Published on 29
March, 2013
अनिल नरेन्द्र
पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ
जानलेवा हमले के तालिबानी ऐलान और तमाम चुनौतियों के बीच पाकिस्तान को बचाने के लिए
चार साल बाद वतन लौट आए हैं। उनकी हिम्मत व साहस की तो दाद देनी ही पड़ेगी। भव्यता
के इस भ्रम में कि वे एक बार फिर इतिहास को अपने साथ खड़ा कर लेंगे। इतिहास दोहराने
के मुहावरे के बावजूद जानकार जानते हैं कि इसे उसके चारों पांवों पर ठीक पहले की तरह
ख़ड़ा करना आसान काम नहीं है। अगर पूत के पांव पालने में देखना किसी प्रारम्भिक प्रक्रिया
का परिणाम बनता है तो मुशर्रफ का बेजान स्वागत उनका भविष्य बांचता है, जो पाक में 11 मई को होने वाले संसदीय चुनाव
में शिरकत करने के मकसद से आए हैं। हालांकि यह भी कहा जा सकता है कि उनकी मौजूदगी से
चुनावी संघर्ष का रूप बदल सकता है। मुश्किल यह है कि उनकी पार्टी ऑल पाकिस्तान मुस्लिम
लीग का कोई मजबूत सांगठनिक ढांचा नहीं है। पार्टी में अनुभवी राजनेताओं की भारी कमी
है। अपने शासनकाल में मुशर्रफ ने जिन राजनेताओं को संरक्षण दिया था, वे आज अन्य दलों
से जुड़ गए हैं। मुशर्रफ अपने लिए कैडर तक तैयार नहीं कर सके। एक कमजोर सांगठनिक ढांचे
के सहारे मुशर्रफ क्या कुछ कर पाएंगे कहा नहीं जा सकता। अब चुनाव का करीब डेढ़ महीना
ही रह गया है। इतने दिनों में संगठन खड़ा कर पूरे देश में चुनाव लड़ना बहुत मुश्किल
काम है। उनकी वापसी पर वह शानदार तमाशा नदारद था जैसा बेनजीर की वापसी पर देखा गया
था और तो और मुशर्रफ की वापसी के एक दिन पहले ही इमरान खान की सभा में उमड़ी एक लाख
की वह उत्साही भीड़ उनके यहां नहीं नजर आई। मात्र हजार-पन्द्रह सौ लोग जुटाने पर क्या
मुकाम हासिल कर सकते हैं? तादाद पर जोर इसलिए कि पहली लोकतांत्रिक आसिफ जरदारी सरकार
के लिए कार्यकाल पूरा कर इतिहास रचने वाली पाकिस्तान में बहुमत पाने की यह विश्वसनीय
चुनौती है। फिर मुशर्रफ के लिए कई और तरह के संकट भी हैं। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान
और दूसरे आतंकी संगठन उनकी जान के पीछे पड़े हुए हैं। फिर उन पर कई मुकदमे चल रहे हैं।
बेनजीर भुट्टो और अकबर बुग्ती की हत्या, लाल मस्जिद की सैन्य कार्रवाई और 62 जजों की
गिरफ्तारी के मामले उन्हें परेशान करते रहेंगे। उनके जाने के बाद 4 सालों में हालात
काफी बदले हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने मांग की है कि पाक सरकार
मुशर्रफ के देश लौटने पर मानवाधिकारों के हनन के लिए उन्हें जवाबदेह ठहराए। उन पर नवम्बर
2011 में बलूच नेता अकबर बुग्ती की हत्या में शामिल होने का आरोप है जिनकी वर्ष
2006 में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई। फरवरी 2011 में रावलपिंडी की अदालत ने
मुशर्रफ के खिलाफ पाकिस्तान की संघीय जांच एजेंसी की ओर से दायर अंतरिम आरोप पत्र स्वीकार
किया, जिसमें उन पर पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या में शामिल होने का आरोप
लगाया गया। इसके बाद न्यायालय ने मुशर्रफ को भगौड़ा घोषित कर दिया। संगठन ने कहा कि
मुशर्रफ के सेना प्रमुख रहते हुए पाक सेना तथा देश की खुफिया एजेंसियों ने कई मानवाधिकारों
का हनन किया। कई राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निर्वासन या जेल भेजा तथा उन्हें प्रताड़ित
किया गया। बलूच राष्ट्रवादियों और इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ ने अपने तरीके
से चुनौतियां पैदा की हैं। पाकिस्तानी मीडिया में यह भी कहा जा रहा है कि मुशर्रफ की
वापसी के लिए उन्हें नवाज शरीफ से डील करनी पड़ी। यह डील साउदी अरब के राज परिवार ने
कराई है। पाकिस्तान के प्रमुख अखबार `द ट्रिब्यून एक्सप्रेस' के मुताबिक पाकिस्तान
की मुख्य विपक्षी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज को इस बात के लिए तैयार किया गया
कि वह मुशर्रफ की वापसी पर रोड़े न अटकाए। मुशर्रफ की सुरक्षा को लेकर जनरल कयानी से
आश्वासन लिया गया। मुशर्रफ के एक करीबी के अनुसार नवाज शरीफ और जनरल अशफाक कयानी ने
हाल में साउदी अरब की यात्रा की थी। बेशक जरदारी सरकार के खिलाफ आज पाकिस्तान में रोष
है पर फिर भी मुशर्रफ मुश्किल से ही पाकिस्तान
की जनता को स्वीकार्य हों, इसलिए कि सरकार व शासन के बारे में उनका नजरिया जम्हूरियत
पर कम सेना पर ज्यादा भरोसा करता है। वह सेना की कमान में ही लोकवादी सरकार चलाना चाहते
हैं। मुशर्रफ की नजर में लोकतांत्रिक सरकारें भ्रष्ट व तमाम बुराइयों से ग्रस्त हैं।
इससे आज का पाकिस्तान का युवा वर्ग, सम्पन्न वर्ग शायद ही सहमत हो, देखना यही होगा
कि अब मुशर्रफ क्या रणनीति अपनाते हैं। अब तक के डेमोकेटिक सेक्यूलर एजेंडे पर चलते
हैं या सत्ता का लाभ लेने के लिए सीधे-सीधे या बैक डोर से पाक सेना व कट्टरपंथियों
से हाथ मिलाते हैं?
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