Tuesday 12 March 2013

वसंत विहार गैंगरेप की घटना के बाद भी कुछ नहीं बदला


 Published on 12 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र
16 दिसम्बर की वसंत विहार गैंगरेप की वीभत्स घटना के बाद हमें उम्मीद थी कि अब तो महिलाओं की सुरक्षा में थोड़ा फर्प आएगा पर अत्यंत दुख के साथ कहना पड़ता है कि महिलाओं में असुरक्षा की भावना में कोई कमी नहीं आई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जब खुद यह स्वीकार करें कि मेरी बेटी भी इस शहर में असुरक्षित महसूस करती है तो महिलाओं में असुरक्षा की भावना को इससे बेहतर और कौन बता सकता है। महिलाओं के खिलाफ अपराध के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। दिल्ली में महिलाओं पर जुल्म तेजी से बढ़े हैं। देश की राजधानी में इस साल एक जनवरी से लेकर 15 फरवरी तक दुष्कर्म के 181 मामले सामने आए हैं। इस तरह राजधानी में रोजाना औसतन चार महिलाएं दुष्कर्म की शिकार हो रही हैं। जबकि 2012 में यह औसत दो पर थी। 2012 में पूरे साल में दुष्कर्म के कुल 706 मामले दर्ज हुए थे। इस वृद्धि के आंकड़ों के पीछे हालांकि यह कारण भी हो सकता है कि चौतरफा सख्ती के कारण अब बलात्कार के सारे मामलों की रिपोर्टें हो रही हैं, पहले आधे मामले की रिपोर्ट नहीं होती थी या फिर पुलिस रजिस्टर ही नहीं करती थी। सुरक्षा के इंतजाम आज भी पुख्ता नहीं हैं, पहले से ज्यादा डर महिलाओं में है और अपनी बात लोगों तक पहुंचाने की व्यवस्था से भी महिलाएं संतुष्टि नहीं हैं। इसके पीछे प्रशासन, पुलिस की कमियां मुख्य कारण हैं। पुलिस बेशक कई कमियों के लिए जिम्मेदार हो पर प्रशासन की कमियों की वजह से भी पुलिस आलोचना का शिकार होती है। राजधानी दिल्ली की करीब डेढ़ हजार महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी एक महिला पुलिस कर्मी पर है। ऐसे में इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाएं किस हद तक सुरक्षित हैं। थानों में भी महिला पुलिस की भारी कमी है। दिल्ली पुलिस में सिर्प करीब साढ़े छह फीसदी महिला पुलिस कर्मी हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली की आबादी करीब 1,67,53,000 है। इनमें 77,76,825 महिलाएं हैं। दूसरी तरफ दिल्ली पुलिस की संख्या करीब 78 हजार है और इनमें महिला पुलिस कर्मियों की संख्या कुल 5121 है। ऐसे में थाने पहुंचने वाली पीड़ित महिला पुरुष पुलिस वाले के सामने असहज महसूस करती है और सामने दर्द बयां नहीं कर पाती। 16 दिसम्बर की घटना के बाद महिला उत्पीड़न, खासतौर पर बलात्कार के खिलाफ एक सख्त कानून की न केवल जरूरत महसूस की गई बल्कि इसे लेकर देशभर में बहस भी हुई। महिलाओं के उत्पीड़न को रोकने से संबंधित कानून केंद्रीय मंत्रिमंडल में सहमति न बनने से लगता नहीं जल्द अस्तित्व में आएगा। आंकड़े यह साबित करते हैं कि देशभर से उठी आवाजों के बावजूद महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध कम नहीं हुए हैं। महिला उत्पीड़न को रोकने के लिए वाकई एक सशक्त कानून की जरूरत है मगर यह पर्याप्त नहीं है। एसोचैम की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की 88 फीसदी महिलाओं को यौन उत्पीड़न, प्रताड़ना और  बलात्कार से संबंधित कानूनों की ठीक से जानकारी ही नहीं है तो राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का आंकड़ा है कि थानों में दर्ज होने वाले बलात्कार के सिर्प 26 फीसदी मामलों में ही दोषियों को सजा मिल पाती है। सच्चाई यह भी है कि आर्थिक निर्भरता उत्पीड़न या बलात्कार से बचने की गारंटी नहीं है और न ही महिला बैंक जैसे प्रतीकात्मक कदम उठाने से स्थिति बदलने वाली है। महिला के उत्पीड़न पर बात करते हुए समाज में उनकी बदलती हैसियत पर भी गौर करना होगा। ऐसा लगता है कि पुरुष वर्चस्व उनकी इस पहलकदमी को कुबूल नहीं कर पा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि हमारे समाज को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। टाटा स्ट्रैटेजिक मैनेजमेंट ग्रुप द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में यह तथ्य सामने आया है कि देश के कई राज्यों में महिला सुरक्षा की हालत बहुत खराब है। इनमें हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान व दिल्ली प्रमुख है। मेट्रो शहरों की बात की जाए तो हैदराबाद व दिल्ली सबसे निचले पायदान पर है। इतनी ही नहीं बल्कि दिल्ली-एनसीआर में दुष्कर्म के मामलों और दहेज से होने वाली मौतों में सबसे आगे है। इतना कुछ होने के बावजूद न तो गाड़ियों से काले शीशे ही पूरी तरह उतरे हैं और न ही रात को बसों के संचालन में कोई उल्लेखनीय सुधार नजर आया है। जब दिल्ली का यह हाल है तो बाकी देश का क्या हाल होगा, कल्पना करना मुश्किल नहीं। बहुत दुख से कहना पड़ता है कि 16 दिसम्बर की घटना के बाद भी कुछ नहीं बदला।

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