Wednesday 31 August 2011

Why Anna got overwhelming support?

- Anil Narendra
A number of lessons can be learnt from Anna Hazare movement. It was a unique movement, which united whole of the country. People,  irrespective of their class, religion or community bond together. It was after years that the middle class came to street in such a huge number. It must have been a unique experience for these car-borne people serving food to their fellow citizens who had gathered there in support of the movement. For 12 days, this middle class, which shun elections, was standing there beside Anna at Ramlila Ground. Every class of the people participated in this movement. Many people were saying that those participating in candle light procession, were the  people who had never ventured out for polling. But these people forget  the fact that this very class feels neglected during elections. This  urban class feels itself in a minority in the scenario where elections are won on the basis of caste and region. They feel that persons like them are few in number and they do not consider their role in elections as that important. But, now they have realized that at least they must play their role in enactment of a strong anti-corruption law, a law to deal with the corruption that has weakened the foundation of the country. This movement has kindled a ray of hope for them.
Intellectuals and political observers are baffled as to what the people, who take Independence Day and Republic Day as holidays, saw in this movement that they spontaneously rushed to Ramlila Grounds.
Today, the Bhartiya Janta Party may be trying to claim credit for making Anna's movement a success and no doubt it had an important role as had it not openly accepted and supported all the three conditions put forth by Anna without any reservation, the government would not have conceded defeat so easily. In fact, the BJP initiative lend weight to Anna's movement, but it must also introspect as to why during these past years, it couldn't make corruption an issue, whereas, Anna succeeded in making it a forceful issue. Even the government always ignored the fervent public appeals to save them from
the monster of corruption. Crushed by corruption and price rise, the people of India continued lamenting and appealing to the government to take appropriate measures, but the Congress and the government took no heed. To console public, our politicians started saying that corruption is no more an issue. They concluded that people voted for the Congress in the name of development and they have now accepted corruption as a way of life. In other words, the government had come to the conclusion that now, neither corruption would be raised as an issue and nor there would be any anti-corruption movement, but a just 7th standard saintly person from Ralegan made all the calculations of
political pundits ineffective. People were moved by Anna's clean image and his forceful voice and they took to the streets. His trustworthiness has been the most important reason behind the success
of his movement. His moral stature, his selflessness and his sincere conduct also made his movement a resounding success. The common man saw in Anna, a 74-year elderly person fighting not for his own
interests but fighting their own battle. Whenever a politician says such things, people take it otherwise. It knows that whenever this party or the politician gets a chance, it or he will behave in the same manner. He will act against his preaching. This is due to the declining trust in political leaders that political parties have to put it all their resources for just gathering a crowd of 10-20 thousands. Party leaders of lower ranks are entrusted the responsibility to arrange crowd. Arrangements for tea, snacks and transportation are made. Their stature is dependent upon the crowd they are able to attract. On the other hand, people joined Anna's movement with the spirit of service and they made their own arrangements for food and transportation. They were not compelled by anybody, but it was a spontaneous outburst. Our politicians should learn from this movement and understand the deep insights of Anna's victory. Don't know whether they have still realized it or not.

अन्ना के आंदोलन में संसद में युवा ब्रिगेड छाया रहा

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 31st August 2011
अनिल नरेन्द्र
शनिवार को लोकसभा में जब अन्ना की तीन शर्तों पर बहस हो रही थी तो एक बात उभरकर खासतौर से सामने आई। वह थी कि दोनों कांग्रेस और भाजपा ने अपनी युवा पीढ़ी को आगे करके उन्हें मौका दिया कि वह इतनी महत्वपूर्ण बहस में अपना हुनर दिखा सकें। कांग्रेस के युवा सांसद संदीप दीक्षित अपनी माता जी की छाया से बाहर निकल आए हैं। उन्होंने अपने दम-खम पर आगे बढ़ने का जो फैसला किया वह सराहनीय है। संदीप ने न केवल अपनी पार्टी में अपना कद बढ़ाया है बल्कि विपक्ष ने भी कई बार उनकी दलीलों से सहमति जताई। जब अन्ना को गिरफ्तार किया था तो संदीप पहले सांसद थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि यह गलत हुआ है। पहले दिन से ही वह बीच-बचाव करने में लग गए। जब रविवार को विलास राव देशमुख प्रधानमंत्री का पत्र लेकर रामलीला मैदान पहुंचे तो उनके साथ पार्टी व सरकार ने संदीप दीक्षित को भेजकर यह स्पष्ट कर दिया कि अब उन पर कितना भरोसा है। संदीप दीक्षित के प्रति सब की नजरों में इज्जत बढ़ी है और यह उनके आगे काम आएगी। वरुण गांधी को उतारने के पीछे भाजपा का खास मकसद यह साबित करना भी था कि उनका गांधी अन्ना हजारे के आंदोलन और जन भावना के ज्यादा करीब है। इससे पहले वरुण गांधी ने टीम अन्ना के जन लोकपाल को बतौर प्राइवेट मैम्बर बिल लोकसभा में लाने की कोशिश की थी। वह रामलीला मैदान पर भी गए थे। दिलचस्प बात यह थी कि वरुण गांधी ने सुषमा स्वराज के बाद पार्टी के दूसरे वक्ता के तौर पर बहस की धारा के विपरीत बयान दे डाला। जहां सभी वक्ताओं ने बार-बार संसद की सर्वोच्चता और संसदीय लोकतंत्र की गुहार लगाई वहीं वरुण ने टीम अन्ना के नुमाइंदों की भाषा बोलते हुए कहा कि बेशक कानून संसद में बनते हैं और सांसदों का विशेषाधिकार है मगर जनता सर्वोपरि है। इससे पहले सदन की बहस की शुरुआत करते हुए सुषमा स्वराज ने शुक्रवार के राहुल गांधी के भाषण की कड़ी आलोचना की। उनका आरोप था कि राहुल ने जो कहा उससे अन्ना हजारे का अनशन खत्म करने के लिए संसद की अपील के किए-कराए पर पानी फिर गया। कांग्रेस के दूसरे वक्ता थे युवा मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया। उन्होंने सिविल सोसाइटी को अहमियत देने के लिए सोनिया गांधी को श्रेय दिया और इन कोशिशों में भाजपा की भूमिका पर सवाल भी उठाया। रालोद की ओर से मथुरा के सांसद जयंत चौधरी ने अपनी बात रखी। उन्होंने टीम अन्ना की तमाम मांगों का समर्थन किया। इससे कई अन्य पार्टियों के युवा सांसदों में भी जोश आ गया। उन्होंने भी स्पीकर से मौका देने के लिए पुरजोर गुजारिश की। इनमें सपा के नीरज शेखर व धर्मेन्द्र यादव और बसपा के धनंजय सिंह प्रमुख थे। प्रवीण सिंह ऐरन ने अन्ना के जन लोकपाल बिल संसद की स्थायी समिति के सामने पेश किया। प्रिया दत्त, संजय निरूपम, मिलिंद देवड़ा, सचिन पायलट, आदि युवा सांसदों ने अन्ना का समर्थन किया और सरकार व पार्टी पर दबाव बनाया। कुल मिलाकर अन्ना के आंदोलन पर संसद में हुई बहस में युवा ब्रिगेड छाया रहा।
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अन्ना के लिए जनमानस क्यों उतरा, यह समझना चाहिए


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 31st August 2011
अनिल नरेन्द्र
अन्ना हजारे के आंदोलन से कई सबक निकलते हैं। यह एक अद्भुत आंदोलन था जिसने सारे देश को एक कर दिया। सारे वर्गों, धर्मों, समुदायों सभी को मिला दिया। वर्षों बाद मिडल क्लास के लोग सड़कों पर उतरे। अपनी गाड़ियों से उतरकर रामलीला मैदान में सफाई कर रहे, भोजन परोस रहे इन लोगों ने शायद इससे पहले कभी भी यह सब नहीं किया होगा। वह मिडल क्लास जो वोट नहीं करता वह 12 दिनों में रामलीला मैदान में अन्ना के साथ खड़ा दिखा। इस आंदोलन में देश का हर तबका शामिल था। कई लोग कह रहे हैं कि कैंडिल मार्च करने वाले लोग वे हैं जो कभी वोट डालने भी नहीं जाते। मगर ये सब कहने वाले भूल जाते हैं कि देश का यही वर्ग चुनावों में अपने आपको उपेक्षित महसूस करता है। जिस तरह चुनाव जातिवाद और क्षेत्रवाद जैसे मुद्दों पर जीते जाते हैं, वहां देश का यह शहरी वर्ग अपने आपको अल्पमत महसूस करता है। उन्हें लगता है कि उनकी संख्या मुट्ठीभर है और वे चुनाव में अपनी कोई भूमिका ही नहीं मानते। मगर अब इन्हें लग रहा है कि कम से कम हमारी भूमिका उस कानून को बनाने में तो हो जो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके। वही भ्रष्टाचार जो देश को घुन की तरह खा गया है। इस आंदोलन ने उनमें एक उम्मीद जगाई है।
बुद्धिजीवियों और राजनीतिक पंडितों को यह बात अचम्भित कर रही है कि जो जनता स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस को एक छुट्टी के दिन ही तरह देखती है उसे इस आंदोलन में ऐसा क्या दिखा कि वह बिना बुलाए रामलीला मैदान की तरफ दौड़ पड़ी। आज बेशक भाजपा इस बात का श्रेय लेने की कोशिश कर ही है कि अन्ना का आंदोलन अंतत सफल कराने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। बेशक रही भी, अगर भाजपा खुलेआम घोषणा नहीं करती कि वह अन्ना की तीनों शर्तों को बिना किसी रिजर्वेशन के स्वीकार करती है और समर्थन करती है तो शायद सरकार अब भी इतनी आसानी से हार मानने वाली नहीं थी। भाजपा के इनिशिएटिव ने अन्ना का पलड़ा भारी कर दिया पर भाजपा को यह सवाल अपने से जरूर पूछना चाहिए कि इतने वर्षों से वह भ्रष्टाचार को मुद्दा क्यों नहीं बना पाई। आखिर अन्ना इसे कैसे मुद्दा बना गए? सरकार ने भी जनता की पुकार व जनता में मची त्राहि-त्राहि को हमेशा नजरंदाज किया। भ्रष्टाचार और महंगाई से दबी भारत की जनता चीख-चीखकर पुकारती रही कि कुछ करो, कुछ करो पर कांग्रेस पार्टी और सरकार के जूं तक नहीं रेंगी। हमारे राजनेताओं ने अपने को तसल्ली देने के लिए यह दलील देनी आरम्भ कर दी कि भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा नहीं रहा है। राजनेताओं का यही मानना था कि जनता ने विकास के नाम पर कांग्रेस को वोट दिया और भ्रष्टाचार अब जनता में स्वीकार्य हो चुका है यानि भ्रष्टाचार का अब न तो मुद्दा बनाया जा सकेगा और न ही भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत में कोई आंदोलन हो सकता है परन्तु महज सातवीं कक्षा पास रालेगण के एक संत ने राजनीतिक पंडितों की सारी थ्यौरियों को विफल कर दिया। अन्ना की अपनी साफ स्वच्छ छवि और सीधी आवाज ने लोगों को दिल से छू लिया और वह सड़कों पर आ गए। अन्ना के आंदोलन सफल होने के पीछे सबसे बड़ा कारण था उनकी अपनी विश्वसनीयता। इसके पीछे कारण था अन्ना का नैतिक कद, उनकी निस्वार्थता और उनका निष्कपट व्यक्तित्व। अन्ना हजारे को देखकर आम आदमी को यह लगा कि यह 74 साल का वृद्ध अपने लिए संघर्ष नहीं कर रहा, यह उनके लिए संघर्ष कर रहा है। जब कोई राजनेता इन्हीं बातों को कहता है तो जनता इसका दूसरा मतलब निकालती है। उसे पता होता है कि अवसर पड़ने पर यह दल या राजनेता भी वही व्यवहार करेगा जिसके खिलाफ वह भाषण कर रहा है। राजनेताओं पर से जनता के उठते विश्वास का ही नतीजा है कि राजनीतिक दलों को अपनी रैलियों में 10-20 हजार की भीड़ इकट्ठी करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। पार्टी के छुटभैया नेताओं पर भीड़ इकट्ठी करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। चाय, नाश्ते और गाड़ियों का इंतजाम किया जाता है। इन नेताओं का कद पार्टी में उनके द्वारा इकट्ठी की गई भीड़ से ही तय होता है और अन्ना के आंदोलन में जनता खुद अपने खर्चे पर, अपना खाना-पीना लेकर सेवाभाव से आई। उसे किसी ने मजबूर नहीं किया था। राजनेताओं को इस आंदोलन से सीख लेनी चाहिए और अन्ना की जीत के गहरे निहितार्थों को समझना चाहिए। पता नहीं अब भी इनको समझ आई कि नहीं।
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Monday 29 August 2011

अन्ना का आंदोलन और मीडिया की भूमिका


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 30th August 2011
अनिल नरेन्द्र
शनिवार को लोकपाल विधेयक पर टीम अन्ना की तीन शर्तों पर संसद में हुई चर्चा में मीडिया की भूमिका पर भी टिप्पणियां की गईं। मीडिया की भूमिका को लेकर अक्सर नाराजगी जताने वाले जनता दल (यू) के शरद यादव और राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद यादव शनिवार को भी नहीं चूके। इन दोनों ने स्वर से स्वर मिलाते हुए कहा कि अन्ना का पूरा आंदोलन मीडिया की देन है। जमीन से जुड़े संघर्षशील समाजवादी शरद यादव ने अन्ना की तीन मांगों पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान केवल सहमति भर जताई। उन्होंने कहा कि अन्ना हजारे ईमानदार, संघर्षशील और जूझारू व्यक्ति हैं। मैं उनकी इज्जत करता हूं लेकिन उनसे शिकायत भी है। उन्होंने इन 12 दिनों में कभी भी महात्मा फुले को याद नहीं किया। शरद यादव ने कहा कि अन्ना को उनके आसपास के लोग और मीडिया भ्रमित कर रहा है। उनके इस अभियान को अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए इलैक्ट्रॉनिक मीडिया हवा दे रहा है। स्थिति यह हो गई है कि डिब्बा (टीवी) रातभर बजता रहता है। पूरे देश में कहीं बाढ़ तो कहीं गरीबी से तबाही मची हुई है, लेकिन डिब्बे को फुर्सत नहीं। उन्होंने सरकार से कहा कि इसे आप फुर्सत दिलाइए। आप अन्ना की बातों को मानकर अपनी सहमति डिब्बे वालों को भेज दें ताकि यह बन्द हो सके। उन्होंने कहा कि रामलीला मैदान में रात में जो भी भीड़ दिखती है उसमें ज्यादातर वहां घूमने और पिकनिक मनाने के लिए जा रहे हैं। पहले लोग बोट क्लब जाते थे अब रामलीला मैदान जा रहे हैं और मीडिया इन्हें बार-बार दिखाकर अपनी टीआरपी रेटिंग बढ़ा रहा है। शरद यादव ने कहा कि चार महीने से डिब्बा बज रहा रहा है। इस डिब्बे से बहुत दिक्कतें हैं। ये चैनल अन्ना से इतने ज्यादा प्रभावित हैं कि उन्हें देश में आई बाढ़ तक की खबर दिखाने की जरूरत महसूस नहीं हो रही है। उन्होंने कहा कि वे पिछले 10 साल से किसी चैनल पर नहीं गए। उन्होंने वहां बैठे जतिन प्रसाद और सचिन पायलट से पूछा कि तुम लोग तो बुद्धिमान हो, क्यों जब भी इनके यहां चले जाते हो? उन्होंने एक चैनल विशेष की ओर इशारा करते हुए कहा कि एक डिब्बे में बंगाली बाबू मोशाय तो बात करते हुए इतने आक्रामक हो जाते हैं कि लगता है कि मुंह ही नोच लेंगे और दूसरों से भी नेताओं का मुंह नुचवाते हैं। अब तो अन्ना की बातें मानकर इन चैनलों से हमें भी निजात दिलवाओ। इस पर सदस्यों ने मेजें थपथपाकर उनका उत्साह बढ़ाया।
हम शरद साहब का बहुत आदर करते हैं पर उनकी दलीलों से सहमत नहीं हैं। मीडिया वही करेगा जो जनता चाहेगी और इसी के चलते मीडिया निर्णायक है और यह बात पिछले एक पखवाड़े में साबित भी हो गई है। इस दौरान टीवी देखने वालों के आंकड़े बढ़े हैं। अन्ना के आंदोलन ने सास-बहू या खेल की चैनलों पर अन्य सीरियलों की चैनलों और लोकप्रियता का ग्रॉफ गिराया है। लोग न्यूज चैनलों के सामने चिपके रहे। खेल चैनल 33 प्रतिशत और हिन्दी सिनेमा की चैनलों के चार प्रतिशत दर्शक घटे। इसके विपरीत हिन्दी न्यूज चैनलों के दर्शकों में छह फीसदी वृद्धि हुई। हिन्दी में स्टार न्यूज ने तीन करोड़ दर्शकों का आंकड़ा पार किया तो अंग्रेजी में टाइम्स नाऊ जबरदस्त हिट हुआ। ऐसा सब कुछ इसलिए है क्योंकि जनता जागरूक है, समझदार है और उसे मीडिया में अपनी बात की प्रतिध्वनि चाहिए। जनता का गुस्सा मजबूर कर रहा है कि चैनल और अखबार उसकी सोच पर थिरकें। औरों की बात क्या करें, मैं खुद पिछले एक पखवाड़े से केवल अन्ना के आंदोलन के विभिन्न पहलुओं पर ही अपने विचार दे रहा हूं और किसी विषय पर लिखने का मन ही नहीं। सवाल यह भी है कि अगर देश में लोकतंत्र मजबूत हो रहा है, अगर देश में लोगों को अभिव्यक्ति का भरपूर मौका मिल रहा है तो भला मीडिया अपनी मजबूत भूमिका क्यों नहीं निभाएगा? जो लोग मीडिया पर अंगुली उठा रहे हैं वह कह रहे हैं कि अन्ना का आंदोलन तो मूलत मीडिया का आंदोलन है। ऐसे बुद्धिजीवियों से पूछा जाना चाहिए कि अगर देश में सामाजिक परिवर्तन लाने वाले किसी आंदोलन में मीडिया सकारात्मक भूमिका निभा रही है तो क्या वह लोकतंत्र और देशवासियों के लिए खराब है? क्या इससे लोकतंत्र मजबूत होता है या उनकी जड़ें खोखली हो रही हैं? किसी देश में लोकतंत्र की सफलता की कसौटी यही होती है कि क्या यह दिशा मीडिया भी रिफ्लैक्ट कर रहा है। अगर लोकतंत्र के प्रति मीडिया का रवैया सकारात्मक और सक्रिय भूमिका वाला नहीं है तो ऐसे में लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता। जहां भी मीडिया की सक्रियता है वहीं लोकतंत्र भी जिन्दा है। आखिर तमाम ताकतवर षड्यंत्रों के बावजूद अमेरिका जैसे देश में बार-बार यह मीडिया ही तो है जो उजागर करती है कि किस तरह राष्ट्रपति निक्सन ने वॉटरगेट करवाया, किस तरह अमेरिका की आतंक के खिलाफ लड़ाई में अमेरिकी सैनिक मारे जा रहे हैं, यह मीडिया ही है जिसने ग्वांतानामे में इराक के लोगों से कुछ अमेरिकी सैनिकों ने अमानवीय व्यवहार किया। यह मीडिया ही है जो इंग्लैंड में मीडिया युगल रूपर्ट मर्डोक को बैकफुट पर जाने के लिए ही नहीं, सार्वजनिक रूप से माफी मांगने और दुनिया के एक प्राचीन व लोकप्रिय अखबार को बन्द करा दिया। यह मीडिया ही है जिसने पाकिस्तानी सेना के कुछ अफसरों की अलकायदा से साठगांठ का पर्दाफाश किया और उसकी भारी कीमत भी वहां के पत्रकारों को चुकानी पड़ रही है। इसलिए यह सोचना या कहना कि मीडिया के तौर-तरीके सही नहीं हैं, गलत है। अगर मीडिया सक्रिय नहीं होगा, अगर मीडिया बढ़कर अपनी भूमिका नहीं निभाएगा तो लोकतंत्र मजबूत नहीं होगा। सरकारें व कारपोरेट जगत क्या मीडिया का अपने हितों, स्वार्थों को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल नहीं करता? सबसे आश्चर्यजनक बात तो खुलकर उन सोशल नेटवर्किंग साइटों में देखने को मिली जहां लोग बहुत सहजता से यह टिप्पणी कर रहे थे कि मीडिया तो एंटी इस्टैबलिशमेंट सोच का ही होता है और यह भी कि मीडिया के पास कोई मसाला नहीं इसलिए वह अन्ना हजारे के आंदोलन को हवा दे रहा है, दुनिया में जितने भी परिवर्तन का बड़े आंदोलन हुए हैं, वे आंदोलन आमतौर पर सफल ही तब हुए हैं जब उनमें मीडिया की बढ़चढ़ कर और सक्रिय भूमिका खुलकर सामने आई है। यहां तक कि रूस में सम्पन्न बालशविक क्रांति को भी मीडिया जबरदस्त समर्थन दे रहा था और अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग द्वारा चलाए गए अश्वेत आंदोलन को भी मीडिया ने जबरदस्त समर्थन दिया था तभी अमेरिकी श्वेत इस स्तर तक झुकने को तैयार हुए थे और वह अश्वेतों को भी सम्मान के दो कदम अपने साथ मिलकर चलने पर मजबूर हुए। हाल के दशकों में दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी आंदोलन को भी अगर पूरी दुनिया में समर्थन मिला और दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार रंगभेद के मुद्दे पर झुकने को तैयार हुई तो उसकी बड़ी वजह सिर्प यही थी कि मीडिया नेल्सन मंडेला के रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन के साथ थी। अगर मीडिया का समर्थन मंडेला को नहीं मिला होता तो वह जेल की कोठरी में ही खुद रहे होते। वहां से निकलकर अंधकार में डूबे अफ्रीका के सितारे नायक न बनते। क्या मीडिया के बिना किसी समाज की कम से कम आज की तारीख में कल्पना कर सकते हैं? अगर मीडिया शानदार वायडॉग की भूमिका नहीं निभाएगा तो क्या सरकार निभाएगी? क्या यह सांसद निभाएंगे? सरकारें और राजनेता कभी भी स्वतंत्र मीडिया को बर्दाश्त नहीं करते। अक्सर देखा जाता है कि जब मीडिया किसी सरकार की तारीफ करता है तो वह अच्छा हो जाता है और अगर वह सरकार की कमियों को हाई लाइट करे तो विलेन बन जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अन्ना के आंदोलन को हवा देने का आरोप मीडिया पर लगाया जा रहा है। मीडिया अपना काम कर रहा है जो देशहित में है। जिन देशों में जनवादी, राजनीतिक उभारों और सिविल सोसाइटी को मीडिया का समर्थन नहीं मिलता, वहां लोकतंत्र कभी फलफूल नहीं सकता।

Sunday 28 August 2011

A historic day for democracy

- Anil Narendra
This day will be remembered as a red letter day in the history of India, as both the houses of the Parliament unanimously declared their resolve to enact the Lokpal Bill, which had evaded enactment for last 43 years. The credit for this revolutionary achievement goes to the movement led by a 74 years old Gandhian, who caused the people of the Nation to rise against the monster of corruption.
Ideological differences between the government and the leaders of the movement were mounting. The government had resorted to every tactic to prove that it was a meaningless and uncalled for movement and for this it gave all sorts of arguments based on constitutional, democratic and parliamentary procedural provisions, but ultimately it had to bow before the wishes of the public of the nation.
In fact, when all the policies of the government failed, it felt that it is being weighed down by public sentiments and it started back channel dialogue and felt that political issues can only be settled politically. That is why, for adopting indifferent attitude two advocate ministers were sidelined and the responsibility of dealing with the movement and its leaders was entrusted to politically matured Pranab Mukherjee, who roped in the senior BJP leader LK Advani in his endeavour. Law and Justice Minister was also there to assist him. Mr Salman Khursheed also associated Sandeep Dikshit, a Member of Parliament with this mission. The need for a dialogue was being felt by both the sides. Meanwhile, an important incident took place. The Team Anna met senior BJP leaders at the residence of Mr Advani on Thursday night. The BJP leaders sought clarifications on certain points, especially on keeping the judiciary out of the purview of Lokpal and Lokpal's non-interference in the conduct of members of Parliament inside the House, on which they were not in agreement with Team Anna.
Team Anna agreed to both the proposals for amendments. Thereafter, BJP came out in open support of the Lokpal Bill of Anna Hazare. This changed the situation. The government was frightened and realized that it has no option but to bow down before it and accept all the proposals put forth by Anna. The situation took an unpleasant turn on Friday, when Rahul Gandhi called Anna's movement totally undemocratic, but it was the prudence of Pranab Babu which saved the situation. Anna has put forward three conditions for a strong Lokpal Bill, namely first, appointment of Lokpal in the Centre and Lokayuktas in States; second, all personnel right from Cabinet Secretary to the accountant be brought under the ambit of Lokpal; and third, citizen charters be prepared.
On Friday itself, the BJP openly said that it would debate on the Bill and it will base its arguments on Anna's Jan Lokpal Bill and it did so. Ms Sushma Swaraj in Lok Sabha and Mr Arun Jaitley in Rajya Sabha, not only fully supported all the three conditions of Anna, but also sharpened all the points raised in Jan Lokpal Bill. The situation had changed altogether. In view of such an attitude of the Opposition, the Congress dared not to oppose the move and next moment Anna was the central to the discussions in both the Houses of Parliament. While underlining the supremacy of Parliament, Ms Sushma in Lok Sabha and MrJaitley in Rajya Sabha also accused all the governments so far, for not getting the Lokpal Bill passed during last 43 years, even after being presented in the Parliament nine times. They also took responsibility of their governments' failures. After the discussions, Mr Pranab Mukherjee reiterated that we had lost the opportunity though we got it nine times. Thus, on one hand the Parliament advised its members for introspection, while members of Team Anna apologized number of times on Saturday that their stage was used to abuse members of Parliament. In any case, the nation has once again established itself as the most vast and vibrant democracy of the world and proved that agreement within dissent, agreement within discord and unanimity within diversities is the unique feature of Indian democracy and this is the greatness of our democracy. Team Anna must be congratulated for the great service they have rendered in awakening this country against corruption, on the other hand, the government and the Parliament too, must also be praised for the resolve they have expressed against corruption. Let us hope that a job pending in the country since 1968 would be completed soon and we would get a new institution of Lokpal.
Anil Narendra, Anna Hazare, Daily Pratap, Lokpal Bill, Parliament, Vir Arjun

लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक दिन


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 28th August 2011
अनिल नरेन्द्र
आज का दिन लोकतंत्र के लिए इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा क्योंकि 43 वर्षों से जो लोकपाल बिल कानूनी जामा नहीं पहन सका उसको मूर्त रूप देने के लिए सर्वसम्मति से संसद के दोनों सदनों में सदस्यों ने संकल्प व्यक्त किया। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सारा कुछ 74 वर्षीय वृद्ध एक ऐसे गांधीवादी नेता के आंदोलन की वजह से हुआ जिसने देश की जनता की भावनाओं को भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठ खड़ा होने के लिए शंखनाद किया।
सरकार और आंदोलनकारी नेताओं के बीच वैचारिक मतभेद गहराए। सरकार ने संवैधानिक, लोकतांत्रिक एवं संसदीय प्रक्रिया संबंधी व्यवस्थाओं का तर्प देते हुए आंदोलन को निरर्थक एवं असंगत साबित करने के लिए हर सरकारी तरीका अपनाया किन्तु देश की जनता के सामने सरकार को झुकना ही पड़ा।
दरअसल साम, दाम, दण्ड, भेद, की सारी नीतियां अपनाने के बाद जब सरकार पर जन भावनाएं भारी पड़ने लगीं और सरकार ने पर्दे के पीछे से संवाद शुरू किया और महसूस किया कि सियासी मसले सियासत से ही हल किए जा सकते हैं। इसीलिए जो दो वकील मंत्री आंदोलनकारियों के खिलाफ ज्यादा संवेदनहीन रुख अख्तियार किए हुए थे उन्हें दरकिनार करके एक राजनीतिक रूप से परिपक्व व्यक्ति प्रणब मुखर्जी को कमान सौंपी। प्रणब मुखर्जी ने भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी से सहयोग लेना शुरू कर दिया। प्रणब बाबू के साथ विधि एवं न्यायमंत्री सक्रिय रूप से जुड़े थे। सलमान खुर्शीद ने अपने साथ सांसद संदीप दीक्षित को जोड़ा। दोनों तरफ से संवाद की जरूरत महसूस की गई। इसी बीच एक महत्वपूर्ण घटना घटी। बृहस्पतिवार की रात को टीम अन्ना और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की आडवाणी के निवास पर एक बैठक हुई। इस बैठक में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने टीम अन्ना के उन प्रावधानों पर स्पष्टीकरण मांगा जिससे वे असहमत थे। खासकर न्यायपालिका को लोकपाल के तहत न रखना और संसद सदस्यों को सदन के अन्दर विशेषाधिकार पर लोकपाल का हस्तक्षेप न होना। टीम अन्ना भाजपा के दोनों संशोधन के सुझावों पर सहमत हो गई। इसके बाद भाजपा खुलकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल के समर्थन में आ गई। इससे स्थिति बदल गई। सरकार सहम गई कि अब उसके सामने झुकने और अन्ना के सारे प्रस्तावों को स्वीकार कर लेने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। एक बार तो स्थिति शुक्रवार को भी बिगड़ी जब राहुल गांधी ने अन्ना के आंदोलन को अलोकतांत्रिक तक बता डाला था किन्तु प्रणब बाबू की सूझबूझ से स्थिति सम्भल गई। अन्ना की तीन शर्तोंöपहली केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति, दूसरी कैबिनेट सचिव से लेकर लेखपाल तक लोकपाल के दायरे में आएं और तीसरी सिटीजन चार्टर बने।
भाजपा ने शुक्रवार को ही इस बात का खुलकर पुरजोर प्रचार किया कि वह सदन में अन्ना के जन लोकपाल बिल को आधार मानकर चर्चा करेगी और किया भी। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने खुलकर न सिर्प अन्ना की तीनों शर्तों का समर्थन किया बल्कि अन्ना के जन लोकपाल बिल के विभिन्न बिन्दुओं को और अधिक धारदार साबित कर दिया। स्थिति पूरी तरह बदल चुकी थी। विपक्ष के इस तरह के रुख के बाद कांग्रेस विरोध का साहस नहीं कर सकी और देखते ही देखते संसद के दोनों सदनों में अन्ना छा गए। लोकसभा में सुषमा और राज्यसभा में अरुण जेटली ने संसद की सर्वोच्चता का महिमामंडन तो किया ही साथ ही यह भी कहा कि 43 वर्षों में 9 बार लोकपाल बिल पेश न कर पाने के लिए सभी सरकारें जिम्मेदार हैं। उन्होंने अपनी सरकारों की भी जिम्मेदारी मानी। बहस के बाद प्रणब बाबू ने भी यही बात दोहराई कि हमें 9 बार अवसर मिला किन्तु हमने उसे खो दिया। इस तरह संसद ने जहां एक तरफ अपने गिरेबान में झांकने की नसीहत ली और दी वहीं टीम अन्ना के लोगों ने कई बार शनिवार को अनशन स्थल पर आकर इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि उनके स्टेज से सांसदों के प्रति अपशब्द निकाले गए जिसके लिए उन्हें खेद है। बहरहाल विश्व के सर्वाधिक विशाल लोकतंत्र के रूप में एक बार फिर देश ने अपने आपको स्थापित कर लिया है और यह साबित कर दिया है कि असहमति के बीच सहमति, विषमताओं के बीच सहमति और विभिन्नताओं के बीच एकमत ही भारतीय लोकतंत्र की विशेषता है और यही है हमारे लोकतंत्र की महानता। टीम अन्ना ने देश को भ्रष्टाचार के विरुद्ध जगाने का जो महान कार्य किया है उसके लिए वह बधाई की पात्र है और सरकार एवं संसद ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो संकल्प व्यक्त किया उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी ही देश में 1968 से लेकर अब तक लम्बित प्रयास पूरा होगा और हमें लोकपाल की नई व्यवस्था हासिल होगी।
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जनता के अन्ना के प्रति स्नेह व समर्थन में कोई कमी नहीं आई


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 28th August 2011
अनिल नरेन्द्र
यूपीए सरकार को यह समझना चाहिए कि अन्ना को मिल रहा विशाल जन समर्थन को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। सरकार को इतना अहंकारी नहीं होना चाहिए कि करोड़ों युवकों की भावनाओं की कदर न करे। ऐसा करना भारी भूल होगी। जनता के अन्ना के प्रति उत्साह में कोई कमी नहीं आई। कुछ समर्थक तो 16 अगस्त से ही रामलीला मैदान में डेरा डाले हुए हैं और कह रहे हैं कि हम यहां तब तक डटे रहेंगे जब तक अन्ना अनशन समाप्त नहीं करते। `अ' से अमरुद और अन्नार पढ़ने वाले वरियान बाजार स्थित नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जूनियर हाई स्कूल के बच्चे पिछले हफ्ते से `अ' से अन्ना पढ़ रहे हैं। उनकी इस जिज्ञासा पर कि अन्ना मतलब क्या है, का जवाब शिक्षक यह दे रहे हैंöभ्रष्टाचार से लड़ने वाला अहिंसक योद्धा भारतीय थल सेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह जैसी शख्सियत का यह कहना कि हम एक दिलचस्प और अशांत दौर से गुजर रहे हैं। दिलचस्प इसलिए कि हम लोकतंत्र और जनता की ताकत के गवाह बन रहे हैं महत्वपूर्ण है। जनता अपने-अपने ढंग से अपनी परेशानी बता रही हैं। पीपली लाइव के चर्चित कलाकार रघुवीर यादव ने महंगाई डायन की धुन छेड़ लोगों की जमकर तालियां बटोरीं। यादव ने जैसे ही महंगाई डायन का राग छेड़ा तो तालियों की बरसात हो गई। महंगाई व भ्रष्टाचार के दानव के चलते लोगों का जीना मुहाल हो गया है। अब तक एक वर्ग ऐसा था जिसने अन्ना के आंदोलन के मुख्य बिन्दु भ्रष्टाचार पर एक शब्द नहीं कहा था। यह था उद्योगपति इस वर्ग पर हमें खुशी है कि टाटा समूह के चेयरमैन रतन टाटा ने माना कि भ्रष्टाचार के मामले में देश की स्थिति और खराब हुई है। अगर आप भ्रष्टाचार में शरीक नहीं होते तो आपका कारोबार पिछड़ जाता है। वर्ष 1991 की तुलना में भ्रष्टाचार बढ़ा है। मैं तीस हजारी में सिविल जज के पद पर कार्यरत हूं, यह कहना था तीस हजारी अदालत में सिविल जज अजय पांडे का जिन्होंने अपनी नौकरी दांव पर लगाकर रामलीला मैदान पहुंचकर जनता व सरकार को चकित कर दिया। जज साहब ने बताया कि ज्यूडिशियरी में किस प्रकार भ्रष्टाचार हावी हो रहा है। बेचारे जज की इस घटना की रिपोर्ट हाई कोर्ट ने मांगी है और सम्भव है कि उन पर कानूनी कार्रवाई हो।
अन्ना का आंदोलन कई मायनों में ऐतिहासिक रहा। जैसा जन समर्थन इस आंदोलन को मिला है इससे पहले कभी किसी भी आंदोलन को नहीं मिला। गत रविवार को रामलीला मैदान में अन्ना की रसोई से लगभग एक लाख लोगों ने खाना खाया। जो रसोई केवल 20 वालंटियरों के साथ शुरू हुई थी वह अब एक लाख लोगों को खाना खिलाने में सक्षम है। ब्रैकफास्ट में चाय, पूरी और सब्जी मिलती है, लंच व डिनर पर छोले-चावल, दाल चावल और राजमा चावल परोसा जाता है और यह सब रामलीला मैदान में आ रहे समर्थकों के चन्दे से हो रहा है। कोई तो घी के टिन दे रहा है, कोई चावल, आटे की बोरियां, कोई आलू के ट्रक तो अधिकतर कैश चन्दा स्वेच्छा से दे रहे हैं। भ्रष्टाचार से त्रस्त व अन्ना के आंदोलन का दिल से समर्थन कर रहे लोग सिर्प रामलीला मैदान पहुंचकर न सिर्प अन्ना का जोश बढ़ा रहे हैं बल्कि तन-मन-धन से लगे हैं। कोई घर से खाना ला रहा है तो कोई जबरन टीम अन्ना को चन्दा और दान में नकद रुपये दे रहा है। दिलचस्प बात यह है कि टीम अन्ना रामलीला मैदान में अभी चन्दा न देने की घोषणा कर रही है, लेकिन समर्थक जबरन मैदान के काउंटरों पर पैसा देने को आतुर हैं। लोगों का कहना है कि वे अन्ना की तरह अनशन कर आंदोलन नहीं कर सकते, लेकिन कम से कम अपनी मेहनत की कमाई का कुछ रुपया अन्ना के आंदोलन में लगाकर अपने आपको भ्रष्टाचार में लड़ने वाला सिपाही बनाने की कोशिश कर सकते हैं। उल्लेखनीय है कि केवल चन्दे के पैसों से टीम अन्ना के पास 50 लाख रुपये से ज्यादा इकट्ठा हो चुका है। जहां एक तरफ तो जनता की यह भावना देखने को मिलती है वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनकी हरकतों ने सारे देश को शर्मसार कर दिया है। पुलिस की नरमी का कुछ मसकरे पूरा फायदा उठा रहे हैं। रामलीला मैदान में अन्ना के समर्थकों की भीड़ में शामिल कुछ आवारा लोग लड़कियों को छेड़ने, कमेंट करने और यहां तक कि उनको टच करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे। शराब पीकर मैं अन्ना हूं टोपी पहनकर पुलिस की पिटाई करने से भी यह बाज नहीं आते। सम्भव है कि यह चाल है, आंदोलन के माहौल को बिगाड़ने की पर जनता का इन सब बातों पर कोई असर नहीं पड़ा और अन्ना का जन समर्थन बढ़ता ही जा रहा है।

11वें दिन न तो अनशन टूटा, न चर्चा हो सकी

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 28th August 2011
अनिल नरेन्द्र
गांधीवादी अन्ना हजारे का अनशन 11वें दिन भी नहीं टूट सका। सरकार ने फिर चाल चल दी। सरकार ने लोकसभा में लोकपाल के मुद्दे पर पहले तो नियम 184 के तहत स्वीकार कर लिया पर ठीक बहस शुरू होने से पहले सरकार पलटी खा गई और बहस को नियम 193 में करवाने का फैसला करके मामले को उलझा दिया। नियम 193 में कोई वोटिंग नहीं होती। रही-सही कसर युवराज के भाषण व स्टैंड ने निकाल दी। नतीजा यह हुआ कि अन्ना का अनशन 11वें दिन भी नहीं टूट सका। अब शनिवार को बहस होगी। अन्ना टीम अब भी इस बात पर अडिग है कि अन्ना हजारे अपना अनशन तभी समाप्त करेंगे जब उनकी तीनों मांगों पर सहमति बनें या कम से कम जन लोकपाल बिल को संसद में पेश कर दिया जाए। अगर जन लोकपाल विधेयक दूसरे लोकपाल प्रस्तावों के साथ शनिवार को पेश हो जाता है और उस पर बहस होती है तो सम्भव है कि उस सूरत में अन्ना अपना आमरण अनशन खत्म कर दें पर बैठे वह रामलीला मैदान में ही रहेंगे, तब तक जब तक जन लोकपाल बिल पारित नहीं हो जाता। शुक्रवार को सारी चर्चा राहुल गांधी के बयान पर बनी रही। राहुल ने अपने बयान में चेतावनी दे डाली कि व्यैक्तिक फरमान से संसद की सर्वोच्चता पर आंच न आने पाए। लोकपाल विधेयक पर 11 दिन के बाद अपनी चुप्पी तोड़ते हुए राहुल ने इस सोच को भी अस्वीकार कर दिया कि केवल लोकपाल आ जाने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा। उन्होंने सुझाव दिया कि केंद्रीय चुनाव आयोग की तरह संसद के प्रति जवाबदेह एक संवैधानिक लोकपाल बनाया जाए। राहुल गांधी का सुझाव तो अच्छा है पर उससे अभी हाल फिलहाल कोई समस्या सुलझने वाली नहीं। इस काम में वर्षों लग सकते हैं। राहुल की लाइन से सरकार और कांग्रेस दोनों का पक्ष कुछ हद तक साफ हो गया और यह स्पष्ट संकेत था कि सरकार अन्ना की मांगें मानने को तैयार नहीं है, कम से कम जिस तरीके से अन्ना चाह रहे हैं। राहुल गांधी ने जिस अन्दाज में अन्ना हजारे पर हमला बोला उससे यह कहा जाए कि उन्होंने कुछ हद तक अपना राजनीतिक भविष्य भी दांव पर लगा दिया तो गलत नहीं होगा। संसद में दिए उनके बयान से जनता में जैसी तीखी प्रतिक्रिया हुई उसमें तो वह कपिल सिब्बल, पी. चिदम्बरम और मनीष तिवारी की कतार में खड़े हो गए हैं। खुद कुछ कांग्रेसी नेता कह रहे हैं कि राहुल गांधी के पास अपनी लोकप्रियता को चरम पर पहुंचाने का यह सुनहरा मौका था कि वह अन्ना के पास जाते उनके पैर छूते और केंद्र सरकार और अन्ना के बीच सेतु का काम करते। इससे न केवल वे युवाओं के सिरमौर बनते बल्कि अन्ना भी अपना अनशन शायद तोड़ देते। लेकिन दुर्भाग्य से हुआ इसका उल्टा। उन्होंने लोकसभा में अन्ना के आंदोलन को लोकतंत्र के लिए ही खतरा बता दिया। एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता की टिप्पणी थी, पता नहीं यह किस कांग्रेसी रणनीतिकार की उपज वाला बयान था। भला एक अहिंसक आंदोलन लोकतंत्र के लिए खतरा कैसे हो सकता है? उन्होंने इसे संसद के लिए भी खतरा बता दिया। अन्ना समर्थकों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए राहुल के घर के बाहर जोरदार प्रदर्शन कर अपना गुस्सा जाहिर कर दिया। राहुल कांग्रेस अध्यक्ष बनने की तैयारी कर रहे हैं। देश का प्रधानमंत्री बनना उनका लक्ष्य है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव सिर पर हैं। जहां राहुल का लिटमस टेस्ट होना है। ऐसे में लोगों के बीच उनके प्रति नफरत पैदा होना उनके राजनीतिक जीवन के लिए कितना शुभ है? बताने की आवश्यकता नहीं। यह पहली बार नहीं जब राहुल ने गलत सलाहकारों की वजह से गलत समय पर गलत बयान दिया है और गलत काम किए हैं। जब पूरा जनसैलाब दिल्ली में उमड़ रहा था तो उनको किसानों पर चली उनकी ही सरकार की गोली के घाव देखने पुणे भेज दिया गया। एक कांग्रेसी नेता ने तो यहां तक कहा कि उनके अपने ही सलाहकार उनकी नैया डुबाने पर तुले हैं। यह सलाहकार पूरे जन लोकपाल आंदोलन पर न केवल अन्ना और देश की जनता को बेवकूफ बना रहे हैं बल्कि राहुल को भी दुनिया की नजरों में बेवकूफ बना दिया है।

Saturday 27 August 2011

बुरे फंसे अमर सिंह और सुधीन्द्र कुलकर्णी



Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 27th August 2011
अनिल नरेन्द्र
दिल्ली पुलिस ने दिल्ली की एक अदालत में वोट के बदले नोट मामले में राज्यसभा सदस्य अमर सिंह और भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी के करीबी सुधीन्द्र कुलकर्णी समेत छह लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की है। इन पर 2008 में लोकसभा में विश्वासमत से पहले सांसदों को घूस देने का आपराधिक षड्यंत्र रचने का आरोप है। हैरानगी की बात यह है कि इस चार्जशीट में कांग्रेस के किसी भी नेता का नाम नहीं है। अमर सिंह के साथ सुधीन्द्र कुलकर्णी का नाम बतौर मास्टर माइंड शामिल है। आरोप पत्र के अनुसार कुलकर्णी को इस घोटाले का सरगना इसलिए करार दिया गया है क्योंकि वह सभी साजिशकर्ताओं के सम्पर्प में था। वह उस समय भी मौजूद था जब सांसदों को रिश्वत दी जा रही थी। आरोप पत्र में जिन दो सांसदों (भाजपा) का उल्लेख किया गया है, वे हैं फग्गन सिंह कुलस्ते और महाबीर सिंह भगोड़ा। अमर सिंह के पूर्व सहयोगी संजीव सक्सेना और भाजपा के कथित कार्यकर्ता सुहैल हिन्दुस्तानी के खिलाफ भी इस मामले में आरोप पत्र पेश किया गया है। दोनों अभी जेल में हैं। भाजपा सांसद अशोक अर्गल का नाम आरोप पत्र में नहीं है। लेकिन दिल्ली पुलिस ने कहा कि वह उन्हें अभियोगी बनाने के लिए जरूरी मंजूरी मिलने के बाद इस संबंध में पूरक आरोप पत्र पेश करेगी। माना जाता है कि पार्टी लाइन का उल्लंघन करने के लिए उन्हें रिश्वत दी गई थी। 80 पेज के आरोप पत्र को विशेष न्यायाधीश संगीता ढींगरा सहगल की अदालत में पेश किया गया। इसे अदालत के समक्ष संज्ञान में गुरुवार को लाया जाएगा। आरोप पत्र में कहा गया है कि राज्यसभा के सांसद अमर सिंह ने सक्सेना और अन्य के साथ मिलकर साजिश रची और तत्कालीन सांसदों को रिश्वत दी। कुलकर्णी ने विश्वास मत के दौरान सक्रिय भूमिका अदा की। इसमें आरोप लगाया गया है कि जांच के दौरान इस बात के पर्याप्त सबूत मिले हैं कि 22 जुलाई 2008 की सुबह सांसद अमर सिंह ने अपने सचिव संजीव सक्सेना के साथ एक करोड़ रुपये की रिश्वत पहुंचाने के लिए एक आपराधिक साजिश रची। आरोप पत्र में दावा किया गया है कि इस आपराधिक साजिश के तहत सक्सेना ने पीली कमीज वाले एक अन्य व्यक्ति के साथ सुबह के लगभग 11 बजे, चार फिरोजशाह मार्ग पर एक करोड़ नकद राशि भाजपा के तीन सांसदों अर्गल, कुलस्ते और भगोड़ा को सौंपी। चार्जशीट में दावा किया गया है कि इन सांसदों को नौ करोड़ का भुगतान होना था और अग्रिम राशि के रूप में उन्हें यह रकम दी गई थी। पुलिस ने अमर सिंह को भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 11 और आईपीसी की धारा 120 के तहत आरोपित किया है। चार्जशीट में कहा गया है कि कुलकर्णी ने जांच एजेंसी को अंधेरे में रखा जबकि उन्हें इस षड्यंत्र की पूरी जानकारी थी।

दिल्ली पुलिस ने अपनी जांच के दौरान 53 गवाहों से बातचीत की। इनमें सीएनएन-आईबीएन के पत्रकार भी शामिल हैं जिन्होंने इस मामले में वीडियो रिकार्डिंग की थी। हैरानगी की बात तो यह है कि दिल्ली पुलिस ने इस चार्जशीट में न तो किसी कांग्रेसी का नाम लिया और न ही समाजवादी पार्टी के किसी व्यक्ति का। अमर सिंह, कुलस्ते और भगोड़ा को सम्मन जारी करते हुए न्यायाधीश ने पुलिस से पूछा कि इन लोगों को दो अन्य लोगों के साथ पहले गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया। दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा की ओर से लोक अभियोजक ने अदालत से कहा कि चारों को गिरफ्तार नहीं किया गया, क्योंकि हिरासत में उनसे पूछताछ की जरूरत नहीं पड़ी। अमर सिंह, कुलकर्णी और भाजपा के दो पूर्व सांसदों को छह सितम्बर को अदालत में पेश होने का सम्मन जारी हो गया है। अगर अमर सिंह इस केस में गिरफ्तार हुए तो काफी लोगों का भांडा फूट सकता है। आखिर अमर सिंह ने अपनी मर्जी से तो यह कांड नहीं किया होगा। इसमें कांग्रेस के दिग्गज भी फंस सकते हैं। अमर सिंह ने अगर अपनी जुबान खोल दी तो कइयों की पोल खुल जाएगी। मनमोहन सिंह सरकार जो पहले से ही चारों तरफ से समस्याओं से घिरी है, के लिए सिरदर्दी बढ़ाने के लिए एक नई समस्या यह आ गई है। इस केस का कुछ रेलवेंस तो अन्ना की मांगों को लेकर भी है। संसद के बाहर के आचरण पर दिल्ली पुलिस ने कार्रवाई की है। इसका मतलब यह है कि यह सब सरकार की नीयत पर निर्भर करता है। कानून तो मौजूद है पर कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति होनी चाहिए। इसमें अमर सिंह और सुधीन्द्र कुलकर्णी को तो फंसा दिया है अब देखना है कि क्या कांग्रेसी खुद साफ बच निकलेंगे?


रणनीति के तहत फंसाया गया है विभिन्न लोकपालों को



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Published on 27th August 2011
अनिल नरेन्द्र
मनमोहन सरकार अपनी चालबाजियों से बाज नहीं आ रही। कहने को तो उसने अन्ना हजारे की यह शर्त मान ली है कि वह शुक्रवार को जन लोकपाल बिल को संसद में चर्चा के लिए रख देगी पर जो बात हमें लग रही है कि सरकार अकेले जन लोकपाल बिल पर चर्चा नहीं करेगी। उसने अरुणा राय द्वारा तैयार किया गया लोकपाल बिल व कुछ अन्य बिल भी साथ-साथ रखे जाएंगे। अन्ना तीन मुद्दों पर चर्चा करने पर विशेष जोर दे रहे हैं। अन्ना ने अपने अनशन के 10वें दिन रामलीला मैदान में अपने समर्थकों से कहा कि अगर जन लोकपाल के तीन मुद्दों पर सत्तापक्ष और विपक्ष में सहमति बन जाती है तो वह अपना अनशन खत्म कर देंगे। लेकिन शेष मुद्दों पर धरना जारी रखेंगे। अन्ना ने कहा कि अगर सरकार कल (शुक्रवार) संसद में चर्चा पर नहीं मानी तो वह अनशन जारी रखेंगे और मरते दम तक करते रहेंगे। अन्ना ने कहा कि वह जन लोकपाल के तीन मुद्दों पर यानि सरकारी दफ्तरों में सिटीजन चार्टर होने, राज्यों में लोकायुक्त के गठन और नीचे से लेकर ऊपर तक के सभी नौकरशाहों को लोकपाल के दायरे में लाने पर संसद में चर्चा चाहते हैं। अन्ना की यह मांग सरकार ने मान ली है और संसद में चर्चा कराने को तैयार हैं पर उसने यह नहीं कहा कि वह जन लोकपाल बिल को मान रही है। वह केवल संसद में चर्चा के लिए तैयार है। सरकार ने यह भी साफ किया कि बाकी के मसौदों पर भी चर्चा होगी। सरकार अन्ना हजारे को केडिट से वंचित रखने के लिए यह चाल चली है ताकि सरकार यह कहकर अपनी नाक ऊंची कर ले कि उसने सिर्प अन्ना को ही नहीं दूसरे सिविल सोसाइटी के लोगों को भी तरजीह दी है।

एक तरफ संसद में चर्चा होगी तो दूसरी तरफ दिल्ली पुलिस को जरूरत पड़ने पर अन्ना को जबरन उठाने की योजना भी बन चुकी है। अन्ना की बिगड़ती सेहत से चिंतित सरकार ने दिल्ली पुलिस को अन्ना को उठाने का आदेश दे दिया है। टीम अन्ना पर कार्रवाई करने के लिए पुलिस ने ग्राउंड तैयार कर लिया है। पुलिस ने एक रिपोर्ट तैयार की है जिसके अनुसार तीन शर्तों का रामलीला ग्राउंड में उल्लंघन किया गया है। जिन 22 शर्तों पर टीम अन्ना और पुलिस में सहमति बनी थी उनमें से तीन का टीम अन्ना ने पालन नहीं किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि रात 10 बजे के बाद लाउड स्पीकर का इस्तेमाल कई बार किया गया है। मंच से भड़काऊ भाषण दिए गए हैं। तीसरी शर्त के बारे में कहा गया है कि अन्ना का सरकारी डाक्टरों से चैकअप करने से मना करना है।
रमजान के महीने में बारिश और धूप की सख्ती झेलते हुए अन्ना हजारे के समर्थन में जनता लगातार रामलीला मैदान पहुंच रही है। भूखे-प्यासे होने के बावजूद 18 साल के असद रामलीला मैदान में दिनभर लोगों की प्यास बुझाता रहा। असद की तरह कई अन्य मुस्लिम युवा वर्ग भी लोगों की मदद में जुटे हैं। इन लोगों पर दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम की सलाह पर कोई खास असर नहीं दिखाई दिया। बुखारी ने एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक से बातचीत में कहा है कि अन्ना के आंदोलन में `भारत-माता की जय' और वन्दे मातरम् जैसे नारे लग रहे हैं। यह इस्लाम के खिलाफ हैं क्योंकि यह मजहब किसी देश या भूमि की इबादत की इजाजत नहीं देता। ऐसे में मुसलमानों को इस आंदोलन से दूर रहना चाहिए। इस बीच मुस्लिम महाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष अली अहमद ने कहा कि बुखारी को भूलना नहीं चाहिए कि देश की आजादी के लिए मुसलमानों ने भी कुर्बानियां दी हैं। वह शरीयत का हवाला देकर मुसलमानों को गुमराह नहीं कर सकते। एक मुसलमान का ईमान ही उसका सब कुछ होता है। मेवात के 14 लाख मुसलमान अन्ना के साथ हैं। इधर मौलाना कारिक ने कहा कि 15 अगस्त 1947 को जब हमारा देश आजाद हुआ था उस समय भी रमजान का महीना था। आज भी वही स्थिति है। अल्लाह ने चाहा तो बयानबाजी करने वाले मुंह की खाएंगे। दिल्ली की ऐतिहासिक फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मुफ्ती मुकर्रम अहमद ने बुखारी का नाम लिए बिना उनके बयान से असहमति जाहिर की है। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन पूरे देश का मामला है और मुसलमान भी इसी देश का हिस्सा हैं। ऐसे में मुसलमानों का इस आंदोलन में शामिल होना वाजिब है। देश की एक प्रमुख इस्लामी संस्था जमात-ए-इस्लामी हिन्द ने भी इस बात से असहमति जताई है कि आंदोलन में मुसलमानों को शामिल नहीं होना चाहिए। संस्था के सचिव मोहम्मद सलीम इंजीनियर ने कहा कि हम बुखारी साहब के बयान पर कुछ नहीं कहेंगे पर हम मुसलमानों से यह अपील नहीं कर सकते कि इस आंदोलन में वह शामिल न हों।

Friday 26 August 2011

सरकार ने लड़ाई का रुख बदल दिया, अन्ना बनाम संसद


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 26th August 2011
अनिल नरेन्द्र
बुधवार को टीम अन्ना की राजनीतिक दलों से सर्वदलीय बैठक किसी प्रकार की सहमति के बिना ही खत्म हो गई, इस पर हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। संकेत मिल रहे थे कि कोई भी राजनीतिक दल अन्ना के जन लोकपाल बिल को ज्यों का त्यों समर्थन नहीं कर सकता। कुछ मुद्दों पर सहमति थी कुछ पर बिल्कुल नहीं और कुछ पर हो सकती है। हां, एक बात पर तमाम विपक्ष में एका था। वह थी कि सरकारी लोकपाल बिल्कुल स्वीकार्य नहीं और उसे सरकार को वापस ले लेना चाहिए। भाजपा सहित कुछ दल चाहते थे कि सरकार अपने लोकपाल बिल को पूरी तरह से वापस ले और एक नया प्रस्तावित लोकपाल पेश करे जिसमें अन्ना के जन लोकपाल बिल के प्रमुख बिन्दुओं को शामिल किया जाए पर सरकार और उसके सहयोगी दल लोकपाल बिल वापस लेने पर तैयार नहीं हुए। बैठक में राजग एवं वामपंथी दलों के साथ वाले नौ दलों के मोर्चों ने तो एक बार फिर सीधे तौर पर सरकार के लोकपाल विधेयक को खारिज कर दिया। लेकिन खास बात यह रही कि किसी भी दल ने पूरी तरह से अन्ना हजारे के जन लोकपाल के पक्ष में राय नहीं दी। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की मांग थी कि सरकार अपने लोकपाल विधेयक को वापस लेकर नया प्रभावी विधेयक लेकर आए, जिसमें जन लोकपाल के प्रावधानों को ध्यान में रखा जाए। यह एक असामान्य परिस्थिति है, ऐसे में नियम व प्रक्रियाओं को नजरंदाज करके रास्ता निकाला जा सकता है। माकपा नेता सीताराम येचुरी ने भी मौजूदा लोकपाल बिल को व्यर्थ करार दिया। अजीत सिंह ने सरकार से मौजूदा विधेयक को वापस लेने की मांग रखी। सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने विधेयक के स्वरूप पर सवाल खड़े किए और अपनी तरफ से उसमें कई नए प्रावधान जोड़ने की मांग रखी। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने अन्ना हजारे के पुराने इतिहास की याद दिलाई, लेकिन उसे किसी ने ज्यादा तवज्जों नहीं दी। शिवसेना के मनोहर जोशी ने न केवल अन्ना हजारे की तारीफ की बल्कि अनशन तुड़वाने के प्रयास करने पर जोर दिया।
जहां तक बिन्दुओं पर सहमति का प्रश्न है तो बुधवार देर रात तक दोनों पक्षों में तनातनी रही। दिन में केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और टीम अन्ना के तीन मैम्बरों (केजरीवाल, प्रशांत भूषण और किरण बेदी) ने बातचीत की। सूत्रों के मुताबिक इसमें सात मसलों पर गतिरोध कायम रहा। इसके बाद प्रधानमंत्री निवास में सर्वदलीय बैठक में भी आम सहमति नहीं बन सकी। देर रात वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी और टीम अन्ना के तीन सदस्यों की बातचीत हुई, यह भी बेनतीजा रही। अब गुरुवार को भी दोनों पक्षों की बातचीत जारी रह सकती है। टीम अन्ना अब इस पर भी विचार कर रही है कि उसे भविष्य में अब सरकारी पक्ष से बातचीत करनी भी चाहिए या नहीं? अब जिन सात मसलों पर मतभेद कायम है वह हैं ः (1) लोकपाल की परिभाषा क्या हो? (2) प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाए? (3) हायर ज्यूडिशयरी को भी इसके दायरे में लाया जाए या नहीं? (4) क्या संसद के अन्दर सांसदों का आचरण और व्यवहार इसमें कवर होगा या नहीं? (5) पूरी ब्यूरोकेसी जिसमें लोअर ब्यूरोकेसी शामिल है, को लोकपाल के दायरे में होना चाहिए या नहीं? और (6) राज्यों में लोकायुक्तों के लिए कानून हो? अंतिम और सातवां मसला है कि लोकपाल की प्रक्रिया क्या हो? मैंने इसी कॉलम में दोनों पक्षों के इन मुद्दों पर स्टैंड पहले बता दिए हैं इसलिए उन्हें दोहराना नहीं चाहता। अब आगे क्या होगा? टीम अन्ना को खतरा है कि अन्ना की गिरती सेहत की आड़ लेकर सरकार किसी भी वक्त अपना दांव चल सकती है। इसके तहत अन्ना को रामलीला मैदान से हटाकर अस्पताल में भर्ती करवा सकती है। इस बात को इससे भी बल मिलता है कि बुधवार से रामलीला मैदान में पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ा दी गई है। अगर अन्ना को अस्पताल ले जाया जाता है तो यहां उनकी जान बचाने के नाम पर उन्हें ग्लूकोज चढ़ाया जा सकता है। बुधवार को चिदम्बरम के इस बयान पर गौर करें कि किसी भी व्यक्ति को अपनी जान देने की इजाजत नहीं दी जा सकती। लगता है कि अन्ना को भी सरकार के इरादे की भनक लग गई है। इसलिए अन्ना ने अपने समर्थकों को बुधवार को संबोधित करते हुए कहा कि अगर सरकार उन्हें उठाकर अस्पताल ले जाए तो वह लोग शांति बनाए रखें, तोड़फोड़ की कोई घटना न करें और इसी तरह शांतिप्रिय आंदोलन जारी रखें, जेल भरें। अगर गुरुवार को अन्ना का अनशन सहमति से नहीं टूटा तो सम्भव है कि जबरन अन्ना को अस्पताल ले जाया जाए। समय दोनों के पास ज्यादा नहीं। दिन-प्रतिदिन अन्ना की सेहत खराब होगी। बुधवार को मनमोहन सरकार की चाल कामयाब हो गई। अब यह लड़ाई अन्ना बनाम संसद होती जा रही है। अब जो भी आगे बातचीत हो उसमें सरकार को चाहिए कि प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं को भी बैठक में साथ बिठाएं ताकि सब का स्टैंड हर मुद्दे पर क्लीयर हो। अन्ना को भी यह तो समझना ही होगा कि उनकी लड़ाई संविधान के खिलाफ नहीं, व्यवस्था के खिलाफ है। ऐसे किसी प्वाइंट पर जोर नहीं देना चाहिए जो भारत के संविधान के खिलाफ जाता है। अगर ऐसा हुआ तो यह लड़ाई एक नया निहायत खतरनाक रूप धारण कर सकती है जो शायद खुद अन्ना नहीं चाहेंगे।

Thursday 25 August 2011

Another Arab Despot to Depart

Anil Narendra
The revolutionary storm that started from the Tahrir Square in Egypt, has reached Libya. Col Muammar Gaddafi,s days are numbered, who had been ruling over Libya for almost 42 years. Most of the capital Tripoli has been claimed over by the rebels. The opposition forces have captured Gaddafi’s son and his one time heir, Saif al-Islam. Saif along with his father is facing charges of human right violations at the International Criminal Court. NATO is continuing bombing operations over Tripoli and surrounding areas and has said that it would not stop its operation till the pro-Gaddafi forces surrender or return to their barracks. Gaddafi has gone underground. Some sources claim that he has fled to neighbouring Algeria, while others say that he might be hiding in a bunker. Amidst people rejoicing at Tripoli’s Green Square, the symbol of Gaddafi’s power, the international community has demanded that Gaddafi leave power. A number of world leaders including US President Barack Obama, said on Monday that Col Muammar Gaddafi has no place in the Libyan future. They said that this is the easiest way to end the prevalent violence. Col Gaddafi and his government must realize that they have come to a dead end. British Prime Minister, David Cameron has said that Gaddafi is fleeing. There is no possibility for him to stick to power.
There is not an iota of doubt that 42 year-old rule of Col Muammar Gaddafi is approaching its end. The rebels are saying that they would suspend their operations, only if Gaddafi declares to step down, while Gaddafi, prior to accepting rebels’ demands have been exhorting tribals to come to Tripoli to fight rebels, and threatening that otherwise he will join the French Army as a soldier. It is clear that power is slipping out of his hands. The rebellion against Gaddafi of Libya, following Tunisian revolution of last December and then the bloodless coup against Hosni Mubarak of Egypt, was unexpected. In fact the indication of this rebellion started surfacing in early February, but the time taken to its developing in a full blown rebellion, indicates Gaddafi had strong hold over the Libyan military establishment. Gaddafi, at the age of just 27 years came to power in Libya after dethroning King Indris in a coup in 1969. Those were the times when there were conflicts between the communism under the leadership of Soviet Russia and American capitalism. At that time, the young Gaddafi presented a new formula for rule through his green book, which he called Jamhuriya. But, jamhuriat (democracy) was never established in Libya, as the Libyan political parties were banned. The youngman, who had put forth a vision of democracy was soon got addicted to the luxuries. Not only this, there was time when Gaddafi started openly supporting the Islamic jihadis against US and other Western countries. Since then, Gaddafi has become thorn in the flesh of US and other Western countries. The support of these countries to the rebels is also one of the major reasons for rebels strengthening their hold in Libya. It is therefore that Obama has said that there is no place for Gaddafi in Libya. But, what will happen after Gaddafi? These are testing times for Libya. In case the present government goes down, will a new law and order structure be established or will anarchy prevail there? There is another question. Whether efforts will be made to establish a new government or revenge will be resorted to? What is the guarantee that Islamic extremists will not dominate the new government, as has been witnessed in other Arab countries? Even fear has been expressed that after Gaddafi’s ouster, the Libyan society would disintegrate. Coming months could be challenging for Libya.

एक और अरब तानाशाह की विदाई

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 25th August 2011
अनिल नरेन्द्र
मिस्र के ताहिर स्केवयर से शुरू हुई जन आंधी अब लीबिया तक पूरी तरह पहुंच चुकी है। तकरीबन 42 साल तक लीबिया में राज करने वाले कर्नल मुअम्मर गद्दाफी का अंत आ गया है। सोमवार को राजधानी त्रिपोली के अधिकांश हिस्से पर लीबिया विद्रोहियों का कब्जा हो गया है। विपक्षी लड़ाकों ने गद्दाफी के बेटे और एक तरफ उनके उत्तराधिकारी रहे सैफ अल इस्लाम को पकड़ लिया है। सैफ अपने पिता के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक अदालत में मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों का सामना कर रहा है। नाटो की त्रिपोली और आसपास के इलाकों में बमबारी जारी है और उसने कहा है कि जब तक गद्दाफी समर्थक सैनिक आत्मसमर्पण नहीं कर देते या अपने बैरेक में नहीं लौट जाते तब तक वह बमबारी जारी रखेंगे। गद्दाफी लापता है। कुछ का कहना है कि वह पड़ोसी देश अल्जीरिया भाग गए हैं या हो सकता है कि वह किसी बंकर में छिपे बैठे हों। गद्दाफी की सत्ता के पतीक त्रिपोली स्थित ग्रीन चौक में निवासियों की खुशी मनाने के बीच अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने लीबियाई नेता से मांग की है कि वे सत्ता छोड़ दें। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा सहित कई विश्व के नेताओं ने सोमवार को कहा कि लीबिया में भविष्य के रूप में कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के लिए कोई जगह नहीं है। उन्होंने कहा कि हिंसा के अंत का यह तरीका काफी आसान है। कर्नल गद्दाफी और उनके शासन को यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि उनकी सत्ता का अंत हो चुका है। ब्रिटिश पधानमंत्री डेविड कैमरन ने कहा कि गद्दाफी अब मैदान छोड़कर भाग रहे हैं। गद्दाफी के पास सत्ता में बने रहने की कोई सम्भावना नहीं है।
इसमें कोई संदेह अब नहीं लगता कि पिछले 42 सालों से लीबिया की सत्ता पर काबिज गद्दाफी का शासन अब ध्वस्त होने के कगार पर है। जहां विद्रोहियों का यह कहना है कि गद्दाफी सत्ता छोड़ने की घोषणा कर दें तो वे अपनी कार्रवाई रोक सकते हैं, वहीं गद्दाफी उनकी पेश स्वीकार करने के पहले रेडियो संदेश के जरिए काबलियाई लोगों से आग्रह कर रहे हैं कि वे त्रिपोली आकर विद्रोहियों से युद्ध करें, वरना वे फांसीसी सेना के सेवक बन जाएंगे। उनके इस कदम से स्पष्ट है कि अब वे समझ चुके हैं कि उनके दिन गिने-चुने रह गए हैं। पिछले वर्ष दिसंबर में ट्यूनीशिया की कांति और फिर मिस्र में हुस्नी मुबारक के रक्तहीन तख्ता पलट के बाद लीबिया के गद्दाफी के खिलाफ हुई बगावत अपत्याशित रही है। दरअसल उनके खिलाफ विद्रोह तो फरवरी में ही शुरू हो चुकी थी, जिसे अंजाम तक पहुंचने में इतना वक्त लगा है, तो इसके पीछे लीबिया के सैन्य तंत्र पर गद्दाफी की पकड़ का पता चलता है। महज 27 साल की उम्र में गद्दाफी ने 1969 में राजा इंदरीश को बेदखल कर लीबिया की सत्ता पर कब्जा किया था। यह वह दौर था, जब दुनिया में सोवियत रूस की अगुवाई में साम्यवाद और अमेरिका के पूंजीवाद के बीच द्वंद्व चल रहा था। तब युवा गद्दाफी ने अपनी ग्रीन बुके के जरिए शासन का नया सूत्र पेश किया था और इसे नाम दिया था जम्हारिया। मगर सही मायनों में लीबिया में जम्हूरियत कभी नहीं आई, क्योंकि वहां राजनीतिक दलों पर पतिबंध लगा दिया गया था। जिस युवा ने जम्हूरियत का सपना दिखायाथा, वह बाद में वर्षों तक अपनी विलासता में डूबता चला गया। यही नहीं एक समय तो ऐसा भी आया जब गद्दाफी ने अमेरिका, फांस, इत्यादि देशों पर इस्लामिक जेहादियों को सब तरह का खुला समर्थन दिया। तभी से गद्दाफी अमेरिका और पश्चिमी देशें की आखों में किरकिरी बना हुआ है। आज अगर लीबिया के विद्रोही हावी हो गए हैं तो इसके पश्चिमी देशों का उन्हें समर्थन भी एक कारण है। इसीलिए ओबामा ने गद्दाफी को कहा है कि अब लीबिया में उसका कोई स्थान नहीं। सवाल यह है कि गद्दाफी के बाद क्या होगा? लीबिया के लिए यह परीक्षा की घड़ी है। यदि वर्तमान शासन हट भी गया तो क्या एक नई कानून-व्यवस्था वहां लागू हो पाएगी या फिर अराजकता का माहौल होगा? सवाल यह भी है कि वहां एक नए सिरे से एक शासन खड़ा करने की कोशिश की जाएगी या बदला लेने पर जोर होगा? इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि नई व्यवस्था में इस्लामी कट्टरपंथी पूरी तरह से हावी हो जाएं जैसे अन्य अरब देशों में हुआ है। इतना ही नहीं यह डर भी मौजूद है कि कहीं कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के हटने के बाद कहीं लीबियाई समाज बिखर न जाए। आने वाले कुछ महीने लीबिया के लिए काफी चुनौतीपूर्ण साबित हो सकते हैं
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अन्ना के जन लोकपाल पर भाजपा का स्टैंड क्या है?

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 25th August 2011
अनिल नरेन्द्र
देर सवेर अन्ना के जन लोकपाल बिल पर संसद में बहस जरूर होगी। अन्ना की टीम यह समझ गई है कि विभिन्न राजनैतिक दलों का समर्थन उन्हें जरूर चाहिए। इसलिए टीम अन्ना ने अब विभिन्न पार्टियों के सांसदों पर दबाव बनाने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया है। जन लोकपाल विधेयक के समर्थन में हजारों लोगों ने सोमवार को दिल्ली सहित देश के अलग-अलग हिस्सों में सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों के घरों पर पदर्शन किया। पधानमंत्री मनमोहन सिंह, मानव विकास मंत्री कपिल सिब्बल, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, भाजपा वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी व राजनाथ सिंह सभी के खिलाफ पदर्शन हुए है। भारतीय जनता पार्टी संसद में पमुख विपक्षी पार्टी है। आज तक भाजपा ने यह नहीं बताया कि वह अन्ना के जन लोकपाल बिल के साथ है या नहीं? आए दिन यह कहने से अब काम नहीं चलेगा कि सरकारी लोकपाल बिल में यह कमियां हैं। आप जन लोकपाल बिल की बात करें। उसमें आपको क्या-क्या स्वीकार है, क्या-क्या नहीं? और जो नहीं है वह क्यों नहीं है? और उसमें आप क्या संशोधन चाहेंगे? सीधे सवालों का सीधा जवाब चाहिए। अन्ना समर्थकों ने वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को भी घेराव से नहीं बख्शा। सोमवार रात करीब दस बजे उनके आवास अन्ना समर्थक पहुंचे। श्री आडवाणी ने अपने आवास पर नारे लगा रहे अन्ना समर्थकों से कहा कि हम सरकार द्वारा पेश किए गए लोकपाल बिल से खुश नहीं हैं। यह बहुत ही कमजोर तरीका है। इसके दायरे मं पीएम नहीं आते। इस समय भ्रष्टाचार चरम पर है। इस सरकार के इस विधेयक के पक्ष में कतई समर्थन नहीं देंगे। उन्होंने निचली अदालतों को लोकपाल के दायरे में शामिल करने के मामले में कहा कि उनकी पार्टी इस पर विचार करने के लिए तैयार है। आडवाणी ने कहा कि हम केवल इतना चाहते हैं कि एक मजबूत और प्रभावी लोकपाल अस्तित्व में आए।
भाजपा के राज्यसभा के नेता विपक्ष अरुण जेटली ने एक साक्षात्कार में इन मुद्दों पर अपने विचार दिए। सवाल क्या आप सिविल सोसाइटी के जन लोकपाल बिल से सहमत हैं? क्या पधानमंत्री और न्यायपालिका लोकपाल की जांच के दायरे में आने चाहिए? जवाब देखिए.... लोकपाल की नियुक्ति में सरकारी दखल और प्रभाव न हो, नियुक्ति के लिए बकायदा एक सशक्त और वैधानिक तत्र हो। अच्छे और प्रभावी लोकपाल के लिए उसकी नियुक्ति निष्पक्ष तरीके से हो, यह पहली शर्त है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों को छोड़कर पधानमंत्री लोकपाल दायरे में हों। यह हम पहले ही कह चुके हैं। जहां तक सवाल है न्याय पालिका का तो उसके लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग होना चाहिए, जिसके जरिए न्यायिक भ्रष्टाचार पर नियंत्रण का तंत्र बने। हमने जो बातें कही हैं वह संस्थागत फेसगार्ड हैं। अन्ना के अनशन को कई दिन हो चुके हैं और भाजपा ने अभी तक जन लोकपाल बिल पर अपने पत्ते नहीं खोले? कहीं आप भी अनिर्णय की स्थिति में तो नहीं? जवाब कतई नहीं। लोकपाल के मसले पर जो पमुख बिंदु हैं भाजपा उन पर अपनी राय सामने रख चुकी है। सर्वदलीय बैठक के बाद हमारे वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और अध्यक्ष नितिन गडकरी ने इस बारे में खुलकर राय रखी थी।
भाजपा के दो सांसदों ने खुलकर जन लोकपाल बिल का समर्थन किया है। एक हैं वरुण गांधी और दूसरे हैं राम जेठमलानी। वरुण ने कहा है कि वह अन्ना का बिल बतौर प्राइवेट बिल लोकसभा में पेश करेंगे। राज्यसभा में भाजपा सांसद राम जेठमलानी ने भी टीम अन्ना के बिल का समर्थन किया है। उनका कहना था कि अन्ना के बिल को पूरी तरह नजरअन्दाज करना राजनीतिज्ञों के लिए अब मुमकिन नहीं है। जेठमलानी जन लोकपाल के दो प्रमुख पावधानों से पूरी तरह सहमत हैं। इनमें पधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाना और न्यायपालिका को शामिल करना प्रमुख है। उल्लेखनीय है कि पीएम को लोकपाल में लाने की मांग तो भाजपा भी कर रही है लेकिन जजों के लिए वह अलग संस्था बनाए जाने की हिमायती है। मगर जेठमलानी का मानना है कि संविधान को पूरी तरह लागू करना और जजों की नियुक्ति जैसे मुद्दों पर शिकायतें दूर करने का सबसे कारगर तरीका यही है कि उन्हें भी लोकपाल के दायरे में ही रखा जाए। समय आ गया है कि टीम अन्ना और जनता चाहती है कि भाजपा हर बिंदु पर अपना स्टैंड स्पष्ट करे, संसद के बाहर या संसद में।
Anil Narendra, Anna Hazare, BJP, Daily Pratap, Lokpal Bill, Vir Arjun

Wednesday 24 August 2011

इन प्रमुख मतभेद के मुद्दों पर हल निकालना होगा, जल्द


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 24th August 2011
अनिल नरेन्द्र
कल मैंने पाठकों को बताया था कि जन लोकपाल बिल में क्या हैं प्रमुख बिन्दु। आज हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि सरकार और टीम अन्ना के किन-किन मुद्दों पर मतभेद हैं जिन्हें अविलंब दूर करना होगा, इस गतिरोध को हर हालत में तोड़ना होगा। सबसे बड़ा मतभेद प्रधानमंत्री को इस लोकपाल बिल में लेने पर है। सरकारी लोकपाल बिल में प्रधानमंत्री को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। जब वह पद छोड़ेंगे, तब भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच लोकपाल कर सकता है। अन्ना की टीम इसके लिए तैयार नहीं। वह कहती है कि प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के दायरे में आना चाहिए। इस पर प्रधानमंत्री को पहल करनी होगी। डॉ. मनमोहन सिंह ने खुद कई बार यह कहा है कि प्रधानमंत्री को इसके दायरे में होना चाहिए। 29 सितम्बर 2004 को देहरादून में अखिल भारतीय लोकायुक्त और उपलोकायुक्त सम्मेलन में हिस्सा लेते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, `इस बात पर व्यापक तौर पर सहमति है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर जनता के चुने लोगों को लोकपाल के दायरे में लाया जाए। इसमें सांसद, मंत्री और खुद प्रधानमंत्री का पद भी शामिल हो।' प्रधानमंत्री का कहना था कि लोकपाल की जरूरत अब पहले से कहीं अधिक हो गई है इसलिए बिना समय गंवाए इस दिशा में काम करने की आवश्यकता है। मनमोहन सिंह ने आगे कहा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन या यूपीए सरकार के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में लोकपाल विधेयक लाने पर सहमति व्यक्त की गई है और यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ये बात आमतौर पर स्वीकार की जाती है कि भ्रष्टाचार की एक प्रमुख वजह सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता की कमी है। डॉ. मनमोहन सिंह को अब अपने मंत्रियों की परवाह नहीं करनी कि वह क्या चाहते हैं, उन्हें जनता क्या चाहती है इसकी ज्यादा परवाह करनी चाहिए और स्वयं से घोषणा कर देनी चाहिए कि लोकपाल के दायरे में पीएम, मंत्री और सांसद सभी आएंगे। दूसरा बड़ा मतभेद जुडिश्यरी को लेकर है। सरकार का स्टैंड है कि जुडिश्यरी में सुधार के लिए हम अलग से कानून ला रहे हैं, इसलिए न्यायपालिका को इस जन लोकपाल बिल में शामिल नहीं करना चाहिए। हालांकि आप चाहते हैं कि न्यायपालिका भी इसमें शामिल हो पर मेरी राय में अन्ना को इस जिद को छोड़ देना चाहिए और जुडिश्यरी के लिए प्रस्तावित सुधार कानून का समर्थन कर देना चाहिए। एक मतभेद सीबीआई और सीवीसी किसके अधीन हो इसको लेकर है। टीम अन्ना चाहती है कि सीबीआई हर हालत में लोकपाल के अधीन हो, सरकार इसके लिए तैयार नहीं। यह एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसमें कोई ऐसा बीच का रास्ता निकल सकता है कि सीबीआई और सीवीसी स्वतंत्र हों और सरकार के आधीन न हों। सरकार उसके कामकाज में दखलंदाजी न कर सके। एक मुद्दा है संसद के भीतर सांसदों का आचरण। जन लोकपाल में सांसदों का संसद के भीतर का आचरण भी दायरे में आएगा जबकि सरकार ने कहा है कि संसद में सांसदों का बर्ताव लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं आएगा। अलबत्ता संसद से बाहर के कामों पर लोकपाल जांच कर सकता है। मैं समझता हूं कि इस पर टीम अन्ना को सरकार की बात मान लेनी चाहिए। भारत का संविधान भी सांसदों को संसद के अन्दर जो कुछ होता है उससे प्रोटेक्ट करता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी यह माना है, इसलिए इस पर अन्ना को समझौता कर लेना चाहिए। एक बड़ा मतभेद है ब्यूरोकेसी को लेकर। सरकार चाहती है कि ग्रुप ए से नीचे की ब्यूरोकेसी जांच के दायरे से बाहर हो। उसके लिए अलग सिस्टम होगा। ऊपर के अधिकारियों की जांच लोकपाल कर सकता है। जन लोकपाल में पूरी ब्यूरोकेसी कवर है, चाहे वह केंद्र की हो या राज्यों की। उपसचिव और उससे ऊपर के स्तर के अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों की जांच का अधिकार जन लोकपाल के दायरे में है। इसमें सरकार को नरम होना पड़ेगा। अधिकतर जनता लोअर ब्यूरोकेसी से ही परेशान है। भ्रष्ट अफसरों को दंड देने का प्रावधान शामिल किया जा सकता है। लोकपाल भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ विशेष अदालत में मुकदमा चला सकेगा। साथ ही सरकार को अनुशासनात्मक कार्यवाही की सिफारिश करने का भी अधिकार होना चाहिए। जांच के बाद सरकार जरूरत पड़ने पर कर्मचारी को बर्खास्त कर सकेगी। यदि कार्यवाही नहीं की गई तो लोकपाल को उसका कारण बताना होगा। जांच के दौरान कर्मचारी को लोकपाल की सिफारिश पर कर्मचारी का ट्रांसफर या निलम्बन के अधिकार पर सरकार को कोई एतराज नहीं होना चाहिए। यदि विशेष अदालत में कर्मचारी आरोपी पाया जाता है तो कानून अपना काम करेगा। केंद्र में लोकपाल की तर्ज पर लोकायुक्त कानून के लिए राज्यों को मॉडल के रूप में इस विधेयक को भेजा जा सकता है। टीम अन्ना को यह पोजीशन स्वीकार्य होनी चाहिए क्योंकि संविधान राज्यों को कई अधिकार देता है और केंद्र अपने सारे कानून राज्यों पर नहीं थोप सकता। सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों को संरक्षण देने वालों के लिए अलग से विधेयक पेश किया है। बिल में अलग प्रावधान की जरूरत नहीं। शिकायत के झूठी या फर्जी निकलने पर सजा को कम करने पर विचार किया जा सकता है। लोकपाल बिल के मसौदे में स्वतंत्र जांच इकाई की व्यवस्था की गई है। तब तक सीबीआई एवं अन्य संबंधित एजेंसियों से अधिकारियों की सेवाएं ली जा सकती हैं। इस पर सहमति बनाने का प्रयास होना चाहिए कि एक निश्चित समय अवधि में (छह महीने) में सरकार एक स्वतंत्र जांच एजेंसी की स्थापना कर देगी जिसके अधीन सीबीआई, सीवीसी आ सकती है। एक बड़ा मतभेद लोकपाल में कौन-कौन होगा, इस पर भी है। जन लोकपाल बिल में इसके लिए एक-दो चरण प्रक्रिया है। एक खोज समिति संभावित उन दस सदस्यों का चयन करेगा। इनमें से पांच भारत के मुख्य न्यायाधीश, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, नियंत्रक महालेखा परीक्षक, नेता विपक्ष और पांच सदस्य सिविल सोसाइटी से चुनेंगे। सरकारी विधेयक में एक सरल प्रक्रिया है। सिलैक्शन कमेटी में प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष (दोनों सदनों के) एक सुप्रीम कोर्ट के जज, हाई कोर्ट का एक जज, एक प्रतिष्ठित ज्यूरिस्ट और समाज का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति। यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर विचार किया जाना जरूरी है। इसके लिए दोनों पक्ष तीन महीने का समय ले सकते हैं ताकि यह प्रक्रिया तय हो सके।
बाकी मुद्दे तो और भी हैं पर मैंने अपनी समझ से प्रमुख मुद्दों को यहां लिया है। मैं कोई विशेषज्ञ नहीं। हो सकता है कि मैं पूरी तरह से सही न हूं पर मेरा प्रयास यह है कि समझौता होना चाहिए और वह भी जल्द। इसके लिए बीच का कोई रास्ता निकालना होगा। दोनों पक्षों को अपना स्टैंड नरम करना होगा। यह गतिरोध अब ज्यादा दिन नहीं चल सकता। हर गुजरता दिन न तो देश के लिए अच्छा है, न टीम अन्ना के लिए और न ही सरकार के लिए।

कहां छिपे बैठे हैं राहुल गांधी?


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 24th August 2011
अनिल नरेन्द्र
इसमें कोई संदेह नहीं कि अन्ना हजारे एक बहुत साहसी, दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति हैं। जो ठान लेते हैं वह करके ही हटते हैं। उनके उपवास को आठ दिन हो गए हैं। अन्ना के वजन में पांच किलो की गिरावट आ चुकी है। लेकिन मनोबल कायम है। अन्ना ने बताया कि 2007 में उन्होंने पुणे में नजदीक संत ज्ञानेश्वर की समाधि के पास 12 दिन तक अनशन कर आरटीआई के खात्मे की सरकार की कोशिश को नाकाम किया था पर यह चार साल पहले की बात है। उम्र का भी तकाजा है। अन्ना की सेहत की अब सभी को चिन्ता शुरू हो गई है। वक्त अब न तो अन्ना की टीम के पास ज्यादा है और सरकार के पास तो बिल्कुल नहीं। अगर अन्ना की सेहत बिगड़ गई तो अनर्थ हो सकता है जिसे इस सरकार के लिए संभालना मुश्किल पड़ जाएगा। मुझे समझ यह नहीं आ रहा कि अन्ना और सरकार के बीच आए इस सेटलमेंट को आखिर कोई तोड़ने की कोशिश क्यों नहीं कर रहा? अपुष्ट सूत्रों का कहना है कि आध्यात्मिक गुरु भय्यू जी महाराज और महाराष्ट्र सरकार के अतिरिक्त सचिव उमेश सारंगी ने रामलीला मैदान पहुंचकर अन्ना से बातचीत की। भय्यू जी महाराष्ट्र के प्रमुख राजनेताओं के आध्यात्मिक गुरु हैं। यह भी कहा जा रहा है कि चूंकि अन्ना मूल रूप से महाराष्ट्र के हैं इसलिए संभव है कि महाराष्ट्र के कांग्रेसी दिग्गज शरद पवार, सुशील कुमार शिंदे और विलास राव देशमुख भी सरकार की तरफ से अन्ना को मनाने का प्रयास करेंगे पर मेरी राय में सबसे बेहतर व्यक्ति थे कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी। राहुल गांधी के पास सुनहरा मौका था पर वह चूक गए। यह बहुत दुःख की बात है कि अन्ना के आंदोलन पर राहुल गांधी ने चुप्पी साध रखी है। अगर राहुल गांधी अन्ना हजारे के आंदोलन को लेकर किसी निर्णायक मध्यस्थता की भूमिका में सामने नहीं आए और यूं ही मुंह चुराते रहे तो बिना हिचक कहा जा सकता है कि हाल के दिनों में उनकी तमाम सियासी कवायद भविष्य में से नतीजों के मामले में शून्य साबित हो सकती है। जिन्हें जरा भी सियासी समझ है, वे जानते हैं कि इस समय देश किस तरह अन्ना के आंदोलन से बहसतलब हो गया है और बेजुबान लोगों को भी सैकड़ों सवाल पूछने हैं। ऐसे में राहुल गांधी जो खुद हाल के दिनों में जनवादी किस्म की राजनीति करते हुए दिखे हैं, जो हाल के महीनों में उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक के किसानों के हितैषी, शुभचिंतक और अगुवा बनकर सामने आए हैं, वह इस पूरे आंदोलन में अगर तटस्थ बनकर रहने की कोशिश करते हैं तो देश की जनता उनकी तटस्थता को शायद ही स्वीकार करे। जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी इतिहास राहुल गांधी को बहुत अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि अगर उन्हें 2014 के बाद प्रधानमंत्री बनने की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को अमली जामा पहनना है तो उन्हें देश के ज्वलंत मुद्दों पर सामने आना ही होगा। देश को उनके स्टैंड का पता होना ही चाहिए, क्योंकि जो व्यक्ति देश का शुभचिंतक बनने की कोशिश कर रहा हो, जो मौजूदा दौर में किसानों और आम लोगों का सबसे बड़ा हितैषी बनकर सामने आ रहा हो वह देश के ऐसे आंदोलन की भला अनदेखी कैसे कर सकता है जो आम लोगों के वर्तमान और भविष्य दोनों को तय करता हो। अगर उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव में पूरे आत्मविश्वास के साथ राहुल गांधी को उतरना है तो उन्हें अन्ना के आंदोलन में अपना पक्ष स्पष्ट करना चाहिए और अविलंब बीच में कूदना चाहिए। उन्हें पूरी कोशिश करनी होगी कि वह इस सेटलमेंट को तोड़ें और देश को बचाएं। उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह जनता के साथ हैं, वह हठधर्मी नेताओं के साथ नहीं।

Tuesday 23 August 2011

आखिर किस जन लोकपाल बिल के लिए जनता सड़कों पर आई है


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 23rd August 2011
अनिल नरेन्द्र
अन्ना हजारे को आमरण अनशन पर बैठे सात दिन हो गए हैं। अभी तक उनकी तबीयत ठीक है पर जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है वह एक जोखिमभरा समय में जा रहे हैं। हालांकि अन्ना ने एक बार पहले 18 दिन का उपवास किया था पर अब वह 74 साल के हो गए हैं और उनकी सेहत को दिन प्रतिदिन अब खतरा बढ़ेगा। इसलिए उनकी मांगों का हल जल्दी निकलना चाहिए। आने वाले
3-4 दिन महत्वपूर्ण हो सकते हैं। अगर अन्ना को कुछ हो गया तो स्थिति काबू से बाहर हो सकती है। उस सूरत में कुछ भी हो सकता है। इसलिए सरकार के पास अब ज्यादा समय नहीं है। उसे बहुत जल्द हल निकालना होगा। सरकार को दरअसल समझ नहीं आ रहा कि वह करे तो क्या करे। एक तरफ नौवीं पास अन्ना हजारे। दूसरी तरफ सरकार के हार्वर्ड पास या हाई-फाई शिक्षा प्राप्त, दुनिया देखी मंत्रियों की फौज। मगर अन्ना के सीधे-सीधे जज्बात हार्वर्ड पास कपिल सिब्बल और पी. चिदम्बरम जैसे चतुर, आईक्यू रखने वालों की भीड़ को समझ नहीं आ रहा कि अन्ना का क्या करें? पूरा सरकारी तंत्र तर्कों की मिसाइल दाग-दाग कर हल्कान है, लेकिन 74 वर्षीय बुजुर्ग के दिल को सीधे छूने वाले, सच्चे जज्बातों पर असर भी नहीं आता। आखिर ऐसा क्या है कि एक कम पढ़े-लिखे और गंवई पृष्ठभूमि के बुजुर्ग की बात न सिर्प रेहड़ी वालों और मध्य वर्गों को समझ आती है बल्कि उनकी एक अपील पर इंजीनियरिंग, प्रबंधन या डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे कॉलेज के छात्र अन्ना के समर्थन में सड़कों पर उतर आते हैं। चिदम्बरम, सिब्बल और सलमान खुर्शीद सरीखे हार्वर्ड मार्का अभिजात्य मंत्री और कांग्रेस के `हाइली क्वालीफाइड' प्रवक्ताओं और नेताओं की फौज के तमाम तर्कों को यह बुजुर्ग एक लाइन में उड़ा देता है। सरकारी तर्कों और तमाम किलेबंदी को एक झटके में यह कहकर अन्ना उड़ा देते हैं कि जनतंत्र में संसद नहीं, जनता सर्वोच्च है। वहां बैठे हुए लोग चुनकर नहीं आए बल्कि हमने उनको चुनकर भेजा है।
शनिवार शाम मैं अपने कुछ साथियों के साथ रामलीला मैदान गया था। वहां का नजारा देखने लायक था। टीवी पर देखने और वहां मौजूद होने में फर्प पड़ता है। वैसे भी हर देशवासी का फर्ज है और खासतौर पर दिल्ली में रहने वालों का कि वह एक बार तो जरूर रामलीला मैदान जाएं या किसी अन्य तरीके से अन्ना का समर्थन करें। जब हम अन्दर घुसे ही थे तो सामने से एक विदेशी आ रहा था, साथ उसके एक वृद्ध महिला थी। मैंने उन्हें रोक लिया और पूछा कि आप यहां कैसे? कहां के हैं आप? उसने जवाब दिया कि मैं जर्मनी से हूं और हम (मैं और मेरी मां) यहां अन्ना हजारे का समर्थन करने आए हैं। जिधर भी नजर घुमाओ `मैं अन्ना हूं' की गांधी टोपियां नजर आ रही थीं। मेरा ख्याल है कि जितनी गांधी टोपियां अन्ना के आंदोलन में दिखीं उतनी तो शायद गांधी जी के सत्याग्रह में भी नहीं देखी गई होंगी। एक नौजवान लड़की से मैंने पूछा कि आप अन्ना को क्यों सपोर्ट कर रही हैं? उसका जवाब था कि वह (अन्ना की तरफ इशारा करते हुए) 74 वर्ष के हैं। आखिर वह लड़ाई किसकी लड़ रहे हैं? एक युवक हमें ऐसा मिला जिसने अपने सारे बाल कटवा लिए थे। बस बालों से सिर्प अन्ना लिखा हुआ था सिर पर। एक आदमी पोलियो का मरीज था जो कृत्रिम के सहारे अन्ना के समर्थन में नारे लगा रहा था। एक महिला अपने छोटे से बच्चे को साथ लाई थी, उसके हाथ में एक छोटा-सा तिरंगा था। मैंने एक युवक से पूछा कि क्या आपको जन लोकपाल के बारे में पूरी जानकारी है? उसने कहा कि मैं इतना जानता हूं कि अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं और मैं इसीलिए उन्हें समर्थन दे रहा हूं। मुझसे कई पाठकों ने पूछा है कि आखिर अन्ना का लोकपाल बिल है क्या? मैं सभी पाठकों की जानकारी के लिए टीम अन्ना द्वारा तैयार किया गया जन लोकपाल की धाराओं, बिन्दुओं को बता रहा हूं।
सबसे पहले कौन चुनेगा लोकपाल। लोकपाल का चुनाव प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष, सुप्रीम कोर्ट के सबसे कम उम्र के दो जज, सबसे कम उम्र के हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस, भारत के नियंत्रण महालेखा परीक्षक और मुख्य चुनाव आयुक्त करेंगे। लोकपाल बिल की प्रमुख धाराएं ये हैं ः इसके तहत केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा। यह संस्था चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी। किसी भी मुकदमे की जांच एक साल के भीतर पूरी होगी और ट्रायल अगले एक साल में पूरा होगा यानि किसी भी भ्रष्ट नेता, अधिकारी या जज को दो साल के भीतर जेल भेजा जा सकता है। भ्रष्टाचार की वजह से सरकार को जो नुकसान हुआ है, अपराध साबित होने पर उसे दोषी से ही वसूला जाएगा। अगर किसी नागरिक का काम समय में नहीं होता तो लोकपाल दोषी अफसर को जुर्माना लगाएगा, जो शिकायत करने वाले को मुआवजे के तौर पर मिलेगा। लोकपाल के सदस्यों का चयन जज, नागरिक और संवैधानिक संस्थाएं मिलकर करेंगी। लोकपाल को चुनने की प्रक्रिया में सरकार का कोई हाथ नहीं होगा। लोकपाल या लोकायुक्तों का काम पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच दो महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा। सीवीसी, विजिलेंस विभाग और सीबीआई के एंटी करप्शन विभाग को लोकपाल में ही मिला दिया जाएगा। लोकपाल के पास किसी भी भ्रष्ट जज, नेता या अफसर के खिलाफ जांच करने और मुकदमा चलाने के लिए पूरी पॉवर और सिस्टम होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की सभी तरह से सुरक्षा की जिम्मेदारी लोकपाल की ही होगी। अगर आपका राशन कार्ड, वोटर आईडी, पासपोर्ट, आदि तय समयसीमा के भीतर नहीं बनता है या पुलिस आपकी शिकायत दर्ज नहीं करती तो आप इसकी शिकायत लोकपाल से कर सकते हैं। उसे यह काम एक महीने के भीतर करना होगा। आप किसी भी तरह के भ्रष्टाचार की शिकायत लोकपाल से कर सकते हैं, जैसे राशन की काला बाजारी, सड़क बनाने में क्वालिटी की अनदेखी, पंचायत निधि का दुरुपयोग इत्यादि।
अन्त में एक दिलचस्प रिपोर्ट। दिल्ली पुलिस का दावा है कि अन्ना का असर क्रिमिनल बिरादरी पर भी हुआ है। विश्वास करें कि जब से अन्ना का आंदोलन शुरू हुआ है दिल्ली के क्राइम रेट में गिरावट आई है। दिल्ली पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक सप्ताह में दिल्ली के क्राइम रेट में 35 फीसदी की कमी आई है, जिस शहर में औसतन कम से कम सात गंभीर किस्म के अपराध होते हैं वहां एक भी बलात्कार, हत्या की घटना नहीं हुई है। है न कमाल?

Sunday 21 August 2011

Mishandling by Manmohan government led to this explosive situation

- Anil Narendra 
The scene outside Tihar Jail reminds me that of Tahrir Square of Cairo. Anna is inside the jail and public is outside. Jail Road of Delhi has been transformed into August Kranti Chowk. Thousands of people have been thronging the Jail for hours. This was the scene on the Wednesday and on Thursday too, till the time of writing of this article, emotions were running high. The way, this government has mishandled Anna movement, should be condemned. There are all types of administrative failures in dealing with the situation. The events of last two-three days indicate that not only the intelligence assessment has failed miserably, but UPA government's lack of will power has also come to the fore and there is utter confusion, law is being ridiculed and police has been disgraced and morale is at its lowest. In other words, it was an example of total mishandling. The government is not clear in its thinking. It has been changing its stance of and on. There appears to be complete intelligence failure. The government has failed to assess the likely impact of Anna's arrest in Delhi and the entire country. This is the situation, while the government had already witnessed the overwhelming response to Anna's protest fast at Jantar Mantar earlier in the month of April. Four ministers are sent to the airport to talk to Baba Ramdev and then the police is asked to take action, they talk to Anna Hazare and then after accusing him of corruption there is indiscriminate action against him, people are antagonized, protest fast is banned, then Anna is arrested, he is sent to Tihar and on the same evening they decide to release him, but they fail in persuading Anna to step out of jail. After all, what is happening? Police and law have, perhaps never been put to such a shame in Delhi. We claim to be a welfare state, where public desire is considered supreme, but who is to make assumption of the public mood and accordingly prepare police bandobast and invoke relevant laws to deal with the situation? Why such assessment and required preparations were not made, so that law and police could have avoided such an embarrassment? This mishandling by the government has led public to take to streets. Public in Cairo also took to street in the same way. It may not be out of place to say that the Anna movement has brought a new dawn in the history of Indian democracy. The way a person from Ralegan Siddhi becomes the voice of the country against corruption like Jai Prakash Narain and the way people all over the country took to street, have astonished us. Such public resentment, sometimes changes both the system and the geography of the countries. During last few days, the world has witnessed a number of revolutions and the youth power and its thinking have been at the centre of these revolutions. When political and social issues get associated with such thinking, it gets sharper. Today, the country is suffering most with corruption, loot and inflation and the social order of the Indian society and democracy, has made the common man loose faith in the government and the democracy and this is very dangerous trend. Governments, particularly this government have never cared for the common man. People are fed up with inflation, unemployment, corruption and loot. In fact, in the democracy, where the Indian Constitution guarantees equal right to all, the most suffering and distressed last person has started feeling out of place in this system. It is quite clear from the way the Manmohan government is dealing with Anna's movement that the Congress is once again repeating its 37 year-old act. At that time, the efforts were made to curb the JP movement in the same manner. But, then there were heavy-weight socialist youth leaders like Mohan Dharia, Chandrashekhar, Ramdhan, Krishan Kant. One of them, Chandra Shekhar took courage to advise Indira Gandhi. Calling JP a saint, he advised her to avoid confrontation with him. Those who confront saints, are doomed to parish. History is witness that the Congress and Indira Gandhi had to pay a heavy price for their confrontation with JP. It suffered a massive defeat in 1977 general elections. There appears to be no leader of stature at present, who could advise the Manmohan government that the path it has taken, will lead it to destruction. Not only the government, others can also be adversely affected. But, for one thing, Manmohan government deserve our thanks. Its follies have, at least united the country and people have taken to streets in honour of the national flag. We have warned the government a number of times through this column, let the situation not slip out hand, lest it may have to face downfall.

सोनिया की कमी को दूर करने के लिए राहुल की ताजपोशी


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 21 August 2011
अनिल नरेन्द्र
ब्रिटेन के प्रमुख साप्ताहिक पत्र `इकानामिस्ट' ने कहा है कि राहुल गांधी की पीएम के तौर पर ताजपोशी और जल्दी हो सकती है। इसके मुताबिक सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार को हिलाकर रख दिया है। ऐसे में अब यह संभावना है कि कांग्रेस महासचिव को जल्द ही यह पद सौंपा जाए। अन्ना हजारे के आंदोलन के बारे में अखबार ने यह भी कहा है कि सोनिया गांधी की बीमारी के कारण सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की मुश्किलें बढ़ गई हैं। इस बारे में संदेह बना हुआ है कि सोनिया गांधी कब तक स्वदेश लौटेंगीं। अपना भी यही मानना है कि कांग्रेस बिखर रही है। जन लोकपाल संग्राम की चौतरफा मुसीबतों में घिरी यूपीए सरकार को ही नहीं बल्कि कांग्रेस को भी इस नाजुक राजनीतिक संकट में सोनिया गांधी की कमी खल रही है। अन्ना के सत्याग्रह के सामने सत्ता के हर दांव-पेंच नाकाम होने के बाद सरकार के नेतृत्व की रणनीतियों को लेकर पार्टी के अन्दर ही भरोसे के संकट के सवाल उठने लगे हैं। अन्ना के मसले पर केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी की रणनीति लगातार बिखर रही है। सरकार को यह नहीं मालूम कि आगे क्या करना है तो पार्टी को नहीं पता क्या बोलना है? पिछले एक सप्ताह में पार्टी का आधिकारिक चेहरा बनकर लोगों के सामने पार्टी की दलील पेश करने आए प्रवक्ताओं ने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेहद महत्वपूर्ण बन चुके अन्ना प्रकरण पर जिस हल्के अंदाज में पक्ष रखा है वह चौंकाने वाला है। पहले मनीष तिवारी का अन्ना को भ्रष्ट कहना। उसके बाद बुधवार को राशिद अल्वा का आरोप कि अन्ना के आंदोलन में अमेरिका की शह है। फिर गुरुवार को पार्टी की नई प्रवक्ता बनीं रेणुका चौधरी की चुप्पी पर यह बयान कि वे तोता नहीं हैं कि जब मीडिया चाहे वे बोलें। रेणुका ने कहा कि राहुल को भी अभिव्यक्ति की आजादी है, जब वे चाहेंगे तो बोलेंगे। रणनीतिक रूप से कई मसलों पर पार्टी की दिशा साफ नहीं हो पा रही है। केंद्र सरकार के मंत्री आपस में बंटे हुए हैं। अन्ना के मसले पर गृहमंत्री पी. चिदम्बरम और केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल की राह भले ही एक जैसी हो, लेकिन कई केंद्रीय मंत्रियों का मानना है कि स्थिति से ठीक से निपटा नहीं जा रहा है। सरकार चाहती है कि अन्ना टीम से बात हो लेकिन बाबा रामदेव मसले पर कड़वे अनुभव के बाद खुद सरकार की ओर से पहल करने से गुरेज किया जा रहा है। हालांकि स्वामी अग्निवेश के जरिये परदे के पीछे से अन्ना को साधने का काम सलमान खुर्शीद सहित कुछ मंत्री अनौपचारिक रूप से कर रहे हैं। केंद्र सरकार के सूत्रों ने कहा कि अन्ना के रामलीला मैदान में अनशन शुरू होने के बाद सरकार क्या करेगी, इसे लेकर ऊहापोह कम नहीं है। संभावित विकल्पों में स्वास्थ्य के बहाने अन्ना का अनशन तुड़वाने की रणनीति भी रखी गई है। भारी भीड़ अनशन स्थल पर न जुटे इसके लिए टीम अन्ना को आगाह किया गया है। लेकिन इसके बावजूद अन्ना का अड़ियल रवैया सरकार के लिए आश्वस्त करने वाला नहीं है। सरकार और कांग्रेस अरविन्द केजरीवाल को भी समझौते की राह में सबसे बड़ा रोड़ा मानती हैं।
अन्ना की चुनौती से निपटने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पार्टी महासचिव राहुल गांधी के बीच जारी संवाद के बावजूद यह सवाल उठने लगा कि आगे क्या करेंगे। यूपीए की आगे की राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना बेहद मुश्किल लग रहा है। शायद इन सियासी मुश्किलों के दबाव का ही असर है कि मनमोहन सिंह और राहुल गांधी के पूरी तरह कमान थामने के बाद भी कांग्रेस ने इस मौके पर सोनिया गांधी की कमी अखरने की बात बेबाकी से कबूल कर ली है। रेणुका चौधरी ने बृहस्पतिवार को अंदरुनी कांग्रेस में हो रहे चीरफाड़ को भी स्वीकार किया। मुसीबतों में घिरी कांग्रेस और सरकार की फिल्म फ्लॉप की वजह क्या सोनिया गांधी हैं, के सवाल पर जवाब था निसंदेह हमें कांग्रेस अध्यक्ष की कमी खल रही है। हम उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना करते हैं और उनके जल्द लौटने तक हम अपनी तरफ से सर्वश्रेष्ठ करने की कोशिश करेंगे। इन सब बातों से तो यही लगता है कि राहुल गांधी की ताजपोशी जल्द होने वाली है।

भारत ही नहीं सारी दुनिया में अन्ना का डंका बज रहा है


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 21 August 2011
अनिल नरेन्द्र
सेना से सेवानिवृत्त हुए एक जवान ने कभी कल्पना नहीं की होगी कि एक दिन वह सारे देश में इस कदर छा जाएंगे कि उन्हें लोग दूसरा गांधी कहेंगे, जी हां, मैं अन्ना हजारे की बात कर रहा हूं। अन्ना ने पता नहीं कभी यह कल्पना की होगी कि एक दिन उन्हें न केवल भारत का बच्चा-बच्चा जान जाएगा बल्कि पूरी दुनिया उनकी ताकत को सलाम करेगी। नेक मिशन हो, दृढ़ संकल्प हो और मीडिया की पूरी ताकत लग जाए तो आदमी भी महात्मा का दर्जा पा जाता है। आज अन्ना हजारे के समर्थक केवल भारत में ही नहीं बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन, पाकिस्तान तक फैल चुके हैं। भ्रष्टाचार निरोधी विधेयक `जन लोकपाल' के समर्थन में अनशन की अनुमति नहीं दे रही केंद्र की संप्रग सरकार को झुकने के लिए मजबूर करने वाले मशहूर गांधीवादी कार्यकर्ता अन्ना हजारे की दुनियाभर में जबरदस्त चर्चा हो रही है। अमेरिका की प्रतिष्ठित टाइम मैगजीन टाइम ने अपनी वेबसाइट पर इस मुद्दे को काफी प्रमुखता देते हुए लिखा है कि भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे एक सामाजिक कार्यकर्ता ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को घुटने के बल झुकने के लिए मजबूर कर दिया। टाइम ने लिखा है कि सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने 15 दिन का अनशन शुरू करने की अनुमति मिलने के बाद बुधवार की रात जेल से बाहर आने पर सहमत हो गए। यह समझौता सरकार की विश्वसनीयता को फिर से कायम करने के लिए हो सकता है पर्याप्त न हो, क्योंकि वह जनता में बढ़ती निराशा व भ्रष्टाचार से निपटने के अपने प्रयासों के प्रति मोहभंग होने से जूझ रही है। अमेरिकी प्रतिष्ठित एक और समाचार पत्र द न्यूयार्प टाइम्स ने अन्ना और पुलिस के बीच अनशन को लेकर हुई सहमति को पहली खबर बनाया है। पत्र ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि प्रदर्शन कर रहे अन्ना और पुलिस के बीच एक सहमति बनती दिखाई दे रही है। उसने कहा कि गुरुवार की सुबह अन्ना के जेल छोड़ने और भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन के लिए अनुमति मिल गई है। अमेरिका के वाल स्ट्रीट जनरल ने लिखा है कि गांधीवादी कार्यकर्ता अन्ना के समर्थन में भारत की जनता भले ही सड़कों पर उतर आई है, लेकिन इसकी तुलना अरब जगत में हुए विद्रोह से नहीं की जा सकती है। पत्र ने कहा कि भ्रष्टाचार से ऊब चुके लोगों का सड़कों पर उतरना मतदान की तरह ही भारत के स्थिर और जीवंत लोकतंत्र का हिस्सा है जबकि अरब जगत में ज्यादातर जन विद्रोहों में सत्ता के पूर्ण परिवर्तन पर जोर दिया गया। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे को नए गांधी का प्रादुर्भाव बताते हुए ब्रिटिश मीडिया ने उनके आंदोलन को असाधारण रूप से सफल करार दिया लेकिन भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए सुपरमैन जैसे प्राधिकरण के खिलाफ चेतावनी दी है। द डेहली टेलीग्राफ ने हैडलाइन दीö`एक नया गांधी'। टेलीग्राफ के पेट्रिक फ्रेंच की रिपोर्ट में कहा गया है, अन्ना हजारे का असाधारण रूप से सफल अभियान। इस गांधीवादी नेता ने अपनी भूख हड़ताल से सरकार को असमंजस में डाल दिया। फ्रेंच ने भारतीय न्यायपालिका राजनीतिक और सामाजिक तंत्र पर भी निशाना साधा है। अखबार लिखता है कि उनके आंदोलन के आयोजकों को सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की भयंकर गलतियों का फायदा मिला है। अखबार ने कहा कि इस सब के बीच नौकरशाह से प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह की सरकार जनता और मीडिया के बीच संबंधों के मूल पहलुओं को समझने में विफल रही। अखबार के अनुसार भाजपा ने इस स्थिति का फायदा उठाया। गार्जियन की रिपोर्ट कहती है कि परिवर्तन के लिए हजारे ने लाखों भारतीयों को प्रेरित किया है। अखबार लिखता है कि `सभी पुराने तरीकों को खत्म करने की मांग के साथ' जीवन के सभी क्षेत्रों के लोग एकजुट हो गए। निरंकुश औपनिवेशिक शासकों द्वारा तैयार बगैर जवाबदेही वाले कानून कायम रखे गए और मौजूदा नेताओं ने उनका दुरुपयोग किया। गार्जियन ने अन्ना हजारे का जीवन वृत भी छापा है।
अन्ना की धूम पाकिस्तान में भी फैल चुकी है। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने अन्ना हजारे के बारे में लिखा, `भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं की तरह साधारण से दिखने वाले सफेद कपड़े पहनने वाले हजारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महात्मा गांधी के तरीकों को अपनाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करने वाले आदर्श नेता बन गए हैं। अन्ना हजारे का पड़ोसी पाकिस्तान में इतना गहरा प्रभाव पड़ा है कि वहां भी अन्ना के तर्ज पर जन आंदोलन के प्रयास शुरू हो चुके हैं। अन्ना हजारे से प्रेरित होकर पाकिस्तान के एक 68 साल के बिजनेसमैन ने पाकिस्तान से भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए भूख हड़ताल पर जाने की घोषणा की है। भ्रष्टाचार के मसले पर वह पहले 21 जुलाई से भूख हड़ताल पर जाने वाले थे पर अब वह 12 सितम्बर 2011 से अपनी हड़ताल शुरू करेंगे। अन्ना की तारीफ करते हुए जहांगीर अख्तर ने बताया कि पाकिस्तान में भ्रष्टाचार के हालात गंभीर हैं। अख्तर का कहना है कि पाकिस्तानी संसद को भी भारत की तरह भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए कानून लाना चाहिए। यह बिल्कुल अन्ना के जन लोकपाल की तरह होना चाहिए। उनका मानना है कि पाकिस्तान में भ्रष्टाचार भारत से काफी ज्यादा है। अन्ना का दुनियाभर में डंका बज रहा है। संभव है कि आने वाले नोबल पुरस्कार के चयन के समय अन्ना हजारे का नाम भी हो।