Sunday 31 March 2019

हमारे सैनिकों को पत्थरबाजों से सुरक्षा मिले

ड्यूटी के दौरान कश्मीर में पत्थरबाजों के हमलों का शिकार होने वाले सुरक्षाबलों के जवानों की सुरक्षा व मानवाधिकारों के संरक्षण को लेकर सैनिक परिवारों की दो बेटियां सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने 19 वर्षीय प्रीती केदार गोखले और 20 वर्षीय काजल मिश्रा की याचिका को सुनने की अपनी अनुमति दे दी है। प्रीती केदार गोखले का कहना है कि उन्हें सीमा पर तैनात जवानों पर पूरा भरोसा है। उनके पिता खुद सेना के अधिकारी हैं। वह कभी इस बात को लेकर चिंतित नहीं होतीं कि युद्ध की स्थिति बन जाती है तो क्या होगा। उनकी पीड़ा हाथ में हथियार होने के बावजूद कश्मीरी युवकों के पत्थर खा रहे जवानों को लेकर है। प्रीती ने कहा कि मैं यहां टेलीविजन पर जब सेना के जवानों पर पथराव होता देखती हूं तो मैं उनके लिए अपमान महसूस करती हूं। उनसे ज्यादा मैं खुद को अपमानित महसूस करती हूं। पत्थरबाजी करने वाले कश्मीरी युवकों को मानवाधिकार की आड़ में बचौलिया जाता है, लेकिन उनके पत्थरों से जख्मी जवानों के मानवाधिकार कहां होते हैं? अपनी याचिका में कहा गया है कि कोर्ट सरकार को निर्देश दे कि वह उग्र भीड़ से सुरक्षाबलों का बचाव और उनके मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए नीति तैयार करे ताकि सुरक्षाबलों के जवानों को जीवन का मौलिक अधिकार संरक्षित रहे। याचिका में कहा गया है कि वह इस बात से बेहद आहत हुईं कि जिन सुरक्षाबलों को शांति कायम रखने के लिए तैनात किया गया है, उन पर पत्थर आदि के हमला किया जाता है। जब सुरक्षाबल आत्मरक्षा में कोई कार्रवाई करते हैं तो उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की जाती है, जबकि हमलावरों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। इतना ही नहीं, जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री ने विधानसभा में घोषणा की है कि पत्थरबाजों के खिलाफ दर्ज 9760 एफआईआर वापस ली जाएंगी, क्योंकि यह उनका पहला अपराध है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि राज्य सरकार को कानून में दी गई प्रक्रिया का पालन किए बगैर इस तरह एफआईआर वापस लेने का अधिकार नहीं है। यह पत्थर फेंकने वाले बाज आने वाले नहीं हैं। अब यह चुनाव के विरोध में पत्थरबाजी करने लगे हैं। अपने पाक समर्थक आकाओं के इशारे व पैसे पर यह हमारे जवानों पर मौका देखते ही पत्थरबाजी शुरू कर देते हैं। हमारे सैनिकों को जहां पूरी छूट और सुरक्षा मिलनी चाहिए वहीं सुरक्षाबलों को भी अपनी आत्मरक्षा में सीमा को लांघना नहीं चाहिए। सेना के अगर आप हाथ बांध कर कहेंगे कि आप इन अलगाववादियों और उनके समर्थकों से निपटो तो यह संभव नहीं है। सेना बंधे हाथों से अपना काम नहीं कर सकती। हम इन बच्चियों की मांगों का समर्थन करते हैं और उम्मीद करते हैं कि जो काम केंद्र सरकार अपनी वोट की राजनीति के चलते नहीं कर पा रही, वह सुप्रीम कोर्ट करेगा। देखें, आगे अदालत में क्या होता है?

-अनिल नरेन्द्र

सराब और शराब का यूपी की सेहत पर कितना असर पड़ेगा?

उत्तर प्रदेश के मेरठ में बृहस्पतिवार को पीएम ने अपने प्रचार अभियान का आगाज करते हुए विपक्ष पर तीखे हमले बोले। सपा-रालोद-बसपा गठबंधन को (स+रा+ब) सराब बताया। कहाöजैसे शराब सेहत के लिए खतरनाक होती है, यह गठबंधन देश को वैसे ही बर्बाद कर देगा, इससे बचें। मोदी ने कहा, मैं चौकीदार हूं और चौकीदार कभी नाइंसाफी नहीं करता। इसलिए बारी-बारी सबका हिसाब होगा। मोदी ने मेरठ स्थित वेदांत कुंज मैदान में विजय संकल्प रैली में कहा कि आज एक तरफ नए भारत के संस्कार हैं तो दूसरी तरफ वंशवाद व भ्रष्टाचार है। एक तरफ दमदार चौकीदार तो दूसरी तरफ दागदारों की भरमार। वह हिसाब मांगते हैं। मैं पांच साल का हिसाब दूंगा पर उनसे भी लूंगा। बराबर तभी होगा, जब लिया भी जाए। प्रधानमंत्री द्वारा गठबंधन को शराब बताने पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव और बसपा प्रमुख मायावती ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है। यादव ने कहा कि सराब और शराब का अंतर वह लोग नहीं जानते जो नफरत के नशे को बढ़ावा देते हैं। वहीं दूसरी ओर मायावती ने कहा कि व्यक्तिगत, जातिगत तथा सांप्रदायिक द्वेष और घृणा की राजनीति करना भाजपा एंड कंपनी की शोभा है जिसके लिए उसकी सरकार लगातार सत्ता का दुरुपयोग करती रही है। यादव ने प्रधानमंत्री के भाषण के बाद ट्वीट कर कहाöआज टेली-प्रारंपटर ने यह पोल खोल दी कि सराब और शराब का अंतर वह लोग नहीं जानते जो नफरत के नशे को बढ़ावा देते हैं। सराब को मृगतृष्णा भी कहते हैं यानि धुंधला सपना जो पांच साल से भाजपा दिखा रही है। जो पूरा नहीं होता। अब चुनाव में नए सराब दिखा रही है। मायावती ने ट्विटर पर कहाöपीएम श्री मोदी ने आज मेरठ से लोकसभा चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुए कहा कि मैं अपना हिसाब दूंगा लेकिन विदेश से काला धन वापस लाकर गरीबों को 15 से 20 लाख रुपए देने और किसानों की आय दोगुनी करने आदि जनहित के मुद्दों का हिसाब-किताब दिए बिना ही वह मैदान छोड़ गए। क्या चौकीदार ईमानदार है? प्रधानमंत्री द्वारा तीन दलों की तुलना सराब यानि शराब से करने पर हमें लगता है कि चुनाव प्रचार नमकीन नहीं होगा, बल्कि ज्यादा कड़वा होने की संभावना है। विपक्षी दल तो इस बयान के बाद पलटवार तो कर ही रहे हैं पर आंकलन यह है कि पीएम के इस बयान का संदेश शराब का सेवन करने वालों के बीच भी सही नहीं गया है। भाजपा को उलटा नुकसान भी हो सकता है। पीएम ने कहा कि सपा का-, अजीत सिंह की आरएलडी का-रा और बसपा का-ब मिलकर सराब बनाते हैं। शराब यानि सराब सेहत के लिए हानिकारक होती है। आरएलडी अपनी बड़ी समर्थक जाट बैल्ट में, बसपा और सपा अपने समर्थकों के बीच इस बयान को सम्मानपर चोट के रूप में प्रचारित करने में लगे हैं। इसके अलावा शराब पीने वालों की संख्या अब शहरों में ही नहीं, गांवों में भी खासी है। उस वर्ग में भी इस बयान का सही मैसेज नहीं जाएगा। वह इसे अपने मजाक के रूप में ले सकते हैं। लेकिन भाजपा का कहना है कि मोदी ने नुकसान बताने के लिए यह तुलना की है। जहां तक नुकसान की बात है तो महिलाओं में तो इसका सही संदेश जाएगा। रही बात वोटों की तो मोदी का दूसरा नाम है रिस्क लेना।

Saturday 30 March 2019

देशद्रोह के समान थी नोटबंदी?

कांग्रेस समेत कुछ विपक्षी दलों ने मंगलवार को एक बार फिर से नोटबंदी पर सरकार की घेराबंदी करते हुए इसे सबसे बड़ा घोटाला करार दिया। 30 मिनट का एक वीडियो जारी कर आरोप लगाया कि नोटबंदी के दौरान बड़े पैमाने पर कमीशन लेकर नोटों की अदला-बदली की गई थी और उसमें भाजपा के नेता भी शामिल थे। दावा किया गया कि नोटबंदी के बाद भी 40 प्रतिशत कमीशन के बदले नोट बदले गए और इस घोटाले के जरिये देश की आम जनता का पैसा लूटा गया जो देशद्रोह है। विपक्षी दलों के इस सांझा संवाददाता सम्मेलन में जो वीडियो जारी किया गया है उसमें यह कथित तौर पर दिखाया गया है कि नोटबंदी के बाद अहमदाबाद के निकट भाजपा के एक कार्यकर्ता ने पांच करोड़ रुपए मूल्य के चलन से बाहर हो चुके नोट बदले और इसके लिए 40 प्रतिशत कमीशन लिया गया। कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने इस वीडियो की जिम्मेदारी लेने अथवा इसे सत्यापित करने से इंकार करते हुए कहा कि यह वीडियो एक समाचार पोर्टल से डाउनलोड किया गया है। टेप में भाजपा के अहमदाबाद कार्यालय में कुछ लोगों को पांच लाख रुपए के पुराने नोटों को 40 प्रतिशत कमीशन के साथ बदलते दिखाया गया है। संवाददाता सम्मेलन में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, मल्लिकार्जुन और रणदीप सुरजेवाला, लोकतांत्रिक जनता दल के शरद यादव, राष्ट्रीय जनता दल के मनोज झा तथा अन्य दलों के नेता मौजूद थे। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आठ नवम्बर 2016 को 500 और 1000 रुपए के नोटों को बंद किया था और पुराने नोटों को नए नोटों में बदलने का समय 31 दिसम्बर 2018 तक तय किया गया था। सिब्बल ने कहा कि यह तब हुआ जबकि नोटिफिकेशन के द्वारा नोट जमा करने और बदलने की घोषित तारीख बीत चुकी थी। सिब्बल ने कहा कि यह वीडियो सवाल उठाता है कि जब देश की आम जनता कुछ हजार रुपए के लिए मुश्किल का सामना कर रही थी तो उस वक्त गुजरात में भाजपा के कार्यकर्ता के पास इतने पैसे कहां से आए? उन्होंने कहा कि देश को फैसला करना है कि चौकीदार कौन है और चोर कौन है? यह भी तय करना है कि देशभक्त कौन है और देशद्रोही कौन है? एक सवाल के जवाब में सिब्बल ने कहा कि यह देशद्रोह किया गया है। गुलाम नबी आजाद ने इसे भारत का सबसे बड़ा घोटाला बताया और कहा कि हमारी सरकार बनने पर हम इसकी जांच कराएंगे। कांग्रेस समेत विपक्ष के इस दावे पर वित्तमंत्री और भाजपा नेता अरुण जेटली ने कहा कि यूपीए के फर्जीवाड़े का कारवां बढ़ता जा रहा है। वीएसवाई की फर्जी डायरी के बाद एक फर्जी स्टिंग, जब असली मुद्दे नहीं होते हों तो फर्जीवाड़े पर भरोसा करे। जेटली ने कहा कि लंदन में ईवीएम पर खुलासे का विफल प्रयास करने वाला और यूपीए के आज के फर्जी स्टिंग के पीछे क्या एक ही शख्स है। जेटली ने कहा कि ईवीएम को लेकर कपिल सिब्बल विदेश जाकर मनगढ़ंत कहानी के आधार पर हिन्दुस्तान के लोकतंत्र को बदनाम करने की नापाक कोशिश की थी। बाद में वही खबर फर्जी साबित हुई थी। सवाल यह है कि यह स्टिंग वीडियो फर्जी है क्या? दूध का दूध, पानी का पानी हो सकता है अगर इसकी प्रमाणिकता की जांच हो।

-अनिल नरेन्द्र

मिशन शक्ति परीक्षण के बाद छिड़ा सियासी युद्ध

भारत के लिए यह बड़े गर्व की बात है कि हमने अंतरिक्ष में ही दुश्मन की सैटेलाइट नष्ट करने की क्षमता हासिल कर ली है। डीआरडीओ द्वारा तैयार एंटी-सैटेलाइट (. सैट) मिसाइल के सफल परीक्षण के साथ भारत इस ताकत से लैस रूस, अमेरिका और चीन के बाद चौथा देश बन गया है। भारत ने इस परीक्षण को मिशन शक्ति नाम दिया है। मिशन शक्ति महज तीन मिनट में पूरा हो गया। परीक्षण के दौरान सेवा से बाहर होने के बाद भी परिक्रमा कर रहे एक लाइव सैटेलाइट को 300 किलोमीटर ऊपर पृथ्वी की निचली कक्षा में मार गिराया गया। डीआरडीओ प्रमुख जी. सतीश रेड्डी ने कहा कि मिसाइल से सैटेलाइट को गिराना दिखाता है कि भारत सेंटीमीटर्स तक की सटीकता के लिए परिपक्व हो चुका है। हम अपने वैज्ञानिकों, टेक्नीशियों को इस शानदार महत्वपूर्ण उपलब्धि पर बधाई देते हैं। इससे आकाश में सुरक्षा सुनिश्चित होगी। कोई भी संदिग्ध सैटेलाइट भारतीय अंतरिक्ष सीमा में प्रवेश नहीं कर सकेगा। दुश्मन सैटेलाइट जासूसी भी नहीं कर पाएगा। हालांकि परीक्षण के समय को लेकर सियासी जंग जरूर छिड़ गई है। बुधवार दोपहर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी घोषणा करते हुए कहा कि हमने अंतरिक्ष में बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली है। एंटी सैटेलाइट मिसाइल का सफल परीक्षण देश के विकास की रक्षात्मक पहल है। प्रधानमंत्री की ट्वीट आने के बाद ट्वीट वार शुरू हो गया। कांग्रेस महासचिव अहमद पटेल ने इसका श्रेय मनमोहन सिंह सरकार को दिया। पलटवार में केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सबूत सहित याद दिला दिया कि मनमोहन सिंह सरकार ने वैज्ञानिकों को छूट नहीं दी थी वरना भारत यह क्षमता कुछ साल पहले ही हासिल कर लेता। कांग्रेस ने दावा किया कि ए. सैट मिसाइल की उपलब्धि का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्रियों जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी को जाता है क्योंकि उनके समय में डीआरडीओ बना था। ममता बनर्जी और मायावती ने मोदी की घोषणा को आचार संहिता का उल्लंघन बताया। ममता ने परीक्षण के समय पर सवाल खड़ा किया तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री के संबोधन को ड्रामा करार दिया। मिशन शक्ति को कांग्रेस द्वारा पुराना कार्यक्रम बताए जाने पर पलटवार में भाजपा ने कहा कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने 2012-13 में इसके लिए इजाजत और पैसे देने से इंकार कर दिया था। अरुण जेटली ने आगे कहा कि बहुत समय पहले से हमारे वैज्ञानिकों की इच्छा थी कि भारत इस दिशा में आगे बढ़े। उन्होंने 21 अप्रैल 2012 में की एक मीडिया रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए कहा कि जब अग्नि-5 का परीक्षण हुआ था, तब डीआरडीओ के प्रमुख डॉ. वीके सारस्वत ने कहा था कि उनके पास उपग्रहों को भेदने की क्षमता है लेकिन सरकार इसके परीक्षण की दिशा में आगे बढ़ने की अनुमति नहीं दे रही है। भारत ने एंटी सैटेलाइट हथियार का सफल परीक्षण करके यह तो साबित कर ही दिया है कि वह न सिर्फ भविष्य की रक्षा चुनौतियों के लिए तैयार है, बल्कि उसके लिए अंतरिक्ष का एक ऐसा क्षेत्र है, जहां उसके लिए अब कोई चुनौती शेष नहीं है। यह माना जाता है कि भविष्य में युद्ध पृथ्वी, जल या आकाश में ही नहीं अंतरिक्ष में भी लड़ा जाएगा। वैज्ञानिकों को बधाई।

Friday 29 March 2019

भाजपा को अपने गढ़ बचाने की चुनौती

2014 लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने असम की 14 सीटों में से सात पर जीत हासिल की थी। कांग्रेस को तीन सीटें मिली थी और अन्य को चार। इस बार भाजपा के लिए 2014 से आगे बढ़कर ज्यादा सीटें जीतने की चुनौती होगी। भाजपा ने 2019 लोकसभा चुनाव में पूर्वोत्तर के आठ राज्यों की 25 में से 22 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है और इसी लक्ष्य के तहत असम गण परिषद (अगप) समेत पांच क्षेत्रीय दलों व मोर्चों के साथ गठबंधन करने का ऐलान किया है। यह करार भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) के बीच हुआ है। नागरिकता बिल के विरोध में अगप ने जनवरी में भाजपा सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। नॉर्थ ईस्ट की यह सीटें एक बार फिर नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने में अहम भूमिका निभाएंगी। बता दें कि नेडा में यह दल शामिल हैöअसम गण परिषद, बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट, इंडीजिनयस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा नेशनल पीपुल्स पार्टी, नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी व सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा। असम गण परिषद पहले भी एनडीए की सहयोगी रह चुकी है। 2016 के विधानसभा चुनाव में भी अगप, भाजपा व बीपीएफ के बीच गठबंधन था और तीनों ने मिलकर 2001 से लगातार सत्तारूढ़ कांग्रेस को उखाड़ फेंका था। गठबंधन के बाद अगप अध्यक्ष अतुल बोरा ने कहा कि कांग्रेस को परास्त करने के लिए पुराने सहयोगी फिर एक हो गए हैं। अगप ने जनवरी में नागरिकता विधेयक के विरोध में असम की भाजपा सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। क्या उत्तराखंड में 2014 की सियासी तस्वीर बदलेगी? यहां कांग्रेस के सामने 2014 के चुनाव के बाद पहाड़-सी चुनौती है। वहीं भाजपा के सामने अपना पिछला मत प्रतिशत बरकरार रखने का सवाल है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस से 21.53 प्रतिशत अधिक मत पाकर कांग्रेस को पछाड़ दिया था। 2014 में उत्तराखंड की पांचों लोकसभा सीटों पर भाजपा विजयी हुई थी। जबकि 2009 में उसके पास एक भी सीट नहीं थी। यह चुनाव कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के खिलाफ लहर वाला द्विध्रुवीय चुनाव था। इस चुनाव में बसपा समेत सभी छोटे दल हाशिये पर चले गए थे। पांचों सीटों पर परचम लहराने वाली मोदी लहर पर सवार भाजपा को जहां कुल वोट 24,29,698 यानि 55.93 प्रतिशत वोट मिले थे। वहीं कांग्रेस को 14,94,440 यानि 34.40 प्रतिशत वोट मिले। इस तरह दोनों के बीच 21.53 प्रतिशत यानि 9,35,250 वोटों का अंतर था। प्रदेश में तीसरे नम्बर पर बहुजन समाज पार्टी रही जिसे 2,07,846 यानि 4.78 प्रतिशत वोट मिले। कांग्रेस के लिए इस बार इस बड़े मत प्रतिशत के अंतर को पाटने की चुनौती है। टिकटों के बंटवारे को लेकर बेशक भाजपा में कुछ असंतोष जरूर है पर भाजपा नेतृत्व इसे सुलझा लेगा। देखना यह है कि 2019 में वैसी मोदी लहर नहीं है जैसे 2014 में थी। पांच साल के भाजपा शासन में एंटी इंकमबेंसी फैक्टर भी होगा। कुल मिलाकर पूर्वोत्तर और उत्तराखंड में मुकाबला दिलचस्प होगा। मुख्यतय भाजपा और कांग्रेस गठबंधनों के बीच कड़ी परीक्षा होगी।

-अनिल नरेन्द्र

गरीबी हटाओ बनाम गरीबी मिटाओ

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ठीक 48 वर्ष बाद वही मास्टर स्ट्रोक खेला है जो 1971 में उनकी दादी इंदिरा गांधी ने खेला था। गौरतलब है कि 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था और देश की सत्ता पर काबिज हुई थीं। उस समय पूरा विपक्ष उनके खिलाफ लामबंद था लेकिन उनके इस एक नारे से सारे सियासी अनुमानों को धत्ता बताते हुए पार्टी की झोली में 578 लोकसभा सीटों में 352 सीटें डाल दी थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में अब उसी तर्ज पर भाजपा और नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए राहुल ने सोमवार को देश के 25 करोड़ गरीबों को रिझाने का ऐसा सियासी दांव चला है जिसकी काट करना आसान नहीं होगा। कांग्रेस अध्यक्ष की न्यूनतम आय योजना (न्याय) के तहत देश के 20 प्रतिशत गरीबों को हर साल 72 हजार रुपए देने वाली न्याय योजना गेमचेंजर भी साबित हो सकती है। पिछले दिनों तीन राज्यों के चुनाव में किसानों की कर्जमाफी योजना के परिणाम से उत्साहित कांग्रेस अध्यक्ष ने अब सियासी पिच पर गरीब कार्ड की गुगली फेंक दी है। राहुल ने वादा किया है कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वह देश के 20 प्रतिशत सबसे गरीब पांच करोड़ परिवारों को सीधे उनके खाते में सालाना 72 हजार रुपए देगी, ताकि उनकी आय 12 हजार रुपए महीने हो सके। कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि इस योजना को तैयार करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था का गहन अध्ययन किया है और अर्थव्यवस्था इस भार को उठा सकती है। उन्होंने कहा कि न्यूनतम आय योजना के लिए देश में पर्याप्त धन उपलब्ध है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस देश के लोगों को न्याय देगी और उनका हक देगी। कांग्रेस अध्यक्ष की न्यूनतम आय योजना (न्याय) की घोषणा से भाजपा में खलबली मच गई। भाजपा ने कांग्रेस के वार की काट करने के लिए वित्तमंत्री अरुण जेटली को मैदान में उतारा। जेटली ने गांधी की न्याय योजना में खामियां गिनाईं और मोदी सरकार की वर्तमान योजनाओं का जिक्र कर यह समझाने की कोशिश की कि मोदी सरकार द्वारा अभी भी प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना के तहत गरीबों के खाते में सरकारी सहायता दी जा रही है। जेटली ने तर्क दिया कि नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं व कार्यक्रमों द्वारा गरीबों को 5.34 लाख करोड़ रुपए दिया जा रहा है। जेटली ने कहा कि कांग्रेस की यह योजना एक धोखा और छलावा है। कांग्रेस की नीति रही है कि चुनाव जीतने के लिए गरीब को धोखा देना और साधन न देना। कांग्रेस पार्टी का इतिहास रहा है कि गरीब को नारे दो और साधन मत दो। कांग्रेस ने ट्विटर पर इसकी काट करने के लिए अभियान चलाया कि भाजपा गरीबों को न्यूनतम आय देने का विरोध कर रही है जबकि उसने अमीरों को करोड़ों रुपए की मदद की। हमारा मानना है कि यह एक अच्छी स्कीम है। यह गरीबों को न्यूनतम आय की गारंटी देगी। सैद्धांतिक तौर से संभव भी है क्योंकि यह कर्जमाफी से बेहतर है। लेकिन इसमें दो समस्याएं हैंöपहली कि गरीब की आय का आंकड़ा मौजूद नहीं है। कैसे तय करेंगे कि गरीब कौन है। ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी क्षेत्रों में इसका निर्धारण कैसे होगा कि किसकी आय कितनी है? दूसराöपांच करोड़ परिवार को सालाना 72 हजार रुपए दें तो 3.6 लाख करोड़ रुपए लगेंगे। इतना पैसा कहां से आएगा? सब्सिडी खत्म नहीं की तो सरकार का घाटा बढ़ेगा। देखें, राहुल की इस न्याय योजना का वोटरों पर कितना असर पड़ता है?

Thursday 28 March 2019

मामला नेताओं की संपत्ति में बेतहाशा वृद्धि का

उच्चतम न्यायालय ने एनजीओ लोक प्रहरी द्वारा दायर अवमानना याचिका की सुनवाई करते हुए जनप्रतिनिधियों की आय और संपत्ति की निगरानी का स्थाई तंत्र बनाने पर अपने फैसले पर अभी तक अमल न हो पाने पर नाराजगी जताते हुए केंद्र सरकार से जवाब दाखिल करने के लिए कहा है। पिछले साल माननीय अदालत ने जनप्रतिनिधियों की संपत्ति पर निगरानी रखने लिए सरकार को एकाधिक कदम उठाने का आदेश दिया था। न जाने कितने सांसद हैं जो एक कार्यकाल में ही अप्रत्याशित तरीके से अमीर हो जाते हैं। लगभग ऐसी ही स्थिति विधायकों के मामले में भी देखने को मिलती है। जब ऐसे विधायक या सांसद दिन दूनी रात चौगनी आर्थिक तरक्की करते हैं तब कहीं अधिक संदेह होता है जो न तो कारोबार ही करते हैं और न ही सियासत के अलावा और कुछ करते हैं। हाल में सामने एक आंकड़े के मुताबिक 2014 में फिर से निर्वाचित हुए 153 सांसदों की औसत संपत्ति में 142 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। यह प्रति सांसद औसतन 13.32 करोड़ रुपए रही। यह आंकड़ा यह भी कहता है कि भाजपा के 72 सांसदों की संपत्ति में 7.54 करोड़ रुपए की औसत से उछाल आई और कांग्रेस के 28 सांसदों की संपत्ति में औसतन 6.35 करोड़ रुपए की। क्या इसे सामान्य कहा जा सकता है? क्या यह आंकड़ा यह नहीं इंगित करता है कि कुछ लोगों के लिए राजनीति अवैध कमाई का जरिया बन गया है। संभव है कि कुछ सांसद ऐसे हैं जो बड़े कारोबारी, व्यवसायी हों या फिर पुश्तैनी अमीर हैं। लेकिन आखिर इसका क्या मतलब कि सामान्य पृष्ठभूमि और केवल राजनीति ही करने वालों की संपत्ति पांच साल में दो-तीन गुना हो जाएं, क्या दाल में कुछ काला नहीं लगता? नामांकन भरते समय हर उम्मीदवार को एक हलफनामे के द्वारा अपनी पत्नी या पति तथा आश्रितों की संपत्ति का स्रोत बताना होता है तथा फार्म 26 में संशोधन करने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश जिससे उस जनप्रतिनिधि को जनप्रतिनिधित्व कानून के आधीन यह लिखा जाना कि वह इस कानून के किसी भी प्रावधान के तहत चुनाव लड़ने के अयोग्य है पर सरकार ने न केवल आंशिक अमल किया, बल्कि सबसे अखरने वाली बात यह है कि जन प्रतिनिधियों की आय और संपत्ति पर निगरानी रखने की स्थायी तंत्र गठित करने में उससे कोई रुचि नहीं ली। यह उदासीनता तब है जब सांसदों, विधायकों की संपत्ति में भारी बढ़ोतरी के आंकड़े निरंतर आ रहे हैं। यह न तो किसी पार्टी विशेष तक सीमित है और न ही किसी एक राज्य तक। करीब डेढ़ साल पहले आयकर विभाग ने कुछ सांसदों और विधायकों की सूची सुप्रीम कोर्ट को सौंपी थी जिनकी आय दो चुनावों के बाद बेतहाशा बढ़ी है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स बता चुका है कि 16वीं लोकसभा अब तक की सबसे अमीर लोकसभा थी। कटु सत्य तो यह है कि जब पार्टियां टिकट बेचने में लगी हैं तो सांसद, विधायक पहले तो अपने चुनाव में खर्च हुई राशि कमाता है और फिर वह अगर अगला चुनाव हार जाए तो उसके लिए भी प्रबंध करना चाहता है और यह सब आता कहां से है? राजनीति से। इसलिए टिकटों का बिकना, इतने महंगे चुनावों पर अंकुश लगाना भी जरूरी है। राजनीति को कमाई का जरिया नहीं बनाना चाहिए।

-अनिल नरेन्द्र

कांग्रेस 23 राज्यों में 354 सीटों पर अकेले लड़ने जा रही है

पिछले साल दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत के बाद से कांग्रेस फ्रंटफुट पर खेल रही है। 4 महीने पहले तक जिन राज्यों में कांग्रेस गठबंधन के लिए साथी खोज रही थी और नंबर-2 की पार्टी बनने को तैयार थी, अब वहां कांग्रेस सहयोगियों के साथ सीट बंटवारे में बड़े भाई की हैसियत या बराबरी का रुतबा चाहती है। इससे कम उसे स्वीकार नहीं है। इस एवज में कांग्रेस अकेले चुनाव में जाने को तैयार है। यूपी के बाद कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में अकेले लड़ने का फैसला किया। महाराष्ट्र में वह एनसीपी के साथ नंबर-1 की हैसियत, बिहार में राजद के साथ बराबरी चाहती है। आंध्र में भी बराबर सीट चाहती है। सिर्फ तमिलनाडु में वह द्रमुक से कम सीटों पर सहमत हुई है। राज्य में 39 सीटें हैं, कांग्रेस 9 और द्रमुक 30 सीटों पर लड़ रही है। बिहार, जम्मू-कश्मीर, आंध्र में तो 2014 में वह नंबर टू की हैसियत से लड़ी थी, पर इस बार बराबर सीट चाह रही है। कांग्रेस ने 23 राज्यों में अकेले चुनाव लड़ने की तैयारी कर ली है। इनमें से दो-तीन राज्य ही ऐसे हैं जहां कांग्रेस ने कुछ छोटे दलों के साथ ही गठबंधन किया है। पर वे ऐसे दल हैं जिनकी राष्ट्रीय पहचान नहीं है। इन 23 राज्यों में 354 सीटें आती हैं। यानी कांग्रेस करीब 65 प्रतिशत सीटों पर अकेले चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस ने अभी 7 राज्यों में बड़े क्षेत्रीय दलों से गठबंधन किया है। वे राज्य जहां कांग्रेस अकेले लड़ रही है उनमें प्रमुख हैं ः यूपी (80), बंगाल (42), मध्य प्रदेश (29), राजस्थान (25), गुजरात (25), आंध्र (25), ओड़िसा (21), केरल (20), तेलंगाना (17), असम (14), पंजाब (13), हरियाणा (10), दिल्ली (7), जम्मू-कश्मीर (6) और उत्तराखंड (5)। नार्थ-ईस्ट में 6 में से 5 राज्यों में कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ने जा रही है। केरल की वायनाड सीट से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के चुनाव लड़ने की संभावना से न केवल राज्य की ही सियासत गरमा गई है बल्कि दक्षिण का अपना किला मजबूत करने की कवायद दिख रही है। केरल में कांग्रेस हमेशा से मजबूत स्थिति में रही है, लेकिन वामदलों की टक्कर में राज्य में सत्ता परिवर्तन होता रहता है। कांग्रेस किले को और मजबूत करना चाहती है और अगली रणनीति तैयार करने में जुट गई है। 2014 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 9 सीटों पर कब्जा किया था। राज्य में कुल 20 सीटें हैं। यूडीए गठबंधन (जिसका कांग्रेस भी हिस्सा थी) ने कुल 12 सीटें जीती थी। एनडीए का 2014 में खाता खुल भी नहीं पाया था। जहां  तक वायनाड सीट का सवाल है यह हमेशा से कांग्रेस का गढ़ रहा है। 2008 के बाद अस्तित्व में आई इस लोकसभा सीट पर 2009 में 1.5 लाख वोटों से कांग्रेस के एम.आई. शानवास की जीत हुई थी। 2014 में भी शानवास सीट बरकरार रखने में कामयाब हुए थे। नवंबर 2018 में शानवास के निधन के बाद से यह सीट खाली है। कांग्रेस के लिए वक्त है आत्मविश्वास का। राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद 2019 का लोकसभा चुनाव सबसे बड़ी चुनौती है।

Wednesday 27 March 2019

महाराष्ट्र में मुकाबला भाजपा- शिवसेना बनाम कांग्रेस-एनसीपी है

देश में उत्तर प्रदेश के बाद सर्वाधिक 48 लोकसभा सीट महाराष्ट्र में हैं। लिहाजा सियासी दलों की नजर इस अखाड़े पर लगी है। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विरोधी माहौल के बीच महाराष्ट्र ने भाजपा-शिवसेना गठबंधन का साथ दिया था। हालांकि सियासत के सबसे पुराने साथियों भाजपा-शिवसेना के अदावत के बाद हाथ मिलाने के बावजूद माना जा रहा है कि स्थिति वैसी नहीं है। पुलवामा हमले के बाद राष्ट्रवाद का मुद्दा हावी जरूर हुआ है, लेकिन राजनीतिक परिस्थितियों में भी बड़ा परिवर्तन आया है। पहली बार दलित और मुस्लिम समीकरण बनाने के लिए ओवैसी की एआईएमआईएम और अंबेडकर पार्टी में गठबंधन हुआ है। 2014 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 48 सीटों में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को 42 सीटें मिली थीं जबकि राकांपा ने चार और कांग्रेस को दो सीटें मिली थीं। आरक्षण, भीमा-कोरेगांव हिंसा, किसान कर्जमाफी आंदोलन और आदिवासी आंदोलन सहित कई बड़े मुद्दे हैं जो पूरे पांच साल महाराष्ट्र की सियासत में छाए रहे। तमाम विरोधी प्रदर्शनों के बावजूद महाराष्ट्र की अधिकांश महानगर पालिकाओं, जिला परिषदों, नगर पालिकाओं में भाजपा का कब्जा रहा। साथ ही दो सीटों पर हुए लोकसभा उपचुनाव में पालघर भाजपा ने जीती। सूबे की सियासत में दूसरी सबसे बड़ी घटना ऐन चुनाव के मौके पर भाजपा-शिवसेना का गठबंधन होना है। साढ़े चार साल केंद्र और राज्य में सत्ता के साथ रहने के बावजूद शिवसेना लगातार भाजपा पर हमलावर रही। हालांकि चुनाव से ठीक पहले भाजपा ने नाराज (सबसे पुराने) दोस्त को मना कर सूबे में अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। गठबंधन से भाजपा को विदर्भ में नुकसान दिख रहा है।  जबकि मुंबई, कोंकण, उत्तर महाराष्ट्र और मराठवाड़ा में फायदा हो सकता है। शहरों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में भाजपा का जनाधार घटा है, जबकि शिवसेना का ग्रामीण इलाकों में जनाधार भी कम है। महाराष्ट्र में 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की भारी विजय हुई थी। बसपा, आरपीआई और बीएमबी जैसे दल जातिगत वोट के बूते तीन-चार चुनाव में तीसरी ताकत की भूमिका में रहे हैं। कभी इसका फायदा कांग्रेस को तो कभी भाजपा को मिला है। इस बार ओवैसी और प्रकाश आंबडेकर की जोड़ी का असर पश्चिम महाराष्ट्र, मराठवाड़ा और विदर्भ में दिख सकता है। महाराष्ट्र में बीते दो साल में किसानों को बार-बार सड़कों पर उतरते देखा। पिछले माह किसानों ने नासिक से मुंबई तक 200 किलोमीटर लंबा लांग मार्च-2 शुरू किया जो सरकार से वार्ता के बाद 21 फरवरी को स्थगित हो गया। किसानों का बड़ा मुद्दा है। एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने 2014 चुनाव के बाद भाजपा के समर्थन का ऐलान कर शिवसेना को बैकफुट पर ला दिया था। तब सियासी पंडितों को भी इस पेशकश का मतलब समझ नहीं आया। हालांकि भाजपा ने समर्थन के लिए शिवसेना को मना लिया था। मराठा राजनीति के सबसे बड़े दिग्गज खिलाड़ी शरद पवार ने साढ़े चार सालों तक ऐसे मुद्दों को हवा दी जिससे न सिर्प मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस परेशान हुए बल्कि भाजपा के खिलाफ भी माहौल बना। कांग्रेस भी एनसीपी प्रमुख को आगे कर महाराष्ट्र में अपना पुराना गढ़ साधने की जुगत में है। कुल मिलाकर राज्य में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की स्थिति मजबूत है।

-अनिल नरेन्द्र

गठबंधन न होने से तृणमूल की आस बढ़ी

पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों में सीटों के बंटवारे के मुद्दे पर कांग्रेस और माकपा की अगुवाई वाले वाममोर्चा के बीच जारी बातचीत फेल होने की वजह से राज्य में वोटरों के ध्रुवीकरण का अंदेशा तेज हो गया है। अब चतुष्कोणीय मुकाबले में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और भाजपा दोनों के लिए अपने पक्ष में वोटरों को लामबंद करने का मौका मिल गया है। पश्चिम बंगाल कांग्रेस ने न सिर्प राज्य की सभी 42 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी बल्कि वाममोर्चे द्वारा छोड़ी गई चार सीटों को भी ठुकरा दिया है। वाममोर्चा ने मंगलवार को पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 में से 38 सीटों के लिए अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर दी। मोर्चे ने फिलहाल मालदा उत्तर, मालदा दक्षिण, जंगीपुर और ब्रह्मपुर की उन चार सीटों पर कोई उम्मीदवार नहीं उतारा, जहां वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस जीती थी। वाममोर्चा अध्यक्ष विमान बसु ने कहा कि कांग्रेस के साथ तालमेल के लिए दरवाजे अब भी खुले हैं। पश्चिम बंगाल में अजेय ताकत माने जाने वाले राकपा नीत वाममोर्चे के लिए 2019 लोकसभा चुनाव सबसे मुश्किल राजनीतिक अग्निपरीक्षा है जब उसे अपने राजनीतिक एवं चुनावी अस्तित्व को बचाना होगा। वाममोर्चा ने 1977 से लगातार 34 साल तक राज्य में हुकूमत की, लेकिन अब इसका जनाधार तेजी से सिकुड़ रहा है। वह नेतृत्व के संकट का सामना कर रहा है और उसके कार्यकर्ता सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस में, यहां तक कि भाजपा में जा रहे हैं। भगवा दल उसकी जगह लेता जा रहा है और उसे अपनी जमीन बचाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। पश्चिम बंगाल में चार प्रमुख दलों की स्थिति को समझने के लिए 2014 का चुनाव परिणाम जरूरी है। तृणमूल को 39.05, वामदलों को 29.71, भाजपा को 16.80 तथा कांग्रेस को 9.58 प्रतिशत वोट मिले थे। 2019 में तृणमूल और भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ा है और वामदलों तथा कांग्रेस का घटा है। भाजपा की राज्य में सक्रियता बढ़ी है। यदि भाजपा और कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़ता है तो सबसे ज्यादा नुकसान ममता की  पार्टी को होगा। तृणमूल को कुछ फायदा भी हो सकता है। उसके लिए फायदा यह है कि अल्पसंख्यकों के एक गुट की उससे नाराजगी के बावजूद राज्य के लगभग 30 प्रतिशत वोटर भाजपा को रोकने के लिए तृणमूल का ही समर्थन करेंगे। वहीं तालमेल की स्थिति में तृणमूल कांग्रेस विरोधी वोटों के बंटने की जो संभावना थी, वह अब खत्म हो गई है। अब ऐसे वोट भाजपा के पाले में जा सकते हैं। हाल में भाजपा में शामिल होने वाले तृणमूल के पूर्व विधायक अर्जुन सिंह का दावा है कि तृणमूल कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति से नाराज हिन्दुओं का एक बड़ा तबका अबकी भाजपा का समर्थन करेगा। बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने राज्य की कुल 42 सीटों में से 34 सीटें जीती थीं जबकि कांग्रेस ने चार, भाजपा और माकपा ने दो-दो सीटें जीतीं। चूंकि मुकाबला इस बार चतुष्कोणीय होने की संभावना है इसलिए मुकाबला दिलचस्प होगा। तृणमूल के एक नेता मानते हैं कि प्रमुखत मुकाबला तृणमूल और भाजपा के बीच ही है। बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थी दशकों तक वाममोर्चा का वोट बैंक रहे हैं। अब यह तृणमूल कांग्रेस की ओर झुक गए हैं। ममता इसी वजह से अल्पसंख्यकों को बढ़ावा देती हैं। अल्पसंख्यक वोट भाजपा के खिलाफ इस बार भी जाएगा।

Tuesday 26 March 2019

अंतत भगोड़ा नीरव मोदी लंदन में धरा गया

पंजाब नेशनल बैंक के साथ 14,357 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी कर भागा नीरव मोदी बुधवार को लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया। वह नया बैंक खाता खोलने पहुंचा था। बैंक स्टाफ की सूचना के बाद पुलिस पहुंची और उसे धर लिया गया। वेस्टमिंस्टर कोर्ट ने मोदी की जमानत अर्जी खारिज करते हुए उसे 29 मार्च तक हिरासत में भेज दिया। उसके प्रत्यर्पण के लिए भारत की अर्जी पर 29 मार्च को सुनवाई होगी। गिरफ्तारी के वक्त नीरव का खत्म हो चुका पासपोर्ट जब्त कर लिया गया। नीरव की जमानत अर्जी खारिज करते हुए वेस्टमिंस्टर कोर्ट की जज मैरी चैलन ने कहा कि मामला जालसाजी का है व आरोपी के भागने का डर भी है, इसलिए जमानत नहीं दी जा सकती। कोर्ट ने बचाव की दलीलें व पांच लाख पाउंड सिक्युरिटी का प्रस्ताव भी नामंजूर कर दिया। नीरव ने कोर्ट में जमानत याचिका दायर करते हुए कहा कि वह ब्रिटेन सरकार को पूरा टैक्स देता है। 18 लाख रुपए महीने की सैलरी देता है। यात्रा के दस्तावेज भी जमा करवा दिए हैं। इसलिए जमानत दी जाए। लेकिन कोर्ट ने उसकी दलील नहीं मानी। कोर्ट ने नीरव की भागने की आशंका जताते हुए कहा कि उसे जेल में रखना जरूरी है। लंदन के पॉश इलाके वेस्ट एंड में 72 करोड़ रुपए के आलीशान अपार्टमेंट में रह रहा नीरव मोदी होली की पूर्व संध्या पर जेल की काली कोठरी में पहुंचा दिया गया। नीरव मोदी की गिरफ्तारी भारत सरकार, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), सीबीआई सहित अन्य जांच एजेंसियों के लिए एक राहत भरी खबर इसलिए है कि वह कहां है इसकी किसी को हवा तक नहीं थी, जैसा कि अब तक दावा किया जाता रहा कि नीरव मोदी आखिर गायब कहां हो गया? इंटरपोल भी उसे पकड़ने में नाकाम रहा। कभी पता चलता कि वह सिंगापुर में है तो कभी न्यूयार्क में होने की बात सामने आई। खैर, अभी कहानी यह है कि नीरव मोदी को एक बैंक कर्मचारी की तत्परता से पकड़ा गया। अब वेस्टमिंस्टर अदालत नीरव मोदी के भारत प्रत्यर्पण के मामले में सुनवाई करेगा। गौर करने की बात है कि अदालत द्वारा वारंट जारी किए जाने के बाद उसके पास आत्मसमर्पण का विकल्प था, लेकिन उसने वह विकल्प नहीं चुना। हुलिया बदल कर महंगे इलाके में रहने और फिर से हीरे का कारोबार शुरू करने की अपनी कोशिशों से वह पहले ही जता चुका है कि ब्रिटेन के कानून का लाभ उठाते हुए ज्यादा से ज्यादा समय तक अपने प्रत्यर्पण की कोशिशों को टालता रहेगा। वैसे भी किसी आरोपी के प्रत्यर्पण की कानूनी प्रक्रिया में समय लगता है। आर्थिक अपराध कर ब्रिटेन भाग जाने वाले एक दूसरे भगोड़े विजय माल्या का उदाहरण हमारे सामने है, जिसके प्रत्यर्पण की प्रक्रिया चल रही है। नीरव मोदी की अचानक गिरफ्तारी से सत्तारूढ़ मोदी सरकार को ऐन चुनाव के समय एक महत्वपूर्ण मुद्दा जरूर मिल गया है जिसे वह पूरी तरह से भुनाने की कोशिश करेगी। सरकार व जांच एजेंसियां आज जितनी सक्रियता दिखा रही हैं, अगर उतनी निगरानी पहले करती, सतर्कता बरतती तो नीरव मोदी या फिर कोई भी अपराधी इतनी आसानी से न तो देश से भाग सकता था और न ही दूसरे मुल्क में शरण ले पाता। नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और विजय माल्या जिस तरह से भाग निकले, उससे आम जन के मन में यह शंका तो पैदा हुई है कि ऐसी कोई मिलीभगत जरूर है जिसकी मदद से घोटालेबाज इतनी आसानी से निकल गए।

-अनिल नरेन्द्र

बिना भीष्म पितामह के महाभारत 2019

भारतीय जनता पार्टी ने होली की शाम लोकसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों की पहली लिस्ट जारी की। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि लिस्ट में भाजपा के संस्थापक और चार चुनाव में भाजपा अध्यक्ष रहे लाल कृष्ण आडवाणी का नाम नहीं है। उनकी जगह गांधी नगर से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह चुनाव लड़ेंगे। यह पहली बार है कि 14 साल की उम्र से संघ से जुड़े 91 वर्षीय आडवाणी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे। आडवाणी के अलावा 75 पार कर चुके बीएस खंडूरी, भगत सिंह कोशयारी और बिजॉय चक्रवर्ती का भी टिकट काट दिया गया है। वर्तमान भाजपा के सभी प्रमुख चेहरे आडवाणी की ही देन हैं। स्थापना के बाद वर्ष 1984 के पहले चुनाव में महज दो सीटें हासिल करने वाली भाजपा को 182 सीटें जिता कर सत्ता का स्वाद चखाने का श्रेय भी आडवाणी जी को ही जाता है। आडवाणी जी ने वर्ष 1990 में राम मंदिर निर्माण के लिए रथ यात्रा निकाल कर पार्टी को नई ऊंचाइयां दीं। राम मंदिर आंदोलन ने पूरे देश में भाजपा को आधार दिया। कलराज मिश्र ने माहौल देखकर खुद ही चुनाव न लड़ने की घोषणा की है, जबकि हुकूम देव नारायण यादव अपनी सीट पर पुत्र को टिकट दिए जाने से संतुष्ट हैं। बाकी बचे डॉ. मुरली मनोहर जोशी और शांता कुमार। शांता कुमार ने खुद चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया। वहीं जोशी जी की कानपुर सीट से राज्य संगठन ने सतीश महाना को उतारने की सलाह दी है। एक समय आडवाणी की पार्टी में छवि हिन्दू सम्राट की थी। मगर 2005 में पाकिस्तान दौरे में जिन्ना विवाद की छाया ने पार्टी में उनकी छवि कमजोर कर दी। रही-सही कसर 2009 में पीएम पद का उम्मीदवार बनने के बाद पार्टी को मिली करारी हार ने पूरी कर दी। उन्हें पार्टी का लौह पुरुष माना जाता था। आडवाणी की टिकट कटने पर हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। पिछले पांच साल में पार्टी और लोकसभा में उनकी राजनीतिक सक्रियता को शक्ति शून्य और निक्रिय बनाते हुए उन्हें मार्गदर्शक मंडल का सदस्य बनाकर जैसे सम्मानित किया गया, उसकी परिणति यही थी। कहा जा रहा है कि भाजपा ने उनकी 91 साल की उम्र पर विचार करते हुए उन्हें इस बार टिकट नहीं दिया। लेकिन 16वीं लोकसभा में उनकी हाजिरी 15वीं लोकसभा की तुलना मे एक प्रतिशत अधिक रही है। सदन की अगली कतार में  बैठने के बावजूद उनका भाषण सुनाई नहीं दिया। 92 प्रतिशत हाजिरी के बाद भी गत पांच वर्षों में वह मात्र 356 शब्द ही बोल पाए। सच तो यह है कि विगत लोकसभा में उन्हें बोलने ही नहीं दिया गया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें देवत्व का स्थान देकर उनसे बोलने का हक छीन लिया। राजनीति में खासकर भारतीय राजनीति में कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जो जिस पेड़ पर चढ़ते हैं सबसे पहले उसकी शाखा को काटते हैं। गुजरात दंगों के बाद एक समय ऐसा आया था जब मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पद से हटाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सलाह दी थी। उस वक्त यही आडवाणी जी थे जिन्होंने नरेंद्र मोदी को बचाया था। आज मोदी उसका कैसे शुक्रिया करते हैं और कितने कृतज्ञ हैं ताजा घटनाक्रम से पता चलता है। एक मौका ऐसा भी आया था जब सभी उम्मीद कर रहे थे कि शायद आडवाणी जी को देश का राष्ट्रपति बना दिया जाए पर इस गौरव से भी उन्हें वंचित कर दिया गया। लाल कृष्ण आडवाणी अपने जीवन का शतक लगाने से कुछ ही दूर हैं। वह सत्ता के शिखर पर भले ही न पहुंचे हों, लेकिन उससे बहुत दूर भी नहीं रहे। उनकी गिनती देश के सबसे सुलझे हुए नेताओं में होती रही है। अगर हम राजनीति में रहने वाले या सार्वजनिक जीवन जीने वाले किसी आदर्श व्यक्ति का मॉडल बनाएं तो बहुत संभव है कि वह आडवाणी के व्यक्तित्व के आसपास ही कहीं होगा।

Monday 25 March 2019

गठबंधन की राजनीति

लोकसभा चुनाव के लिए सभी पार्टियां अपने प्रत्याशियों के नाम पर अंतिम मुहर लगाने में जुटी हैं। सभी छोटी-बड़ी पार्टियां अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार गठबंधनों और महागठबंधनों में जुगाड़ भिड़ाने में लगी हैं। सभी गठबंधनों में सहयोगी सौदेबाजी में व्यस्त रहे। शनिवार के दिन बिहार में जहां एनडीए गठबंधन की तीनों पार्टियां भाजपा, जदयू और लोजपा ने अपने-अपने प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर दी वहीं लालू प्रसाद के नेतृत्व वाली राजद की अगुआई में बने महागठबंधन ने सीटों के बंटवारे को अंतिम रूप दे दिया।
बिहार की 40 सीटों में राजद ने अपने पास 20 रखी बाकी 20 सीटें उसने अपने सहयोगी पार्टियों में बांट दी। कांग्रेस को 9, उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को 5, जीतन राम मांझी की हिन्दुस्तान अवाम पार्टी (हम) को 3 और मुकेश सहनी की विकासशील इंसाफ पार्टी को 3 सीटें दीं।
एनडीए में भाजपा जिसने बिहार में 2014 में 22 सीटें अकेले जीत कर वह सबसे बड़ी पार्टी बनी थी उसने जदयू और लोजपा के साथ समझौता करके खुद को 17 सीटें, जदयू को 17 सीटें और लोजपा को 6 सीटें दी हैं, भाजपा ने संकेत दिया था समझौते में खोना पड़ता है। यही कारण है कि भाजपा जिन सीटों पर जीती हुई थी। उनमें से भी 5 सीटें खाली कर सहयोगियों को दे दी इसका परिणाम यह हुआ कि उसे अपने वरिष्ठ नेताओं की सीटें बदलने पर मजबूर होना पड़ा। चूंकि पार्टी सिर्प 17 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है इसलिए उसे अपने शीर्ष नेताओं को भी सीट देने में मुश्किल हुई। 2014 में भाजपा ने कुल 30 सीटों पर चुनाव लड़ा था। उस वक्त कुछ बड़े नेता चुनाव हार गए थे। इनमें प्रमुख नाम शाहनवाज हुसैन का है। पार्टी के लिए मुश्किल है कि वह जीते हुए पांच नेताओं को तो सीटें दे नहीं पा रही है अब हारे हुए नेताओं को कौन-सी सीटें दे।
लालू के महागठबंधन में भी यही हुआ। अपने स्थापना काल से लेकर 2014 के चुनाव तक राजद ने कभी भी इतनी कम सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा था। यह पहला अवसर है जब उसने आधी सीटें अपनी सहयोगी पार्टियों के लिए छोड़ी हैं। लालू ने जिस तरह अपने छोटे सहयोगियों को सीटें बांटने में सदाशयता दिखाई है इसकी चर्चा स्वाभाविक है क्योंकि जो पार्टियां लालू के साथ गठबंधन में शामिल हैं उनमें कांग्रेस को छोड़कर कोई भी पार्टी ऐसी नहीं है जिसका कोई खास प्रभाव हो।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस अकेले लड़ रही हैं जबकि वाममोर्चा और कांग्रेस में भी बात नहीं बनी इसलिए सभी अलग-अलग ही लड़ रहे हैं। ममता की राजनीति स्पष्ट है। वे पश्चिम बंगाल के मुस्लिम वोटरों पर अपना एकाधिकार मानती हैं। इसलिए कांग्रेस के साथ किसी तरह का गठबंधन नहीं चाहतीं। कांग्रेस वाममोर्चे से गठबंधन जरूर करना चाहती थी किन्तु स्थानीय कांग्रेस नेता लाल झंडे के साथ लड़ने के लिए तैयार नहीं थे। ममता को उम्मीद है कि उनकी सीटें ज्यादा आएंगी तो वे केंद्र में गठबंधन की सरकार में अहम भूमिका निभा सकेंगी। किन्तु साथ वे यह भी चाहती हैं कि कांग्रेस व भाजपा की भी सीटें कम हों या वे एक भी सीट न जीत पाएं।
उत्तर प्रदेश की स्थिति लगभग स्पष्ट हो गई है। सपा-बसपा और आरएलडी ने अपने गठबंधन से कांग्रेस को बाहर रखा है। इसलिए कांग्रेस सभी 80 सीटों पर लड़ने के लिए स्वतंत्र है। गठबंधन को डर है कि कांग्रेस उसके मुस्लिम वोट काटेगी जबकि भाजपा विरोधी सवर्ण वोट जो सपा-बसपा को मिल सकते थे, कांग्रेस उसमें भी सेंध लगाएगी, यही कारण है कि अब सपा-बसपा की तल्खी कांग्रेस के खिलाफ बढ़नी शुरू हो गई है।
बहरहाल गठबंधन वाले राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों ने अपनी सीटें बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय पार्टियों से गठबंधन किया है। उनको अपने अस्तित्व एवं प्रासंगिकता की चिन्ता है जबकि राष्ट्रीय पार्टियों के लिए केंद्र में सत्ता प्राप्त करने का लक्ष्य है। क्षेत्रीय पार्टियां जानती हैं कि यदि उनकी सीटें कम रह गईं तो उनकी सहयोगी राष्ट्रीय पार्टी उनको महत्व नहीं देगी। लालू प्रसाद के साथ यही तो हुआ था। 2004 में 24 सीट लेकर आए राजद के नेता को रेल मंत्रालय, उनके साथी रघुवंश प्रसाद को ग्रामीण विकास मंत्रालय और प्रेम चन्द गुप्ता को कारपोरेट मंत्रालय तथा राज्य मंत्रालय भी मिले किन्तु 2009 में जब लालू 4 सीट पर आ गए तो उन्हें मंत्रिपरिषद में अकेले भी जगह नहीं मिली। अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने जातीय जनाधार के आधार पर चुनाव लड़ती हैं जबकि राष्ट्रीय पार्टियां मुद्दों और नारों पर ज्यादा बल देती हैं। देश की सभी राजनीतिक पार्टियां चाहे वे राष्ट्रीय हों या क्षेत्रीय अपने अनुसार मुद्दे और नारे गढ़ने की कोशिश करती हैं किन्तु कौन-सा नारा कब फिट हो जाए और कब बेकार साबित हो यह प्रभावशाली नेतृत्व पर निर्भर करता है। 1960 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टियां, भारतीय जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टियां कई राज्यों में संविद सरकारें चला रही थीं। सभी ने 1971 के आम चुनाव में नारा दिया कि देश में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई और गरीबी के लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार है इसे सत्ता से बाहर करना होगा। सभी पार्टियां अपने-अपने स्तर पर गठबंधन करके चुनाव लड़ रही थीं। किन्तु इंदिरा जी ने नारा दिया कि `मैं गरीबी हटाना चाहती हूं और विपक्ष मुझे हटाना चाहता है।' उनका एक ही नारा था `गरीबी हटाओ।' देश की जनता ने इंदिरा जी के गरीबी हटाओ के नारे पर भरोसा किया और सारे विपक्षी सिमट गए। समय का चक्र देखिए 1976 में फिर इंदिरा जी ने गरीबी हटाओ की बात की किन्तु जनता ने विपक्ष के इस नारे पर ज्यादा भरोसा किया कि `बेटा कार बनाता है मां बेकार बनाती है।' इस बार इंदिरा जी का गरीबी हटाओ का नारा नहीं चला।
आज भी यही हो रहा है कि विपक्ष का कोई संयुक्त घोषणा पत्र नहीं, कोई सर्वमान्य नेता नहीं, कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम नहीं, उसका एक ही नारा और लक्ष्य है मोदी हराओ। इसलिए वह अपने मतभेदों को भुलाकर इस उम्मीद से गठबंधन कर रहे हैं कि वे भाजपा और एनडीए की सीटों को कम करने में सफल होंगे। भाजपा मानती है कि उसके नेता पर भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है इसलिए विपक्ष उनके नेता को जितना गालियां देगा उसके समर्थन में उतनी ही वृद्धि होगी। भाजपा का नारा `मोदी है तो मुमकिन है' की चाहे जितनी आलोचना करे विपक्ष किन्तु जब तक तार्पिक आधार पर जनता को सहमत नहीं कर पाएगी तब तक वह इस नारे को निष्फल भी नहीं कर पाएगी। बालाकोट एयर स्ट्राइक पर अंड बंड बोलने वाले विपक्षी नेताओं की समझ में यह बात आनी चाहिए कि वे अपने खिलाफ भाजपा को हथियार थमा रहे हैं।

बहरहाल सत्तापक्ष और विपक्ष 2019 के लिए हर तरह के तरीके अपना रहे हैं कौन कहां किस पर भारी पड़ता है इसका फैसला 23 मई को ही होगा लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान नेताओं द्वारा मतदाताओं को समझाने-बुझाने और भ्रमित करने का सिलसिला चलता रहेगा। लेकिन सच यही है कि गठबंधनों के बावजूद मोदी के खिलाफ विपक्ष का कोई सर्वमान्य चेहरा घोषित नहीं है।

Sunday 24 March 2019

2019 लोकसभा चुनाव के गेमचेंजर कौन-कौन होंगे?

2014 के लोकसभा चुनाव में अमित शाह, लालू प्रसाद यादव, एम. करुणानिधि, जे. जयललिता को गेमचेंजर कहा जा सकता था। यह गेमचेंजर की भूमिका में थे। 2019 में अमित शाह को छोड़कर तीन नहीं होंगे। इनकी जगह प्रियंका गांधी, तेजस्वी यादव, एम. स्टालिन ने ली है और 2019 में इनकी परीक्षा होगी। जेपी आंदोलन से उभरे लालू प्रसाद यादव की 2014 में महत्वपूर्ण भूमिका थी। चारा घोटाले में सजा होने से उन्होंने चुनाव तो नहीं लड़ा लेकिन कांग्रेस और राजद के स्टार कैंपेनर के तौर पर बिहार में आज भी एक फैक्टर हैं। इस बार वह जेल में हैं और उनके छोटे बेटे तेजस्वी पार्टी को लीड कर रहे हैं। पार्टी 20 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। क्रिप्ट राइटर से राजनेता बने एम. करुणानिधि पांच बार तमिलनाडु के सीएम रहे। पिछले चुनाव में डीएमके 35 सीटों पर लड़ी, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। करुणानिधि के निधन के बाद डीएमके की कमान छोटे बेटे स्टालिन के पास है। वह कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ रहे हैं। तमिल फिल्मों की सफल अभिनेत्री जयललिता छह बार तमिलनाडु की सीएम रहीं। 2014 में उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु की 39 और पुडुचेरी की एक सीट पर चुनाव लड़ा था और 37 सीटें जीती थीं। अन्नाद्रमुक ने भाजपा से इस बार गठबंधन किया है। अब यह 27 सीटों पर लड़ेगी। जयललिता अब नहीं रहीं और उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक में भी दो धड़े हो गए हैं। राहुल गांधी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की 42 सीटों के लिए प्रियंका गांधी को महासचिव बनाया है। इसमें अमेठी और रायबरेली भी शामिल हैं। इस चुनाव में प्रियंका की महत्वपूर्ण भूमिका है। टिकट बांटने, प्रचार करने से लेकर उम्मीदवार को जिताने तक की जिम्मेदारी उनके पास है। एम. स्टालिन ने केंद्र में सत्ता की भागीदारी करने के लिए यूपीए से गठबंधन किया है। द्रमुक तमिलनाडु में 30 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। जबकि कांग्रेस नौ पर। 2014 में द्रमुक का खाता नहीं खुला था। इस बार करुणानिधि नहीं हैं और पार्टी को जिताने की सारी जिम्मेदारी स्टालिन पर है। नतीजा आने पर पता चलेगा कि स्टालिन पिता करुणानिधि की जगह ले पाए हैं या नहीं? बिहार में राजद कांग्रेस से गठबंधन है। यहां की 40 लोकसभा सीट में से 20 सीट पर राजद के लड़ने की संभावना है। पिता लालू प्रसाद यादव के जेल में होने से राजद को जिताने की सारी जिम्मेदारी तेजस्वी यादव पर आ गई है। तेजस्वी को उम्मीदवार तय करने, गठबंधन निभाने से लेकर एनडीए को बिहार में रोकने की जिम्मेदारी आ गई है। 2019 लोकसभा चुनाव में जहां तक बिहार का सवाल है तेजस्वी यादव की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी। गुजरात में सभी की नजर युवा नेताओं की तिकड़ी पर टिकी हुई है। यह चुनाव राजनीतिक दलों के साथ पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल, ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर और दलित नेता व विधायक जिग्नेश मेवाणी का सियासी भविष्य तय करेगी। विधानसभा चुनाव की तर्ज पर इन नेताओं की तिकड़ी लोकसभा में भाजपा और एनडीए से आधी सीटें भी छीनने में सफल रही है तो तीन साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए सत्ता का रास्ता आसान हो जाएगा। विधानसभा चुनाव में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर की तिकड़ी ने भाजपा को 99 सीट पर लाने में अहम भूमिका निभाई थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने गुजरात से सभी 26 सीटें जीती थीं। देखें कि क्या यह युवा नेता 2019 लोकसभा चुनाव में गेमचेंजर साबित हो सकते हैं।

-अनिल नरेन्द्र

पहले चायवाला और अब चौकीदार, देश वाकई बदल रहा है

लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव प्रचार को धार देते हुए मैं भी चौकीदार हूंअभियान शुरू किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ट्विटर हैंडल पर एक वीडियो जारी कर मैं भी चौकीदार से चुनावी मुहिम की शुरुआत की। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कई बार अपने भाषणों में कटाक्ष करते हुए चौकीदार चोर है कहा था। अब विपक्ष के इसी हमले को भाजपा ने अपने चुनावी प्रचार में शामिल कर लिया है। याद रहे कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर के चायवाला टिप्पणी को भी भाजपा ने चुनाव अभियान का हिस्सा बनाया था। प्रधानमंत्री ने वीडियो के साथ अपने ट्वीट में कहा कि आपका यह चौकीदार राष्ट्र की सेवा में मजबूती से खड़ा है। लेकिन मैं अकेला नहीं हूं। उन्होंने कहा कि हर कोई जो भ्रष्टाचार, गंदगी, सामाजिक बुराइयों से लड़ रहा है, वह एक चौकीदार है। मोदी ने कहा कि हर कोई जो भारत की प्रगति के लिए कठिन परिश्रम कर रहा है, वह एक चौकीदार है। प्रधानमंत्री के इस अभियान को अब तमाम भाजपा नेताओं ने अपना लिया है और सभी मैं भी चौकीदार हूंके इस अभियान में शामिल हो चुके हैं। विपक्ष भी इसका जवाब अपने ढंग से देने में जुट गया है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने तंज कसते हुए कहा कि पिछले चुनाव में चायवाला और अब चौकीदार... देश वाकई बदल रहा है। मायावती ने ट्वीट कियाöसादा जीवन उच्च विचार के विपरीत शाही अंदाज में जीने वाले जिस व्यक्ति ने पिछले लोकसभा चुनाव के समय वोट की खातिर अपने आपको चायवाला प्रचारित किया था, वह अब एक वोट के लिए ही बड़े तामझाम और शान के साथ अपने आपको चौकीदार घोषित कर रहा है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने तंज कसते हुए कहा कि चौकीदार अमीरों के होते हैं, किसान तो अपनी फसलों की चौकीदारी खुद ही करते हैं। पूर्व मंत्री एमजे अकबर ने भी मैं भी चौकीदार हैशटैग के साथ ट्वीट किया, जिस पर बॉलीवुड एक्सट्रेस रेणुका राहाणे ने तंज भरा जवाब देते हुए कहा कि अगर आप भी चौकीदार हैं तो कोई महिला सुरक्षित नहीं है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) महासचिव सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसे चौकीदार हैं जो जागकर नहीं सो कर नौकरी कर रहे हैं और ऐसे चौकीदार को हटाने का समय आ गया है। मोदी ऐसे चौकीदार हैं जिनके राज में देश को दोनों हाथों से लूटा जा रहा है, हर रोज सीमा पर नौजवान सैनिकों की शहादत हो रही है, बेरोजगारी बढ़ रही है, महिलाओं पर अत्याचार हो रहे हैं और चारों ओर सांप्रदायिकता का बोलबाला है लेकिन अगर उनसे कोई सवाल करता है तो भारतीय जनता पार्टी वाले उन्हें देशद्रोही कहते हैं। भाजपा के मैं भी चौकीदार अभियान पर तंज कसते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि अगर लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे चौकीदार बनें तो उन्हें प्रधानमंत्री मोदी को वोट देना चाहिए। उधर केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि मैं भी चौकीदार अभियान ने जनांदोलन का रूप ले लिया है। जिनका परिवार जमानत पर बाहर है उन्हें इस अभियान से परेशानी है। कुछ लोग कह रहे हैं कि चौकीदार अमीरों के होते हैं, यह वही लोग हैं जिन्होंने गरीबों के 12 लाख करोड़ रुपए लूटे, वही लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं।

Saturday 23 March 2019

आखिर क्यों हो रही हैं मायावती कांग्रेस पर इतना हमलावर

लोकसभा का समर सामने है। प्रत्याशियों की घोषणा शुरू हो चुकी है। चुनावी प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है। पूरे देश के लिए रणनीति और जोड़-तोड़ हो रही है। लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी सबसे ज्यादा सुर्खियां उत्तर प्रदेश बटोर रहा है। इसलिए नहीं कि यहां भाजपा को सपा-बसपा के गठबंधन से कड़ी चुनौती मिल रही है। न ही इसलिए कि उत्तर प्रदेश नरेंद्र मोदी का वॉटर लू साबित हो सकता है, बल्कि यहां पार्टियों में यह होड़ मची है कि खुद को भाजपा का सबसे प्रमुख विरोधी साबित करें भले ही ऐसा करने में आपस में तू-तू, मैं-मैं होने लगे। पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस, सपा और बसपा के बड़े नेताओं के बयानों और रणनीतियों पर नजर डालें तो दिलचस्प तस्वीर उभरती है। कांग्रेस पार्टी यह दिखाना चाहती है कि वह अपने दम-खम पर चुनाव लड़ रही है जरूर, लेकिन उसकी सद्भावना सपा-बसपा-आरएलडी गठबंधन के साथ है। लेकिन मायावती की स्थिति अलग उभर रही है। वह जितना हमला भाजपा पर नहीं कर रहीं, उससे ज्यादा हमला कांग्रेस पर करती नजर आ रही हैं। शुरू में तो लगा कि कांग्रेस पर सीधा हमला सधा हुआ राजनीतिक अभिनय हो सकता है, लेकिन अब लग रहा है कि इसमें कुछ वजूद है। मायावती के ताजा बयान कांग्रेस को अपमानित करने जैसे लगते हैं। बसपा सुप्रीमो अपने समर्थकों समेत किसी के भी मन में यह भ्रम नहीं आने देना चाहतीं कि वह प्रधानमंत्री पद की दावेदार नहीं हैं। राजनीति के गणित में हमेशा दो और दो चार नहीं होते। राजनीति में दो और दो पांच भी हो सकते हैं। मायावती शायद इसी गणित के आधार पर काम कर रही हैं। जहां अखिलेश यादव कांग्रेस के मामले में संयम से पेश आ रहे हैं वहीं सवाल यह है कि आखिर बहन जी इतनी मुखर क्यों हो रही हैं? क्योंकि अगर कांग्रेस की रणनीति देखें तो पार्टी ने मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश पर फोकस किया है। प्रियंका गांधी को इसी इलाके के लिए महासचिव बनाया है। उनकी चुनावी नौका यात्रा भी इसी इलाके में हो रही है। बसपा के पास मुख्य रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटें हैं तो मायावती के कांग्रेस के साये से बचने की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छिपी हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमान वोट निर्णायक होता है। यहां की कम से कम 20 सीटें स्पष्ट तौर पर मुस्लिम वोटों से तय होती हैं। अगर कांग्रेस चुनाव मैदान में खुलकर उतरती है तो मुस्लिम वोटों का रूझान कांग्रेस की तरफ हो सकता है। अगर यह वोट कांग्रेस को जाता है तो इसका सीधा नुकसान बसपा और सपा गठबंधन को होगा। मायावती को यह डर अखिलेश की तुलना में इसलिए भी ज्यादा सता रहा है कि बसपा अतीत में भाजपा के साथ सरकार बना चुकी है। भाजपा के खिलाफ राजनीति में बसपा का खूंटा सपा की तुलना में कमजोर माना जा सकता है। शायद यही वह कुछ वजहें हैं जिनसे मायावती अभी से यह स्पष्ट करने में जुट गई हैं कि कांग्रेस से उसका कोई वास्ता नहीं है। वास्तविक सियासी स्थिति यह है कि तमाम कटुता के बावजूद बसपा और कांग्रेस को आगे चलकर आपसी समर्थन की जरूरत पड़ सकती है। अगर मायावती प्रधानमंत्री बनने का सपना पाल रही हैं और राहुल गांधी भी यह सपना पाल रहे हैं तो चुनाव के बाद एक-दूसरे की जरूरत पड़ सकती है।

-अनिल नरेन्द्र

चौकीदार अमीरों के होते हैं, इस सरकार की एक्सपायरी डेट पूरी हो चुकी है

पूर्वांचल (उत्तर प्रदेश) का सियासी चक्रव्यूह भेदने के लिए निकली कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने प्रयागराज से वाराणसी तक गंगा यात्रा शुरू कर दी है। प्रियंका ने प्रयागराज में हनुमान जी के दर्शन कर अपनी यह गंगा यात्रा शुरू की। संगम तट पर पहुंचकर उन्होंने मां गंगा की पूजा की और लोकसभा चुनाव के ठीक पहले प्रियंका इस सियासी यात्रा के जरिये पूर्वी यूपी में कई समीकरणों को एक साथ साधने की कोशिश कर रही हैं। प्रियंका ने हनुमान जी के दर्शन के साथ गंगा यात्रा की शुरुआत कर अपनी हिन्दू विरोधी छवि को तोड़ने की कोशिश की। भाजपा और अन्य दक्षिणपंथी संगठन अकसर उन्हें ईसाई बताकर उन पर निशाना साधते रहे हैं। प्रियंका ने हनुमान जी की पूजा करके भाजपा की इस धारणा को तोड़ने का प्रयास किया है। यही नहीं, पूरी यात्रा के दौरान वह कई मंदिरों में जाएंगी। प्रियंका रास्ते में मां विंध्यवासिनी, शीतला माता, सीता जी और भगवान शिव के मंदिर भी जाएंगी। यात्रा के दौरान प्रियंका ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला किया। मोदी के चौकीदार अभियान पर प्रियंका बोलींöचौकीदार तो अमीरों के होते हैं, किसानों को अपनी फल की चौकीदारी खुद ही करनी पड़ती है। प्रियंका ने भाजपा के मैं भी चौकीदार अभियान पर तंज कसते हुए कहा कि उनकी (मोदी) मर्जी है, वह अपने नाम के आगे क्या लगाते हैं, लेकिन मुझ से एक किसान भाई ने कहा था कि चौकीदार तो अमीरों के होते हैं। हम किसान अपनी चौकीदारी खुद करते हैं। प्रियंका ने आगे कहा कि चुनाव बहुत बड़े निर्णय की घड़ी है। मौजूदा समय में देश की जो स्थिति है, वैसी पिछले 45 वर्षों में कभी नहीं थी। इस सरकार ने देश की ही सार्वजनिक संस्थाओं को कमजोर किया है। सरकार किसी की जागीर नहीं है, लेकिन कुछ लोग ऐसा मानने लगे हैं। इसके लिए सहज होकर खड़े होने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि कुछ लोग देशभक्ति की बात करते हैं, लेकिन इससे बड़ी देशभक्ति कुछ नहीं हो सकती कि आप जागरूक बनें। फिजूल के मुद्दे नहीं उठाने चाहिए। सिर्फ देश और विकास की बात होनी चाहिए। गोपीगंज में रोड शो के बाद पत्रकारों से प्रियंका ने कहा कि दरअसल यह सरकार की एक्सपायरी डेट हो गई है। इसके बड़े-बड़े दावों की जमीनी हकीकत मुझे तो शून्य नजर आ रही है। कांग्रेस लगातार मोदी पर उद्योगपतियों, पूंजीपतियों के पक्ष में काम करने वाला प्रधानमंत्री होने का आरोप लगाती है। संकेतों की भाषा सभी लोग नहीं समझते। चुनाव में सीधे-सीधे बात करना ही सही रणनीति है। इसलिए बात ऐसी होनी चाहिए जिससे भाजपा की कमजोरियां, कमियां झलकें और मतदाता कांग्रेस को वोट देने का मन बनाएं। प्रियंका को देखने भारी भीड़ उमड़ रही है। देखना यह होगा कि कांग्रेस अपनी खोई जमीन वापस हासिल कर सकेगी। प्रियंका फिजूल के मुद्दों से हटकर उन मुद्दों पर बात कर रही हैं जिससे जनता सीधी जुड़ती है। बालाकोट से उत्पन्न राष्ट्रवाद रोटी, कपड़ा और मकान से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं, यही प्रियंका का लोगों को समझाने का प्रयास है। उन्होंने मिर्जापुर में वकीलों से मुलाकात की ओर आश्वस्त किया कि कांग्रेस की सरकार आते ही उनकी सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी। उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार ने अपना जो रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत किया है उसका जोरदार प्रचार भी किया है लेकिन हकीकत में यह सरकार पूरी तरह फ्लॉप है।

Thursday 21 March 2019

2019 लोकसभा चुनाव प्रक्रिया का श्रीगणेश हो गया है

होली के पर्व के ठीक तीन दिन पहले लोकसभा चुनाव प्रक्रिया का श्रीगणेश हो गया। लोकसभा 2019 के चुनाव के पहले चरण के तहत 91 सीटों के लिए सोमवार को अधिसूचना जारी होने के साथ ही आम चुनाव की औपचारिक प्रक्रिया शुरू हो गई। इसके साथ ही तीन राज्योंöआंध्रप्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम की सभी सीटों एवं ओडिशा की 28 विधानसभा सीटों के चुनाव के लिए भी अधिसूचना जारी हो गई है। नामांकन भरने की अंतिम तारीख 25 मार्च होगी, जबकि नामांकन पत्रों की जांच 26 मार्च को होगी और नाम वापस लेने की अंतिम तारीख 28 मार्च होगी। पहले चरण के चुनाव के तहत मतदान 11 अप्रैल को होगा। इसी के साथ सर्वेक्षणों का भी समय हो गया है। दो सर्वेक्षण सामने आए हैं। पहला है टाइम्स नाऊ-वीएमआर का और दूसरा है स्टेरिस्टीशन अनिन्दु चक्रवर्ती का। टाइम्स नाउ-वीएमआर सर्वेक्षण के अनुसार मोदी सरकार की वापसी हो सकती है। सर्वे के मुताबिक एनडीए को 543 में से 283 सीटें मिल सकती हैं। हालांकि सर्वे के मुताबिक सपा-बसपा महागठबंधन के चलते उसे यूपी में काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। दूसरी ओर कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए 135 सीटों के साथ काफी पीछे होगी। अन्य को 125 सीटों पर जीत की संभावना है। वहीं चक्रवर्ती के अनुसार राजनीतिक पंडितों ने 2009 में पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष को गंभीरता से लिया और हाल के विधानसभा चुनावों, लोकसभा उपचुनाव में उन्होंने यह साबित भी कर दिया है। विश्लेषकों ने कहा कि यह कांग्रेस के लिए गेमचेंजर हो सकते हैं। कांग्रेस ने अपनी स्टार प्रियंका गांधी वाड्रा को मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए मैदान में उतार दिया है। इनका मानना है कि प्रियंका और राहुल यूपी में बेकार इस्तेमाल किए जा रहे हैं। केंद्र में बहुदलीय गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने में सक्षम होने के लिए कांग्रेस को लगभग 120-130 सीटें चाहिए और इसके लिए यूपी की जरूरत नहीं है। इसके बजाय राहुल को उन राज्यों पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है जहां उनकी पार्टी भाजपा के साथ सीधे मुकाबले में है और उत्तर प्रदेश जैसे कई विरोधियों के खिलाफ नहीं, जहां कांग्रेस को अखिलेश-मायावती को भाजपा से सीधा निपटने देना चाहिए। शुरुआत राजस्थान से करते हैं। यदि प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में वोट जोड़ते हैं और उन्हें लोकसभा की ओर ले जाते हैं तो राज्य की 25 में से 14 सीटों पर कांग्रेस आगे है। यदि राहुल इन निर्वाचन क्षेत्रों में समय बिताएं तो इनमें इजाफा भी हो सकता है। मध्यप्रदेश की गणना बताती है कि राज्य की 29 लोकसभा सीटों में से 13 पर कांग्रेस आगे है। छत्तीसगढ़ की 11 में से 9 सीटें जीतकर कांग्रेस स्वीप करने की स्थिति में है। राजस्थान और मध्यप्रदेश की संभावित सीटों को जोड़ें और कांग्रेस के पास इन तीन हिन्दी हार्टलैंड राज्यों में 65 में से 44 सीटें जीतने का सीधा मौका है। यह उनती ही सीटें हैं जितनी 2014 में कांग्रेस ने पूरे देश में जीती थीं। चुनाव प्रक्रिया शुरू हुई है। रोजाना जमीनी स्थिति बदलेगी। आए दिन सर्वेक्षण आएंगे। खैर होली का पर्व है। आप सबको होली की शुभकामनाएं। हम उम्मीद करते हैं कि आप साफ-सुथरे रंगों से होली खेलेंगे।

-अनिल नरेन्द्र

लोकपाल ः देर आए दुरुस्त आए

लंबी प्रतीक्षा के बाद देश को लोकपाल अंतत मिल ही गया। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति पिनाकी चन्द्र घोष को मंगलवार को देश का पहला लोकपाल नियुक्त किया गया है। एक आधिकारिक आदेश के अनुसार सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) की पूर्व प्रमुख अर्चना रामसुंदरम, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य सचिव दिनेश कुमार जैन, महेन्द्र सिंह और इंद्रजीत प्रसाद गौतम को लोकपाल का गैर न्यायिक सदस्य नियुक्त किया गया है। न्यायमूर्ति दिलीप वी भौंसले, न्यायमूर्ति प्रदीप कुमार मोहंती और न्यायमूर्ति अजय कुमार त्रिपाठी को भ्रष्टाचार निरोधक निकाय का न्यायिक सदस्य नियुक्त किया गया है। यह नियुक्तियां उस तारीख से प्रभावित होंगी, जिस दिन वह अपने-अपने पद का कार्यभार संभालेंगे। लोकसभा चुनाव की घोषणा के तुरन्त बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने लोकपाल नियुक्त करके विपक्ष के हाथ से एक प्रमुख मुद्दा छीन लिया है। लोकपाल का पद उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार की शिकायत सुनने एवं उस पर कार्रवाई करने वाली एक ताकतवर संस्था है। आपत्तियों को एक तरफ रख दें तो कहा जा सकता है कि अब से कोई सात साल पहले शुरू हुआ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन लोकपाल के गठन के साथ ही अपने मुकाम पर पहुंचा है। लेकिन इस आंदोलन से जुड़े लोग संतुष्ट नहीं हैं। पहली बात कि केंद्र सरकार ने लोकपाल की नियुक्ति में पांच साल की देरी की फिर इसकी चयन प्रक्रिया में विपक्ष को बाहर रखा गया। लोकपाल की भूमिका सर्वोच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों पर निगरानी रखने की है। इस पद की महत्ता के अनुरूप इसके चयन को भी गरिमापूर्ण रखने की जरूरत थी, लेकिन सरकार ने इसे एक सामान्य संस्था की तरह ही देखा। कानून के मुताबिक लोकपाल का चयन पांच सदस्यीय समिति को करना होता है जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा भेजे गए प्रतिनिधि मिलकर एक प्रख्यात कानूनविद का चयन करते हैं। इसके बाद पांच सदस्यीय समिति लोकपाल चुनती है। लेकिन लोकसभा में पर्याप्त संख्या न होने की वजह से मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के प्रतिनिधि मल्लिकार्जुन खड़गे को नेता प्रतिपक्ष की मान्यता नहीं दी गई। दरअसल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने विशेष आमंत्रित के रूप में शामिल होने के आमंत्रण के बाद लोकपाल के लिए चयन समिति की बैठक का बहिष्कार किया था। रही बात लोकपाल पिनाकी चन्द्र घोष की तो उनकी छवि बेदाग रही है, लेकिन उनकी चयन प्रक्रिया को देखते हुए कल कोई उनके फैसले को मौजूदा सत्तारूढ़ दल से जोड़कर भी देख सकता है। बहरहाल जस्टिस घोष को अपनी बेदाग छवि को बरकरार रखने के लिए सारे मामलों को निष्पक्ष होकर देखना, परखना होगालोकपाल को सफल बनाने के लिए सारी पार्टियों के सहयोग की आवश्यकता पड़ेगी। कहने को कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक ठोस कदम है और उम्मीद करते हैं कि आने वाले समय में यह संस्था सही मायनों में निष्पक्षता और न्याय करने का सबूत देगी। देर आए, दुरुस्त आए।

Wednesday 20 March 2019

एक दर्जन राज्यों में भाजपा-कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला

2019 के लोकसभा चुनाव में अब मुश्किल से 24-25 fिदन बचे हैं जबकि अधकचरे विपक्षी गठबंधन व कांग्रेस जहां अपने हथियारों को तेज कर रहे हैं वहां भाजपा भी लावलश्कर से तैयारी में जुटी है। किंतु फिर भी भाजपा के लिए कुछ राज्यों में क्षत्रपों से और कुछ राज्यों में सीधी कांग्रेस से टक्कर होगी। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में दो बड़े क्षेत्रीय दलें, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी गठबंधन से जूझ रही भाजपा को अब कांग्रेस में प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने से जटिल समीकरणों का भी सामना करना पड़ रहा है। भाजपा की चिंता लगभग एक दर्जन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को लेकर है। यहां पर उसके व कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होने की संभावना है। इनकी 112 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने 2014 में 109 सीटें जीती थी, जबकि कांग्रेस के पास कुल तीन सीटें हैं। नई चुनौतियों से निपटने के लिए भाजपा अन्य तैयारियों के साथ अपने कार्यकर्ता व पुराने नेताओं की पूछ परख में जुट गई है। देश के 11 राज्य व केंद्र शासित प्रदेश ऐसे हैं जिनमें कांग्रेस व भाजपा में सीधा मुकाबला होता रहा है। इनमें गोवा (2), गुजरात (26), हिमाचल प्रदेश (4), मध्य प्रदेश (29), राजस्थान (25), छत्तीसगढ़(11), उत्तराखंड (5), दिल्ली(7), अंडमान निकोबार (1), दादर नगर हवेली (1) और दमन द्वीप (1) है। 2014 में भाजपा बीते तीन दशक में अकेले दम पर लोकसभा में बहुमत वाली पहली पार्टी बनी थी। 2019 में क्या पार्टी अपना पुराना प्रदर्शन दोहरा पाएगी? यह प्रश्न आज सभी पूछ रहे हैं। फर्स्ट-फास्ट--पोस्ट चुनाव प्रणाली में आज कुछ भी कहना मुश्किल है। हालांकि नौ बड़े राज्यों में उसका प्रदर्शन मायने रखेगा। इनमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के अलावा महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान शामिल हैं। लोकसभा की 543 सीटों में से आधी से ज्यादा 278 सीटें इन राज्यों में आती हैं। भाजपा के लिए ये राज्य कितने अहम हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। यह मानना पड़ेगा कि पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले कांग्रेस की स्थिति बदली हुई है। कांग्रेस के खिलाफ पांच साल पहले जैसा माहौल था वह आज नही है। वहीं 2014 में जो मोदी लहर थी वह आज नहीं है। कांग्रेस विपक्ष में है और भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और कृषि संकट के मुद्दे पर मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर रही है। वर्ष 2014 के चुनावों में शहरी और ग्रामीण मतदाताओं ने कांग्रेस को छोड़ दिया था। लेकिन हाल ही में हुए तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों और लोकसभा उपचुनाव में जीत से साफ है कि ग्रामीण मतदाता कांग्रेस की ओर वापस लौटा है। राहुल गांधी के लिए भी पार्टी अध्यक्ष के तौर पर यह पहला लोकसभा चुनाव है और उनके सामने खुद को साबित करने की चुनौती है। पिछले पांच सालों में राहुल ने अपनी छवि बदली है। कई राज्यों के चुनावों में हार के बावजूद वह मैदान में डटे रहे। अध्यक्ष के रूप में पार्टी पर पकड़ मजबूत करने के साथ उन्होंने खुद को आक्रामक, स्पष्ट और तर्कशील नेता के तौर पर पेश किया है। गुजरात विधानसभा चुनाव राहुल के लिए निर्णायक मोड़ साबित हुआ। कर्नाटक में हारी बाजी पलटकर जेजीएम के साथ गठबंधन सरकार बनाने और तीन राज्यों की जीत से उत्साहित राहुल केंद्र पर रोजाना आक्रामक हमले कर रहे हैं। भाजपा के लिए इस बार कांग्रेस का सूपड़ा साफ करना इतना आसान नहीं होगा।

-अनिल नरेंद्र

सादगी पसंद गली ब्वॉय थे मनोहर पर्रिकर

भारतीय राजनीति में मिस्टर क्लीन के रूप में पहचाने जाने वाले गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर हमारे बीच नहीं रहे। उनका रविवार शाम निधन हो गया, वह 63 वर्ष के थे। पर्रिकर ने 14 फरवरी 2018 को पेट में दर्द की शिकायत की थी। इसके बाद उन्हें मुम्बई के लीलावती अस्पताल भेजा गया। शुरुआत में बताया गया कि फूड प्वाइजनिंग से ग्रसित हैं। फिर पता चला कि उन्हें अग्नाशय कैंसर है। अग्नाशय कैंसर यानि कि पैंक्रियाटिक कैंसर बहुत ही गंभीर रोग है। उनका गोवा, मुंबई, दिल्ली और न्यूयार्क के अस्पतालों में इलाज हुआ। उन्हें 31 जनवरी 2019 को एम्स में भर्ती कराया गया था। पर बीमारी इतनी खतरनाक थी कि देखते-देखते ही उनका स्वर्गवास हो गया। मनोहर पर्रिकर एक सादगी पसंद टेक्नोक्रेट सीएम थे। गोवा में कांग्रेस में विभाजन के बाद अक्टूबर 2000 में जब पहली बार राज्य में भाजपा का मुख्यमंत्री बना तो कमान सादगी और टेक्नोक्रेट मनोहर पर्रिकर को सौंपी गई। तब से लेकर अंतिम सांसों तक पर्रिकर दो दशक तक सियासत में छाए रहे। मनोहर पर्रिकर की गोवा में ही नहीं पूरे देश में छवि एक सीधे-सादे, सौम्य और मृदुभाषी व्यक्ति की रही, लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक हमले ने दिखाया कि देश हित में वह कठोर फैसलों से भी नहीं हिचकते। राजनीति में प्रतिद्वंद्वी भी उनकी बेदाग छवि के कायल रहे। 63 वर्षीय पर्रिकर ने चार बार गोवा के मुख्यमंत्री के रूप में काम किया और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री के तौर पर तीन वर्ष सेवाएं दीं। उन्हीं के कार्यकाल में भारतीय सेना ने पीओके में घुसकर आतंकी ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक की थी। आधी बाजू की कमीज और लैदर सैंडल उनकी पहचान थी। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी पर्रिकर ने अपने रहन-सहन में जरा सा भी बदलाव नहीं किया। कहा जाता है कि वह अपने राज्य की विधानसभा खुद स्कूटर चलाकर जाया करते थे, इतना ही नहीं उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद भी अपने घर को नहीं छोड़ा और सरकार द्वारा दिए गए घर में नहीं गए। मनोहर पर्रिकर को गोवा का गली ब्वॉय भी कहा जाता था। 2013 में गोवा में अधिवेशन हुआ था और देश में बहस छिड़ी हुई थी कि नरेन्द्र मोदी पीएम पद के उम्मीदवार होंगे या नहीं? पर भाजपा की ओर से मोदी का नाम कोई खुलकर आगे बढ़ाने को तैयार नहीं था। इसी अधिवेशन के मंच से पहली बार मनोहर पर्रिकर ने नरेंद्र मोदी के नाम की पीएम पद के उम्मीदवार पद के लिए प्रस्तावित किया। मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने पर्रिकर से रक्षामंत्री का पद संभालने को कहा। शुरुआत में पर्रिकर राजी नहीं थे, फिर उन्होंने 2 महीने का समय मांगा और फिर दिल्ली आ गए। पर्रिकर के कार्यकाल में ही 28-29 सितम्बर 2016 को सेना ने पीओके में सर्जिकल स्ट्राइक की थी। सार्वजनिक जीवन के प्रfित समर्पण के मिसाल भी थे पर्रिकर। बीमारी के बावजूद उन्होंने ढाई महीने बाद इस साल दो जनवरी को अचानक मुख्यमंत्री दफ्तर पहुंच कर सबको हैरान कर दिया था। वह ठीक से चल भी नहीं पा रहे थे। नाक में नली लगी थी लेकिन जनसेवा करने में उनका जज्बात कम नहीं हुआ था। वे वीआईपी रेस्तरां की बजाए फुटपाथ पर आम नाश्ता किया करते थे। यहीं से मोहल्ले की खबर जुटा लिया करते थे। वह कहते थे कि चाय स्टॉल पर सभी नेताओं को चाय पीना चाहिए, राज्य की सारी जानकारी यहीं से मिल जाती है। आखिरी समय तक वह अपनी घातक बीमारी से लड़ते रहे। ऐसे नेता कम ही आते हैं। हम उनको अपनी श्रद्धांजलि देते हैं।


Tuesday 19 March 2019

वीवीपैट पर्चियों की गिनती की मांग

लोकसभा चुनाव में 50 प्रतिशत ईवीएम और वीवीपैट के औचक निरीक्षण की मांग को लेकर 21 विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। इन दलों का कहना है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए ऐसा करना जरूरी है। आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल सहित शरद पवार, केसी वेणुगोपाल, डेरेक ओब्राइन, शरद यादव, अखिलेश यादव, सतीश चन्द्र मिश्रा, एमके स्टालिन, फारुक अब्दुल्ला, अजीत सिंह तमाम विपक्षी नेताओं का कहना है कि ईवीएम और वीवीपैट की विश्वसनीयता पर सवाल हैं, ऐसे में कम से कम 50 प्रतिशत ईवीएम और वीवीपैट का औचक निरीक्षण होना चाहिए। याचिका में कहा गया है कि लोकसभा चुनाव के परिणाम घोषित करने से पहले यह औचक निरीक्षण करने की सख्त जरूरत है। यह कदम तब उठाया गया जब विपक्षी दलों ने राकांपा प्रमुख शरद पवार के घर पर एक बैठक की। इन दलों ने 70-75 प्रतिशत जनता के प्रतिनिधित्व का दावा करते हुए कहा कि उन्हें ईवीएम की विश्वसनीयता पर गंभीर संशय है। हाल ही में चुनाव आयोग ने निर्वाचन तिथियों का ऐलान करते हुए कहा था कि लोकसभा के हर एक संसदीय क्षेत्र में एक मतदान स्थल पर अनिवार्य रूप से ईवीएम और वीवीपैट की चैकिंग की जाएगी। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और जस्टिस गुप्ता और संजीव खन्ना की खंडपीठ ने शुक्रवार को विपक्षी दलों की मतदान की प्रक्रिया पर संशय प्रकट करने वाली इस याचिका की सुनवाई के लिए 25 मार्च को सूचीबद्ध किया है। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने दो हफ्ते में चुनाव आयोग से इस पर जवाब मांगा है। आयोग को इस मामले में उसकी सहायता देने के लिए अपना एक चुनाव अधिकारी देने को भी कहा है। लोकसभा सामान्य निर्वाचन पारदर्शिता के साथ ईवीएम एवं वीवीपैट के माध्यम से करवाने की घोषणा चुनाव आयोग पहले से ही कर चुका है। मत डालने के बाद मतदाता वीवीपैट मशीन में प्रदर्शित पर्ची में देख सकेंगे कि उनका मत उसी प्रत्याशी को गया है जिसे उन्होंने दिया है। यह पर्ची मशीन पर सात सैकेंड तक रहेगी। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला ने आगामी आम चुनावों में उपयोग की जाने वाली इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को सही बताते हुए कहा कि ईवीएम को न तो कोई हैक कर सकता है और न ही इनसे किसी प्रकार की छेड़छाड़ की जा सकती है। उन्होंने दावा किया कि किसी बाहरी मशीन से ईवीएम से सम्पर्क नहीं किया जा सकता और यह प्रशसान के वरिष्ठ अधिकारियों की निगरानी में रखी जाती हैं, इसलिए इनके साथ छेड़छाड़ या हैक करना संभव नहीं है। हमारी राय में तो विपक्ष की मांग जायज है। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हमारे लोकतंत्र की जड़ है। इन्हें पूरी तरह से पारदर्शी बनाने में चुनाव आयोग को भी कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। ईवीएम में कई बार पिछले चुनावों में खराब आई है। कभी कहा गया कि गर्मी की वजह से खराबी हुई हैं तो कई बार तकनीकी खराबी की आड़ ली गई। हम उम्मीद करते हैं कि माननीय सुप्रीम कोर्ट देश के लोकतंत्र की खातिर उचित फैसला लेगा।
-अनिल नरेन्द्र
कार की हो उसका विरोध होना चाहिए।

नमाजियों पर अंधाधुंध फायरिंग

शुक्रवार को जब न्यूजीलैंड की दो मस्जिदों में जब लोग नमाज अदा करने की तैयारी कर रहे थे, वहां अंधाधुंध गोलाबारी करके दर्जनों लोगों को मारने की घटना निन्दनीय ही नहीं है, इससे जुड़े कई और आयाम भी उतने ही चिन्ताजनक हैं। शुक्रवार को न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर की अल नूर मस्जिद और लिन वुड मस्जिद में नमाज पढ़ने गए लोगों पर हथियारबंद हमलावरों ने अंधाधुंध गोलीबारी की जिसमें 50 के आसपास लोग मारे गए और कई घायल हो गए। अल नूर मस्जिद में जुम्मे की नमाज के वक्त आतंकी हमले के मंजर के गवाह बने बांग्लादेशी क्रिकेट टीम के भारतीय प्रदर्शन विश्लेषक श्रीनिवास चन्द्रशेखर ने बताया कि शुरुआत में हमें पता ही नहीं चला कि यह आतंकी हमला था। न तो खिलाड़ी और न ही मैं समझ पाया कि क्या हो रहा है। तभी एक महिला सड़क पर बेसुध होकर गिर गई। हमें लगा कि कोई मैडिकल इमरजेंसी है, इसलिए कुछ खिलाड़ी उसकी मदद करने के लिए बस से उतरे। तभी अहसास हुआ कि हम जो समझ रहे हैं, यह उससे बड़ा है। लोग खून से लथपथ अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे थे। बांग्लादेश क्रिकेट टीम के मैनेजर खालिद मसूफ खौफनाक मंजर को याद कर सिहर उठते हैं। उन्होंने बताया कि टीम अल नूर मस्जिद में 1.30 बजे नमाज अदा करने जाने वाली थी लेकिन कप्तान महमूदुल्ला की प्रेस कांफ्रेंस सात मिनट देर से खत्म हुई। इससे हम मौत से बच गए। खून से लथपथ लोग मस्जिद से बाहर भाग रहे थे। हम बस में 8-10 मिनट लेटे रहे, लेकिन फिर हमें लगा कि आतंकी वापस आकर हमें बस में निशाना बना सकते हैं तो हमने फैसला किया कि पार्क के रास्ते से स्टेडियम तक जाएंगे। यह वारदातें एक ऐसे देश के ऐसे शहर में हुईं, जो आतंकवाद की ताजा काली आंधी के कहर से बहुत कुछ बचा रहा है। इस वारदात ने यह साबित कर दिया है कि जब तक नफरत, उन्माद और उनके आसपास चलने वाली सक्रियता इस दुनिया में है, कोई भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं है। किसने सोचा था कि न्यूजीलैंड के दक्षिणी द्वीप का वह खूबसूरत शहर भी आतंकवाद की वजह से सुर्खियों में आ जाएगा, जिसका जिक्र हमारे मीडिया में अकसर क्रिकेट मैच के समय ही होता है। इस सामूहिक हत्याकांड को अंजाम देने वाले शख्स धुर दक्षिणपंथी हैं तथा कुख्यात दक्षिणपंथी एंडर्स ब्रीवीक के सम्पर्क में रहा बताया जाता है, जिस पर 2011 में नार्वे के उटोया द्वीप पर हुए 69 लोगों तथा ओसलो कार बम के जरिये कुछ लोगों की जान लेने का आरोप है। कार में हथियार लेकर दोनों मस्जिदों तक जाने, वहां इबादत में झुके बंदों को निशाना बनाने, गोली खत्म हो जाने पर कार तक जाकर दूसरी बंदूक लाने के ब्यौरे बेहद खौफनाक हैं, जो बताते हैं कि विधर्मियों और अश्वतों के प्रति उसके मन में कैसी घृणा थी। हत्यारे के पास सिर्फ बंदूक नहीं, मोबाइल भी था, जिससे कुछ निहत्थे लोगों के खिलाफ एकतरफा घृणा और हिंसा का वीडियो वह फेसबुक के जरिये पूरी दुनिया में पहुंचा रहा था। हत्यारे के पास से बरामद मैनिफेस्टो में डोनाल्ड ट्रंप को आदर्श बताया जाना और मारे गए लोगों को आक्रमणकारी कहकर संबोधित करना बताता है कि दुनियाभर में इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ नाराजगी किस हद तक पहुंच गई है। आज आतंकवाद से चाहे वह किसी के माध्यम से हो, किसी के खिलाफ क्यों न हो पूरी दुनिया प्रभावित है। हम इस कायराना हमले की कड़े शब्दों में निन्दा करते हैं और इसके शिकार हुए लोगों को श्रद्धांजलि देते हैं। हिंसा चाहे किसी प्रकार की हो उसका विरोध होना चाहिए।

Sunday 17 March 2019

मोदी हैं तो मुमकिन है ः लोक पर्व 2019 ...(अंतिम)

2014 के चुनाव में भाजपा अकेले 282 सीट जीतने में कामयाब हुई थी। यह उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। अब जबकि 2019 के चुनाव का ऐलान हो गया है तो सबसे बड़ा सवाल यही है कि पार्टी क्या 2019 में फिर से 2014 का इतिहास दोहरा पाएगी? खुद के या फिर एनडीए के बूते भाजपा के लिए सत्ता की राह आसान है या फिर विपक्षी गठबंधन उसे सत्ता से बेदखल करने में कामयाब हो पाएगा? भाजपा तो यह मानकर  बैठी है कि मौजूदा माहौल उसके पक्ष में है, लेकिन कई ऐसे मुद्दे हैं जो उसकी राह में रोड़ा साबित हो सकते हैं। भाजपा ही नहीं, बल्कि विपक्ष भी यह मान रहा है कि इस वक्त देश में सबसे मजबूत पार्टियों में भाजपा सबसे ऊपर है। उसकी प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस फिलहाल जोर-आजमाइश करने के बावजूद यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि वह सत्ता में लौटेगी। भाजपा के पक्ष में सबसे मजबूत और महत्वपूर्ण पहलू उसके नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। भाजपा का दावा है कि पांच वर्ष सत्ता में बिताने और कई कड़े व विवादास्पद फैसलों के बावजूद उनके नेता की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। अभी भी यह देश में किसी भी विपक्षी नेता के मुकाबले कहीं अधिक लोकप्रिय हैं। 2014 में भी इसी लीडरशिप के बूते भाजपा अपने बल पर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी। विपक्ष भले ही अलग-अलग राज्यों में गठबंधन कर रहा हो लेकिन भाजपा की लीडरशिप में एनडीए के पास सबसे अधिक पार्टियां हैं। फिलहाल एनडीए में 40 पार्टियां हैं जो 2014 के मुकाबले कहीं अधिक हैं। महाराष्ट्र, पंजाब, बिहार में पुराने साथियों को एकजुट रखने में सफल रही भाजपा अब सुदूर दक्षिण से लेकर देश के पूर्वोत्तर छोर तक नए साथियों के साथ विपक्ष की हर चुनौती का जवाब देने को तैयार है। ऐसे में एकजुट और पहले से बड़े राजग के सामने फिलहाल बिखरा हुआ विपक्ष कितनी चुनौती दे पाएगा, यह देखना दिलचस्प होगा। आज शिवसेना, अकाली दल समेत कई दल अपने राज्यों में बेहद मजबूती के साथ भाजपा का साथ दे रहे हैं। पार्टी को लग रहा है कि देशभर में उसके यह सहयोगी दलों का वोट भी उसे मिलेगा। शायद भाजपा को यह भी अहसास होने लगा है कि तमाम पार्टियों के बावजूद वह 2014 को शायद न दोहरा पाए? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र में मजबूत व पूर्ण बहुमत वाली सरकार पर जोर देते हुए कहा कि पिछले तीन दशकों में त्रिशंकु संसद ने देश की प्रगति बाधित की थी। सूरत की एक सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने नोटबंदी के अपनी सरकार के फैसले का बचाव किया और कहा कि नोटबंदी के कारण मकानों की कीमतों में कमी आई और आकांक्षी युवाओं के लिए किफायती दरों पर अपना मकान खरीदना संभव हो सका। प्रधानमंत्री मोदी ने कहाöजैसा कि आप सभी जानते हैं, त्रिशंकु संसदों के कारण भारत को 30 सालों तक अस्थिरता का सामना करना पड़ा, क्योंकि किसी पार्टी को बहुमत हासिल नहीं हुआ। इससे देश का विकास बाधित हुआ और इस स्थिति के कारण देश कई मोर्चों पर पीछे भी गया। आंकड़े बताते हैं कि जब-जब केंद्र में मजबूत सरकार रही है तब-तब लोगों का तुलनात्मक रूप से ज्यादा कल्याण हुआ है। मजबूत सरकार का मतलब स्पष्ट जनादेश वाली निर्णायक सरकार। जब दो समान विचारधारा वाले दल चुनाव से पहले या बाद में मिलकर सरकार बनाते हैं तो इस प्रकार के गठबंधन में सरकार के सहज रूप से काम करने की संभावना थोड़ी अधिक होती है। जब दल केवल सत्ता के लिए गठबंधन बनाते हैं और उनका कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम नहीं होता तो देश कई वर्ष पीछे चला जाता है। बेशक गृहमंत्री राजनाथ सिंह मजबूत नेतृत्व और संगठन के बूते 300 सीटें जीतने का दावा कर रहे हों पर कहीं न कहीं भाजपा नेतृत्व इस बात से बेखबर नहीं है कि शायद वह उस आंकड़े तक न पहुंच पाएं जिन पर वह 2014 में पहुंचे थे। भाजपा की सीटें घटने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। टाइम्स नाऊöवीएमआर के ओपिनियन पोल में कई अहम बातें सामने आई हैं। इसके मुताबिक नॉर्थ ईस्ट, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड के नतीजे एनडीए के लिए खुशखबरी ला सकते हैं। वहीं उत्तर प्रदेश में महागठबंधन को बड़ी कामयाबी मिलती दिख रही है। महागठबंधन को जहां 57 सीटें मिलने का अनुमान है, वहीं एनडीए को 27 सीटों पर सिमटने का खतरा दिख रहा है। वहीं यूपीए को मात्र दो सीटें मिलने का अनुमान सर्वे में लगाया गया है। एनडीए का वोटर शेयर 4.4 प्रतिशत तक घटकर 38.9 प्रतिशत हो सकता है, जबकि यूपीए के वोट शेयर में 4.1 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी देखने को मिल सकती है। पिछली बार 543 में से 336 सीटें जीतने वाली एनडीए को इस बार 252 सीटें मिल सकती हैं, जबकि यूपीए को 147 सीटें मिलती दिख रही हैं। वहीं अन्य के खाते में 144 सीटें जा सकती हैं। इससे साफ है कि एनडीए बहुमत (272) से दूर रहने वाला है। राजनीतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि ऐसा नहीं है कि भाजपा को सीधे वॉकओवर मिलने जा रहा है। उसकी सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि 2014 में उसके पक्ष में जो माहौल था, मोदी की जो लहर थी वह अब उतनी नजर नहीं आ रही। दूसरी बड़ी चिन्ता उसका 2004 का इतिहास है। उस वक्त की वाजपेयी सरकार के पक्ष में भारत उदय जैसे कैंपेन चल रहे थे, लेकिन जब नतीजे आए तो पता चला कि भाजपा के हाथ से सत्ता चली गई। यूपी जैसे राज्य में भाजपा ने पिछली बार रिकॉर्ड तोड़ सीटें इसलिए जीती थीं, क्योंकि पूरा विपक्ष बिखरा हुआ था पर इस बार उसे सपा-बसपा गठबंधन से कड़ी चुनौती मिलने वाली है। इसी तरह बिहार में भी कांग्रेस-आरजेडी मजबूत गठबंधन है। यही नहीं, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में जहां उसने 90 से लेकर 100 प्रतिशत तक सीटें जीती थीं उनमें से गुजरात को छोड़कर बाकी राज्यों में अब कांग्रेस सत्ता में आ चुकी है। ऐसे में इन राज्यों में उसे जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई कैसे होगी, यह उसके लिए सबसे बड़ी चिन्ता है। अन्य राज्यों में भी कांग्रेस से भले ही नहीं सही लेकिन तृणमूल कांग्रेस, डीएमके-कांग्रेस गठबंधन, चन्द्रबाबू नायडू समेत मजबूत विपक्षी क्षेत्रीय दलों से उसे कड़ी चुनौती मिलेगी। देखें, ऊंट किस करवट बैठता है? (समाप्त)

-अनिल नरेन्द्र