Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi |
Published on 24th August 2011
अनिल नरेन्द्र
कल मैंने पाठकों को बताया था कि जन लोकपाल बिल में क्या हैं प्रमुख बिन्दु। आज हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि सरकार और टीम अन्ना के किन-किन मुद्दों पर मतभेद हैं जिन्हें अविलंब दूर करना होगा, इस गतिरोध को हर हालत में तोड़ना होगा। सबसे बड़ा मतभेद प्रधानमंत्री को इस लोकपाल बिल में लेने पर है। सरकारी लोकपाल बिल में प्रधानमंत्री को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। जब वह पद छोड़ेंगे, तब भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच लोकपाल कर सकता है। अन्ना की टीम इसके लिए तैयार नहीं। वह कहती है कि प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के दायरे में आना चाहिए। इस पर प्रधानमंत्री को पहल करनी होगी। डॉ. मनमोहन सिंह ने खुद कई बार यह कहा है कि प्रधानमंत्री को इसके दायरे में होना चाहिए। 29 सितम्बर 2004 को देहरादून में अखिल भारतीय लोकायुक्त और उपलोकायुक्त सम्मेलन में हिस्सा लेते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, `इस बात पर व्यापक तौर पर सहमति है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर जनता के चुने लोगों को लोकपाल के दायरे में लाया जाए। इसमें सांसद, मंत्री और खुद प्रधानमंत्री का पद भी शामिल हो।' प्रधानमंत्री का कहना था कि लोकपाल की जरूरत अब पहले से कहीं अधिक हो गई है इसलिए बिना समय गंवाए इस दिशा में काम करने की आवश्यकता है। मनमोहन सिंह ने आगे कहा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन या यूपीए सरकार के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में लोकपाल विधेयक लाने पर सहमति व्यक्त की गई है और यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ये बात आमतौर पर स्वीकार की जाती है कि भ्रष्टाचार की एक प्रमुख वजह सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता की कमी है। डॉ. मनमोहन सिंह को अब अपने मंत्रियों की परवाह नहीं करनी कि वह क्या चाहते हैं, उन्हें जनता क्या चाहती है इसकी ज्यादा परवाह करनी चाहिए और स्वयं से घोषणा कर देनी चाहिए कि लोकपाल के दायरे में पीएम, मंत्री और सांसद सभी आएंगे। दूसरा बड़ा मतभेद जुडिश्यरी को लेकर है। सरकार का स्टैंड है कि जुडिश्यरी में सुधार के लिए हम अलग से कानून ला रहे हैं, इसलिए न्यायपालिका को इस जन लोकपाल बिल में शामिल नहीं करना चाहिए। हालांकि आप चाहते हैं कि न्यायपालिका भी इसमें शामिल हो पर मेरी राय में अन्ना को इस जिद को छोड़ देना चाहिए और जुडिश्यरी के लिए प्रस्तावित सुधार कानून का समर्थन कर देना चाहिए। एक मतभेद सीबीआई और सीवीसी किसके अधीन हो इसको लेकर है। टीम अन्ना चाहती है कि सीबीआई हर हालत में लोकपाल के अधीन हो, सरकार इसके लिए तैयार नहीं। यह एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसमें कोई ऐसा बीच का रास्ता निकल सकता है कि सीबीआई और सीवीसी स्वतंत्र हों और सरकार के आधीन न हों। सरकार उसके कामकाज में दखलंदाजी न कर सके। एक मुद्दा है संसद के भीतर सांसदों का आचरण। जन लोकपाल में सांसदों का संसद के भीतर का आचरण भी दायरे में आएगा जबकि सरकार ने कहा है कि संसद में सांसदों का बर्ताव लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं आएगा। अलबत्ता संसद से बाहर के कामों पर लोकपाल जांच कर सकता है। मैं समझता हूं कि इस पर टीम अन्ना को सरकार की बात मान लेनी चाहिए। भारत का संविधान भी सांसदों को संसद के अन्दर जो कुछ होता है उससे प्रोटेक्ट करता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी यह माना है, इसलिए इस पर अन्ना को समझौता कर लेना चाहिए। एक बड़ा मतभेद है ब्यूरोकेसी को लेकर। सरकार चाहती है कि ग्रुप ए से नीचे की ब्यूरोकेसी जांच के दायरे से बाहर हो। उसके लिए अलग सिस्टम होगा। ऊपर के अधिकारियों की जांच लोकपाल कर सकता है। जन लोकपाल में पूरी ब्यूरोकेसी कवर है, चाहे वह केंद्र की हो या राज्यों की। उपसचिव और उससे ऊपर के स्तर के अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों की जांच का अधिकार जन लोकपाल के दायरे में है। इसमें सरकार को नरम होना पड़ेगा। अधिकतर जनता लोअर ब्यूरोकेसी से ही परेशान है। भ्रष्ट अफसरों को दंड देने का प्रावधान शामिल किया जा सकता है। लोकपाल भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ विशेष अदालत में मुकदमा चला सकेगा। साथ ही सरकार को अनुशासनात्मक कार्यवाही की सिफारिश करने का भी अधिकार होना चाहिए। जांच के बाद सरकार जरूरत पड़ने पर कर्मचारी को बर्खास्त कर सकेगी। यदि कार्यवाही नहीं की गई तो लोकपाल को उसका कारण बताना होगा। जांच के दौरान कर्मचारी को लोकपाल की सिफारिश पर कर्मचारी का ट्रांसफर या निलम्बन के अधिकार पर सरकार को कोई एतराज नहीं होना चाहिए। यदि विशेष अदालत में कर्मचारी आरोपी पाया जाता है तो कानून अपना काम करेगा। केंद्र में लोकपाल की तर्ज पर लोकायुक्त कानून के लिए राज्यों को मॉडल के रूप में इस विधेयक को भेजा जा सकता है। टीम अन्ना को यह पोजीशन स्वीकार्य होनी चाहिए क्योंकि संविधान राज्यों को कई अधिकार देता है और केंद्र अपने सारे कानून राज्यों पर नहीं थोप सकता। सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों को संरक्षण देने वालों के लिए अलग से विधेयक पेश किया है। बिल में अलग प्रावधान की जरूरत नहीं। शिकायत के झूठी या फर्जी निकलने पर सजा को कम करने पर विचार किया जा सकता है। लोकपाल बिल के मसौदे में स्वतंत्र जांच इकाई की व्यवस्था की गई है। तब तक सीबीआई एवं अन्य संबंधित एजेंसियों से अधिकारियों की सेवाएं ली जा सकती हैं। इस पर सहमति बनाने का प्रयास होना चाहिए कि एक निश्चित समय अवधि में (छह महीने) में सरकार एक स्वतंत्र जांच एजेंसी की स्थापना कर देगी जिसके अधीन सीबीआई, सीवीसी आ सकती है। एक बड़ा मतभेद लोकपाल में कौन-कौन होगा, इस पर भी है। जन लोकपाल बिल में इसके लिए एक-दो चरण प्रक्रिया है। एक खोज समिति संभावित उन दस सदस्यों का चयन करेगा। इनमें से पांच भारत के मुख्य न्यायाधीश, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, नियंत्रक महालेखा परीक्षक, नेता विपक्ष और पांच सदस्य सिविल सोसाइटी से चुनेंगे। सरकारी विधेयक में एक सरल प्रक्रिया है। सिलैक्शन कमेटी में प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष (दोनों सदनों के) एक सुप्रीम कोर्ट के जज, हाई कोर्ट का एक जज, एक प्रतिष्ठित ज्यूरिस्ट और समाज का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति। यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर विचार किया जाना जरूरी है। इसके लिए दोनों पक्ष तीन महीने का समय ले सकते हैं ताकि यह प्रक्रिया तय हो सके।
बाकी मुद्दे तो और भी हैं पर मैंने अपनी समझ से प्रमुख मुद्दों को यहां लिया है। मैं कोई विशेषज्ञ नहीं। हो सकता है कि मैं पूरी तरह से सही न हूं पर मेरा प्रयास यह है कि समझौता होना चाहिए और वह भी जल्द। इसके लिए बीच का कोई रास्ता निकालना होगा। दोनों पक्षों को अपना स्टैंड नरम करना होगा। यह गतिरोध अब ज्यादा दिन नहीं चल सकता। हर गुजरता दिन न तो देश के लिए अच्छा है, न टीम अन्ना के लिए और न ही सरकार के लिए।
बाकी मुद्दे तो और भी हैं पर मैंने अपनी समझ से प्रमुख मुद्दों को यहां लिया है। मैं कोई विशेषज्ञ नहीं। हो सकता है कि मैं पूरी तरह से सही न हूं पर मेरा प्रयास यह है कि समझौता होना चाहिए और वह भी जल्द। इसके लिए बीच का कोई रास्ता निकालना होगा। दोनों पक्षों को अपना स्टैंड नरम करना होगा। यह गतिरोध अब ज्यादा दिन नहीं चल सकता। हर गुजरता दिन न तो देश के लिए अच्छा है, न टीम अन्ना के लिए और न ही सरकार के लिए।
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