Saturday 9 March 2013

किसान कर्ज माफी में हुई बंदरबांट की जवाबदेही तय होनी चाहिए



 Published on 9 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र
किसानों के कर्ज माफ करने की वाहवाही लूटने के साथ दोबारा सत्ता में काबिज हुई यूपीए सरकार पर अब किसानों के साथ ही धोखाधड़ी करने का आरोप लगा है। पहले ही कई घोटालों से घिरी मनमोहन सिंह सरकार की साख पर एक और बट्टा लगा है। साल 2008 में करीब 4.29 करोड़ किसानों के लिए शुरू की गई कृषि कर्ज माफी योजना का कई पात्र किसानों को लाभ ही नहीं मिल पाया। इसके बदले में बैंक अधिकारी और लाभार्थियों की साठगांठ से ऐसे लोगों के भी कर्ज माफ कर दिए गए, जिन्होंने वाहन, कारोबार, दुकान और जमीन खरीदने के लिए कर्ज  लिया हुआ था। संसद में मंगलवार को पेश की गई भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की ऑडिट रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है। रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि 2008 में घोषित किसानों को राहत देने वाली इस योजना के वास्तविक हकदार किसान जहां बड़ी संख्या में इसके लाभ से वंचित रहे वहीं तमाम ऐसे किसान नामधारी लोगों ने इसका जमकर फायदा उठाया जो इसके पात्र नहीं थे। कैग ने अपनी रिपोर्ट में जिस तरह किसान कर्ज माफी योजना के तहत खर्च किए गए 52,500 करोड़ रुपए में से कम से कम 20 फीसद राशि के इस्तेमाल को लेकर गम्भीर सवाल उठाए। वे एक किस्म से घोटाले को ही बयान कर रहे हैं। कैग ने जिन 90,576 खातों की जांच की उनमें से उसे 20,242 खातों में कोई न कोई अनियमितता मिली। यह सामान्य किस्म की अनियमितता नहीं है, क्योंकि यह सामने आ रहा है कि बड़ी संख्या में अपात्र लोगों को कर्ज दिया गया। इसके अतिरिक्त हजारों मामले ऐसे भी हैं जहां कर्ज माफी के बावजूद किसानों को कर्जमुक्त होने का प्रमाण पत्र नहीं प्रदान किया गया। इसका मतलब है कि हर स्तर पर गड़बड़ियां की गईं। 2008 में जब यूपीए सरकार ने किसानों के लिए कर्ज माफी योजना का ऐलान किया तो बहुत से अर्थशास्त्रियों ने इसकी आलोचना की। आलोचकों में कृषि मूल्य एवं लागत आयोग के अध्यक्ष भी शामिल थे। उनकी दलील थी कि इससे बैंक ऋण न चुकाने की प्रवृत्ति पनपेगी, इसलिए ऐसी किसी योजना पर हजारों करोड़ रुपए आबंटित करने की बजाय सरकार को सिंचाई और दूसरी कृषि सुविधाएं बढ़ाने पर खर्च करना चाहिए। लेकिन किसानों की खुदकुशी की घटनाओं का हवाला देकर सरकार ने उनके तर्प को दरकिनार कर दिया। यह सही है कि किसानों की आत्महत्या के पीछे उनका कर्ज में डूबे होना बड़ा कारण रहा है। मगर कर्ज माफी योजना ऐसे समय आई जब पिछले लोकसभा चुनाव में थोड़ा ही समय रह गया था, इसलिए इसे एक चुनावी योजना के तौर पर ही देखा गया। यूपीए की सत्ता में वापसी से यह धारणा और मजबूत हुई। ऐसे हजारों मामले सामने आए हैं जिनमें कर्ज माफी के बावजूद किसानों को ऋणमुक्त होने का प्रमाण पत्र नहीं दिया गया। कई जगह बैंकों ने तरह-तरह के शुल्क वसूले, जोकि तय दिशा-निर्देशों का साफ उल्लंघन था। कर्ज माफी की इस योजना के अलावा कृषि ऋण के आबंटन में भी अनियमितता के तथ्य सामने आए हैं। कुछ साल पहले खुलासा हुआ था कि दिल्ली और चंडीगढ़ में कुल जितना कृषि ऋण बंटा, वह उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और झारखंड के सम्मिलित कृषि ऋण से अधिक था। दिल्ली और चंडीगढ़ में कितनी खेती होती होगी, यह बताने की जरूरत नहीं है पर हैरत की बात तो यह भी है कि वित्त मंत्रालय कृषि कर्ज वितरण के गोरख धंधे की तह में जाने से बचता रहा है। भाजपा ने कैग की रिपोर्ट के आधार पर यह आंकलन किया है कि इस योजना में 10 हजार करोड़ रुपए की बंदरबांट हुई है। पता नहीं सच क्या है, लेकिन कैग की जांच-पड़ताल यह तो साबित करती ही है कि कम से कम चार-छह हजार करोड़ रुपए इधर से उधर हो गए। चूंकि इस योजना में हजारों करोड़ रुपए की बर्बादी साफ नजर आ रही है, भले ही यह राशि की दृष्टि से  2जी स्पेक्ट्रम और कोल आबंटन घोटाले जितना गम्भीर न हो फिर भी किसानों के हितों से जुड़े होने की वजह से गम्भीर अवश्य है। आखिर इन हजारों करोड़ रुपए की बर्बादी का जिम्मेदार कौन है, किसकी है जवाबदेही? भाजपा चाह रही है कि इस पूरे मामले की जांच सीबीआई से कराई जाए। यह मांग वाजिब है परन्तु सीबीआई जिस तरह की अंतहीन जांचों के लिए कुख्यात होती जा रही है, उससे समयबद्ध सार्थक परिणाम की अपेक्षा बेमानी लगती है। कैग की रिपोर्ट के खुलासे को सिरे से खारिज करने से सरकार का काम नहीं चलेगा। लगातार घोटालों से घिरती केंद्र सरकार के लिए अब बेहतर यही होगा कि वह किसानों के हक को हड़पने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करे, अन्यथा इसका दुष्परिणाम उसे आगामी चुनावों में भुगतना पड़ सकता है। अब तक के यूपीए सरकार के इतिहास को देखते हुए यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि केंद्रीय सत्ता ने ऐसी कोई व्यवस्था बनाने की जरूरत नहीं समझी जिससे सरकारी योजनाओं में घपलेबाजी न होने पाए। कोई नहीं जानता कि केंद्रीय सत्ता घपले-घोटालों को रोकने वाली व्यवस्था का निर्माण करने को लेकर इतनी अनिच्छुक आखिर क्यों है? दुर्भाग्य से यह अनिच्छा तब दिखाई जा रही है जब कल्याणकारी योजनाओं की संख्या और इसके लिए आबंटित धनराशि भी बढ़ रही है। फसल बीमा जैसी दूसरी योजनाएं भी किसानों का कम, बैंकों और कम्पनियों का हित ज्यादा साध रही हैं। कर्ज माफी में हुई बंदरबांट की जवाबदेही तय होनी चाहिए पर इसी के साथ यह नीतिगत सवाल उठाने की भी जरूरत है कि किसानों को वास्तव में कर्ज माफी की जरूरत है या इसकी जगह उनकी उपज का न्यायसंगत मूल्य मिले यह जरूरी है?

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