Thursday, 14 March 2013

सुशील शिंदे और शीला दीक्षित के बीच महज सियासी नूराकुश्ती है



 Published on 14 March, 2013 
 अनिल नरेन्द्र
केंद्रीय गृह मंत्रालय और दिल्ली सरकार के बीच चल रहे शीतयुद्ध व खींचतान सोमवार को खुल कर सामने आ गई। हालांकि मेरी नजरों में तो यह एक सियासी नूराकुश्ती है जिसका मकसद जनता को बेवकूफ बनाना है। वह कैसे आगे चल कर बताउंढगा। पहले खबर पर आते हैं। केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने घेषणा की है कि केंद्र सरकार दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार के मातहत करने के लिए तैयार हैं। शर्त सिर्प इतनी है कि इसके लिए मुख्यमंत्री शीला दीक्षित लिखित रूप में मांग करें। केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के अनुसार लिखित में मांग होने की स्थिति में उन्हें ऐसा करने में कोई एतराज नहीं होगा। शिंदे के इस बयान से यह तो साफ होता है कि वह आए दिन शीला दीक्षित की ओर से दिल्ली पुलिस और उसकी कार्यपणाली पर उठाए जाने वाले सवालिया निशानों से खुश नहीं हैं और अंतत तंग आकर उन्होंने शीला जी के ब्लफ को चुनौती दे डाली है। असल में दिल्ली गैंगरेप या बाबा रामदेव के समर्थकों पर रामलीला मैदान में लाठीचार्ज का मामला रहा हो या फिर उसके बाद राजपथ पर शांतिपूर्ण पदर्शन कर रहे छात्रों पर लाठीचार्ज का हो, दिल्ली की मुख्यमंत्री लगातार घूम-फिर कर केंद्रीय गृह मंत्रालय, उपराज्यपाल पर दिल्ली पुलिस की कार्य पणाली को लेकर निशाने लगाती रही हैं। अब मैं आप को बताता हूं कि मेरी नजरों में यह महज एक ड्रामा है, सियासी नूराकुश्ती है। इसके कई कारण हैं। सबसे पहले सुशील कुमार शिंदे को यह मालूम होना चाहिए कि दिल्ली विधानसभा ने एक बार नहीं दो बार विधानसभा से पारित पस्ताव उनके मंत्रालय को भेजा है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए, दिल्ली पुलिस, भूमि संबंधित सभी विभाग दिए जाएं। दिल्ली पुलिस की लिखित मांग पहले ही पेंडिंग है। इन परिस्थितियों में शिंदे साहब को नए लिखित पस्ताव की क्या जरूरत पड़ गई। वह अगर करना चाहें तो लंबित पस्तावों पर ही स्वीकृति दे सकते हैं। दरअसल केन्द्र सरकार कभी भी दिल्ली पुलिस, डीडीए, एनडीएमसी इत्यादि दिल्ली सरकार को नहीं देगी। उसे हमेशा यह डर सताता रहता है कि कल को भाजपा दिल्ली में सरकार बना लेती है तो केंद्र कमजोर हो जाएगा और उसके हाथ से एक बहुत बड़ा हथियार निकल जाएगा। अब बात करते हैं शीला जी की। क्या वाकई ही शीला जी मार्च के महीने में दिल्ली पुलिस अपनी सरकार के अधीन चाहती हैं जबकि 6-7 महीनों में विधानसभा चुनाव हैं। सोच लें, क्योंकि फिर कानून-व्यवस्था में कमी को गृह मंत्रालय पर शिफ्ट करने का बहाना नहीं बचेगा। दरअसल दिल्ली गैंगरेप आरोपी राम सिंह की हत्या की जिम्मेदारी सीधे तिहाड़ जेल अधिकारियों पर आती है और चूंकि तिहाड़ जेल दिल्ली सरकार के अधीन है, इसलिए शीला जी को सूझ नहीं रहा कि वह जनता को क्या जवाब देंड़ आम आदमी को इससे कोई फर्प नहीं पड़ता कि दिल्ली पुलिस किस के अधीन आती है, गृह मंत्रालय के एलजी के या दिल्ली सरकार के वह तो अपने आपको हर लिहाज से दिल्ली में सुरक्षित चाहता है। असल कमी तो पुलिस कार्य पणाली में है जिसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता। पूर्व डीजी पकाश सिंह ने सुपीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने अदालत से कहा था कि पुलिस रिफोर्म को सख्ती से लागू किया जाए। सुपीम कोर्ट ने इसके लिए एक कमेटी भी बनाई पर आज तक पुलिस सुधार नहीं हो सका। कारण कोई उसे करना ही नहीं चाहता। आवश्यकता इस बात की भी है कि दिल्ली पुलिस का ओवरहालिंग होना चाहिए। वीवीआईपी सुरक्षा के लिए अलग बल गठन हो और दिल्ली पुलिस के हजारों जवानों को इस ड्यूटी से हटाकर पब्लिक सेवा में लगाया जाए। पुलिस कर्मियों के वर्किंग में सुधार हो, सुविधाएं बढ़ाई जाएं और कमेटी द्वारा सुझावों पर विचार किया जाए। यह भी हो सकता है कि एक चरणबद्ध तरीके से दिल्ली पुलिस दिल्ली सरकार को दी जाए। शुरुआत ट्रैफिक पुलिस से हो सकती है। ट्रैफिक पुलिस का किसी भी सरकार के अधीन रहने से किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। बेहतर हो कि सुशील कुमार शिंदे और शीला दीक्षित इस सियासी नूराकुश्ती को छोड़कर दिल्ली की जनता की भलाई के लिए उनकी सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम और प्लान तैयार करें। इस नूराकुश्ती को जनता भली-भांति समझती है।

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