Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi |
Published on 6th August 2011
अनिल नरेन्द्र
महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत मुद्दों पर यह सरकार और यह संसद कितनी गम्भीर है यह हमें पिछले दो दिन में लोकसभा के घटे घटनाक्रम से पता चल जाता है। सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच यह नूराकुश्ती भारत की जनता को बेफकूफ बनाने के लिए महज एक ड्रामा था। दरअसल साफ है कि कांग्रेस पार्टी और मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी में एक गुप्त डील हो गई थी। डील के तहत भाजपा से सरकार ने आश्वासन ले लिया था कि आप भाषणबाजी करेंगे, बस इससे कुछ ज्यादा नहीं। अन्त में एक प्रस्ताव पारित कर दिया जाएगा जिसमें महंगाई पर चिन्ता जता दी जाएगी और आश्वासन दे दिए जाएंगे कि सरकार इससे निपटने के लिए गम्भीर है। यही हुआ, भाषणबाजी के बाद बढ़ती महंगाई पर सांसदों की चिन्ता से सहमति जताते हुए सरकार ने कहा कि वह इसे काबू करने का पूरा प्रयास कर रही है। सदन ने बाद में इस संबंध में पेश प्रस्ताव को ध्वनिमत से पारित कर दिया। इस प्रस्ताव में मूल्यवृद्धि पर गहरी चिन्ता व्यक्त करते हुए सरकार से मुद्रास्फीति को रोकने के लिए तत्काल प्रभावी कदम उठाने का आग्रह किया गया ताकि आम आदमी को राहत मिल सके। मत विभाजन से पहले सपा, बसपा और राजद के सदस्य वित्तमंत्री के उत्तर से असंतोष होने का बहाना बनाकर सदन से वाकआउट कर गए। इसके बाद सदन ने कम्युनिस्ट पार्टी के गुरुदास दासगुप्ता द्वारा प्रस्ताव में पेश एक संशोधन को 51 के मुकाबले 320 मतों से नामंजूर कर दिया, जिस पर वाम दल, अन्ना द्रमुक और बीजद के सदस्य भी सदन से वाकआउट कर गए। सिर्प वाम दल ही थे जो चाहते थे कि प्रस्ताव में महंगाई रोकने में सरकार की विफलता के लिए निन्दा की जाए पर भाजपा को ऐसा करना जरूरी नहीं लगा।संसद के मानसून सत्र से पहले बड़ी-बड़ी धमकियां देने वाली भाजपा एक बार फिर बेनकाब हो गई और भाजपा द्वारा अपनाए गए रवैये से आम जनता आज अपने आपको ठगा-सा महसूस कर रही है। महंगाई पर सरकार को पानी पी-पी कर कोसने वाली भाजपा ने संसद में सरकार का महंगाई के मामले में घेरने के लिए मतदान के प्रावधान वाले नियम 184 के तहत लोकसभा में चर्चा की मांग की। सरकार ने थोड़ा नानुकर के बाद इस मांग को मान लिया। अब बारी विपक्ष की थी, वो पूरी ताकत और तर्कों के साथ सरकार को संसद में घेरती। लेकिन मुख्य विपक्षी दल भाजपा अपनी जिम्मेदारी के निर्वहन में चर्चा के पहले दिन ही पूरी तरह विफल रही, वहीं रही-सही कसर उसने दूसरे दिन पूरी कर दी। संसदीय नियमों के तहत यदि कोई चर्चा नियम 184 के तहत कराई जाती है तो चर्चा के अन्त में किसी भी एक सांसद को यह अधिकार होता है कि वह मत विभाजन की औपचारिक मांग करे। लेकिन भाजपा जहां पहले दिन से ही न तो महंगाई के मुद्दे पर सरकार को घेरने में रुचि दिखाई न ही चर्चा के अन्त में मत विभाजन की मांग की। संविधान के अनुसार यदि नियम 184 के तहत यदि किसी चर्चा में सत्तापक्ष को मुंह की खानी पड़ती है तो उससे उस पर नैतिक दबाव बनता है और नैतिकता के आधार पर उस सरकार को सत्ता में रहने का फिर कोई अधिकार नहीं बचता। भाजपा ने मत विभाजन की मांग न कर एक तरह से इस सरकार को उबारने का काम किया है और यह सब उस गुप्त डील के तहत किया गया है जो कांग्रेस पार्टी के रणनीतिकारों ने भाजपा के नेताओं से की थी। अगर भाजपा चाहती तो वह इस अवसर पर वाम दलों और अन्य छोटे दलों से मिल रहे समर्थन का लाभ उठाते हुए यदि मत विभाजन की मांग करती तो काफी संभावना यह बनती कि सरकार दबाव में कुछ ठोस कदम उठाने को मजबूर होती जिसका सीधा लाभ आम जनता को मिलता और अन्तत इसका फायदा विपक्षी दलों को ही मिलता। ऐसे में जबकि भाजपा बार-बार लोगों के सामने कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरना चाहती है उसके द्वारा संसद में अपनाया गया रवैया उसकी आकांक्षा पर कुठाराघात साबित हो सकता है।
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