Tuesday 19 March 2013

क्या एक वर्ष में अखिलेश यादव जनता की उम्मीदों पर खरे उतरे हैं?



 Published on 19 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने अपना एक साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है। 15 मार्च को इस सरकार ने एक वर्ष पूरा किया। वैसे तो किसी भी सरकार की कारगुजारी का आंकलन करने के लिए पर्याप्त समय नहीं होता पर इतना जरूर पता चल जाता है कि सरकार किस दिशा में चल रही है। अफसोस से कहना पड़ता है कि इस एक साल में अखिलेश यादव की न तो कारगुजारी ही संतोषजनक है और न ही उनकी सरकार की छवि। पिता मुलायम सिंह ने जितनी कड़ी मेहनत से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का बेस बनाया पुत्र अखिलेश उतनी ही तेजी से इसे तबाह कर रहे हैं। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अब तक एक अक्षम नेतृत्वकर्ता साबित हुए हैं। सपा में दागदार चेहरों और कार्यकर्ताओं की लम्बी  फेहरिस्त है, जिससे वह पीछा नहीं छुड़ा पा रही है। बतौर मुख्य विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के मुताबिक अखिलेश यादव सरकार का एक साल का कार्यकाल बेहद निराशाजनक रहा है। उन्होंने आरोप लगाया कि अराजकता के घोड़े पर सवार यह सरकार हर मोर्चे पर नाकाम साबित हुई है। खासकर कानून व्यवस्था का तो मजाक बनकर रह गया है। एक साल में सरकार से लोगों को जो अपेक्षा थी उस पर यह सरकार खरी नहीं उतरी पर अभी भी लोगों को अखिलेश यादव से उम्मीद बाकी है, यह इस सरकार की ताकत भी है और उसके पहले साल पर टिप्पणी भी। कुछ मोर्चों पर नाकाम रही तो चुनाव में किए वादों में से ज्यादातर पर अमल करने की पहल इस सरकार की उपलब्धि भी है। कानून व्यवस्था के मोर्चे पर दुर्भाग्य से कहना पड़ता है कि अराजकता कम नहीं हुई है। पोंटी चड्ढा जैसे का जलवा जो मायावती राज में था वह अब भी है। पिछले तीन साल के बढ़ते अपराध का ग्रॉफ देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जनता में अखिलेश ने जो उम्मीदें पैदा की थीं वह अब तक तो पूरी नहीं हो सकीं। उदाहरण के तौर पर जो भ्रष्टाचार मायावती के राज में था उसमें उलटा वृद्धि ही हुई है। सोनभद्र का खनन अधिकारी जो मायावती के राज में 50 गाड़ी रेत-पत्थर निकलवाने का एक लाख 10 हजार रुपए लेता था उसका रेट अब अखिलेश सरकार में एक लाख 20 हजार रुपए हो गया है।  पोंटी चड्ढा परिवार का जो दबदबा मायावती राज में था वह अखिलेश सरकार में बढ़ा ही है। दंगा-फसाद को रोकने में सरकार असफल रही है। दंगा-फसाद को रोकने में पुलिस की भूमिका संदिग्ध रही है। कानून व्यवस्था, दंगा-फसाद उत्तर प्रदेश की जनता के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण हैं बनिस्पत लैपटॉप और बेरोजगारी भत्ते से। वैसे भी लैपटॉप लखनऊ की नाजा मार्केट में बिकने के लिए आ गए हैं। गत मंगलवार को एक बड़ा आयोजन करके मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 12वीं पास छात्र-छात्राओं को अपने हाथों से एचपी के लैपटॉप निशुल्क वितरित किए थे। इस तरह अब तक कुल 9995 लैपटॉप बांटे जा चुके हैं। लैपटॉप पाने वाले कुछ छात्र-छात्राओं ने  चन्द फेरबाद शहर की नाजा मार्केट में जाकर लैपटॉप को बेचने की कोशिश करके मुख्यमंत्री की योजना को ही पलीता लगा दिया। अखिलेश यादव की सबसे बड़ी समस्या उसके चाचा-ताऊ हैं। दो दिन पहले उत्तर प्रदेश सरकार का एक विज्ञापन कुछ चुनिन्दा अखबारों में छपा था। इस विज्ञापन में पांच तस्वीरें लगी थीं। सभी एक साइज की थीं। अखिलेश या मुलायम सिंह की तस्वीर पहले नम्बर पर भी नहीं थी और न ही बाकियों से बड़ी थी। साफ है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता के कई केंद्र होने की वजह से सरकार के कामकाज में फर्प पड़ रहा है और इसका सारा खामियाजा अखिलेश यादव भुगत रहे हैं।  लोगों को अखिलेश से बहुत उम्मीदें हैं और वह चाहते हैं कि अखिलेश इससे बाहर निकलें। आंकड़ों की दृष्टि से यह पिछला एक साल कई मोर्चों पर खराब रहा है। एक साल में सांप्रदायिक तनाव की 27 घटनाएं हुई हैं। मथुरा, बरेली, लखनऊ और फैजाबाद के दंगों ने सरकार के माथे पर दाग लगा दिया। पुंडा कांड ने सरकार के कानून व्यवस्था ठीक होने के दावे को छलनी कर दिया है। बिजली संकट से निजात पाने को शाम को मॉलबंदी और उसके बाद विधायक निधि से विधायकों को गाड़ी खरीदने की अनुमति का फैसला जगहंसाई का सबब बना। इसकी वापसी से अखिलेश  की कमजोर सीएम की छवि बनी। पार्टी के शीर्ष स्तर से सरकार के कामकाज पर बार-बार अंगुली उठाने, पार्टी के कुछ अन्य बड़े नेताओं का समान्तर सरकार चलाना जनता को भा नहीं रहा। दिल्ली के शाही इमाम मौलाना बुखारी की धमकी के बाद कभी उनके दामाद को एमएलसी बनाना और उनके कई और चहेतों को लालबत्ती देने से यह धारणा बनी कि सरकार दबाव में झुक जाती है। पुंभ हादसे के लिए तकनीकी रूप से भले ही केंद्र सरकार जिम्मेदार हो लेकिन आम लोगों के बीच उत्तर प्रदेश सरकार के इंतजामों पर सवालिया निशान लगा है। 15 मार्च 2012 को जब अखिलेश यादव ने देश के सबसे बड़े राज्य के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी उस वक्त उनके सामने यूपी को बदलने की चुनौती तो थी पर जनता की कसौटी पर कसे जाने का जोखिम नहीं था। उस वक्त था उनके साथ जनता का जोश, नई उम्मीदें। लेकिन ठीक एक साल बाद उनकी सरकार के कामकाज जनता की कसौटी पर हैं। आखिर एक साल का वक्त खासा मायने रखता है और इस बीच शुरू हो चुका होता है सत्ताजनित नाराजगी का दौर।

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