ट के कारण ही सम्भव हो सका। इन दो इतालवी आरोपी नौसैनिकों को भारत न भेजने के इटली के शुरुआती फैसले की वजह से दोनों देशों के बीच जो कूटनीतिक संकट पैदा हो गया था इटली के ताजा फैसले ने निश्चित ही उस संकट को समाप्त कर दिया है। गौरतलब है कि इटली ने जब यह सूचना दी कि चुनावों में वोट देने के लिए भारतीय सुप्रीम कोर्ट से विशेष अनुमति लेकर इटली जाने वाले दोनों अभियुक्त अब भारत नहीं लौटेंगे तो सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सख्त तेवर अपनाते हुए भारत में इटली के राजदूत को देश छोड़ने पर पाबंदी लगा दी थी। कोर्ट ने यहां तक कह दिया कि इतालवी राजदूत ने अभियुक्तों की वापसी गारंटी संबंधी हलफनामा देकर अपना कूटनीतिक अधिकार खो दिया है। लेकिन शुक्रवार को जब दोनों अभियुक्त वापस लौट आए तो सभी ने राहत की सांस ली। यह संकट अभूतपूर्व इस मायने में था कि ऐसी नजीर ताजा इतिहास में कहीं नहीं मिलती जिसमें कोई देश दूसरे देश के सुप्रीम कोर्ट के सामने कोई वादा करे और फिर उससे मुकर जाए। भारत को समझ नहीं आ रहा था कि वह इस स्थिति का सामना कैसे करे? भारत और इटली के संबंध कभी खराब नहीं रहे, लेकिन इस प्रसंग से बेमतलब की कड़वाहट रिश्तों में स्थायी रूप से आ जाती। वैसे इटली का इंकार यूं ही इकरार में नहीं बदला। भारतीय सुप्रीम कोर्ट से किए वादे के मुताबिक अपने नौसैनिकों को मुकदमे के लिए उसने वापस भेज तो दिया लेकिन लिखित गारंटी के बदले। इटली ने भारत से लिखित गारंटी ली है कि उसके नौसैनिकों को मृत्युदंड नहीं दिया जाएगा। वहीं इस कूटनीतिक संकट के समाधान के लिए भारत को रियायत के साथ-साथ अपनी ताकत के कई कूटनीतिक दांव भी चलने पड़े। भारत सरकार ने अगर इटली को लिखित में गारंटी दी है कि दोनों आरोपियों को मौत की सजा नहीं दी जाएगी तो इस पर भी सवाल उठना स्वाभाविक ही है। कानून के जानकार कहते हैं कि सरकार ऐसा भरोसा दे ही नहीं सकती। सजा तय करना अदालत का क्षेत्राधिकार है। सरकार फैसले का पूर्वानुमान नहीं लगा सकती। क्या कभी ऐसा होता है कि हत्या जैसे जघन्य अपराध का आरोपी सुप्रीम कोर्ट को वचन देकर बाहर जाने की अनुमति ले और वापस आने के लिए शर्तें रखे? इटली के नौसैनिकों ने कुछ ऐसा ही किया है। पहले तो इटली ने उन्हें भेजने से मना कर दिया और जब भारत व सुप्रीम कोर्ट ने दबाव बनाया तो वापस तो भेजा पर लिखित गारंटी के साथ। इसके अलावा इटली सरकार को भारत सरकार ने यह भी आश्वासन दिया है अभियुक्त नौसैनिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा और मुकदमा पूरा होने तक उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाएगा। यानी जब तक मुकदमा चलता रहेगा तब तक वे दोनों नौसैनिक इटली के दूतावास की छत्रछाया में रहेंगे। लेकिन यह साफ है कि दोनों आरोपी भारतीय न्याय व्यवस्था के सामने पेश होंगे और उनके दोषी या निर्दोष होने का फैसला भारतीय अदालतें ही करेंगी। अब सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों में होड़ लग गई है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इटली का अभियुक्तों को वापस भेजने के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि इससे भारतीय न्यायिक प्रक्रिया की सत्यनिष्ठा और गरिमा पुष्ट हुई है। केरल के मुख्यमंत्री ओमान चांडी ने कहा कि यह बात स्पष्ट रूप से साबित हो गई है कि कोई भी देश भारत की सप्रभुता को लेकर सवाल नहीं कर सकता। विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि फैसले के बारे में उचित प्रक्रिया के माध्यम से इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया जाएगा और वह खुद संसद को जानकारी देंगे। गृह राज्यमंत्री आरपीएन सिंह ने कहा कि प्रधानमंत्री और संप्रग प्रमुख के कड़े रुख के कारण मरीन को वापस भेजने का फैसला हुआ। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के प्रवक्ता राजीव प्रताप रुड़ी ने कहा कि यह सभी विपक्षी दलों के सामूहिक प्रयास का नतीजा है। विपक्ष ने दबाव बनाया जिसके बाद केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर कड़ा रुख अपनाया। अगर ऐसा नहीं होता तो सरकार के ढुलमुल रवैये से इटली आरोपियों को भेजने के लिए शायद ही राजी होता। भाकपा के गुरुदास दास गुप्ता ने कहा कि यह अच्छा है कि इटली ने आरोपी नौसैनिकों को वापस भारत भेजने का फैसला किया है, लेकिन इसका श्रेय केवल सरकार को नहीं दे सकते। वास्तव में इसका श्रेय जनता, संसद, सुप्रीम कोर्ट व अंतर्राष्ट्रीय दबाव को जाता है। चलो देर आए दुरुस्त आए।

पान सिंह तोमर, विकी डोनर जैसी फिल्मों का सम्मान होना ही चाहिए



 Published on 24 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 इस बार के नेशनल  फिल्म अवार्ड्स बॉलीवुड के लिए अच्छी खबर लेकर आए। हिन्दी सिनेमा का सिर गर्व से ऊंचा हो गया। गर्व इसलिए नहीं कि 100 करोड़ कल्ब की फिल्म को सम्मान मिला बल्कि इसलिए कि सम्मान लायक फिल्मों को सम्मान दिया गया। यह उन लोगों के लिए एक करारा जवाब है जो किसी कलात्मक माध्यम को महज पैसों तक सीमित कर देते हैं। पान सिंह तोमर और विकी डोनर जैसी फिल्मों को सराहकर दर्शकों ने यह भी जता दिया कि मार-धाड़, पेड़ों के पीछे रोमांस करने या फिर विदेशों में शानदार खूबसूरत लोकेशन पर शूट हुई फिल्में उन्हें पसंद आएं, यह जरूरी नहीं। फिल्म की कहानी, उसमें किरदार की भूमिका को भी अब सम्मान मिलना शुरू हो गया है। यह अच्छा संकेत इसलिए भी है क्योंकि बॉलीवुड ही क्यों विश्व सिनेमा अब पूरी तरह कॉमर्शियल होता जा रहा है और फिल्म की कामयाबी महज उसके बॉक्स ऑफिस पर टिक जाती है। इस बार के अवार्ड्स ने इस बदलाव को रेखांकित किया है। पान सिंह तोमर, कहानी, गेंग्स ऑफ बासेपुर, विकी डोनर जैसी फिल्में बाजारू एंटरटेनमेंट वाली फिल्में नहीं हैं। पान सिंह तोमर के लिए बेस्ट डायरेक्शन का अवार्ड तिग्मांशु धूलिया को मिलना उल्लेखनीय है। उन्होंने फिल्म की कहानी को इस तरीके से पर्दे पर पेश किया कि उसकी बात और गहराई से सामने आई। जो भी फिल्मों को इस बार पुरस्कृत किया गया है उनमें एक विशेषता यह भी है कि दर्शक सिनेमा हॉल से बाहर निकलते ही उन्हें भूल नहीं जाते। बेस्ट एक्टर का सम्मान पाने वाले उम्रदराज विक्रम गोखले और यंग इरफान खान अलग ही श्रेणी के एक्टर हैं। पुरस्कार पाने के बाद इरफान ने कहा कि मैं काफी खुश हूं। इससे बड़ी खुशी है कि मेरे प्रशंसक खुश हैं। अवार्ड के लिए यह बात ज्यादा मायने रखती है कि किस काम के लिए आपको अवार्ड मिला है। पान सिंह तोमर एक नए तरह की कोशिश थी। मुझे लगता है कि हमें कॉमर्शियल सिनेमा का दायरा बढ़ाना होगा। जनता भी चाह रही है कि नए तरह का सिनेमा देखें। हमने थोथला मनोरंजन के रूप में जो कॉमर्शियल की परिभाषा बना रखी है वह फिल्मों के लिए बहुत बड़ा अन्याय है। हम इसे बदलेंगे। हम तो बगावत करने आए हैं, बगावत ही करेंगे। अवार्ड न भी मिलता तो हम यही करते यह कहना था इरफान का। मुझे विकी डोनर फिल्म भी अच्छा प्रयास लगी। हकीकत में जो हो रहा है उसको पर्दे पर लाना साहसी काम था जो डायरेक्टर ने, आयुषमान खुराना और अन्नू कपूर ने बाखूबी निभाया। इस फिल्म को सम्मानित होना ही चाहिए था। खुशी की बात यह भी है कि नेशनल अवार्ड्स में पैसा नहीं चलता। कई अन्य फिल्मी अवार्ड्स में, टीवी अवार्ड्स में सुना है पैसों से सम्मान खरीदा जाता है। यह नयापन कहीं से उड़कर नहीं चला आया। लम्बे समय से शायद बॉलीवुड यह भूलता आ रहा था कि फिल्म समाज को प्रभावित करने का सबसे बड़ा माध्यम है। दर्शक यही चाहते हैं तो हम उनकी मन की चीज देने पर मजबूर हैं, यह कहना है बॉलीवुड के अधिकतर फिल्म निर्माताओं का। पिछले कुछ वर्षों से फिल्मकारों, निर्देशकों और अभिनेताओं की नई पौद ने दर्शकों और कॉमर्शियल एंगल दोनों को एक साथ साधने की लगता है कला अर्जित कर ली है। ऐसे में एक समझ भरा सिनेमा आकार ले रहा है। यह उस रचनात्मक सोच का सम्मान है जो तकनीकी दृष्टि से तो समृद्ध है ही, गढ़े हुए फार्मूलों से भी बॉलीवुड को बाहर आने पर मजबूर कर रही है। इस साल के नेशनल अवार्ड इस विचारधारा को मजबूती प्रदान करेंगे।

Saturday 23 March 2013

सीबीआई या कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन?



 Published on 23 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
यूपीए सरकार से समर्थन वापसी के 36 घंटों के भीतर ही द्रमुक के कार्यकारी अध्यक्ष एमके स्टालिन के चेन्नई स्थित घर पर छापा मारकर सीबीआई ने पहले से ही गर्माई सियासत में और गर्मी ला दी। केंद्र सरकार की प्रतिशोध की राजनीति का संदेश जाने से सांसत में आए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम से लेकर पूरा सरकारी अमला सफाई देता नजर आया। पीएम ने जहां इस छापे के समय को दुर्भाग्यपूर्ण बताया वहीं चिदम्बरम ने सारी मर्यादाएं तोड़ते हुए छापों की निन्दा कर दी। इतना ही नहीं, सरकार की तरफ से ही सीबीआई के छापों के पीछे साजिश की आशंका जताई जा रही है। इस पूरे ड्रामे के दो मुख्य पात्र हैं। कांग्रेस पार्टी और सीबीआई। पहले तो हम सीबीआई से पूछना चाहेंगे कि वह गाड़ियों की, टैक्स चोरी के मामले में इन्वाल्व हुई क्यों? क्या सीबीआई के पास और कोई काम नहीं बचा कि अब वह गाड़ियों के आयात में टैक्स चोरी के मामलों में छापे मारने लगे? वैसे भी सीबीआई की कारगुजारी संतोषजनक नहीं। इतने दिन बीतने के बाद भी राजा भैया मामले में सीबीआई अभी तक कुछ नहीं कर सकी। दरअसल सीबीआई का हौवा दिखाकर सत्तारूढ़ दल अपने राजनीतिक स्वार्थ साधते हैं। रहा सवाल कांग्रेस का तो अपनी तरफ से तो पार्टी ने एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश की है। पहला निशाना द्रमुक पर साधा है कि देखो हमसे समर्थन वापस लेने की सजा के लिए तैयार रहो। दूसरा उन बाकी सहयोगी दलों (बसपा और सपा) को यह संदेश देने का प्रयास किया है कि अगर तुमने अलग होने की जुर्रत की तो नतीजा भुगतने के लिए तैयार रहना। मेरी राय में कांग्रेस रणनीतिकारों की बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है। कांग्रेस विनाश काले विपरीत बुद्धि की कहावत पर चल रही है। इस साल नौ राज्यों का चुनाव होना है और जिन राज्यों में चुनाव होना है उनमें तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश शामिल हैं। कांग्रेस अब तक द्रमुक, टीआरएस   और तृणमूल कांग्रेस से मिलकर चुनाव लड़ती रही है। आज कांग्रेस से यह तीनों न केवल नाराज ही हैं बल्कि वह अब कांग्रेस से गठजोड़ कर चुनाव नहीं  लड़ेंगी। नतीजा यह होगा कि इन राज्यों में कांग्रेस को अकेले लड़ना पड़ेगा। दरअसल कांग्रेस की यह रेपुटेशन बनती जा रही है कि जरूरत पड़ने पर बाप बना लेती है और काम पूरा होने पर जैसे दूध से मक्खी निकाल बाहर फेंक देते हैं ऐसा व्यवहार करती है। आज लालू प्रसाद यादव जैसे सबसे ज्यादा विश्वास पात्र सहयोगी का क्या हाल है? 4 सांसदों के बावजूद आरजेडी का एक भी राज्यमंत्री केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं है। आंध्र में जगन रेड्डी एक अत्यंत मजबूत स्तम्भ थे, सीबीआई केसों में फंसा कर ऐसा दुश्मन बना लिया है कि उन्होंने भी कसम खा ली है कि आंध्र में कांग्रेस का सूपड़ा साफ करके ही दम लेंगे। कभी दक्षिण भारत में कांग्रेस का सबसे मजबूत माना जाने वाला राज्य आज उसके के हाथ से निकलता जा रहा है। रही-सही तस्वीर विधानसभा चुनाव में नजर आ जाएगी। टीआरएस को लिखित रूप में देकर विधानसभा चुनाव में तो उसका पूरा लाभ उठा लिया पर काम होते ही लात मार बाहर कर दिया। आज कांग्रेस पर किसी भी सहयोगी को विश्वास नहीं रहा। शरद पवार अपना अलग ही खेल खेल रहे हैं। कांग्रेस गठबंधन धर्म को निभाने में बुरी तरह फेल हो गई है तभी तो राम गोपाल यादव ने कहा कि अटल बिहारी वाजपेयी गठबंधन सरकार ने गठबंधन धर्म बेहतर निभाया था। राजग गठबंधन यूपीए गठबंधन से कहीं बेहतर था। संसद का बजट सत्र चल रहा है और कई महत्वपूर्ण विधेयक पारित कराने होंगे। इन परिस्थितियों में मनमोहन सरकार इन्हें कैसे पारित कराएगी, यह अलग मसला है। स्टालिन पर सीबीआई का छापा कहीं यूपीए सरकार के लिए ताबूत में आखिरी कील का काम न कर दे? अगर आज सीबीआई को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन या कांग्रेस बचाओ इंस्टीट्यूट कहकर संबोधित किया जाए तो वह गलत नहीं।

सितारों से सलाखों तक की संजय दत्त की दुखद कहानी



 Published on 23 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 सुप्रीम कोर्ट ने बृहस्पतिवार को 1993 के मुंबई ब्लास्ट केस पर अपना फैसला सुनाया। सभी की दिलचस्पी फिल्म सितारे संजय दत्त के मामले में थी।  कोर्ट ने संजय दत्त को आर्म्स एक्ट का दोषी करार दिया है। टाडा कोर्ट ने उन्हें नौ एमएम पिस्टल और एके-56 रखने का दोषी मानते हुए 6 साल की सजा सुनाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे 5 साल कर दिया और संजय दत्त को 4 हफ्ते में सरेंडर करने को कहा है। संजय दत्त एक मजबूत व्यक्ति हैं और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई सजा को जस का तस स्वीकार कर लिया है। संजय के वकील सतीश माने शिंदे ने कहा कि हम उन्हें सजा के लिए मानसिक रूप से तैयार कर चुके हैं। खुद संजय दत्त की प्रतिक्रिया थी कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मैं भावनात्मक तनाव में हूं। पिछले 20 सालों तक मैंने इसे सहा है। 18 महीने जेल में भी रह चुका हूं। अगर वे चाहते हैं कि मैं और पीड़ा उठाऊं तो इसके लिए मुझे मजबूत होना पड़ेगा। आज मेरा दिल टूट गया क्योंकि मेरे साथ तीन बच्चे और पत्नी और मेरा परिवार सजा भुगतेगा। वैसे संजय दत्त के चाहने वालों को उम्मीद की एक किरण दिख रही है। हो सकता है कि उनके मुन्नाभाई को साढ़े तीन साल जेल में नहीं रहना पड़े। यदि जेल में व्यवहार अच्छा रहा तो ढाई साल में बाहर आ सकते हैं। भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने महाराष्ट्र के राज्यपाल के शंकर नारायण से संजय दत्त को माफी देने की अपील भी की है। काटजू के बयान में कहा गया है कि संजय दत्त को सिर्प बगैर अनुमति के एक नोटिफाइड एरिया में हथियार रखने का दोषी पाया गया है। 1993 मुंबई ब्लास्ट में शामिल होने का नहीं। लिहाजा संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल को न्यूनतम सजा माफ करने का अधिकार है। जस्टिस काटजू ने हत्या के दोषी ठहराए गए कमांडर नानावटी का उदाहरण भी दिया, जिसमें राज्यपाल ने माफी दे दी थी। उन्होंने कहा कि संजय दत्त का अपराध हत्या से कम ही संगीन है। वैसे पिछले कुछ समय से आतंकवादी घटनाओं के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कड़े फैसले करके न्यायपालिका को संकेत देने की कोशिश की है कि वह इसे गम्भीरता से ले और ऐसे तमाम उपाय करे कि भविष्य में दहशतगर्दी न फैले। हम 1993 के मुंबई ब्लास्ट के फैसले को भी इस कड़ी में ले सकते हैं। हालांकि इस केस को मुकाम पर पहुंचने में दो दशक लग गए। 1993 में मुंबई में एक साथ करीब एक दर्जन ठिकानों पर किए गए बम विस्फोटों में न केवल 257 लोगों की मौत हुई और 713 लोग घायल हुए थे। इन ब्लास्टों ने न केवल इस शहर और देश को ही नहीं हिलाया था बल्कि दुनिया को भी स्तब्ध कर दिया था। ऐसे हमले की कल्पना नहीं की जाती थी और कम से कम भारत में तो बिल्कुल नहीं। खुद सुप्रीम कोर्ट ने इसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की सबसे भीषण आतंकी वारदात करार दिया। जहां तक मुंबई हमले के अन्य दोषियों को सुनाई गई सजा की बात है तो इस पर कोई बहुत बड़ा संतोष नहीं प्रकट किया जा सकता क्योंकि जिन्होंने साजिश रची वे सब के सब न केवल बचे हुए हैं बल्कि उनमें से कुछ अभी भी भारत के लिए खतरा बने हुए हैं। सवाल तो यह भी उठता है कि इन 20 सालों में मुंबई पुलिस माफिया तत्वों से मुक्त हो सकी है? यह सवाल इसलिए क्योंकि आज भी माना जाता है कि मुंबई हमले की साजिश रचने वाला दाउद इब्राहिम मुंबई में अपने गुर्गों के जरिये आज भी क्राइम वर्ल्ड का बॉस है। वरिष्ठ वकील माजिद मेनन का कहना है कि अब संजय दत्त के पास जेल जाने से बचने के लिए बहुत ही कम विकल्प बचे हैं। उन्हें सजा काटनी ही होगी। दत्त पुनर्विचार याचिका दायर कर सकते हैं, लेकिन उन्हें जमानत मिलनी बहुत मुश्किल है। मुझे नहीं लगता कि इस फैसले के खिलाफ बड़ी बैंच पुनर्विचार याचिका स्वीकार करे। वहीं विशेष सरकारी वकील उज्ज्वल निकम कहते हैं कि मुझे बहुत खुशी है कि भगोड़े आरोपी टाइगर मेमन के भाई याकूब मेमन की फांसी की सजा सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखी है। इसके जरिये पाकिस्तान पर दबाव बनाया जा सकता है। पाकिस्तान के लिए अब टाइगर मेमन और दाउद इब्राहिम को पनाह देना मुश्किल होगा और दुख की  बात तो यह है कि पाकिस्तान में बैठे भारत विरोधी तत्व अपने षड्यंत्रों से बाज नहीं आ रहे, दूसरी ओर ऐसे षड्यंत्रों से बचने के लिए हर स्तर पर जैसे उपाय किए जाने चाहिए, वे अभी तक नहीं किए जा सके हैं।

Friday 22 March 2013

जो बादल गरजते हैं वो बरसते नहीं ः धमकी कम भभकी ज्यादा है



 Published on 22 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 यह तो होना ही था। तमिलनाडु में जिस तरह की राजनीति चल रही थी उसके बाद द्रमुक का केंद्र की यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेना कोई बड़ी आश्चर्यजनक घटना नहीं है। यह पहली बार नहीं जब डीएमके ने यूपीए सरकार को ब्लैकमेल करने का प्रयास किया हो। पिछली बार की करीब आधा दर्जन समर्थन वापसी की धमकियों की तरह इस बार भी सरकार के संकट मोचकों को लगता है कि आखिर में सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। वैसे भी सपा, बसपा अक्सर इस सरकार की बैशाखी बनने के लिए प्रस्तुत रहती हैं, इसलिए इसे धमकी कम भभकी ज्यादा माना जाना चाहिए। समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव का साफ कहना है कि डीएमके नाटक कर रही है। हां, इतना जरूर है कि गठबंधन पर चलने वाली मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार थोड़े दबाव में जरूर आ गई है। इसके प्रमुख घटक दल डीएमके ने श्रीलंका में तमिलों पर होने वाले अत्याचार के मुद्दे पर सरकार के ढुलमुल रवैये के खिलाफ उससे नाता तोड़ लिया है। दरअसल श्रीलंका में तमिलों की दुर्दशा का मुद्दा तमिलनाडु के बहुसंख्यक तमिलों से सीधा भावनात्मक रूप से जुड़ा है। पिछले साल खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को मंजूरी देने के मुद्दे पर सरकार से नाता तोड़ने वाली तृणमूल कांग्रेस के बाद यह दूसरा मौका है जब कांग्रेस नीत संप्रग सरकार को बड़ा झटका लगा है। संख्याबल की दृष्टि से कांग्रेस बेशक जोड़तोड़ कर फौरी तौर पर खतरे को टाल दे पर आर्थिक सुधार संबंधी उसके फैसलों और कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण कानून पास कराने में बड़ा फर्प पड़ना तय है। लोकसभा में डीएमके के 18 सदस्य हैं। सपा-बसपा की वजह से सरकार बच जाएगी। दरअसल पिछले कुछ समय से तमिलनाडु में जिस तरह की राजनीति चल रही थी, उससे देश की विदेश नीति पर एक गलत किस्म का दबाव बन रहा था। तमिलनाडु में सरकार बनाते ही अन्ना द्रमुक नेता जे. जयललिता ने विधानसभा में प्रस्ताव पास करवाकर केंद्र सरकार से आग्रह किया कि श्रीलंका पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाएं। इसके बाद उन्होंने श्रीलंका के एथलीट को प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए तमिलनाडु नहीं आने दिया। अभी तक तमिलनाडु के कई छोटे दल तमिल भावनाओं को भड़काने के लिए जो मांगें उठाते रहे हैं, उन्हें जयललिता सरकार ने पूरा करना शुरू कर दिया है। ऐसे में द्रमुक की भी यह मजबूरी हो गई कि वह कोई ऐसा बड़ा कदम उठाए, जिसे तमिल हितों के लिए दी गई कुर्बानी की तरह जनता के सामने पेश किया जा सके और यह मौका उसे तब मिल गया जब संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका के खिलाफ आए अमेरिकी प्रस्ताव ने उसे दे दिया। द्रमुक प्रमुख करुणानिधि जो शातिर राजनीतिज्ञ माने जाते हैं ऐसे ब्लैकमेलिंग के मौके तलाशते रहते हैं। एक तरफ तो केंद्र सरकार को ब्लैकमेल कर कुछ आर्थिक व अन्य लाभ उठाएंगे दूसरी तरफ कांग्रेस को यह भी संकेत दे रहे हैं कि तमिलनाडु विधानसभा चुनाव इस बार वह अकेले लड़ने के  मूड में हैं, कांग्रेस से कोई गठबंधन नहीं करेंगे। बसपा और सपा तो सौदेबाजी के लिए मशहूर हैं। उन्हें इस सरकार की दुखती रग नजर आनी चाहिए बस फिर क्या? इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि द्रमुक के यूपीए सरकार से हटते ही कांग्रेस की कमर टूट गई। समर्थन वापसी के बाद पहले ही दिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के सामने घुटने टेकने पड़े। मुलायम को कोसने वाले बेनी प्रसाद वर्मा को सरेआम माफी मांगनी पड़ी। कांग्रेस रणनीतिकारों को अलग राग अलापने वाले सहयोगी राकांपा प्रमुख शरद पवार की मान-मनौव्वल करनी पड़ी तथा तमिल समस्या पर सर्वदलीय बैठक बुलाने पर मजबूर होना पड़ा। पहले ही दिन इतनी जिल्लत झेलने के बाद भी कांग्रेस नहीं जानती कि वेंटिलेटर पर आ चुकी मनमोहन सरकार अब कितने दिन और सांसें लेगी। अब केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही सरकार पूरी तरह से  बाहरी समर्थकों पर निर्भर है। खासतौर पर सपा की दया पर ही उसका अस्तित्व टिका है और किसी को यह पता नहीं कि मुलायम या मायावती कब यह बैसाखी खींच लेते हैं।

पाक प्रस्ताव ः शरारत की इंतहा हो गई है



 Published on 22 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 आतंकवाद को लेकर ढुलमुल रवैया अख्तियार करने के आरोप पाकिस्तान पर लगते रहे हैं। जब भी आतंकवादी जमातों को पाकिस्तान सरकार व सेना से मदद मिलने की बात कही गई हमेशा पाकिस्तान की ओर से यही दलील होती है कि इन जेहादी गुटों का राज व्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं और कि जो भी आतंक हो रहा है वह नॉन स्टेट एक्टर कर रहे हैं। लेकिन अब तो खुद पाकिस्तान की संसद एक आतंकी का महिमामंडन कर रही है। गत सप्ताह पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली ने एक प्रस्ताव पारित कर अफजल गुरू को फांसी दिए जाने की निन्दा की। इससे पहले भी पाकिस्तान के कई संगठन अफजल गुरू को फांसी देने का आरोप जता चुके थे। यही नहीं असेम्बली ने यह भी मांग कर डाली कि उसकी लाश  परिजनों को सौंपी जाए। अफजल गुरू भारतीय संसद पर हमले का गुनहगार था। सालों जेल में बन्द रहा और अन्त में कहीं से क्षमादान न मिल पाने के कारण उसे फांसी दी गई। वह भारत का नागरिक था। भारत में जितने भी आतंकवादी हमले हुए उसके तार पाकिस्तान से सीधे जुड़ते थे। लेकिन पाकिस्तान ने हमेशा इससे इंकार ही किया। अब जब संसद जैसी देश की सप्रभुता की प्रतीक संस्था पर हमले के एक गुनहगार को बाकायदा वर्षों की ट्रायल के बाद फांसी की सजा सुनाई, तो पाकिस्तान को एतराज क्यों? दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह भी है कि अफजल गुरू की फांसी का निन्दा प्रस्ताव पाकिस्तान की संसद में पारित हुआ जो वहां की समूची जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है, क्या इसका मतलब हम यह निकालें कि पाकिस्तान की सभी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था इस्लामी आतंकवाद को प्रश्रय दे रही है? निश्चित रूप से यह भारत की अंदरूनी व सप्रभुता के मामलों में (दुस्साहसिक) हस्तक्षेप है। पाकिस्तान आखिर एक भारतीय नागरिक और सर्वोच्च संवैधानिक संस्था न्यायपालिका के फैसले की निन्दा के लिए अपनी संसद में प्रस्ताव कैसे पारित कर सकता है? पाकिस्तानी नेशनल असेम्बली में पारित प्रस्ताव जमायत उलेमा इस्लाम के प्रमुख फजीलुर्रहमान ने पेश किया था, जो कश्मीर पर वहां की संसदीय समिति के मुखिया भी हैं। इस प्रस्ताव में अफजल की फांसी की निन्दा करने के साथ ही इस फांसी के चलते कश्मीर घाटी में पैदा हुई स्थिति पर चिन्ता जताई गई है। इस पर भारत के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने ठीक ही कहा कि पाकिस्तान भारत के अंदरूनी मामलों में दखलअंदाजी करने की कोशिश न करे। असेम्बली में यह प्रस्ताव श्रीनगर के बाहरी इलाके में हुए सीआरपीएफ पर फिदायीन हमले के एक रोज बाद पारित हुआ। दोनों घटनाओं में कोई रिश्ता हो या न हो, यह साफ है कि पाकिस्तान संसद की दिलचस्पी कश्मीर मसले को जलाए रखने में है और इसके लिए किसी भी हद तक जाने में उसे संकोच नहीं है। भारतीय संसद ने शुक्रवार को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर पाकिस्तान को खबरदार किया है। संसद मानती है कि यह प्रस्ताव भारत के आंतरिक मामलों में पाकिस्तान द्वारा सीधा हस्तक्षेप है। जो कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही संसद ने जम्मू-कश्मीर और पाक अधिकृत कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताया। भारतीय संसद द्वारा उठाया गया यह कदम अपने देश की सप्रभुता को बचाए रखने का सिर्प `मौखिक' प्रयास है। मगर पाकिस्तान ने जो किया वह भारत की सप्रभुता पर सीधा हमला है। लातों के भूत बातों से नहीं मानते, इसलिए जरूरी है कि भारत अब पाकिस्तान के खिलाफ कुछ सख्त कदम उठाए। भारत को पाकिस्तान से हर तरह के संबंधों पर पुनर्विचार करना चाहिए। यहां तक कि पाकिस्तान से व्यापारिक संबंध खत्म करने पर भी सोचा जाए। खेल प्रतियोगिताएं, पाकिस्तानी गायकों, सब पर पाबंदी तत्काल लगनी चाहिए। पाकिस्तान को एक बार समझाना जरूरी है कि  भारत-पाक द्विपक्षीय रिश्ते तभी लाइन पर आ सकते हैं जब पाकिस्तान भारत के खिलाफ आग उगलना बन्द करे। अन्यथा लचीलेपन न केवल हमारे सुरक्षाबलों का मनोबल गिराएंगे बल्कि आतंकवादियों का दुस्साहस बढ़ाएंगे। यह देश की सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है।

Thursday 21 March 2013

बेनी प्रसाद बनाम मुलायम के निशाने पर अल्पसंख्यक वोट




 Published on 21 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
केन्द्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा जैसे दोस्त हों तो कांग्रेस को दुश्मनों की जरूरत नहीं। एक तरफ तो कांग्रेस के युवा उपाध्यक्ष राहुल गांधी निर्दोष मुसलमान युवकों को आतंकवाद में जबरन फंसाने के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं बेनी प्रसाद समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव को आतंकवादियों का समर्थक बता रहे हैं। बेनी ने गोंडा में एक सभा में कहा कि मुलायम सिंह गुंडे हैं और आतंकियों के समर्थक हैं। मैं मुलायम को अच्छी तरह जानता हूं। कमीशन खाओ और परिवार को खिलाओ, लेकिन बेनी प्रसाद ऐसा नहीं करेंगे। यह पहली बार नहीं जब बेनी बाबू के बयान से कांग्रेस को नुकसान पहुंचा हो। पिछले उत्तर पदेश विधानसभा चुनाव में भी उनके विवादास्पद बयानों से पार्टी को भारी नुकसान हुआ था और रही उनकी यूपी में हैसियत की तो विधानसभा चुनाव में बेटे की जमानत तक नहीं बचा सके। बेनी प्रसाद ने मुलायम के खिलाफ ऐसा बयान आखिर क्यों दिया? एक वजह हो सकती है कि बेनी बाबू गोंडा से चुनाव लड़ते हैं। यहां पर मुस्लिम सियासत जोरों पर चलती है। गोंडा में बरेलवी मुसलमान समुदाय का वर्चस्व है और बरेलवी मुसलमान और मुसलमानों में शिया गुट देवबंदियों को पसंद नहीं करता। जहां बेनी बाबू का बयान विवादास्पद है वहीं मुलायम सिंह से भी सवाल पूछा जा सकता है कि आप और आपकी सपा सरकार उन तथाकथित निर्दोष मुस्लिम युवकों को जेल से छुड़ाने की मुहिम क्यों चला रही है? आप कानूनी पकिया में क्यों दखलअंदाजी कर रहे हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि आरोपी निर्दोष हैं या कसूरवार इसका फैसला अदालत को करना है। मुलायम या यूपी सरकार को नहीं। इन परिस्थितियों में अगर मुलायम को आतंकवादी समर्थक बताया जाए तो इस पर इतनी हाय-तौबा क्यों? संसदीय कार्यमंत्री कमलनाथ और कांग्रेस पवक्ता राशिद अल्वी के खेद जताने के बाद भी मुलायम सिंह यादव नाराज चल रहे हैं। इस बार मुलायम हथियार डालने के मूड में नहीं लगते। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तक अपनी शिकायत पहुंचा दी है और जवाब का इंतजार कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी इस बार लगता है आर-पार की लड़ाई लड़ने के मूड में है। दरअसल कुछ कांग्रेसियों का मानना है कि बेनी ने तुरुप का पत्ता चलकर मुलायम की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। उन्होंने उत्तर पदेश में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के आरोपियों में से एक पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को समाजवादी पार्टी में शामिल करने को आधार बनाया है। इसे कुरेदने पर यूपी का मुसलमान भी चिढ़ जाता है। कांग्रेसियों का मानना है कि इससे मुसलमान मुलायम से दूर हो सकते हैं। सारा खेल ही अल्पसंख्यक वोटों को अपनी ओर आकर्षित करने का है। यह दुर्भाग्य ही है कि इस सियासी लड़ाई में इस्तेमाल हो रही है भारत की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था लोकसभा। देश की सर्वोच्च सत्ता और संपभुता की पतीक संस्था को तमाशाघर बना कर रख दिया गया है।

तमिल मुद्दे पर बुरी फंसी यूपीए सरकार, इधर पुंआ तो उधर खाई



 Published on 21 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
तमिलनाडु के राजनीतिक दलों द्वारा सियासी फायदा उठाने की उग्र होड़ ने श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे पर राज्य में भावावेश का माहौल बना दिया है। खुद को तमिल हितों का ज्यादा हमदर्द दिखाने के जतन में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने केन्द्र सरकार से समर्थन वापस लेकर यूपीए-2 को भारी संकट में डाल दिया है। दरअसल संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका के खिलाफ अमेरिका का पस्ताव पिछले वर्ष की तुलना में कठोर हो सकता है, जिसमें श्रीलंका में गृह युद्ध की जांच की मांग अंतर्राष्ट्रीय आयोग में हो सकती है। पिछले वर्ष के पस्ताव में 26 वर्ष लंबे चले श्रीलंकाई तमिलों के खिलाफ युद्ध की समाप्ति के बाद श्रीलंका में सामंजस्य और जवाबदेही बढ़ाने पर जोर दिया गया था, जिसके पक्ष में भारत को वोट डालने में विशेष परेशानी नहीं हुई थी। लेकिन अभी यूपीए के अहम घटक द्रमुक और तमिलनाडु में सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक जिस तरह से सरकार पर दबाव बना रहे हैं उससे उसकी मुश्किलों को समझा जा सकता है। करुणानिधि चाहते हैं कि भारत संशोधन लाए और पस्ताव में तमिलों के नरसंहार के लिए श्रीलंका की सेना और पशासन को जिम्मेदार ठहराया जाए। चार वर्ष पहले राजपक्षे की सरकार ने लिट्टे के खिलाफ ताबड़तोड़ अभियान चलाया था, जिसमें हजारों निर्दोष तमिल मारे गए थे। इस अभियान में युद्ध की स्वीकृत मर्यादाएं भी लांघ दी गई थीं। इसका एक पमाण हाल ही में चैनल-4 द्वारा जारी उन तस्वीरों में नजर आया, जिसमें दिखाया गया था कि पभाकरण के 12 वर्ष के बेटे को किस तरह नजदीक से गोली मार दी गई थी। श्रीलंका में तमिलों की हालत पूरे देश के लिए चिंता का विषय है। बेहतर होता कि तमिलनाडु के सारे राजनीतिक दल केन्द्र के साथ बैठकर देश का एक कामन स्टैंड तय करते पर यहां तो तमिल हितैषी बनने की होड़ लगी हुई है। ठीक है कि भारतवासियों के हित की परवाह भारत सरकार को करनी चाहिए और उनके पक्ष में आवाज भी उठानी चाहिए पर किसी दूसरे देश के मामले में काफी सोच-समझकर कदम उठाना होता है। स्पष्ट है कि मनमोहन सरकार के सामने कठिन समस्या है। लेकिन कोई भी जिम्मेदार सरकार भीड़ की मानसिकता से पेरित नहीं हो सकती जिसे भड़काने की कोशिश में तमिलनाडु की पार्टियां शामिल दिखती हैं। विदेश नीति संबंधी कदम में कई उलझाव होते हैं, जिन पर दूरगामी दृष्टि और राष्ट्रीय हानि-लाभ को दीर्घकालिक समझ के साथ ही रुख तय हो सकता है। किसी संपभु देश के अंदर अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप की किस हद तक गुंजाइश हो, यह पेचीदा सवाल है। मानवाधिकार बनाम राष्ट्रीय सम्पभुता ऐसा मुद्दा है जिसमें अहम-दृष्टि और तात्कालिक हित के आधार पर तय रुख लंबे समय में भारत को भारी पड़ सकता है। इस संदर्भ में यह तथ्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि चीन, रूस, पाकिस्तान, ईरान जैसे देशों ने श्रीलंका का पक्ष लिया है। फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि द्विपक्षीय संबंधों में फैसले सिर्प तात्कालिक सियासी हितों को ध्यान में रखकर नहीं लिए जा सकते हैं। वैसे भी अतीत में लिट्टे को लेकर गलतियां कम नहीं हुई हैं। जिसका खामियाजा हमें राजीव गांधी की निर्मम हत्या से चुकाना पड़ा था। फिर भी भारत को ध्यान रखना चाहिए कि हिंद महासागर में चीन की बढ़ती दिलचस्पी और श्रीलंका के साथ उसकी नजदीकी हमारे दीर्घकालीन हितों को नुकसान पहुंचा सकती है। फिर हम पुराने दुश्मन पाकिस्तान को क्यों भूलते हैं जो श्रीलंका को बराबर उकसा रहा है कि अगर भारत ने अमेरिकी पस्ताव का समर्थन किया तो वह (श्रीलंका) संयुक्त राष्ट्र व अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का मुद्दा उठा दे। ऐसी एक बानगी हम मालदीव में देख रहे हैं। आज स्थिति यह है कि भारत की गलत व ढुलमुल विदेश नीति के कारण तमाम पड़ोसी-नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका व पाकिस्तान हमसे नाखुश चल रहे हैं। निश्चित रूप से विदेश नीति से संबंधित कुछ मसले ऐसे होते हैं जिन पर क्षेत्रीय दलों को विश्वास में लेना आवश्यक होता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनके दबाव के आगे झुक जाएं। द्रमुक का दबाव तो एक तरह की ब्लैकमेलिंग है और इसका पतिकार किया जाना चाहिए पर यूपीए-2 का इतिहास बताता है कि यह दबाव के आगे झुक जाते हैं। इस बार की स्थिति अत्यन्त विषम है और इधर पुंआ तो उधर खाई।