Sunday 3 March 2013

बोझ तले दबी अदालतें, केसों की संख्या बढ़ती जा रही है



 Published on 3 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र
तारीखें पड़ती रहती हैं, जिन्दगी गुजरती रहती है और मौत भी आ जाती है अगर नहीं आई तो वह है फैसले की तारीख। कुछ ऐसा ही हाल हमारी न्यायिक व्यवस्था का हो गया है और इस बात की चिन्ता हमारे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अल्तमश कबीर को भी है। चीफ जस्टिस कबीर ने देश के सभी हाई कोर्ट के चीफ जस्ट्सों को पत्र लिखकर निचली अदालतों के जजों की संख्या जल्द से जल्द दोगुनी करने के लिए कहा है। पर्याप्त जजों का न होना, मुकदमों का सालों-साल लम्बित रहना एक बड़ा कारण है। चीफ ने कहा है कि देरी से न्याया या न्याय से वंचित करना समाज के लिए अभिशाप है। जस्टिस कबीर इस बारे में प्रधानमंत्री को भी पत्र लिख चुके हैं। दिल्ली गैंगरेप जैसी जघन्य वारदात के बाद न्यायपालिका ने अपनी ओर से कारगर कदम उठाए हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए विशेष अदालतों का गठन किया गया है। लेकिन वह विशेष अदालतें जजों की मौजूदा क्षमता से ही गठित की गई हैं। इससे शायद ही कोई स्थाई हल निकले। देश की अदालतों में इस समय तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमे लम्बित पड़े हैं। जजों के मौजूदा स्वीकृत पद सिर्प 18 हजार 871 हैं। इनमें से अधीनस्थ अदालतों में जजों की संख्या 17 हजार 945 है। जस्टिस कबीर ने मांग की है कि इस संख्या को डबल किया जाए। निचली अदालतों में जजों की तादाद 36 हजार की जाए। जजों की संख्या बढ़ाने के साथ कोर्ट स्टाफ और भवन आदि मूलभूत सुविधाओं में भी उसी अनुपात में इजाफा होना चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 10 साल बाद भी जज-जनसंख्या अनुपात 13 से बढ़कर सिर्प 15.47 हुआ है। देश की आबादी एक अरब 22 करोड़ हो गई है। फिर भी जजों की तादाद बढ़ाने के लिए कारगर कदम नहीं उठाए गए हैं। अगर हम राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो राजधानी की विभिन्न अदालतों में मुकदमों का बोझ इस कदर हावी है कि न्याय की रफ्तार उल्टा धीमी होती जा रही है। जिला अदालतों में लम्बित मामलों के रिकार्ड पर नजर डालें तो पता चलता है कि राजधानी में छह लाख 72 हजार से अधिक मामले लम्बित हैं। ऐसे में इन सभी मामलों का जल्द निपटारा करना पहाड़ को हिलाने जैसी चुनौती का सामना करने से कम नहीं है। वर्ष 1982 के रेल मंत्री एलएन मिश्रा हत्याकांड में पिछले 30 साल बीत जाने के बावजूद कड़कड़डूमा अदालत में अभी भी सुनवाई चल रही है। अभी तक आरोपियों पर आरोप ही तय किए गए हैं। मामले में बहुत से आरोपी मर चुके हैं और कई गवाहों की भी मौत हो चुकी है। एक अन्य मामला 30 साल पुराना जुआ खेलने का है जिसमें एक 85 वर्षीय बुजुर्ग ने अदालत में महज इसलिए अपना अपराध स्वीकार कर लिया क्योंकि वह वर्षों से चली आ रही कानूनी लड़ाई से तंग आ चुका था। राजधानी की विभिन्न जिला अदालतों में अक्तूबर 2012 तक के लम्बित मामलों की संख्या कम चौंकाने वाली नहीं है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की अदालत में 17501 और अतिरिक्त जिला जज 77703, महानगर दंडाधिकारी 3,09,237, ट्रैफिक कोर्ट 77269, सिविल जज 63389, ईवनिंग कोर्ट 1,16,576, अतिरिक्त रेंट कंट्रोलर्स  10746। इस तरह कुल मामलों की संख्या बनती है 6,72,361। अब जब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने खुद इस समस्या की ओर ध्यान दिलाने का  प्रयास किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि समाधान करने के लिए तुरन्त प्रभावी कदम हर स्तर पर उठाए जाएंगे।


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