Friday 8 March 2013

लोगों की जिन्दगी की मांग कर रहीं इरोम पर आत्महत्या का आरोप?



   Published on 8 March, 2013   
अनिल नरेन्द्र
एक दुराग्रही दौर में सत्याग्रह जैसी अहिंसक प्रतिरोधी कार्रवाई के प्रति लोगों का आस्थावान होना किसी ऐतिहासिक उपलब्धि से कम नहीं है। कानून और परिस्थितियां कई बार विद्रूप प्रस्तुत करती हैं, यह विवादास्पद सशस्त्र बल विशेषाधिकार (अफस्पा) कानून के खिलाफ शांतिपूर्ण तरीके से अनशन कर रही इरोम   शर्मिला चानू के मामले में देखा जा रहा है, जिन्हें गुनहगार जबरन बना दिया गया है। पटियाला हाउस स्थित मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट आकाश जैन की अदालत ने इस 40 वर्षीय इरोम शर्मिला चानू के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 309 (खुदकुशी के प्रयास) के तहत आरोप तय कर दिया है। उन्होंने अदालत में कहा कि मैं लोगों के लिए जिन्दगी की मांग कर रही थी। इसके लिए आमरण अनशन शुरू किया था। अदालत ने शर्मिला से पूछा कि क्या वह अपना जुर्म कबूल करती हैं? जिसके जवाब में शर्मिला ने कहा कि उनका प्रदर्शन अहिंसक था और उन्होंने ऐसी कोई गलती नहीं की जिसके लिए वह अपने आपको गुनहगार माने। उनका इरादा आत्महत्या करने का कतई नहीं था और उनकी नजर में यह कोई अपराध नहीं है। इस पर अदालत ने कहा कि उनके खिलाफ आत्महत्या के प्रयास के इल्जाम में आरोप तय करने के लिए प्रथम दृष्टया पर्याप्त सबूत मौजूद हैं। दरअसल अदालत के पास किसी मुद्दे को कानूनी या गैर कानूनी करार देने के अलावा और कोई वैकल्पिक समाधान नहीं है। वैसे यह न्याय की सीमा नहीं उसकी मर्यादा है, जिसे सीधे शिरोधार्य करना ही सर्वसम्मति प्रक्रिया है। कानून के राज को चलाने के लिए यह सर्वसम्मति कुछ हद तक जरूरी भी है। अलबत्ता, न्यायिक सक्रियता के दौर में अदालत परिसरों में ऐसी कुछ टिप्पणियां भी जरूर आई हैं जो लोकतांत्रिक  विवेकशीलता की लीक को आगे बढ़ाती हैं। अदालत ने अक्तूबर 2006 में जंतर-मंतर पर अनशन की वजह से शर्मिला पर आत्महत्या के प्रयास के आरोप तय किए हैं। बहुत सम्भव है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 309 को जब स्वीकार किया गया होगा तब शायद अंदेशा न रहा हो कि  शांतिपूर्ण जिन्दगी के लिए लोकतांत्रिक अधिकार की मांग करने वाले किसी संघर्ष में भी इसका इस्तेमाल करना पड़ सकता है और यही तो शर्मिला ने भी अदालत से कहा कि उनका संघर्ष मौत के लिए नहीं, जिन्दगी के लिए है। विडम्बना देखिए कि जज की सहानुभूति भी उनके साथ है, मगर उन्हें कहना पड़ा कि अफस्पा पर निर्णय करना एक राजनीतिक प्रक्रिया है। मगर कानून की नजर में उनका अनशन आत्महत्या के प्रयास के दायरे में आता है। यही वजह है कि अफस्पा को हटाने की मांग कर रहीं शर्मिला को बार-बार गिरफ्तार कर लिया जाता है। 2006 में दर्ज किया गया मुकदमा अब सुनवाई के चरण में है। इरोम सेना को ऐसा कोई विशेषाधिकार देने के खिलाफ संघर्ष कर रही हैं, जो निर्दोष नागरिकों के खिलाफ उसे हिंसक कार्रवाई की छूट देता है। उनके इस संघर्ष के पीछे सन 2000 में इम्फाल हवाई अड्डे के पास असम राइफल्स की गोलियों से हुई 10 नागरिकों की मौत की वह घटना है और उनका यह संघर्ष पिछले 12 सालों से चल रहा है। बेहतर तो यह होता कि इरोम के अहिंसक संघर्ष की इस प्राथमिकता को सरकार और पुलिस भी समझती ताकि कम से कम इस महान सत्याग्राही को अदालती कठघरे में खड़े होने की नौबत तो न आती।

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