Published on 24
March, 2013
अनिल नरेन्द्र
इस बार के नेशनल
फिल्म अवार्ड्स बॉलीवुड के लिए अच्छी खबर लेकर आए। हिन्दी सिनेमा का सिर गर्व
से ऊंचा हो गया। गर्व इसलिए नहीं कि 100 करोड़ कल्ब की फिल्म को सम्मान मिला बल्कि
इसलिए कि सम्मान लायक फिल्मों को सम्मान दिया गया। यह उन लोगों के लिए एक करारा जवाब
है जो किसी कलात्मक माध्यम को महज पैसों तक सीमित कर देते हैं। पान सिंह तोमर और विकी
डोनर जैसी फिल्मों को सराहकर दर्शकों ने यह भी जता दिया कि मार-धाड़, पेड़ों के पीछे
रोमांस करने या फिर विदेशों में शानदार खूबसूरत लोकेशन पर शूट हुई फिल्में उन्हें पसंद
आएं, यह जरूरी नहीं। फिल्म की कहानी, उसमें किरदार की भूमिका को भी अब सम्मान मिलना
शुरू हो गया है। यह अच्छा संकेत इसलिए भी है क्योंकि बॉलीवुड ही क्यों विश्व सिनेमा
अब पूरी तरह कॉमर्शियल होता जा रहा है और फिल्म की कामयाबी महज उसके बॉक्स ऑफिस पर
टिक जाती है। इस बार के अवार्ड्स ने इस बदलाव को रेखांकित किया है। पान सिंह तोमर,
कहानी, गेंग्स ऑफ बासेपुर, विकी डोनर जैसी फिल्में बाजारू एंटरटेनमेंट वाली फिल्में
नहीं हैं। पान सिंह तोमर के लिए बेस्ट डायरेक्शन का अवार्ड तिग्मांशु धूलिया को मिलना
उल्लेखनीय है। उन्होंने फिल्म की कहानी को इस तरीके से पर्दे पर पेश किया कि उसकी बात
और गहराई से सामने आई। जो भी फिल्मों को इस बार पुरस्कृत किया गया है उनमें एक विशेषता
यह भी है कि दर्शक सिनेमा हॉल से बाहर निकलते ही उन्हें भूल नहीं जाते। बेस्ट एक्टर
का सम्मान पाने वाले उम्रदराज विक्रम गोखले और यंग इरफान खान अलग ही श्रेणी के एक्टर
हैं। पुरस्कार पाने के बाद इरफान ने कहा कि मैं काफी खुश हूं। इससे बड़ी खुशी है कि
मेरे प्रशंसक खुश हैं। अवार्ड के लिए यह बात ज्यादा मायने रखती है कि किस काम के लिए
आपको अवार्ड मिला है। पान सिंह तोमर एक नए तरह की कोशिश थी। मुझे लगता है कि हमें कॉमर्शियल
सिनेमा का दायरा बढ़ाना होगा। जनता भी चाह रही है कि नए तरह का सिनेमा देखें। हमने
थोथला मनोरंजन के रूप में जो कॉमर्शियल की परिभाषा बना रखी है वह फिल्मों के लिए बहुत
बड़ा अन्याय है। हम इसे बदलेंगे। हम तो बगावत करने आए हैं, बगावत ही करेंगे। अवार्ड
न भी मिलता तो हम यही करते यह कहना था इरफान का। मुझे विकी डोनर फिल्म भी अच्छा प्रयास
लगी। हकीकत में जो हो रहा है उसको पर्दे पर लाना साहसी काम था जो डायरेक्टर ने, आयुषमान
खुराना और अन्नू कपूर ने बाखूबी निभाया। इस फिल्म को सम्मानित होना ही चाहिए था। खुशी
की बात यह भी है कि नेशनल अवार्ड्स में पैसा नहीं चलता। कई अन्य फिल्मी अवार्ड्स में,
टीवी अवार्ड्स में सुना है पैसों से सम्मान खरीदा जाता है। यह नयापन कहीं से उड़कर
नहीं चला आया। लम्बे समय से शायद बॉलीवुड यह भूलता आ रहा था कि फिल्म समाज को प्रभावित
करने का सबसे बड़ा माध्यम है। दर्शक यही चाहते हैं तो हम उनकी मन की चीज देने पर मजबूर
हैं, यह कहना है बॉलीवुड के अधिकतर फिल्म निर्माताओं का। पिछले कुछ वर्षों से फिल्मकारों,
निर्देशकों और अभिनेताओं की नई पौद ने दर्शकों और कॉमर्शियल एंगल दोनों को एक साथ साधने
की लगता है कला अर्जित कर ली है। ऐसे में एक समझ भरा सिनेमा आकार ले रहा है। यह उस
रचनात्मक सोच का सम्मान है जो तकनीकी दृष्टि से तो समृद्ध है ही, गढ़े हुए फार्मूलों
से भी बॉलीवुड को बाहर आने पर मजबूर कर रही है। इस साल के नेशनल अवार्ड इस विचारधारा
को मजबूती प्रदान करेंगे।
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