Published on 21
March, 2013
अनिल नरेन्द्र
तमिलनाडु के राजनीतिक दलों द्वारा सियासी फायदा उठाने
की उग्र होड़ ने श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे पर राज्य में भावावेश का माहौल बना दिया
है। खुद को तमिल हितों का ज्यादा हमदर्द दिखाने के जतन में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके)
ने केन्द्र सरकार से समर्थन वापस लेकर यूपीए-2 को भारी संकट में डाल दिया है। दरअसल
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका के खिलाफ अमेरिका का पस्ताव पिछले वर्ष
की तुलना में कठोर हो सकता है, जिसमें श्रीलंका में गृह युद्ध की जांच की मांग अंतर्राष्ट्रीय
आयोग में हो सकती है। पिछले वर्ष के पस्ताव में 26 वर्ष लंबे चले श्रीलंकाई तमिलों
के खिलाफ युद्ध की समाप्ति के बाद श्रीलंका में सामंजस्य और जवाबदेही बढ़ाने पर जोर
दिया गया था, जिसके पक्ष में भारत को वोट डालने में विशेष परेशानी नहीं हुई थी। लेकिन
अभी यूपीए के अहम घटक द्रमुक और तमिलनाडु में सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक जिस तरह से सरकार
पर दबाव बना रहे हैं उससे उसकी मुश्किलों को समझा जा सकता है। करुणानिधि चाहते हैं
कि भारत संशोधन लाए और पस्ताव में तमिलों के नरसंहार के लिए श्रीलंका की सेना और पशासन
को जिम्मेदार ठहराया जाए। चार वर्ष पहले राजपक्षे की सरकार ने लिट्टे के खिलाफ ताबड़तोड़
अभियान चलाया था, जिसमें हजारों निर्दोष तमिल मारे गए थे। इस अभियान में युद्ध की स्वीकृत
मर्यादाएं भी लांघ दी गई थीं। इसका एक पमाण हाल ही में चैनल-4 द्वारा जारी उन तस्वीरों
में नजर आया, जिसमें दिखाया गया था कि पभाकरण के 12 वर्ष के बेटे को किस तरह नजदीक
से गोली मार दी गई थी। श्रीलंका में तमिलों की हालत पूरे देश के लिए चिंता का विषय
है। बेहतर होता कि तमिलनाडु के सारे राजनीतिक दल केन्द्र के साथ बैठकर देश का एक कामन
स्टैंड तय करते पर यहां तो तमिल हितैषी बनने की होड़ लगी हुई है। ठीक है कि भारतवासियों
के हित की परवाह भारत सरकार को करनी चाहिए और उनके पक्ष में आवाज भी उठानी चाहिए पर
किसी दूसरे देश के मामले में काफी सोच-समझकर कदम उठाना होता है। स्पष्ट है कि मनमोहन
सरकार के सामने कठिन समस्या है। लेकिन कोई भी जिम्मेदार सरकार भीड़ की मानसिकता से
पेरित नहीं हो सकती जिसे भड़काने की कोशिश में तमिलनाडु की पार्टियां शामिल दिखती हैं।
विदेश नीति संबंधी कदम में कई उलझाव होते हैं, जिन पर दूरगामी दृष्टि और राष्ट्रीय
हानि-लाभ को दीर्घकालिक समझ के साथ ही रुख तय हो सकता है। किसी संपभु देश के अंदर अंतर्राष्ट्रीय
हस्तक्षेप की किस हद तक गुंजाइश हो, यह पेचीदा सवाल है। मानवाधिकार बनाम राष्ट्रीय
सम्पभुता ऐसा मुद्दा है जिसमें अहम-दृष्टि और तात्कालिक हित के आधार पर तय रुख लंबे
समय में भारत को भारी पड़ सकता है। इस संदर्भ में यह तथ्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है
कि चीन, रूस, पाकिस्तान, ईरान जैसे देशों ने श्रीलंका का पक्ष लिया है। फिर भी यह नहीं
भूलना चाहिए कि द्विपक्षीय संबंधों में फैसले सिर्प तात्कालिक सियासी हितों को ध्यान
में रखकर नहीं लिए जा सकते हैं। वैसे भी अतीत में लिट्टे को लेकर गलतियां कम नहीं हुई
हैं। जिसका खामियाजा हमें राजीव गांधी की निर्मम हत्या से चुकाना पड़ा था। फिर भी भारत
को ध्यान रखना चाहिए कि हिंद महासागर में चीन की बढ़ती दिलचस्पी और श्रीलंका के साथ
उसकी नजदीकी हमारे दीर्घकालीन हितों को नुकसान पहुंचा सकती है। फिर हम पुराने दुश्मन
पाकिस्तान को क्यों भूलते हैं जो श्रीलंका को बराबर उकसा रहा है कि अगर भारत ने अमेरिकी
पस्ताव का समर्थन किया तो वह (श्रीलंका) संयुक्त राष्ट्र व अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों
पर कश्मीर का मुद्दा उठा दे। ऐसी एक बानगी हम मालदीव में देख रहे हैं। आज स्थिति यह
है कि भारत की गलत व ढुलमुल विदेश नीति के कारण तमाम पड़ोसी-नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका
व पाकिस्तान हमसे नाखुश चल रहे हैं। निश्चित रूप से विदेश नीति से संबंधित कुछ मसले
ऐसे होते हैं जिन पर क्षेत्रीय दलों को विश्वास में लेना आवश्यक होता है। लेकिन इसका
मतलब यह नहीं कि उनके दबाव के आगे झुक जाएं। द्रमुक का दबाव तो एक तरह की ब्लैकमेलिंग
है और इसका पतिकार किया जाना चाहिए पर यूपीए-2 का इतिहास बताता है कि यह दबाव के आगे
झुक जाते हैं। इस बार की स्थिति अत्यन्त विषम है और इधर पुंआ तो उधर खाई।
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