Friday, 26 August 2011

सरकार ने लड़ाई का रुख बदल दिया, अन्ना बनाम संसद


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 26th August 2011
अनिल नरेन्द्र
बुधवार को टीम अन्ना की राजनीतिक दलों से सर्वदलीय बैठक किसी प्रकार की सहमति के बिना ही खत्म हो गई, इस पर हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। संकेत मिल रहे थे कि कोई भी राजनीतिक दल अन्ना के जन लोकपाल बिल को ज्यों का त्यों समर्थन नहीं कर सकता। कुछ मुद्दों पर सहमति थी कुछ पर बिल्कुल नहीं और कुछ पर हो सकती है। हां, एक बात पर तमाम विपक्ष में एका था। वह थी कि सरकारी लोकपाल बिल्कुल स्वीकार्य नहीं और उसे सरकार को वापस ले लेना चाहिए। भाजपा सहित कुछ दल चाहते थे कि सरकार अपने लोकपाल बिल को पूरी तरह से वापस ले और एक नया प्रस्तावित लोकपाल पेश करे जिसमें अन्ना के जन लोकपाल बिल के प्रमुख बिन्दुओं को शामिल किया जाए पर सरकार और उसके सहयोगी दल लोकपाल बिल वापस लेने पर तैयार नहीं हुए। बैठक में राजग एवं वामपंथी दलों के साथ वाले नौ दलों के मोर्चों ने तो एक बार फिर सीधे तौर पर सरकार के लोकपाल विधेयक को खारिज कर दिया। लेकिन खास बात यह रही कि किसी भी दल ने पूरी तरह से अन्ना हजारे के जन लोकपाल के पक्ष में राय नहीं दी। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की मांग थी कि सरकार अपने लोकपाल विधेयक को वापस लेकर नया प्रभावी विधेयक लेकर आए, जिसमें जन लोकपाल के प्रावधानों को ध्यान में रखा जाए। यह एक असामान्य परिस्थिति है, ऐसे में नियम व प्रक्रियाओं को नजरंदाज करके रास्ता निकाला जा सकता है। माकपा नेता सीताराम येचुरी ने भी मौजूदा लोकपाल बिल को व्यर्थ करार दिया। अजीत सिंह ने सरकार से मौजूदा विधेयक को वापस लेने की मांग रखी। सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने विधेयक के स्वरूप पर सवाल खड़े किए और अपनी तरफ से उसमें कई नए प्रावधान जोड़ने की मांग रखी। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने अन्ना हजारे के पुराने इतिहास की याद दिलाई, लेकिन उसे किसी ने ज्यादा तवज्जों नहीं दी। शिवसेना के मनोहर जोशी ने न केवल अन्ना हजारे की तारीफ की बल्कि अनशन तुड़वाने के प्रयास करने पर जोर दिया।
जहां तक बिन्दुओं पर सहमति का प्रश्न है तो बुधवार देर रात तक दोनों पक्षों में तनातनी रही। दिन में केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और टीम अन्ना के तीन मैम्बरों (केजरीवाल, प्रशांत भूषण और किरण बेदी) ने बातचीत की। सूत्रों के मुताबिक इसमें सात मसलों पर गतिरोध कायम रहा। इसके बाद प्रधानमंत्री निवास में सर्वदलीय बैठक में भी आम सहमति नहीं बन सकी। देर रात वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी और टीम अन्ना के तीन सदस्यों की बातचीत हुई, यह भी बेनतीजा रही। अब गुरुवार को भी दोनों पक्षों की बातचीत जारी रह सकती है। टीम अन्ना अब इस पर भी विचार कर रही है कि उसे भविष्य में अब सरकारी पक्ष से बातचीत करनी भी चाहिए या नहीं? अब जिन सात मसलों पर मतभेद कायम है वह हैं ः (1) लोकपाल की परिभाषा क्या हो? (2) प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाए? (3) हायर ज्यूडिशयरी को भी इसके दायरे में लाया जाए या नहीं? (4) क्या संसद के अन्दर सांसदों का आचरण और व्यवहार इसमें कवर होगा या नहीं? (5) पूरी ब्यूरोकेसी जिसमें लोअर ब्यूरोकेसी शामिल है, को लोकपाल के दायरे में होना चाहिए या नहीं? और (6) राज्यों में लोकायुक्तों के लिए कानून हो? अंतिम और सातवां मसला है कि लोकपाल की प्रक्रिया क्या हो? मैंने इसी कॉलम में दोनों पक्षों के इन मुद्दों पर स्टैंड पहले बता दिए हैं इसलिए उन्हें दोहराना नहीं चाहता। अब आगे क्या होगा? टीम अन्ना को खतरा है कि अन्ना की गिरती सेहत की आड़ लेकर सरकार किसी भी वक्त अपना दांव चल सकती है। इसके तहत अन्ना को रामलीला मैदान से हटाकर अस्पताल में भर्ती करवा सकती है। इस बात को इससे भी बल मिलता है कि बुधवार से रामलीला मैदान में पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ा दी गई है। अगर अन्ना को अस्पताल ले जाया जाता है तो यहां उनकी जान बचाने के नाम पर उन्हें ग्लूकोज चढ़ाया जा सकता है। बुधवार को चिदम्बरम के इस बयान पर गौर करें कि किसी भी व्यक्ति को अपनी जान देने की इजाजत नहीं दी जा सकती। लगता है कि अन्ना को भी सरकार के इरादे की भनक लग गई है। इसलिए अन्ना ने अपने समर्थकों को बुधवार को संबोधित करते हुए कहा कि अगर सरकार उन्हें उठाकर अस्पताल ले जाए तो वह लोग शांति बनाए रखें, तोड़फोड़ की कोई घटना न करें और इसी तरह शांतिप्रिय आंदोलन जारी रखें, जेल भरें। अगर गुरुवार को अन्ना का अनशन सहमति से नहीं टूटा तो सम्भव है कि जबरन अन्ना को अस्पताल ले जाया जाए। समय दोनों के पास ज्यादा नहीं। दिन-प्रतिदिन अन्ना की सेहत खराब होगी। बुधवार को मनमोहन सरकार की चाल कामयाब हो गई। अब यह लड़ाई अन्ना बनाम संसद होती जा रही है। अब जो भी आगे बातचीत हो उसमें सरकार को चाहिए कि प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं को भी बैठक में साथ बिठाएं ताकि सब का स्टैंड हर मुद्दे पर क्लीयर हो। अन्ना को भी यह तो समझना ही होगा कि उनकी लड़ाई संविधान के खिलाफ नहीं, व्यवस्था के खिलाफ है। ऐसे किसी प्वाइंट पर जोर नहीं देना चाहिए जो भारत के संविधान के खिलाफ जाता है। अगर ऐसा हुआ तो यह लड़ाई एक नया निहायत खतरनाक रूप धारण कर सकती है जो शायद खुद अन्ना नहीं चाहेंगे।

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