Thursday 14 March 2019

लोक पर्व 2019 ः अब जनता की बारी है...(2)

लोकसभा चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही तमाम पार्टियां अपनी-अपनी जीत का बेशक दावा कर रही हों पर एक सर्वेक्षण के अनुसार बीते चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली एनडीए इस बार बहुमत से कुछ पीछे रह सकती है। कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए का भी बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद सत्ता तक पहुंचना मुश्किल दिख रहा है। जबकि क्षेत्रीय पार्टियां काफी तादाद में सीट जीत सकती हैं, जिससे अगली सरकार के गठन में उनकी भूमिका अहम होगी। यह सर्वेक्षण एबीवीपी न्यूज-सी वोटर ने किया है। इसके मुताबिक 543 लोकसभा सीट के लिए होने वाले चुनाव में भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए को 264 सीटें मिलती नजर आ रही हैं। जबकि यूपीए 141 सीट पर जीत हासिल कर सकती है। अन्य पार्टियों को 138 सीटें मिलने की संभावना है। चूंकि यह सर्वेक्षण चुनाव तारीख की घोषणा के साथ-साथ किया गया है इसलिए जैसे-जैसे चुनाव प्रक्रिया आगे बढ़ेगी जमीनी स्थिति बदलेगी, इसलिए इसे जरूरत से ज्यादा महत्व देने की जरूरत नहीं है। सभी राजनीतिक दल लहरविहीन चुनाव में अपने मनमाफिक परिणाम पाने की हसरत से सियासी गोटियां सजाने लगे हैं। लेकिन मेरे हिसाब से इस महादंगल में जो फैक्टर महत्वपूर्ण होंगे वह कुछ इस प्रकार हैंöप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा को जिन मुद्दों का जवाब जनता को देना होगा, उनमें प्रमुख होंगे ः नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी, सामाजिक, आरबीआई और संवैधानिक संकट। नोटबंदीöयह सबसे चौंकाने वाला फैसला था। सरकार ने 500 और 1000 रुपए के नोटों पर रातोंरात बैन लगा दिया। जनता को अपना पैसा बदलवाने के लिए लंबी-लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ा। 100 से अधिक लोगों की तो बैंकों की लाइन में लगे-लगे ही मृत्यु हो गई। काला धन जिसके लिए नोटबंदी की गई थी, वह आज पहले से भी ज्यादा हो गया है। कहा गया था कि इससे आतंकवाद पर अंकुश लगेगा। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि पिछले एक साल में जितने आतंकी हमले हुए हैं, जितने जवान मरे हैं वह पिछले सालों के मुकाबले बहुत ज्यादा हैं। नोटबंदी और जीएसटी के कारण हजारों इकाइयां बंद हो गईं, लाखों परिवार तबाह हो गए। मोदी ने हर साल दो करोड़ नौकरियों का वादा किया था। कांग्रेस का आरोप है कि पिछले साल एक करोड़ लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दीं। एनएसएसओ के अनुसार 2017-18 में बेरोजगारी दर 6.1 प्रतिशत थी जबकि 1972-73 के बाद सर्वाधिक है। अब तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने भी स्पष्ट कर दिया है कि उसने नोटबंदी न करने की सलाह दी थी पर प्रधानमंत्री ने उनकी सलाह को भी दरकिनार कर दिया। मॉब लिंचिंग व गाय का मुद्दा भी उछलेगा। पांच सालों में बीफ पहली बार मुद्दा बनकर आया है। मॉब लिंचिंग के कई मामले सामने आए हैं। कांग्रेस के अनुसार देश में संवैधानिक संकट खड़ा हो गया है। यह पहली बार था जब सुप्रीम कोर्ट के जज विवादों को लेकर मीडिया के सामने आए। लोकतंत्र को खतरा बताया। तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के तौर-तरीकों पर सवाल उठाए गए। सीबीआई की अंदरूनी कलह खुलकर सामने आई, आरबीआई के गवर्नर उर्जित ने पद छोड़ा, आलोक वर्मा को सीबीआई चीफ पद से हटाने पर भारी विवाद पैदा हुआ। भारत के आम चुनावों को लेकर पहले से कोई भविष्यवाणी आज तक सिर्फ इसलिए सही साबित नहीं हो सकी है, क्योंकि यह अलग-अलग मिजाज राज्यों का देश है। उनकी राजनीतिक पसंद-नापसंद, उनके अपने खानपान, रहन-सहन, बोलचाल, विश्वास और आस्था से जुड़ी होती है। यह वही फैक्टर हैं जिनके चलते वोटों के नतीजे आने तक दृढ़ता के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार किसकी बनने वाली है? वोटरों को किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचने के बजाय 2014 और 2019 के फर्क को समझना शायद इसलिए जरूरी हो जाता है। 2014 का चुनाव लगातार 10 साल के सत्तारूढ़ यूपीए सरकार के खिलाफ था। बड़े घोटालों के कई मामले उजागर हो चुके थे, जिनमें कुछ मंत्रियों को जेल तक जाना पड़ा था और कुछ को इस्तीफा देना पड़ा था। जनता ने तय कर लिया था कि इन्हें सत्ता से बाहर करना है और किया भी। 2014 के चुनाव के इस माहौल में मोदी की ताजा हवा के झोंके सामने आए थे। वह चुनाव भाजपा नहीं लड़ रही थी, वह मोदी लड़ रहे थे। 2019 में कांग्रेस कोई फैक्टर नहीं होगी। चुनाव हमेशा सरकार के खिलाफ लड़ा जाता है। जाहिर-सी बात है कि इस बार मतदाताओं की कसौटी पर व्यक्तिगत रूप से मोदी की साख तो होगी ही, एनडीए सरकार के पांच साल का कामकाज भी मुद्दा होगा। 2014 में भाजपा या मोदी के पास न तो कुछ खोने के लिए था और न ही कुछ साबित करना था। लेकिन इस बार खोने का भी डर होगा और अपने आपको साबित करने की चुनौती भी होगी। मोदी के लिए यह साबित करने की चुनौती होगी कि अच्छे दिन का जो वादा था, वह कब आएंगे? 2014 के चुनाव में तिकोना मुकाबला था और विपक्ष बंटा हुआ था। राज्यों में इलाकाई दलों का बहुत बड़ा हिस्सा भाजपा और कांग्रेस दोनों से ही मुकाबिल था। इस बार भाजपा के मुकाबले विपक्ष एकजुट होकर और सीधे मुकाबले के प्रयास में दिख रहा है। अगर वन टू वन चुनाव कराने के विपक्ष का प्रयास सफल होता है तो मोदी और भाजपा के लिए संघर्ष तीखा हो जाएगा। चुनाव से पहले पुलवामा कांड और उसके बाद पाकिस्तान के खिलाफ एयर स्ट्राइक से माहौल में राष्ट्रवाद की हवा महसूस की जा रही है। यह ऐसा मुद्दा है जिसके आगे तमाम मुद्दे गौण हो जाते हैं। 2014 में भ्रष्टाचार का मुद्दा सबसे अहम था। भाजपा की पूरी कोशिश होगी कि राष्ट्रवाद के मुद्दे को हावी होने दिया जाए और विपक्ष इसके असर को समझते हुए इसे हावी होने से रोकने की पूरी कोशिश में है। 2014 में मोदी के खिलाफ ले-देकर सिर्फ राहुल का चेहरा था, जिसे औपचारिक तौर पर घोषित नहीं किया गया था। क्षेत्रीय दलों से कोई गठबंधन नहीं हुआ था, इसलिए उस खेमे से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में कोई नाम आने का सवाल ही नहीं था, लेकिन इस बार तो ममता बनर्जी से लेकर मायावती तक के नाम विपक्ष के प्रधानमंत्री के रूप में खुलकर चर्चा में हैं। फिर राहुल अब पूरी तरह बतौर कांग्रेस अध्यक्ष सक्रिय हो चुके हैं और उन्होंने हाल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में यह साबित भी कर दिया है कि अब न तो उन्हें और न ही कांग्रेस को हल्के में लिया जा सकता है। (क्रमश)

-अनिल नरेन्द्र

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