Thursday, 25 August 2011

एक और अरब तानाशाह की विदाई

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 25th August 2011
अनिल नरेन्द्र
मिस्र के ताहिर स्केवयर से शुरू हुई जन आंधी अब लीबिया तक पूरी तरह पहुंच चुकी है। तकरीबन 42 साल तक लीबिया में राज करने वाले कर्नल मुअम्मर गद्दाफी का अंत आ गया है। सोमवार को राजधानी त्रिपोली के अधिकांश हिस्से पर लीबिया विद्रोहियों का कब्जा हो गया है। विपक्षी लड़ाकों ने गद्दाफी के बेटे और एक तरफ उनके उत्तराधिकारी रहे सैफ अल इस्लाम को पकड़ लिया है। सैफ अपने पिता के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक अदालत में मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों का सामना कर रहा है। नाटो की त्रिपोली और आसपास के इलाकों में बमबारी जारी है और उसने कहा है कि जब तक गद्दाफी समर्थक सैनिक आत्मसमर्पण नहीं कर देते या अपने बैरेक में नहीं लौट जाते तब तक वह बमबारी जारी रखेंगे। गद्दाफी लापता है। कुछ का कहना है कि वह पड़ोसी देश अल्जीरिया भाग गए हैं या हो सकता है कि वह किसी बंकर में छिपे बैठे हों। गद्दाफी की सत्ता के पतीक त्रिपोली स्थित ग्रीन चौक में निवासियों की खुशी मनाने के बीच अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने लीबियाई नेता से मांग की है कि वे सत्ता छोड़ दें। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा सहित कई विश्व के नेताओं ने सोमवार को कहा कि लीबिया में भविष्य के रूप में कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के लिए कोई जगह नहीं है। उन्होंने कहा कि हिंसा के अंत का यह तरीका काफी आसान है। कर्नल गद्दाफी और उनके शासन को यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि उनकी सत्ता का अंत हो चुका है। ब्रिटिश पधानमंत्री डेविड कैमरन ने कहा कि गद्दाफी अब मैदान छोड़कर भाग रहे हैं। गद्दाफी के पास सत्ता में बने रहने की कोई सम्भावना नहीं है।
इसमें कोई संदेह अब नहीं लगता कि पिछले 42 सालों से लीबिया की सत्ता पर काबिज गद्दाफी का शासन अब ध्वस्त होने के कगार पर है। जहां विद्रोहियों का यह कहना है कि गद्दाफी सत्ता छोड़ने की घोषणा कर दें तो वे अपनी कार्रवाई रोक सकते हैं, वहीं गद्दाफी उनकी पेश स्वीकार करने के पहले रेडियो संदेश के जरिए काबलियाई लोगों से आग्रह कर रहे हैं कि वे त्रिपोली आकर विद्रोहियों से युद्ध करें, वरना वे फांसीसी सेना के सेवक बन जाएंगे। उनके इस कदम से स्पष्ट है कि अब वे समझ चुके हैं कि उनके दिन गिने-चुने रह गए हैं। पिछले वर्ष दिसंबर में ट्यूनीशिया की कांति और फिर मिस्र में हुस्नी मुबारक के रक्तहीन तख्ता पलट के बाद लीबिया के गद्दाफी के खिलाफ हुई बगावत अपत्याशित रही है। दरअसल उनके खिलाफ विद्रोह तो फरवरी में ही शुरू हो चुकी थी, जिसे अंजाम तक पहुंचने में इतना वक्त लगा है, तो इसके पीछे लीबिया के सैन्य तंत्र पर गद्दाफी की पकड़ का पता चलता है। महज 27 साल की उम्र में गद्दाफी ने 1969 में राजा इंदरीश को बेदखल कर लीबिया की सत्ता पर कब्जा किया था। यह वह दौर था, जब दुनिया में सोवियत रूस की अगुवाई में साम्यवाद और अमेरिका के पूंजीवाद के बीच द्वंद्व चल रहा था। तब युवा गद्दाफी ने अपनी ग्रीन बुके के जरिए शासन का नया सूत्र पेश किया था और इसे नाम दिया था जम्हारिया। मगर सही मायनों में लीबिया में जम्हूरियत कभी नहीं आई, क्योंकि वहां राजनीतिक दलों पर पतिबंध लगा दिया गया था। जिस युवा ने जम्हूरियत का सपना दिखायाथा, वह बाद में वर्षों तक अपनी विलासता में डूबता चला गया। यही नहीं एक समय तो ऐसा भी आया जब गद्दाफी ने अमेरिका, फांस, इत्यादि देशों पर इस्लामिक जेहादियों को सब तरह का खुला समर्थन दिया। तभी से गद्दाफी अमेरिका और पश्चिमी देशें की आखों में किरकिरी बना हुआ है। आज अगर लीबिया के विद्रोही हावी हो गए हैं तो इसके पश्चिमी देशों का उन्हें समर्थन भी एक कारण है। इसीलिए ओबामा ने गद्दाफी को कहा है कि अब लीबिया में उसका कोई स्थान नहीं। सवाल यह है कि गद्दाफी के बाद क्या होगा? लीबिया के लिए यह परीक्षा की घड़ी है। यदि वर्तमान शासन हट भी गया तो क्या एक नई कानून-व्यवस्था वहां लागू हो पाएगी या फिर अराजकता का माहौल होगा? सवाल यह भी है कि वहां एक नए सिरे से एक शासन खड़ा करने की कोशिश की जाएगी या बदला लेने पर जोर होगा? इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि नई व्यवस्था में इस्लामी कट्टरपंथी पूरी तरह से हावी हो जाएं जैसे अन्य अरब देशों में हुआ है। इतना ही नहीं यह डर भी मौजूद है कि कहीं कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के हटने के बाद कहीं लीबियाई समाज बिखर न जाए। आने वाले कुछ महीने लीबिया के लिए काफी चुनौतीपूर्ण साबित हो सकते हैं
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