Thursday 14 August 2014

न्यायपालिका की स्वायत्तता भी बनी रहे और संविधान के अनुरूप व्यवस्था हो

पिछले कुछ दिनों से उच्च न्यायपालिका के जजों की नियुक्ति को लेकर एक बहस छिड़ी हुई है। सरकार चाहती है कि जजों की नियुक्ति के लिए जो मौजूदा व्यवस्था है जिसे कालेजियम व्यवस्था कहा जाता है उसमें कुछ बदलाव किए जाएं। सरकार की मंशा है कि मौजूदा व्यवस्था को बदलकर एक न्यायिक आयोग के जरिए यह नियुक्तियां की जाएं। चयन करने वालों में सिर्फ जज न हों बल्कि न्यायपालिका के बाहर से भी पतिष्ठित लोगों को रखा जाए। अभी तक जो व्यवस्था है यानी जिसे कालेजियम व्यवस्था कहा जाता है, में न्यायपालिका के शीर्ष पदों यानी सुपीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति व स्थानांतरण का निर्धारण करने वाला एक फोरम है। यह पकिया 1998 से लागू है। सरकार ने कालेजियम को बदलने के लिए कानून में संशोधन करने का पस्ताव भी संसद में पेश कर दिया है। कानून मंत्री रविशंकर पसाद ने सोमवार को कालेजियम सिस्टम समाप्त कर नियुक्ति की नई व्यवस्था लागू करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति विधेयक लोकसभा में पेश किया। उन्होंने आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक भी पेश किया। पसाद ने विधेयक पर आम राय बनाने के लिए सभी दलों को पत्र भी लिखे हैं। इस संशोधन विधेयक के अनुसार भारत के पधान न्यायाधीश एनजेएसी के पमुख होंगे। न्यायपालिका का पतिनिधित्व उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा किया जाएगा। दो जानी मानी हस्तियां तथा विधि मंत्री पस्तावित इकाई के अन्य सदस्य होंगे। दो जानी-मानी हस्तियों का चुनाव भारत के पधान न्यायाधीश, पधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता या निचले सदन में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता के कालेजियम द्वारा किया जाएगा। यह विचार मौजूदा मोदी सरकार के साथ नहीं आया है, संपग सरकार भी कुछ ऐसा ही इरादा रखती थी और उसने अपनी ओर से पहल भी की थी जो अपेक्षित नतीजे तक नहीं पहुंच पाई। इस बदलाव के पस्ताव का सुपीम कोर्ट के मौजूदा चीफ जस्टिस आरएस लोढ़ा ने विरोध किया है। उनका कहना है कि मौजूदा कालेजियम व्यवस्था अपनी तरह से काम कर रही है और इस पर सवाल उठाने से लोगों का न्यायपालिका पर से विश्वास उठ जाएगा। चीफ जस्टिस लोढ़ा ने यह कहकर बहस को और गति देने का ही काम किया है कि न्यायपालिका को बदनाम करने के लिए भ्रमित करने वाला अभियान चलाया जा रहा है। यह कहना कठिन है कि उनका इशारा किसकी ओर है लेकिन शायद वह उन खुलासों के संदर्भ में अपनी बात कह रहे थे जो सुपीम कोर्ट के ही पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू की ओर से किया जा रहा है। पिछले कुछ दिनों से मार्कंडेय काटजू एक के बाद एक ऐसे खुलासे कर रहे हैं जो न्यायपालिका की साख पर असर डालने वाले हैं। उनकी मानें तो सुपीम कोर्ट के कई पूर्व न्यायाधीशों ने भ्रष्ट छवि अथवा कथित तौर पर भ्रष्टाचार में लिप्त जजों के खिलाफ वैसी कार्रवाई नहीं की जैसी अपेक्षित थी। हालांकि उनके खुलासों पर यह सवाल जरूर उठेगा कि आखिर वह इतने दिनों बाद पुराने पसंगों को क्यों कुरेद रहे हैं लेकिन मुश्किल यह है कि उनके आरोपों को निराधार भी नहीं ठहराया जा सकता। यह भी सही है कि कई न्यायविद नई पस्तावित व्यवस्था को सही नहीं मान रहे हैं। उनका कहना है कि मौजूदा कालेजियम व्यवस्था संविधान में जजों की नियुक्ति को लेकर बनाई गई व्यवस्था है। उनका तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 के मुताबिक उच्च न्यायपालिकाओं में जजों की नियुक्ति व भारत के पधान न्यायाधीश, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों की सलाह पर राष्ट्रपति करेंगे, यानी सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति नियुक्त करेंगे। इससे जाहिर है कि नियुक्ति करने का अधिकार सरकार का है और न्यायाधीशगण उसमें सलाह दे सकते हैं। दूसरी ओर अनेक न्यायविद नई पस्तावित व्यवस्था को सही मान रहे हैं। इसके पीछे कुछ ठोस आधार भी हैं। एक आधार तो मार्कंडेय काटजू ही उपलब्ध करा रहे हैं। इसके अतिरिक्त यह भी सामने आ चुका है कि अतीत में कई योग्य न्यायाधीशों का सुपीम कोर्ट में चयन नहीं हो सका और कोई नहीं जानता कि ऐसा क्यों हुआ? मुख्य न्यायाधीश का नजरिया कुछ भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कालेजियम व्यवस्था की खामियां सामने आ चुकी हैं। इसके स्थान पर एक आयोग के गठन की जो पहल की जा रही है उसके संदर्भ में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में सरकार की भूमिका ज्यादा पभावी न होने पाए। यदि ऐसा होता है तो एक खामी से दूसरी खामी की ओर बढ़ने वाली बात होगी। जब हम तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं की पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग करते हैं तो न्यायपालिका भी उनमें शामिल है। जरूरी यह है कि न्यायपालिका की स्वायत्तता भी बनी रहे और संविधान के अनुसार व्यवस्था भी हो।

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