Published on 22
March, 2013
अनिल नरेन्द्र
यह तो होना ही था। तमिलनाडु में जिस तरह की राजनीति
चल रही थी उसके बाद द्रमुक का केंद्र की यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेना कोई बड़ी
आश्चर्यजनक घटना नहीं है। यह पहली बार नहीं जब डीएमके ने यूपीए सरकार को ब्लैकमेल करने
का प्रयास किया हो। पिछली बार की करीब आधा दर्जन समर्थन वापसी की धमकियों की तरह इस
बार भी सरकार के संकट मोचकों को लगता है कि आखिर में सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। वैसे
भी सपा, बसपा अक्सर इस सरकार की बैशाखी बनने के लिए प्रस्तुत रहती हैं, इसलिए इसे धमकी
कम भभकी ज्यादा माना जाना चाहिए। समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव का साफ कहना है
कि डीएमके नाटक कर रही है। हां, इतना जरूर है कि गठबंधन पर चलने वाली मनमोहन सिंह की
यूपीए सरकार थोड़े दबाव में जरूर आ गई है। इसके प्रमुख घटक दल डीएमके ने श्रीलंका में
तमिलों पर होने वाले अत्याचार के मुद्दे पर सरकार के ढुलमुल रवैये के खिलाफ उससे नाता
तोड़ लिया है। दरअसल श्रीलंका में तमिलों की दुर्दशा का मुद्दा तमिलनाडु के बहुसंख्यक
तमिलों से सीधा भावनात्मक रूप से जुड़ा है। पिछले साल खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश
को मंजूरी देने के मुद्दे पर सरकार से नाता तोड़ने वाली तृणमूल कांग्रेस के बाद यह
दूसरा मौका है जब कांग्रेस नीत संप्रग सरकार को बड़ा झटका लगा है। संख्याबल की दृष्टि
से कांग्रेस बेशक जोड़तोड़ कर फौरी तौर पर खतरे को टाल दे पर आर्थिक सुधार संबंधी उसके
फैसलों और कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण कानून पास कराने में बड़ा फर्प पड़ना तय है। लोकसभा
में डीएमके के 18 सदस्य हैं। सपा-बसपा की वजह से सरकार बच जाएगी। दरअसल पिछले कुछ समय
से तमिलनाडु में जिस तरह की राजनीति चल रही थी, उससे देश की विदेश नीति पर एक गलत किस्म
का दबाव बन रहा था। तमिलनाडु में सरकार बनाते ही अन्ना द्रमुक नेता जे. जयललिता ने
विधानसभा में प्रस्ताव पास करवाकर केंद्र सरकार से आग्रह किया कि श्रीलंका पर आर्थिक
प्रतिबंध लगाए जाएं। इसके बाद उन्होंने श्रीलंका के एथलीट को प्रतियोगिता में भाग लेने
के लिए तमिलनाडु नहीं आने दिया। अभी तक तमिलनाडु के कई छोटे दल तमिल भावनाओं को भड़काने
के लिए जो मांगें उठाते रहे हैं, उन्हें जयललिता सरकार ने पूरा करना शुरू कर दिया है।
ऐसे में द्रमुक की भी यह मजबूरी हो गई कि वह कोई ऐसा बड़ा कदम उठाए, जिसे तमिल हितों
के लिए दी गई कुर्बानी की तरह जनता के सामने पेश किया जा सके और यह मौका उसे तब मिल
गया जब संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका के खिलाफ आए अमेरिकी प्रस्ताव
ने उसे दे दिया। द्रमुक प्रमुख करुणानिधि जो शातिर राजनीतिज्ञ माने जाते हैं ऐसे ब्लैकमेलिंग
के मौके तलाशते रहते हैं। एक तरफ तो केंद्र सरकार को ब्लैकमेल कर कुछ आर्थिक व अन्य
लाभ उठाएंगे दूसरी तरफ कांग्रेस को यह भी संकेत दे रहे हैं कि तमिलनाडु विधानसभा चुनाव
इस बार वह अकेले लड़ने के मूड में हैं, कांग्रेस
से कोई गठबंधन नहीं करेंगे। बसपा और सपा तो सौदेबाजी के लिए मशहूर हैं। उन्हें इस सरकार
की दुखती रग नजर आनी चाहिए बस फिर क्या? इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि द्रमुक
के यूपीए सरकार से हटते ही कांग्रेस की कमर टूट गई। समर्थन वापसी के बाद पहले ही दिन
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के सामने घुटने टेकने
पड़े। मुलायम को कोसने वाले बेनी प्रसाद वर्मा को सरेआम माफी मांगनी पड़ी। कांग्रेस
रणनीतिकारों को अलग राग अलापने वाले सहयोगी राकांपा प्रमुख शरद पवार की मान-मनौव्वल
करनी पड़ी तथा तमिल समस्या पर सर्वदलीय बैठक बुलाने पर मजबूर होना पड़ा। पहले ही दिन
इतनी जिल्लत झेलने के बाद भी कांग्रेस नहीं जानती कि वेंटिलेटर पर आ चुकी मनमोहन सरकार
अब कितने दिन और सांसें लेगी। अब केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही सरकार पूरी
तरह से बाहरी समर्थकों पर निर्भर है। खासतौर
पर सपा की दया पर ही उसका अस्तित्व टिका है और किसी को यह पता नहीं कि मुलायम या मायावती
कब यह बैसाखी खींच लेते हैं।
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