Tuesday 9 August 2011

70 फीसदी आबादी गांव में रहती


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 9th August 2011
अनिल नरेन्द्र
जनगणना के अनुसार देश की करीब 70 फीसदी आबादी अब भी गांव में बसती है। भारत की आबादी 121 करोड़ है। केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह द्वारा जारी ग्रामीण-शहरी आबादी के बारे में `भारत की जनगणना 2011' के अस्थायी आंकड़े बताते हैं कि 83.2 करोड़ लोग गांव में रहते हैं जबकि 37.7 करोड़ शहरों में। यह पहला मौका है जब शहरों की आबादी दर गांवों की अपेक्षा ज्यादा बढ़ी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत गांवों का देश है या भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है। वैसे तो इस तरह के जुमले कभी हमारी पुस्तकों का जरूरी हिस्सा हुआ करते थे लेकिन पिछले करीब डेढ़-दो दशकों से जब से यह नई आर्थिक नीति अपनाई गई है, अर्थशास्त्रियों के दिमाग से गांव गायब होने लगे हैं। इसके समर्थन में कुछ बिकाऊ किस्म के अर्थशास्त्राr नए-नए तथ्य भी ढूंढ कर लाने लगे, मसलन किस तरह गांवों से पलायन और खेती से मोहभंग हो रहा है। देश की विकास दर में कृषि का योगदान कम होता जा रहा है। भारत एक कृषि प्रधान देश है और उसकी 70 फीसदी आबादी अभी भी गांवों में रहती है लेकिन वैसी आर्थिक नीतियों का अभाव है जो कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान कर सकें। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दुर्दशा के लिए केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारें भी जिम्मेदार हैं। वे न तो केंद्रीय शासन पर कृषि क्षेत्र के उत्थान में सहायक बनने वाली नीतियों का निर्माण करने के लिए दबाव बनाने में सक्षम हैं और न ही अपने स्तर पर ऐसे कदम उठा पा रही हैं जिससे किसान आत्मनिर्भर हो सके। भले ही राजनीतिक दल खुद को किसानों और गांव-गरीबों का हितैषी बताती हों, लेकिन सच्चाई यह है कि वे ग्रामीण आबादी को महज एक वोट बैंक के रूप में देखती हैं। यही कारण है कि कृषि क्षेत्र के उत्थान के लिए जो नीतियां बनती भी हैं उन पर सही ढंग से अमल नहीं होता। तमाम विपरीत स्थितियों से दो-चार होने के बावजूद यदि कभी किसान अन्न की पैदावार बढ़ाने में समर्थ हो जाते हैं तो उन्हें अपनी उपज का सही मूल्य नहीं मिलता। उनकी कड़ी मेहनत का लाभ तो बिचौलिये ही उठा जाते हैं। एक शर्मनाक तथ्य यह भी है कि भंडारण के अभाव में हर वर्ष लाखों टन अनाज सड़ जाता है। ऐसा आगे भी होगा, क्योंकि बार-बार की चेतावनी के बावजूद उपयुक्त नीतियों का निर्माण करने से बचा जा रहा है। पिछले एक दशक में गांवों में जीवन-यापन बहुत मुश्किल होता गया है, क्योंकि तमाम विकास योजनाओं का फोकस शहरों पर ही रहा है। एक तो कृषि कार्य अलाभकारी हो गया फिर पहले से मौजूद रोजगार के वैकल्पिक साधनों में भी कमी आई है। यह अच्छा संकेत है कि गांवों से अब पलायन दर में कमी आई है। जरूरत इस बात की है कि गांवों के पास ही नौकरियां क्रिएट की जाएं ताकि रोजगार के साथ लोग गांवों में ही रहें, शहरों की ओर न भागें। अब गांवों में वह तमाम ग्लैमर सुविधाएं तो आ ही चुकी हैं। टीवी, फिल्में, आदि अब गांव-गांव में आ चुकी हैं। बेहतर यही है कि गांवों को ज्यादा से ज्यादा आत्मनिर्भर बनाया जाए। स्वास्थ्य सुविधाओं का भारी अभाव है। स्कूलों की भी कमी है। स्कूल, अस्पतालों की कमी को दूर किया जाए पर यह सब करने के लिए हमारे अर्थशास्त्रियों को अपनी प्राथमिकताओं में थोड़ा परिवर्तन करना पड़ेगा। दुनिया या ग्लोबल इकोनॉमी की दिन-रात दुहाई देने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का असल मतलब है गांव। भारत गांव प्रधान देश है और जब तक यह बात उन्हें समझ नहीं आती तब तक गांवों की उपेक्षा जारी रहेगी।
Tags: Anil Narendra, Census of India, Daily Pratap, India, Population, Vir Arjun

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