Published on 20 March, 2013
अनिल नरेन्द्र
दिल्ली की सड़कें रविवार की सुबह से ही बिहारमय हो
गई थीं। जद (यू) के बैनर, झंडे और नीतीश-शरद के कटआउट के साथ बसों समेत तमाम वाहनों
पर लदे और पैदल मार्च करते बिहार के लोगों का एक ही नारा था हमें भीख नहीं अधिकार चाहिए,
विशेष राज्य का दर्जा चाहिए। सभी लोगों के कदम रामलीला मैदान की तरफ बढ़ रहे थे। दोपहर
12 बजे तक रामलीला मैदान खचाखच भर गया। करीब 12ः20 बजे नीतीश कुमार मंच पर पहुंचे।
कुछ देर बाद जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव आए। दिल्ली के रामलीला मैदान में
जद (यू) की अधिकार रैली दरअसल पहचान, महत्वाकांक्षा व सौदेबाजी की रैली रही। यह सब
हुआ बिहार को आगे बढ़ाने के अधिकार की खातिर। हालांकि इसमें नीतीश कुमार का निजी एजेंडा
भी शामिल था। एनडीए के दो ध्रुवों पर खड़े दो मुख्यमंत्रियों ने विकास के अपने-अपने
एजेंडे पेश कर 2014 में नेतृत्व के लिए अपनी-अपनी अघोषित दावेदारी पेश की है। नरेन्द्र
मोदी ने अपने गुजरात के `कम सरकार, ज्यादा सुशासन' के विकास मॉडल को देश के लिए सर्वश्रेष्ठ
विकास मॉडल करार दिया था। 24 घंटे के भीतर ही नीतीश कुमार ने पिछड़े राज्यों को विकास
की मुख्यधारा में लाने वाले समावेशी विकास मॉडल को असली हिन्दुस्तानी मॉडल बताकर मोदी
से बड़ी लकीर खींचने की कोशिश की है। राजनीतिक दांवपेचों में मोदी मॉडल को एनडीए से
बाहर स्वीकारने में हिचक हो सकती है, लेकिन नीतीश ने अधिकांश राज्यों की दुखती रग को
छूकर एनडीए के बाहर भी अपनी पहुंच बनाने की कोशिश की है। दिल्ली के अपने पहले बड़े
मेगा शो में नीतीश कुमार ने खुले विकल्पों के साथ भविष्य के राजनीतिक समीकरण भी साधे।
उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ तो कुछ बोला नहीं लेकिन पिछड़े राज्यों की वकालत कर अपने
लिए नए दोस्त जरूर तलाशने की कोशिश की है। पटना के गांधी मैदान में खास राज्य पर लोगों
का समर्थन हासिल करने के बाद देश व केंद्र को तर्प और ताकत बताना था। इसके लिए स्वाभाविक
पड़ाव दिल्ली ही होना था। अपने सूबे के लिए विशेष राज्य का दर्जा मांगने की आड़ में
परोक्ष रूप से वे दिल्ली की सरकार को चुनौती दे गए। नीतीश ने कहा कि अगर दिल्ली में
बसे पिछड़े इलाकों के तमाम लोग एकजुट हो जाएं तो दिल्ली इन्हीं पिछड़े लोगों की होगी।
दिल्ली में बिहार और पूर्वांचलवासियों की भारी तादाद के बलबूते जनता दल (यू) ने दिल्ली
विधानसभा चुनाव में भी अपनी मजबूत दावेदारी इस बहाने पेश कर दी है। नीतीश ने कहा कि
दिल्ली में रह रहे बिहार के 40 लाख मतदाता दिल्ली की सत्ता में अहम भागीदारी के हकदार
हैं। इसके बलबूते ही उन्होंने इस साल के अन्त में होने वाले विधानसभा चुनाव में जद
(यू) के उम्मीदवारों को उतारने का ऐलान कर
दिया। नरेन्द्र मोदी को लेकर नीतीश कुमार की अपनी असहमति रही है। जिसके कारण कई बार
जद (यू) और भाजपा के रिश्ते टूटने के कगार तक पहुंच गए। लेकिन दोनों ने ही सावधानी
से दोस्ती बरकरार रखी। रविवार की रैली में नीतीश ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया जिससे
लगे कि वह राजग से अलग होंगे। माना जा रहा था कि अधिकार रैली के बाद देश की सियासत
में नए समीकरणों की शुरुआत हो सकती है। यानी जद (यू) पर कांग्रेस डोरे डाल सकती है।
लेकिन कांग्रेसी नेताओं ने नीतीश को विशेष राज्य के मुद्दे पर राजनीति न करने की जिस
अन्दाज में नसीहत दी, उससे नए सियासी समीकरण की बात अभी कोरी अटकल ही मानी जाएगी। हाथ
छोड़ते साथियों से परेशान यूपीए भी दर्जा मिलने पर दोस्त बनाने को तैयार नीतीश का साथ
पाने से चूकने की मूर्खता क्यों करेगा, जो नरेन्द्र मोदी की बढ़ती पूछ के चलते भाजपा
से पीछा छुड़ाने के सही मौके की तलाश में हैं? तो इन दो मौकों का मेल भी हो सकती है
यह रैली लेकिन नीतीश की मंशा पर भी कुछ सवाल हैं। क्या बिहार की अस्मिता और विकास का
ठेकेदार अकेले एक सत्ताधारी दल है? दक्षिण-पश्चिम राज्यों से सीखते हुए सभी दलों को
मंच पर लाकर अच्छी बातें और भी जोरदार तरीके से कहीं जा सकती थीं। यह कठिन था तो भी
उस सहयोगी भाजपा की नुमाइंदगी क्यों नहीं कराई गई, जिसके साथ नीतीश सात साल से सरकार
चला रहे हैं? अस्मिता, विकास और पहचान बनाने का उसका भी साझा जिम्मा है। इसके बिना
नीतीश की कवायद अपने आवरण में राष्ट्रीय स्तर पर मोदी का विकल्प होने की निजी महत्वाकांक्षा
अधिक लगती है।
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