Saturday 2 August 2014

क्या लालू और नीतीश का गठबंधन बिहार में रंग दिखा पाएगा?

बिहार में जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस का साथ आना जहां एक मजबूरी है वहीं यह ऐसा सियासी समीकरण बनने की शुरुआत है जो आने वाले दिनों में राज्य और राज्य के बाहर नरेन्द्र मोदी और भाजपा के लिए चुनौती बनकर उभर रहा है। जाहिर-सी बात है कि नरेन्द्र मोदी फैक्टर से परेशान इन तीनों दलों ने एक साझा मोर्चा बनाने का प्रयास किया है। यूं तो इन तालमेल की नींव तब पड़ गई थी जब मई में नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद राजद ने नीतीश के उत्तराधिकारी जीतन राय मांझी की सरकार को समर्थन देने का फैसला किया था, इसलिए अगले महीने होने वाले विधानसभा उपचुनावों में जद (यू), राजद और कांग्रेस के गठबंधन की खबर कोई चौंकाने वाली नहीं है। जद (यू) का भाजपा से गठबंधन जब टूटा तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान नीतीश और उसकी पार्टी जद (यू) को ही हुआ। लोकसभा चुनावों में उसका प्रदर्शन खराब रहा और राज्य में उसकी सरकार भी गिरने की कगार पर आ गई। लालू प्रसाद यादव के राजद का प्रदर्शन भी लोकसभा चुनावों में कुछ अच्छा नहीं रहा और कांग्रेस भी कोई कमाल नहीं कर पाई। इन चुनावों ने राज्य में भाजपा की बढ़ती ताकत को दिखा दिया और यह भी साफ हो गया कि प्रतिद्वंद्वी पार्टियां अलग-अलग रहती हैं तो उन्हें नुकसान होगा। खासकर नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने इस बात को समझकर दोस्ती का हाथ एक-दूसरे की ओर बढ़ाया और जाहिर है कि कांग्रेस को उनके साथ होना ही था। उधर माकपा बिहार विधानसभा की 10 सीटों पर आगामी 21 अगस्त को होने वाले उपचुनाव में माकपा, भाकपा और माले भी मिलकर लड़ेंगी। नरेन्द्र मोदी फैक्टर के चलते लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एकजुट तो हो गए हैं लेकिन बिहार के जातीय समीकरण के कारण इस गठजोड़ को वोट बैंक का फायदा होना मुश्किल ही लगता है। दूसरी ओर मोदी का केज बनाए रखने के लिए भाजपा ने भी अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। लोकसभा चुनाव में जद (यू) का लगभग सफाया ही हो गया था और लालू के हाथ भी महज चार सीटें ही लगी थीं। राज्यसभा सीट जीतने के लिए नीतीश अपने पुराने मित्र लालू यादव की शरण में गए थे। उपचुनाव और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए दोनों ने मोदी के भय से समझौता तो कर लिया है लेकिन इस गठबंधन की राह आसान नहीं दिख रही है। बिहार में यादव और महादलित एक-दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते। यादव लालू के साथ है तो महादलित नीतीश के साथ। हालांकि लोकसभा चुनावों में  बिहार की जनता ने जाति से ऊपर उठकर भाजपा को वोट डाला था, लेकिन विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दे, जातीय समीकरण आदि महत्व रखते हैं। बिहार का जातीय समीकरण हमेशा से एक-दूसरे के खिलाफ कट्टर रहा है। अगड़े और पिछड़ों के बीच गहरी खाई है। यही वजह है कि बिहार में यादव और महादलित भी एकजुट नहीं हो सकते। वह एक-दूसरे के खिलाफ वोट डालते रहे हैं। बिहार में करीब 6-9 प्रतिशत यादव और 12 प्रतिशत महादलित हैं। मुसलमान भी 12 प्रतिशत से अधिक हैं। फिर भी गठबंधन ने पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक वोटों के एकजुट होने की जो जमीन तैयार की है वह भाजपा के लिए एक चुनौती जरूर है। अगर तीन पार्टियों का यह गठबंधन कामयाब रहा तो पांच राज्यों के होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले मोदी का जादू टूटने का वह एक और संदेश हो सकता है। अगर यह गठबंधन उपचुनावों में बाजी मार लेता है तो लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार व कांग्रेस अगले साल विधानसभा चुनाव भी मिलकर लड़ने का फैसला कर सकते हैं पर 10 सीटों के उपचुनाव में तालमेल करना मुश्किल नहीं रहा होगा जबकि पूरे राज्य के लिए होने वाले चुनावों में सीटों का बंटवारा इतना आसान नहीं होगा और सहमति बनाना चुनौती हो सकती है पर फिलहाल इन्होंने जो मोर्चाबंदी की है वह मोदी और भाजपा के लिए अकेले बिहार में ही नहीं कुछ हद तक देश की राजनीति पर भी असर डालने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।

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