अन्ना हजारे के आंदोलन से कई सबक निकलते हैं। यह एक अद्भुत आंदोलन था जिसने सारे देश को एक कर दिया। सारे वर्गों, धर्मों, समुदायों सभी को मिला दिया। वर्षों बाद मिडल क्लास के लोग सड़कों पर उतरे। अपनी गाड़ियों से उतरकर रामलीला मैदान में सफाई कर रहे, भोजन परोस रहे इन लोगों ने शायद इससे पहले कभी भी यह सब नहीं किया होगा। वह मिडल क्लास जो वोट नहीं करता वह 12 दिनों में रामलीला मैदान में अन्ना के साथ खड़ा दिखा। इस आंदोलन में देश का हर तबका शामिल था। कई लोग कह रहे हैं कि कैंडिल मार्च करने वाले लोग वे हैं जो कभी वोट डालने भी नहीं जाते। मगर ये सब कहने वाले भूल जाते हैं कि देश का यही वर्ग चुनावों में अपने आपको उपेक्षित महसूस करता है। जिस तरह चुनाव जातिवाद और क्षेत्रवाद जैसे मुद्दों पर जीते जाते हैं, वहां देश का यह शहरी वर्ग अपने आपको अल्पमत महसूस करता है। उन्हें लगता है कि उनकी संख्या मुट्ठीभर है और वे चुनाव में अपनी कोई भूमिका ही नहीं मानते। मगर अब इन्हें लग रहा है कि कम से कम हमारी भूमिका उस कानून को बनाने में तो हो जो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके। वही भ्रष्टाचार जो देश को घुन की तरह खा गया है। इस आंदोलन ने उनमें एक उम्मीद जगाई है।
बुद्धिजीवियों और राजनीतिक पंडितों को यह बात अचम्भित कर रही है कि जो जनता स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस को एक छुट्टी के दिन ही तरह देखती है उसे इस आंदोलन में ऐसा क्या दिखा कि वह बिना बुलाए रामलीला मैदान की तरफ दौड़ पड़ी। आज बेशक भाजपा इस बात का श्रेय लेने की कोशिश कर ही है कि अन्ना का आंदोलन अंतत सफल कराने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। बेशक रही भी, अगर भाजपा खुलेआम घोषणा नहीं करती कि वह अन्ना की तीनों शर्तों को बिना किसी रिजर्वेशन के स्वीकार करती है और समर्थन करती है तो शायद सरकार अब भी इतनी आसानी से हार मानने वाली नहीं थी। भाजपा के इनिशिएटिव ने अन्ना का पलड़ा भारी कर दिया पर भाजपा को यह सवाल अपने से जरूर पूछना चाहिए कि इतने वर्षों से वह भ्रष्टाचार को मुद्दा क्यों नहीं बना पाई। आखिर अन्ना इसे कैसे मुद्दा बना गए? सरकार ने भी जनता की पुकार व जनता में मची त्राहि-त्राहि को हमेशा नजरंदाज किया। भ्रष्टाचार और महंगाई से दबी भारत की जनता चीख-चीखकर पुकारती रही कि कुछ करो, कुछ करो पर कांग्रेस पार्टी और सरकार के जूं तक नहीं रेंगी। हमारे राजनेताओं ने अपने को तसल्ली देने के लिए यह दलील देनी आरम्भ कर दी कि भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा नहीं रहा है। राजनेताओं का यही मानना था कि जनता ने विकास के नाम पर कांग्रेस को वोट दिया और भ्रष्टाचार अब जनता में स्वीकार्य हो चुका है यानि भ्रष्टाचार का अब न तो मुद्दा बनाया जा सकेगा और न ही भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत में कोई आंदोलन हो सकता है परन्तु महज सातवीं कक्षा पास रालेगण के एक संत ने राजनीतिक पंडितों की सारी थ्यौरियों को विफल कर दिया। अन्ना की अपनी साफ स्वच्छ छवि और सीधी आवाज ने लोगों को दिल से छू लिया और वह सड़कों पर आ गए। अन्ना के आंदोलन सफल होने के पीछे सबसे बड़ा कारण था उनकी अपनी विश्वसनीयता। इसके पीछे कारण था अन्ना का नैतिक कद, उनकी निस्वार्थता और उनका निष्कपट व्यक्तित्व। अन्ना हजारे को देखकर आम आदमी को यह लगा कि यह 74 साल का वृद्ध अपने लिए संघर्ष नहीं कर रहा, यह उनके लिए संघर्ष कर रहा है। जब कोई राजनेता इन्हीं बातों को कहता है तो जनता इसका दूसरा मतलब निकालती है। उसे पता होता है कि अवसर पड़ने पर यह दल या राजनेता भी वही व्यवहार करेगा जिसके खिलाफ वह भाषण कर रहा है। राजनेताओं पर से जनता के उठते विश्वास का ही नतीजा है कि राजनीतिक दलों को अपनी रैलियों में 10-20 हजार की भीड़ इकट्ठी करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। पार्टी के छुटभैया नेताओं पर भीड़ इकट्ठी करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। चाय, नाश्ते और गाड़ियों का इंतजाम किया जाता है। इन नेताओं का कद पार्टी में उनके द्वारा इकट्ठी की गई भीड़ से ही तय होता है और अन्ना के आंदोलन में जनता खुद अपने खर्चे पर, अपना खाना-पीना लेकर सेवाभाव से आई। उसे किसी ने मजबूर नहीं किया था। राजनेताओं को इस आंदोलन से सीख लेनी चाहिए और अन्ना की जीत के गहरे निहितार्थों को समझना चाहिए। पता नहीं अब भी इनको समझ आई कि नहीं।
Anil Narendra, Anna Hazare, BJP, Congress, Daily Pratap, Lokpal Bill, Manmohan Singh, Ram Lila Maidan, Vir Arjun
बुद्धिजीवियों और राजनीतिक पंडितों को यह बात अचम्भित कर रही है कि जो जनता स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस को एक छुट्टी के दिन ही तरह देखती है उसे इस आंदोलन में ऐसा क्या दिखा कि वह बिना बुलाए रामलीला मैदान की तरफ दौड़ पड़ी। आज बेशक भाजपा इस बात का श्रेय लेने की कोशिश कर ही है कि अन्ना का आंदोलन अंतत सफल कराने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। बेशक रही भी, अगर भाजपा खुलेआम घोषणा नहीं करती कि वह अन्ना की तीनों शर्तों को बिना किसी रिजर्वेशन के स्वीकार करती है और समर्थन करती है तो शायद सरकार अब भी इतनी आसानी से हार मानने वाली नहीं थी। भाजपा के इनिशिएटिव ने अन्ना का पलड़ा भारी कर दिया पर भाजपा को यह सवाल अपने से जरूर पूछना चाहिए कि इतने वर्षों से वह भ्रष्टाचार को मुद्दा क्यों नहीं बना पाई। आखिर अन्ना इसे कैसे मुद्दा बना गए? सरकार ने भी जनता की पुकार व जनता में मची त्राहि-त्राहि को हमेशा नजरंदाज किया। भ्रष्टाचार और महंगाई से दबी भारत की जनता चीख-चीखकर पुकारती रही कि कुछ करो, कुछ करो पर कांग्रेस पार्टी और सरकार के जूं तक नहीं रेंगी। हमारे राजनेताओं ने अपने को तसल्ली देने के लिए यह दलील देनी आरम्भ कर दी कि भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा नहीं रहा है। राजनेताओं का यही मानना था कि जनता ने विकास के नाम पर कांग्रेस को वोट दिया और भ्रष्टाचार अब जनता में स्वीकार्य हो चुका है यानि भ्रष्टाचार का अब न तो मुद्दा बनाया जा सकेगा और न ही भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत में कोई आंदोलन हो सकता है परन्तु महज सातवीं कक्षा पास रालेगण के एक संत ने राजनीतिक पंडितों की सारी थ्यौरियों को विफल कर दिया। अन्ना की अपनी साफ स्वच्छ छवि और सीधी आवाज ने लोगों को दिल से छू लिया और वह सड़कों पर आ गए। अन्ना के आंदोलन सफल होने के पीछे सबसे बड़ा कारण था उनकी अपनी विश्वसनीयता। इसके पीछे कारण था अन्ना का नैतिक कद, उनकी निस्वार्थता और उनका निष्कपट व्यक्तित्व। अन्ना हजारे को देखकर आम आदमी को यह लगा कि यह 74 साल का वृद्ध अपने लिए संघर्ष नहीं कर रहा, यह उनके लिए संघर्ष कर रहा है। जब कोई राजनेता इन्हीं बातों को कहता है तो जनता इसका दूसरा मतलब निकालती है। उसे पता होता है कि अवसर पड़ने पर यह दल या राजनेता भी वही व्यवहार करेगा जिसके खिलाफ वह भाषण कर रहा है। राजनेताओं पर से जनता के उठते विश्वास का ही नतीजा है कि राजनीतिक दलों को अपनी रैलियों में 10-20 हजार की भीड़ इकट्ठी करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। पार्टी के छुटभैया नेताओं पर भीड़ इकट्ठी करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। चाय, नाश्ते और गाड़ियों का इंतजाम किया जाता है। इन नेताओं का कद पार्टी में उनके द्वारा इकट्ठी की गई भीड़ से ही तय होता है और अन्ना के आंदोलन में जनता खुद अपने खर्चे पर, अपना खाना-पीना लेकर सेवाभाव से आई। उसे किसी ने मजबूर नहीं किया था। राजनेताओं को इस आंदोलन से सीख लेनी चाहिए और अन्ना की जीत के गहरे निहितार्थों को समझना चाहिए। पता नहीं अब भी इनको समझ आई कि नहीं।
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