Monday 29 August 2011

अन्ना का आंदोलन और मीडिया की भूमिका


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 30th August 2011
अनिल नरेन्द्र
शनिवार को लोकपाल विधेयक पर टीम अन्ना की तीन शर्तों पर संसद में हुई चर्चा में मीडिया की भूमिका पर भी टिप्पणियां की गईं। मीडिया की भूमिका को लेकर अक्सर नाराजगी जताने वाले जनता दल (यू) के शरद यादव और राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद यादव शनिवार को भी नहीं चूके। इन दोनों ने स्वर से स्वर मिलाते हुए कहा कि अन्ना का पूरा आंदोलन मीडिया की देन है। जमीन से जुड़े संघर्षशील समाजवादी शरद यादव ने अन्ना की तीन मांगों पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान केवल सहमति भर जताई। उन्होंने कहा कि अन्ना हजारे ईमानदार, संघर्षशील और जूझारू व्यक्ति हैं। मैं उनकी इज्जत करता हूं लेकिन उनसे शिकायत भी है। उन्होंने इन 12 दिनों में कभी भी महात्मा फुले को याद नहीं किया। शरद यादव ने कहा कि अन्ना को उनके आसपास के लोग और मीडिया भ्रमित कर रहा है। उनके इस अभियान को अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए इलैक्ट्रॉनिक मीडिया हवा दे रहा है। स्थिति यह हो गई है कि डिब्बा (टीवी) रातभर बजता रहता है। पूरे देश में कहीं बाढ़ तो कहीं गरीबी से तबाही मची हुई है, लेकिन डिब्बे को फुर्सत नहीं। उन्होंने सरकार से कहा कि इसे आप फुर्सत दिलाइए। आप अन्ना की बातों को मानकर अपनी सहमति डिब्बे वालों को भेज दें ताकि यह बन्द हो सके। उन्होंने कहा कि रामलीला मैदान में रात में जो भी भीड़ दिखती है उसमें ज्यादातर वहां घूमने और पिकनिक मनाने के लिए जा रहे हैं। पहले लोग बोट क्लब जाते थे अब रामलीला मैदान जा रहे हैं और मीडिया इन्हें बार-बार दिखाकर अपनी टीआरपी रेटिंग बढ़ा रहा है। शरद यादव ने कहा कि चार महीने से डिब्बा बज रहा रहा है। इस डिब्बे से बहुत दिक्कतें हैं। ये चैनल अन्ना से इतने ज्यादा प्रभावित हैं कि उन्हें देश में आई बाढ़ तक की खबर दिखाने की जरूरत महसूस नहीं हो रही है। उन्होंने कहा कि वे पिछले 10 साल से किसी चैनल पर नहीं गए। उन्होंने वहां बैठे जतिन प्रसाद और सचिन पायलट से पूछा कि तुम लोग तो बुद्धिमान हो, क्यों जब भी इनके यहां चले जाते हो? उन्होंने एक चैनल विशेष की ओर इशारा करते हुए कहा कि एक डिब्बे में बंगाली बाबू मोशाय तो बात करते हुए इतने आक्रामक हो जाते हैं कि लगता है कि मुंह ही नोच लेंगे और दूसरों से भी नेताओं का मुंह नुचवाते हैं। अब तो अन्ना की बातें मानकर इन चैनलों से हमें भी निजात दिलवाओ। इस पर सदस्यों ने मेजें थपथपाकर उनका उत्साह बढ़ाया।
हम शरद साहब का बहुत आदर करते हैं पर उनकी दलीलों से सहमत नहीं हैं। मीडिया वही करेगा जो जनता चाहेगी और इसी के चलते मीडिया निर्णायक है और यह बात पिछले एक पखवाड़े में साबित भी हो गई है। इस दौरान टीवी देखने वालों के आंकड़े बढ़े हैं। अन्ना के आंदोलन ने सास-बहू या खेल की चैनलों पर अन्य सीरियलों की चैनलों और लोकप्रियता का ग्रॉफ गिराया है। लोग न्यूज चैनलों के सामने चिपके रहे। खेल चैनल 33 प्रतिशत और हिन्दी सिनेमा की चैनलों के चार प्रतिशत दर्शक घटे। इसके विपरीत हिन्दी न्यूज चैनलों के दर्शकों में छह फीसदी वृद्धि हुई। हिन्दी में स्टार न्यूज ने तीन करोड़ दर्शकों का आंकड़ा पार किया तो अंग्रेजी में टाइम्स नाऊ जबरदस्त हिट हुआ। ऐसा सब कुछ इसलिए है क्योंकि जनता जागरूक है, समझदार है और उसे मीडिया में अपनी बात की प्रतिध्वनि चाहिए। जनता का गुस्सा मजबूर कर रहा है कि चैनल और अखबार उसकी सोच पर थिरकें। औरों की बात क्या करें, मैं खुद पिछले एक पखवाड़े से केवल अन्ना के आंदोलन के विभिन्न पहलुओं पर ही अपने विचार दे रहा हूं और किसी विषय पर लिखने का मन ही नहीं। सवाल यह भी है कि अगर देश में लोकतंत्र मजबूत हो रहा है, अगर देश में लोगों को अभिव्यक्ति का भरपूर मौका मिल रहा है तो भला मीडिया अपनी मजबूत भूमिका क्यों नहीं निभाएगा? जो लोग मीडिया पर अंगुली उठा रहे हैं वह कह रहे हैं कि अन्ना का आंदोलन तो मूलत मीडिया का आंदोलन है। ऐसे बुद्धिजीवियों से पूछा जाना चाहिए कि अगर देश में सामाजिक परिवर्तन लाने वाले किसी आंदोलन में मीडिया सकारात्मक भूमिका निभा रही है तो क्या वह लोकतंत्र और देशवासियों के लिए खराब है? क्या इससे लोकतंत्र मजबूत होता है या उनकी जड़ें खोखली हो रही हैं? किसी देश में लोकतंत्र की सफलता की कसौटी यही होती है कि क्या यह दिशा मीडिया भी रिफ्लैक्ट कर रहा है। अगर लोकतंत्र के प्रति मीडिया का रवैया सकारात्मक और सक्रिय भूमिका वाला नहीं है तो ऐसे में लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता। जहां भी मीडिया की सक्रियता है वहीं लोकतंत्र भी जिन्दा है। आखिर तमाम ताकतवर षड्यंत्रों के बावजूद अमेरिका जैसे देश में बार-बार यह मीडिया ही तो है जो उजागर करती है कि किस तरह राष्ट्रपति निक्सन ने वॉटरगेट करवाया, किस तरह अमेरिका की आतंक के खिलाफ लड़ाई में अमेरिकी सैनिक मारे जा रहे हैं, यह मीडिया ही है जिसने ग्वांतानामे में इराक के लोगों से कुछ अमेरिकी सैनिकों ने अमानवीय व्यवहार किया। यह मीडिया ही है जो इंग्लैंड में मीडिया युगल रूपर्ट मर्डोक को बैकफुट पर जाने के लिए ही नहीं, सार्वजनिक रूप से माफी मांगने और दुनिया के एक प्राचीन व लोकप्रिय अखबार को बन्द करा दिया। यह मीडिया ही है जिसने पाकिस्तानी सेना के कुछ अफसरों की अलकायदा से साठगांठ का पर्दाफाश किया और उसकी भारी कीमत भी वहां के पत्रकारों को चुकानी पड़ रही है। इसलिए यह सोचना या कहना कि मीडिया के तौर-तरीके सही नहीं हैं, गलत है। अगर मीडिया सक्रिय नहीं होगा, अगर मीडिया बढ़कर अपनी भूमिका नहीं निभाएगा तो लोकतंत्र मजबूत नहीं होगा। सरकारें व कारपोरेट जगत क्या मीडिया का अपने हितों, स्वार्थों को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल नहीं करता? सबसे आश्चर्यजनक बात तो खुलकर उन सोशल नेटवर्किंग साइटों में देखने को मिली जहां लोग बहुत सहजता से यह टिप्पणी कर रहे थे कि मीडिया तो एंटी इस्टैबलिशमेंट सोच का ही होता है और यह भी कि मीडिया के पास कोई मसाला नहीं इसलिए वह अन्ना हजारे के आंदोलन को हवा दे रहा है, दुनिया में जितने भी परिवर्तन का बड़े आंदोलन हुए हैं, वे आंदोलन आमतौर पर सफल ही तब हुए हैं जब उनमें मीडिया की बढ़चढ़ कर और सक्रिय भूमिका खुलकर सामने आई है। यहां तक कि रूस में सम्पन्न बालशविक क्रांति को भी मीडिया जबरदस्त समर्थन दे रहा था और अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग द्वारा चलाए गए अश्वेत आंदोलन को भी मीडिया ने जबरदस्त समर्थन दिया था तभी अमेरिकी श्वेत इस स्तर तक झुकने को तैयार हुए थे और वह अश्वेतों को भी सम्मान के दो कदम अपने साथ मिलकर चलने पर मजबूर हुए। हाल के दशकों में दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी आंदोलन को भी अगर पूरी दुनिया में समर्थन मिला और दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार रंगभेद के मुद्दे पर झुकने को तैयार हुई तो उसकी बड़ी वजह सिर्प यही थी कि मीडिया नेल्सन मंडेला के रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन के साथ थी। अगर मीडिया का समर्थन मंडेला को नहीं मिला होता तो वह जेल की कोठरी में ही खुद रहे होते। वहां से निकलकर अंधकार में डूबे अफ्रीका के सितारे नायक न बनते। क्या मीडिया के बिना किसी समाज की कम से कम आज की तारीख में कल्पना कर सकते हैं? अगर मीडिया शानदार वायडॉग की भूमिका नहीं निभाएगा तो क्या सरकार निभाएगी? क्या यह सांसद निभाएंगे? सरकारें और राजनेता कभी भी स्वतंत्र मीडिया को बर्दाश्त नहीं करते। अक्सर देखा जाता है कि जब मीडिया किसी सरकार की तारीफ करता है तो वह अच्छा हो जाता है और अगर वह सरकार की कमियों को हाई लाइट करे तो विलेन बन जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अन्ना के आंदोलन को हवा देने का आरोप मीडिया पर लगाया जा रहा है। मीडिया अपना काम कर रहा है जो देशहित में है। जिन देशों में जनवादी, राजनीतिक उभारों और सिविल सोसाइटी को मीडिया का समर्थन नहीं मिलता, वहां लोकतंत्र कभी फलफूल नहीं सकता।

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