Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi |
Published on 28th August 2011
अनिल नरेन्द्र
आज का दिन लोकतंत्र के लिए इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा क्योंकि 43 वर्षों से जो लोकपाल बिल कानूनी जामा नहीं पहन सका उसको मूर्त रूप देने के लिए सर्वसम्मति से संसद के दोनों सदनों में सदस्यों ने संकल्प व्यक्त किया। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सारा कुछ 74 वर्षीय वृद्ध एक ऐसे गांधीवादी नेता के आंदोलन की वजह से हुआ जिसने देश की जनता की भावनाओं को भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठ खड़ा होने के लिए शंखनाद किया।
सरकार और आंदोलनकारी नेताओं के बीच वैचारिक मतभेद गहराए। सरकार ने संवैधानिक, लोकतांत्रिक एवं संसदीय प्रक्रिया संबंधी व्यवस्थाओं का तर्प देते हुए आंदोलन को निरर्थक एवं असंगत साबित करने के लिए हर सरकारी तरीका अपनाया किन्तु देश की जनता के सामने सरकार को झुकना ही पड़ा।
दरअसल साम, दाम, दण्ड, भेद, की सारी नीतियां अपनाने के बाद जब सरकार पर जन भावनाएं भारी पड़ने लगीं और सरकार ने पर्दे के पीछे से संवाद शुरू किया और महसूस किया कि सियासी मसले सियासत से ही हल किए जा सकते हैं। इसीलिए जो दो वकील मंत्री आंदोलनकारियों के खिलाफ ज्यादा संवेदनहीन रुख अख्तियार किए हुए थे उन्हें दरकिनार करके एक राजनीतिक रूप से परिपक्व व्यक्ति प्रणब मुखर्जी को कमान सौंपी। प्रणब मुखर्जी ने भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी से सहयोग लेना शुरू कर दिया। प्रणब बाबू के साथ विधि एवं न्यायमंत्री सक्रिय रूप से जुड़े थे। सलमान खुर्शीद ने अपने साथ सांसद संदीप दीक्षित को जोड़ा। दोनों तरफ से संवाद की जरूरत महसूस की गई। इसी बीच एक महत्वपूर्ण घटना घटी। बृहस्पतिवार की रात को टीम अन्ना और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की आडवाणी के निवास पर एक बैठक हुई। इस बैठक में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने टीम अन्ना के उन प्रावधानों पर स्पष्टीकरण मांगा जिससे वे असहमत थे। खासकर न्यायपालिका को लोकपाल के तहत न रखना और संसद सदस्यों को सदन के अन्दर विशेषाधिकार पर लोकपाल का हस्तक्षेप न होना। टीम अन्ना भाजपा के दोनों संशोधन के सुझावों पर सहमत हो गई। इसके बाद भाजपा खुलकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल के समर्थन में आ गई। इससे स्थिति बदल गई। सरकार सहम गई कि अब उसके सामने झुकने और अन्ना के सारे प्रस्तावों को स्वीकार कर लेने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। एक बार तो स्थिति शुक्रवार को भी बिगड़ी जब राहुल गांधी ने अन्ना के आंदोलन को अलोकतांत्रिक तक बता डाला था किन्तु प्रणब बाबू की सूझबूझ से स्थिति सम्भल गई। अन्ना की तीन शर्तोंöपहली केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति, दूसरी कैबिनेट सचिव से लेकर लेखपाल तक लोकपाल के दायरे में आएं और तीसरी सिटीजन चार्टर बने।
भाजपा ने शुक्रवार को ही इस बात का खुलकर पुरजोर प्रचार किया कि वह सदन में अन्ना के जन लोकपाल बिल को आधार मानकर चर्चा करेगी और किया भी। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने खुलकर न सिर्प अन्ना की तीनों शर्तों का समर्थन किया बल्कि अन्ना के जन लोकपाल बिल के विभिन्न बिन्दुओं को और अधिक धारदार साबित कर दिया। स्थिति पूरी तरह बदल चुकी थी। विपक्ष के इस तरह के रुख के बाद कांग्रेस विरोध का साहस नहीं कर सकी और देखते ही देखते संसद के दोनों सदनों में अन्ना छा गए। लोकसभा में सुषमा और राज्यसभा में अरुण जेटली ने संसद की सर्वोच्चता का महिमामंडन तो किया ही साथ ही यह भी कहा कि 43 वर्षों में 9 बार लोकपाल बिल पेश न कर पाने के लिए सभी सरकारें जिम्मेदार हैं। उन्होंने अपनी सरकारों की भी जिम्मेदारी मानी। बहस के बाद प्रणब बाबू ने भी यही बात दोहराई कि हमें 9 बार अवसर मिला किन्तु हमने उसे खो दिया। इस तरह संसद ने जहां एक तरफ अपने गिरेबान में झांकने की नसीहत ली और दी वहीं टीम अन्ना के लोगों ने कई बार शनिवार को अनशन स्थल पर आकर इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि उनके स्टेज से सांसदों के प्रति अपशब्द निकाले गए जिसके लिए उन्हें खेद है। बहरहाल विश्व के सर्वाधिक विशाल लोकतंत्र के रूप में एक बार फिर देश ने अपने आपको स्थापित कर लिया है और यह साबित कर दिया है कि असहमति के बीच सहमति, विषमताओं के बीच सहमति और विभिन्नताओं के बीच एकमत ही भारतीय लोकतंत्र की विशेषता है और यही है हमारे लोकतंत्र की महानता। टीम अन्ना ने देश को भ्रष्टाचार के विरुद्ध जगाने का जो महान कार्य किया है उसके लिए वह बधाई की पात्र है और सरकार एवं संसद ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो संकल्प व्यक्त किया उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी ही देश में 1968 से लेकर अब तक लम्बित प्रयास पूरा होगा और हमें लोकपाल की नई व्यवस्था हासिल होगी।
Anil Narendra, Anna Hazare, Daily Pratap, Lokpal Bill, Parliament, Vir Arjun
सरकार और आंदोलनकारी नेताओं के बीच वैचारिक मतभेद गहराए। सरकार ने संवैधानिक, लोकतांत्रिक एवं संसदीय प्रक्रिया संबंधी व्यवस्थाओं का तर्प देते हुए आंदोलन को निरर्थक एवं असंगत साबित करने के लिए हर सरकारी तरीका अपनाया किन्तु देश की जनता के सामने सरकार को झुकना ही पड़ा।
दरअसल साम, दाम, दण्ड, भेद, की सारी नीतियां अपनाने के बाद जब सरकार पर जन भावनाएं भारी पड़ने लगीं और सरकार ने पर्दे के पीछे से संवाद शुरू किया और महसूस किया कि सियासी मसले सियासत से ही हल किए जा सकते हैं। इसीलिए जो दो वकील मंत्री आंदोलनकारियों के खिलाफ ज्यादा संवेदनहीन रुख अख्तियार किए हुए थे उन्हें दरकिनार करके एक राजनीतिक रूप से परिपक्व व्यक्ति प्रणब मुखर्जी को कमान सौंपी। प्रणब मुखर्जी ने भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी से सहयोग लेना शुरू कर दिया। प्रणब बाबू के साथ विधि एवं न्यायमंत्री सक्रिय रूप से जुड़े थे। सलमान खुर्शीद ने अपने साथ सांसद संदीप दीक्षित को जोड़ा। दोनों तरफ से संवाद की जरूरत महसूस की गई। इसी बीच एक महत्वपूर्ण घटना घटी। बृहस्पतिवार की रात को टीम अन्ना और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की आडवाणी के निवास पर एक बैठक हुई। इस बैठक में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने टीम अन्ना के उन प्रावधानों पर स्पष्टीकरण मांगा जिससे वे असहमत थे। खासकर न्यायपालिका को लोकपाल के तहत न रखना और संसद सदस्यों को सदन के अन्दर विशेषाधिकार पर लोकपाल का हस्तक्षेप न होना। टीम अन्ना भाजपा के दोनों संशोधन के सुझावों पर सहमत हो गई। इसके बाद भाजपा खुलकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल के समर्थन में आ गई। इससे स्थिति बदल गई। सरकार सहम गई कि अब उसके सामने झुकने और अन्ना के सारे प्रस्तावों को स्वीकार कर लेने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। एक बार तो स्थिति शुक्रवार को भी बिगड़ी जब राहुल गांधी ने अन्ना के आंदोलन को अलोकतांत्रिक तक बता डाला था किन्तु प्रणब बाबू की सूझबूझ से स्थिति सम्भल गई। अन्ना की तीन शर्तोंöपहली केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति, दूसरी कैबिनेट सचिव से लेकर लेखपाल तक लोकपाल के दायरे में आएं और तीसरी सिटीजन चार्टर बने।
भाजपा ने शुक्रवार को ही इस बात का खुलकर पुरजोर प्रचार किया कि वह सदन में अन्ना के जन लोकपाल बिल को आधार मानकर चर्चा करेगी और किया भी। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने खुलकर न सिर्प अन्ना की तीनों शर्तों का समर्थन किया बल्कि अन्ना के जन लोकपाल बिल के विभिन्न बिन्दुओं को और अधिक धारदार साबित कर दिया। स्थिति पूरी तरह बदल चुकी थी। विपक्ष के इस तरह के रुख के बाद कांग्रेस विरोध का साहस नहीं कर सकी और देखते ही देखते संसद के दोनों सदनों में अन्ना छा गए। लोकसभा में सुषमा और राज्यसभा में अरुण जेटली ने संसद की सर्वोच्चता का महिमामंडन तो किया ही साथ ही यह भी कहा कि 43 वर्षों में 9 बार लोकपाल बिल पेश न कर पाने के लिए सभी सरकारें जिम्मेदार हैं। उन्होंने अपनी सरकारों की भी जिम्मेदारी मानी। बहस के बाद प्रणब बाबू ने भी यही बात दोहराई कि हमें 9 बार अवसर मिला किन्तु हमने उसे खो दिया। इस तरह संसद ने जहां एक तरफ अपने गिरेबान में झांकने की नसीहत ली और दी वहीं टीम अन्ना के लोगों ने कई बार शनिवार को अनशन स्थल पर आकर इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि उनके स्टेज से सांसदों के प्रति अपशब्द निकाले गए जिसके लिए उन्हें खेद है। बहरहाल विश्व के सर्वाधिक विशाल लोकतंत्र के रूप में एक बार फिर देश ने अपने आपको स्थापित कर लिया है और यह साबित कर दिया है कि असहमति के बीच सहमति, विषमताओं के बीच सहमति और विभिन्नताओं के बीच एकमत ही भारतीय लोकतंत्र की विशेषता है और यही है हमारे लोकतंत्र की महानता। टीम अन्ना ने देश को भ्रष्टाचार के विरुद्ध जगाने का जो महान कार्य किया है उसके लिए वह बधाई की पात्र है और सरकार एवं संसद ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो संकल्प व्यक्त किया उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी ही देश में 1968 से लेकर अब तक लम्बित प्रयास पूरा होगा और हमें लोकपाल की नई व्यवस्था हासिल होगी।
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यह लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक दिन तो है ही; साथ ही यह तंत्र पर लोक की जीत है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय लोकतंत्र की जड़े कितनी गहरी हैं।
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