Friday 1 August 2014

12 साल से अपमानित करने वाला अमेरिका नमो-नमो कर रहा है

नरेन्द्र मोदी को 12 साल से बेइज्जत करने वाला अमेरिका अब उनकी तारीफों के पुल बांध रहा है। 12 साल से वीजा तक देने से इंकार करने वाला अमेरिका अपने स्टैंड बदलने पर मजबूर हुआ है तो इसके पीछे कई छिपे कारण हैं। अमेरिका ने न केवल मोदी सरकार के साथ ऐतिहासिक भागीदारी की इच्छा जाहिर की है बल्कि उसके नजरिये की भी सराहना की है। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने भारत यात्रा से ठीक पहले जिस तरह से मोदी सरकार की तारीफ की है और उसके साथ दीर्घकालीन सहयोग के संकेत दिए हैं उससे दोनों देशों के बदलते रिश्तों की था ली जा सकती है। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में असैन्य परमाणु समझौते के ऐलान के समय दोनों देशों का जो रिश्ता परवान चढ़ा था, उसमें पिछले कुछ वर्षों में ठंडापन आ गया था। अमेरिका की ओर से दिखाया जा रहा उत्साह इसलिए भी ध्यान खींचता है क्योंकि गुजरात दंगों के बाद अमेरिका के दरवाजे नरेन्द्र मोदी के लिए बंद हो गए थे। लोकसभा चुनाव के नतीजे आने से पहले तक वह मोदी को वीजा देने तक को तैयार नहीं था। हैरान होने की जरूरत नहीं है कि जिस अमेरिका को मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीतियां सांप्रदायिकता को बढ़ाने वाली लग रही थीं उसे अब मोदी सरकार की कथित `भगवा क्रांति' में ऊर्जा का  प्रतीक नजर आने लगा है। भारतीय विदेश मंत्री के साथ पांचवीं सालाना रणनीतिक वार्ता के लिए भारत आ रहे जॉन कैरी ने मोदी सरकार की `सबका साथ सबका विकास' नीति का समर्थन किया है। दरअसल अमेरिकन कम्पनियों को भारतीय के बाजार को कैप्चर करने की असीमित संभावनाएं दिख रही हैं। यह कहने की जरूरत नहीं कि अमेरिका हमेशा सबसे पहले अपने आर्थिक हितों को देखता है। भारत का विशाल उपभोक्ता बाजार, रक्षा, व्यापार या ऊर्जा क्षेत्र में भी अमेरिका की नजर है। अमेरिका की एक बड़ी चिन्ता भारत के परमाणु जवाबदेही कानून की है जिसकी वजह से अमेरिकी कम्पनियां भारत में परमाणु बिजली घर खोलने की दिशा में आगे नहीं बढ़ सकी हैं। रास्ता साफ हुआ तो अमेरिका कुल 16 हजार मेगावॉट के परमाणु बिजली घर लगाने का मौका हासिल करना चाहेगा। इसके लिए अमेरिकी परमाणु कम्पनियों वेस्टिंग हाउस और जनरल इलेक्ट्रिक को दो लाख करोड़ रुपए के निवेश के ठेके दांव पर हैं। रक्षा क्षेत्र में भी भारत ने अमेरिका से पिछले एक दशक में 10 अरब डॉलर से अधिक के सैनिक साजो-सामान खरीदे हैं, लेकिन इससे भी अधिक लागत के हथियारों के ऑर्डर पर भारत ने फैसला नहीं लिया है। कैरी अपने साथ अमेरिका के वाणिज्य मंत्री पेनी प्रित्जकर को लाए हैं। कैरी का एक उद्देश्य यह भी है कि मोदी की सितम्बर में होने वाली प्रस्तावित अमेरिका यात्रा के लिए बेहतर माहौल तैयार करना। जॉन कैरी की यात्रा से बहुत कुछ हासिल होने की ज्यादा उम्मीद नहीं है। अमेरिका नई ताकत के तौर पर चीन के उभार को संतुलित करने के लिए भारत के साथ गहरे रिश्ते चाहता है, लेकिन भारत की नई सरकार की सुधारवादी छवि के बाद भी जानकर इस रिश्ते में फिलहाल बहुत प्रगति की उम्मीद नहीं कर रहे। फिर भारत को यह याद रखना होगा कि अमेरिका का साफ झुकाव पाकिस्तान की ओर रहा है। कारण है कि अमेरिका को अफगानिस्तान से भागना है और इसके लिए उसे पाकिस्तान की ज्यादा जरूरत है। अमेरिका के  बदले रुख के बावजूद यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका और भारत के बीच बौद्धिक सम्पदा कानून और सब्सिडी के मुद्दे पर मतभेद हैं। यह ऐसे मुद्दे हैं जिनमें भारत के हित जुड़े हुए हैं और जिनसे समझौता नहीं किया जा सकता। मतभेदों के बावजूद अमेरिका के बदले रुख का स्वागत है पर उम्मीद की जाती है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार ने जिस तरह अमेरिका के समक्ष घुटने टेके थे, मोदी भारत के स्वाभिमान से समझौता नहीं करेंगे।

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