Wednesday 2 July 2014

कांग्रेस की पंथनिरपेक्षता?

लोकसभा चुनावों में पार्टी की करारी हार के कारणों की पड़ताल के लिए कांग्रेस की गठित समिति के अध्यक्ष व वरिष्ठ नेता एके एंटोनी ने धर्मनिरपेक्षता के मसले पर पार्टी की नीति पर सवालिया निशान लगाकर अंतत ऐसा मुद्दा उठाया है जिस पर पार्टी को गंभीरता से विचार करना चाहिए। एंटनी ने कहा कि समाज के एक वर्ग को ऐसा लगा कि कांग्रेस केवल एक खास समुदाय को ही आगे बढ़ाने का काम करती है। एक हफ्ते में देश के करीब आधे राज्यों में हारे हुए उम्मीदवारों और दूसरे बड़े नेताओं के साथ मैराथन मंथन करने पर समिति ने पाया है कि महंगाई और भ्रष्टाचार ने भले ही कांग्रेस की नैया डुबाई लेकिन उसे रसातल में ले जाने तथा विरोधी नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी को ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंचाने की बड़ी वजह कांग्रेस की मुस्लिम परस्ती रही। महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस नेताओं की यह राय ऐसे समय आई है जब पार्टी महाराष्ट्र में मुसलमानों को आरक्षण देने की तैयारी कर रही है। चुनाव के दौरान और उससे पहले कांग्रेसियों के एक-दूसरे से आगे निकलने के चक्कर में जिस तरह अंधाधुंध तरीके से मुस्लिम कार्ड खेला उस पर देश के मुसलमान तो भरोसा नहीं कर सके लेकिन विपक्ष में मोदी जैसे सशक्त विकल्प ने हिन्दुओं को भाजपा के पक्ष में अवश्य लामबंद कर दिया और इस ध्रुवीकरण को जमीनी स्तर तक ले जाने के लिए मोदी के पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा कुशल तंत्र पहले से ही मौजूद था। उन उम्मीदवारों ने जो चुनाव हार गए थे ने मुस्लिम परस्ती के कई कारण गिनाए जो चुनाव से पहले पार्टी ने अपनाए। उदाहरण के तौर पर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का यह कहना कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है, सलमान खुर्शीद का 9 फीसदी आरक्षण, कपिल सिब्बल चुनावों के मझधार में शाही इमाम से मिलकर कांग्रेस के पक्ष में फतवा जारी करवाना, दिग्विजय सिंह जैसे राहुल गांधी के नजदीकी महासचिव ओसामा बिन लादेन को ओसामा जी तथा बाबा रामदेव को ठग कहना पार्टी को चुनाव में  बहुत भारी पड़ा। यह तमाम बातें उन उम्मीदवारों ने एंटनी कमेटी को बताई हैं जो अपना चुनाव हारने के बाद दिल्ली में बैठकर मंथन करने आए हैं। हालांकि राज्यवार तरीके से शुरू हुआ यह सिलसिला अभी थमा नहीं है और अभी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात और राजस्थान जैसे महत्वपूर्ण राज्यों से फीड बैक मिलना बाकी है। दुर्भाग्य या दूसरे दलों को यह समझने की भी जरूरत है कि इस तरह की एकतरफा मुस्लिम परस्ती उनको इतना चुनावी फायदा नहीं पहुंचा सकती जितना वह समझ रहे हैं। चाहे वह तृणमूल कांग्रेस हो, आरजेडी हो, समाजवादी पार्टी हो या नीतीश कुमार की जद (यू) हो सभी ने पंथनिरपेक्षता की मनमानी व्याख्या करनी शुरू कर दी है  और उसे तुष्टिकरण का पर्याय बना दिया। इसका रिएक्शन हुआ इन दलों द्वारा बहुसंख्यकों की भावनाओं का निरादर किया जाना। बेहतर हो कि कांग्रेस और उसके सरीखे राजनीतिक दल यह देखें कि भारत के संविधान निर्माताओं ने पंथनिरपेक्षता का इस्तेमाल करने की जरूरत क्यों नहीं समझी थी? यह एक विजातीय शब्द है और भारत को उसे अपनाने की जरूरत इसलिए नहीं थी क्योंकि वह पहले से ही वसुदैव कुटुम्बकम और सर्वधर्म समभाव के प्रति समर्पित थे। कांग्रेस और उसके समान विचार वाले अवसरवादी सियासी दलों को यह साधारण-सी बात समझनी चाहिए कि अगर वह पंथनिरपेक्षता के बहाने किसी एक समुदाय को गोलबंद करेंगे तो दूसरे समुदाय में उसकी प्रतिक्रिया अवश्य होगी। एंटोनी के बयान का महत्व इसलिए भी है क्योंकि वह न केवल सोनिया गांधी के विश्वासपात्र हैं बल्कि लोकसभा चुनाव में पार्टी की पराजय के कारणों का पता लगाने वाली कमेटी के प्रमुख भी हैं। देखना अब यह है कि क्या कांग्रेस नेतृत्व अपनी तुष्टिकरण की नीति को बदलेगा?

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