Published on 7 March, 2013
अनिल नरेन्द्र
अमेरिका में राष्ट्रपति बराक ओबामा की डेमोकेटिक पार्टी
और विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी के बीच समझौता न होने के कारण एक मार्च से सरकारी खर्चों
में चालू वर्ष के लिए 85 अरब डालर की कटौती लागू हो गई है। अब अगले सात महीने में अमेरिकी
सरकार को 85 अरब डॉलर यानी करीब 4 लाख 67 हजार करोड़ रुपए का खर्च कम करना होगा। फैसले
से साढ़े सात लाख सरकारी नौकरियां खत्म होंगी। फैसले के बाद दो लाख सरकारी कर्मचारियों
को छुट्टी पर जाने के नोटिस भी दे दिए गए हैं। इनमें अकेले न्याय विभाग के 1.15 लाख
कर्मचारी हैं। छुट्टी के दौरान उन्हें वेतन-भत्ते तक नहीं मिलेंगे। हालांकि यह अवैतनिक
छुट्टी 14 से 30 दिन तक की होगी। ओबामा ने कहा कि कटौती के कारण करीब साढ़े सात लाख
सरकारी नौकरियां खत्म होंगी। अमेरिका में कुल 27 लाख सरकारी कर्मचारी हैं। सबसे अधिक
असर रक्षा क्षेत्र पर पड़ेगा। चालू वर्ष के लिए सितम्बर से पहले रक्षा बजट में 13 फीसदी
की कमी की गई है। नासा, शिक्षा और कानून विभाग के बजट में भी 9 फीसदी की कटौती हुई
है। बराक ओबामा कुछ हद तक इतने सख्त कदम उठाने पर मजबूर हुए। इराक और अफगानिस्तान अभियान
से अमेरिकी सरकार पर 16.5 ट्रिलियन डॉलर (8.78 लाख अरब रुपए) का कर्ज है। इससे निपटने
के लिए 2011 में अमेरिकी संसद में बजट कंट्रोल बिल पास किया गया था। इसे सीक्वेस्टर
कहा जाता है। इसके मुताबिक दोनों दल कर्ज कम करने का तरीका नहीं खोज पाते हैं तो एक
जनवरी 2013 से सीक्वेस्टर लागू हो जाएगा। इसे दो माह के लिए टाल दिया गया था। ओबामा
पशासन ने करीब 4 ट्रिलियन डॉलर (2.19 लाख रुपए) घाटा कम करने के तरीकों पर कई बार विपक्षी
रिपब्लिकन पार्टी से बातचीत की। पिछले साल सुपर रिच टैक्स लगाने का पस्ताव भी लेकर
आए। लेकिन रिपब्लिकन पार्टी ने इसे सिरे से खारिज कर दिया था। सहमति बनाने के लिए फिस्कल
विल्फ को दो माह के लिए टाला गया। लेकिन इससे भी कोई बात नहीं बनी। ओबामा ने फैसले
से बचने की बहुत कोशिश की पर रिपब्लिकन से गतिरोध न टूट सका और नाकाम होने पर अंतत
ओबामा ने शुकवार रात को 11.59 मिनट पर आदेश पर दस्तखत किए। कानून के मुताबिक कटौती
अगले दस साल तक जारी रहेगी। 27 मार्च को कांग्रेस चालू वित्त वर्ष की बची अवधि (सितम्बर
तक) के लिए बजट पारित करेगी। अपैल-मई में बजट पर बहस होनी है। उस वक्त अगले वित्त वर्ष
के लिए रास्ता निकाला जा सकता है। बात अटकी तो मई से अगस्त के बीच कर्ज सीमा बढ़ाने
पर चर्चा होगी। यह मुमकिन है कि आने वाले दिनों में दोनों दल कोई मध्य मार्ग निकालें।
समस्या की जड़ मूलभूत वैचारिक मतभेद हैं, जो तमाम विकसित एवं उभरती अर्थव्यवस्था वाले
देशों में बढ़ते जा रहे हैं। आर्थिक मंदी से संसाधनों पर पड़े बोझ के साथ यह लड़ाई
तीव्र हो गई है। इस लड़ाई में एक सिरे पर वे ताकतें हैं जो सरकार की जन-कल्याणकारी
भूमिका को नहीं मानतीं, दूसरी तरफ वे दल हैं जो अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप कर सरकारों
की निर्णायक भूमिका कायम रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इनमें पहली ताकतें किफायत
की वैसी नीतियों की पैरोकार हैं जिनकी मार आम आदमी और मध्यम वर्ग पर पड़ती है, दूसरी
ताकत समृद्ध लोगों पर भी बोझ डालने की समर्थक है। अमेरिका में इसी से ताजा संकट पैदा
हुआ है। वहां आम लोगों पर पड़ रही मार की जड़ें कहीं अधिक गहरी और अधिक व्यापक हैं।
राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल ही में अपना दूसरा कार्यकाल शुरू किया है। वह तड़ातड़
फैसले ले रहे हैं। विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी ओबामा की रफ्तार से ज्यादा पसन्न नहीं।
वह उन्हें रोकने का जहां मौका मिलता है पयास कर रही है। अमेरिका में उठाए गए इन आर्थिक
कदमों से सारा विश्व पभावित हो सकता है। चिंता हमें अमेरिका में रह रहे 32 लाख भारतीय
अमेरिकियों के भविष्य को लेकर भी है। इनमें 36 फीसदी तो अकेले नासा में ही काम करते
हैं। 42 हजार भारतीय डाक्टर अमेरिका में इस समय नौकरी कर रहे हैं। फिर आयात-निर्यात
पर क्या असर पड़ेगा, यह भी देखना बाकी है।
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